Saturday 27 April 2013

The Juggler...

बाजीगर की नजर पड़ी नए तमाशों पर.....
उत्तराखंड में पिछले कई दिन से स्थानीय निकायों के चुनावों का शोर मचा हुआ था। जो नेता बार-बार संपर्क करने के बावजूद भी नहीं मिल पाते थे, वे भी जनता की चौखट पर दस्तख दे रहे थे। जनता के सुख-दुख के सच्चे साथी साबित करने के लिए उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। जो नेता चार पहिये की गाड़ी से नीचे नहीं उतरते थे, वे भी गली-गली घूमकर अपना कई किलो वजन गिरा चुके हैं। रविवार को मतदान के साथ ही यह शोर भी थम गया और मतगणना तक नेताओं के दिल की धुकधुकी को बढा गया। चुनाव के नतीजे के बाद फिर स्थिति वही हो जानी है, जो पहले की थी। यानी पांच साल तक नेताजी के चक्कर मारते रहो और वे सत्ता के मद में चूर होते रहेंगे। सचमुच ये नेता तो एक मदारी या फिर बाजीगर हैं। पूरे पांच साल जनता को अपने इशारों पर नचाते हैं। विरोध के नाम पर जनता कसमसाकर मायूस हो जाती है। जब नेता बदलने का मौका मिलता है, तब फिर उसी नेता को मौका देती है, जो शोषण की पराकाष्ठा को पार करने में माहिर होता है।
आखिर क्यों होते हैं ये चुनाव। क्यों चुनते हैं हम अपना प्रतिनिधि। क्यों हम ऐसे व्यक्ति पर विश्वास करते हैं कि वह हमारे साथ ही मोहल्ले, शहर की कायाकल्प बदल देगा। क्यों हम विकास की बागडोर उसके हाथों में सौंप देते हैं। क्यों जनता अपना फर्ज भूल जाती है। क्यों हम उसके हर कार्यों पर नजर नहीं रखते। क्यों नहीं हम उसकी गलतियों से लोगों को अवगत कराकर एक ऐसा माहौल बनाने का प्रयास करते हैं कि वह गलतियों को सुधारे और उससे सबक ले। साथ ही एक स्वच्छ वातावरण बनाने का प्रयास करे। हम लाचार बने रहते हैं। क्योंकि हमारी मानसिकता गुलामी की हो गई है। ये गुलामी आज से नहीं है। न ही अंग्रेजों के जमाने से। ये गुलामी तो तब से है जब से मदारी का चलन इस दुनियां में आया और उसने बंदरों को नचाना शुरू किया।
कहावत है कि एक बरगद के पेड़ पर एक बंदर रहता था। उसकी मित्रता एक व्यक्ति से हो गई। वह व्यक्ति काफी गरीब था। दिन भर मेहनत करता और किसी तरह अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाता। बची रोटी को वह बंदर को भी खिलाना नहीं भूलता। एक दिन बंदर का मनुष्य मित्र काफी उदास था। उसने बताया कि पहले सूखे से फसल नष्ट हो गई। फिर सारी कसर बाढ़ ने पूरी कर दी। अब उसके समक्ष खाने के लिए कोई साधन नहीं बचा है। इस पर बंदर ने व्यक्ति को कहा कि मैं तु्म्हारे कुछ काम आ सकता हूं। तुम अच्छा कमा सकते हो। तुम्हारे साथ मैं भी मेहनत करते अपना जीवन सुधार सकता हूं। यदि तुम मेरा सुझाव मानो। बंदर ने व्यक्ति से बताया कि उसे साथ लेकर वह गली-गली घूमे। वह खेल दिखाएगा। लोग खुश होंगे। कुछ पैसा व खाद्यान्न लोग ईनाम के रूप में देंगे। इसे दोनों आधा-आधा बांट लेंगे। दोनों का ही इससे आसानी से गुजार चल जाएगा।
व्यक्ति को अपने बंदर मित्र का सुझाव पसंद आया और दोनों ने इस पर अमल भी कर दिया। दोनों गली-गली गली घूमते और बंदर करतब दिखाता। व्यक्ति का नाम मदारी पड़ गया और बंदर-बंदर ही रहा। जैसे-जैसे आय बढती रही मदारी का स्वार्थ बढ़ने लगा। उसे लगा कि क्यों वह बंदर को कमाई का आधा हिस्सा दे। वह पूरा ही क्यों न ले। ऐसे में पहले उसने बंदर के गले में रस्की बांध दी। फिर उसे लेकर करतब दिखाने लगा। मदारी के हाथ में डंडा भी आ गया। यानी वह सत्ता का मालिक हो गया। बंदर को उसने भरपेट खाना देना भी बंद कर दिया। बंदर में सिर्फ रही छटपटाहट। साथ ही शोषण से बाहर निकलने की ताकत उसमें खत्म हो गई।
ठीक इसी तरह हम जनता रूपी बंदर भी मदारी व बाजीगरों को ही अपने देश का भविष्य सौंप रहे हैं। वह देश का भला नहीं, बल्कि अपना भला चाहता है। इस बाजीगर की नजर हर दिन नए तमाशों पर पड़ती है। वह बिखरी लाशों पर भी अपने वोट तलाशने में कोई गुरेज नहीं करता है। इसके विपरीत बंदर सिर्फ बंदर ही रहता है। मदारी अपनी झोली निरंतर भरता रहता है। वहीं बंदर की झोली खाली रहती है। वह गले-गले कर्ज में डूबता चला जा रहा है। पांच साल बाद उसे उम्मीद बंधती है कि मदारी को बदलकर ही उसका भला हो सकता है, लेकिन यहां भी वह धोखा खा जाता है। कारण पूरे पांच साल तो बंदर नाचता है, लेकिन चुनाव के समय मदारी ही नाचने लगते हैं। वह जनता के द्वार जाकर अपना पिटारा खोलते हैं। इन पिटारों से आश्वासन की गोली, शिक्षा की गोली, विकास की गोली, सभी के कायापलट की गोली निकलती है। बंदरों से चूसी गई अपनी कमाई का मामूली हिस्सा वह अपने प्रचार में खर्च करता है। उसकी आदत को सभी जानते हैं कि वह अभी तो नाच रहा है, लेकिन जीतने के बाद वह सभी को नचाता फिरेगा। वहीं, बंदर सिर्फ अपनी भड़ास निकालने के लिए बोलता ही रहेगा, लेकिन कुछ कर नहीं पाएगा।
भानु बंगवाल 

Friday 26 April 2013

Call girl ....

कॉल गर्ल....
विजय ने फेसबुक में नया-नया एकाउंट खोला। हर चेहरे को देखकर वह फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता। कहीं से मंजूर हो जाती और कहीं से नहीं। ऐसे में वह धीरे-धीरे अपने मित्रों की संख्या बढ़ा रहा था। दिन भर ड्यूटी करने के बाद जब थकहार कर वह घर आता तो करीब एक घंटा नेट खोलकर फेसबुक में उलझा देखता। यानी दोस्तों की फोटो, उस पर कमेंट करना या फिर कुछ पंक्तियां लिखने की उसकी आदत सी पड़ गई। उसके लिए फेसबुक मात्र टाइम पास का एक साधन था। घर में विजय की पत्नी भी थी और दो छोटे-छोटे बेटे भी। परिवार में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। चेट से विजय ज्यादा परहेज करता, क्योंकि चेट में कई बार ऐसे मैसेज आते कि जो उसे अटपटे लगते। विजय को धीरे-धीरे यह अहसास होने लगा कि फेसबुक में भी कई चेहरे ऐसे हैं जिनमें दूसरे चेहरा छिपा है। यानी लड़की के प्रोफाइल में लड़का मजाक करता है। ऐसे में वह मैसेज पर ज्यादा ध्यान नहीं देता।
कई दिन से उसे नैना नाम की एक लड़की का मैसेज चेट पर आता रहता था। इसमें हेलो, हाय, कैसे हो, कहां हो, आदि आदि लिखा होता और विजय ऐसे मैसेज का कोई जवाब नहीं देता। एक दिन विजय छुट्टी के दिन नेट पर कुछ ज्यादा ही बैठ गया। जब उसने फेसबुक एकाउंट खोला तो देखा कि नैना के अलग-अलग दिनों के कई मैसेज थे। इसमें ताजा मैसेज में लिखा था -कैसे हो। विजय ने पहली बार उसमें लिख मारा ठीक हूं। इस पर नैना ने कहा कि मैने आपका प्रोफाइल देखा है और मैं आपसे बात करना चाहती हूं। विजय ने कहा कि चेट पर ही बात करो। इस पर उधर से जवाब आया कि अपना मोबाइल नंबर दो। विजय ने संकुचाते हुए नंबर दे दिया। इसके बाद नैना नाम की उस लड़की ने विजय को अपना नंबर भेजा और कहा कि रात को फुर्सत में बात करेंगे। फिर उसी दिन रात को नैना का विजय को मैसेज आया कि फोन से बात करो। विजय के समझ नहीं आया कि अनजान लड़की से वह क्या बात करे। उसने टालने को कह दिया कि आपको यदि जरूरत है तो आप ही बात करो। इस पर लड़की ने कहा कि यदि आपके पास रिचार्ज के पैसे नहीं हैं तो मैं दे दूंगी। विजय इस बात पर ही अड़ा रहा कि पहले वही बात करे।
इसके बाद विजय नेट बंद कर घर के अन्य काम में जुट गया। शाम को अचानक एक अनजान नंबर के काल आई। यही थी वो काल गर्ल। विजय ने कहा कौन। जवाब मिला पहचाने नहीं। विजय ने कहा कि कैसे पहचानूंगा, जब पहले कभी बात नहीं की। जवाब मिला मैं नैना हूं। नैना का नाम सुनते ही विजय घबरा गया। उसे लगा कि कोई लड़की की आवाज में उससे मजाक कर रहा है। लड़की दबी आबाज से बोल रही थी। विजय ने फोन में ज्यादा बात नहीं की। फिर विजय ने अपना शक पुख्ता करने के लिए उस नंबर पर दूसरे फोन से काल की। वहां से वही आवाज सुनाई दी। इस पर विजय को लगा कि वह बाकई एक लड़की है। खैर वह उससे कुछ देर बतियाता रहा। उसके बारे में जानकारी लेने की कोशिश करता रहा।
इसके बाद तो दोनों नेट पर चेट के माध्यम से खूब बातें करने लगे। जब मन करता तो फोन पर भी बात करते। इस दौरान विजय को पता ही नहीं चला कि उसे उस लड़की का नशा होता जा रहा है। वह उसके जाल में फंसता जा रहा था। जिसे वह टाइम पास का साधन समझ रहा था, उसे अब वही अच्छी लगने लगी। फिर कभी विजय को शक होता कि हो ना हो यह लड़की नहीं लड़का है। वह चेट पर उससे यह संदेश भी देता कि उसे यह शक है। इस पर वहां से जवाब आता कि मै कैसे विश्वासन दिलाऊं। फिर एक दिन उसने कहा कि कभी फोटो दिखा दूंगी। तब विश्वास आ जाएगा। पर कभी फोटो नहीं दिखाई। 
इस अनजान युवती ने विजय को बताया कि वह एमए की छात्रा है। जो चित्रकार है। घर से पढ़ाई के लिए बाहर रह रही है। जब समय नहीं कटता और अकेलापन महसूस होता है, तो उसने विजय को दोस्त बनाकर एक सहारा तलाश लिया। विजय अपने इस शक को कि वह लड़का है, पुख्ता करने के लिए उसे हंसाने को लतीफे भी फोन से सुनाता। उसे अंदाजा था कि ज्यादा मजेदार लतीफे सुनने से उधर से सुनने वाला अपनी वास्तविक हंसी हंसेगा। उसने सुनाए भी, लेकिन हंसी की आवाज वहीं लड़की की ही निकली, जो उसे बनावटी ही लगती थी। वैसे तो वह यह भी जानता था  कि मोबाइल ही ऐसे आ रहे हैं, जिसमें आवाज तक बदल सकते हैं। फिर उसमें प्रेम का भूत चढ़ता और वह सोचता नहीं वह वास्तव में लडकी है। उसके साथ वह क्यूं ऐसा मजाक करेगी। प्यार, मोहब्बत की बात, छोटी बड़ी बातें दोनों एक दूसरे को बताने लगे। वैसे ज्यादा विजय ही बोलता, वह सुनती ही रहती।
विजय ने महसूस किया कि जब भी वह उक्त लड़की को फोन मिलता है, उसका फोन इंगेज ही रहता है। इससे उसे यह भी लगता कि वह उससे फ्राड कर रही है। उससे ही नहीं एक साथ शायद कई युवाओं को उसने अपने जाल में फंसा रखा है। वह कहती कि 24 घंटे वह उससे बात करने को तैयार है। जब भी बात करने का मन करे, कॉल कर लेना। अक्सर बातें रात को ही होती थी। फोन कटते ही उसका फोन व्यस्त हो जाता। एक सुबह विजय ने यह जानने को लड़की को फोन मिलाया कि वह उठ गई या नहीं, लेकिन पलटकर मर्दानी आबाज में गालियां मिली। विजय हक्काबक्का रह गया। फिर उसे विश्वास हो गया कि वहां से लड़की नहीं लड़का है, जो उसे बेवकूफ बना रहा है। जो सुबह नींद टूटने पर अपनी असलियत में आ गया। जब विजय ने ऐसी लड़की से तौबा कर ली। प्रेम का भूत उसके सिर से उतर गया। चेट पर जब युवती आई तो उसने उससे उसकी असलियत जानने का प्रयास किया। हालांकि युवती ने विजय को विश्वास दिलाती रही कि उसका मोबाइल बंद था, लेकिन जब विजय ने उसे लड़की होने का विश्वास दिलाने को कहा तो युवती ने विजय को अपनी फ्रेंडलिस्ट से हटा दिया। इसके साथ ही विजय का विश्वास पक्का हो गया कि वह काल गर्ल नहीं बल्कि कोई युवक ही था। आजकल फेसबुक में ऐसे मामले ज्यादा देखने व सुनने को मिल रहे हैं। विजय तो बच गया, लेकिन न जाने कितने युवा ऐसे फेर में पड़कर अपना वक्त व मानसिक संतुलन को खराब कर रहे हैं।
भानु बंगवाल

Thursday 25 April 2013

Here at every step ..

यहां तो हर कदम पर..
कहते हैं कि जब व्यक्ति को ठोकर लगती है, तभी वह संभलता है। इस जीवन की रीत ही यही है। यहां तो हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। चारों तरफ अंधेरे के बीज बोए हुए हैं। अंधेरे की ही फसल उगती है और इस अंधेरे में जो जागता रहता है, शायद वही कुछ मुकाम हासिल करने में सफल हो सकता है। फिर भी हर राह धोखे से भरी है। किसी भी राह में आप कदम रखोगे तो वहां ऐसे लोगों की भरमार मिल जाएगी, जो उस्तरा लेकर आपकी गर्दन रेतने को हमेशा तैयार रहेंगे। ऐसे में आपका ऐसे लोगों से कहीं न कहीं वास्ता जरूर पड़ेगा, जिसकी ठगी का आप शिकार हो जाएंगे। हो सकता है कि कभी कभार आप अपनी सूझबूझ से राह के कांटे निकाल लें। क्योंकि जीवन में ऐसे क्षण अक्सर आते रहते हैं।
किशोर अवस्था से युवा अवस्था पर कदम रखने के दौरान व्यक्ति कुछ ज्यादा आत्मविश्वासी होता है। वह अक्सर सपने देखता है और उसे साकार करने की भी चेष्टा करता है। आजकल के ज्यादातर युवा खिलाड़ी व फिल्म अभिनेता से ही प्रभावित रहते हैं। वे उनकी तरह ही दिखना और बनना चाहते हैं। जब मैं युवावस्था की दहलीज में कदम रख रहा था तो मैं भी फिल्म अभिनेताओं से खासा प्रभावित रहता था। उन दिनों युवाओं में अमिताभ बच्चन का ही क्रेज था। मैं भी अक्सर सोचता कि काश किसी फिल्म निर्देशक की नजर मुझ पर पड़ जाए और मैं भी बतौर अभिनेता किसी फिल्म में नजर आऊं। बस एक बार मौका मिलेगा तो मैं अपनी मेहनत के बल पर पहचान बना लूंगा। फिर तो सभी की छुट्टी कर दूंगा और अपना डंका बजा दूंगा। शेखचिल्ली की तरह सपने देखना मुझे काफी अच्छा लगता था। सपने नहीं ख्वाब, जो मैं अक्सर जागते हुए देखता था।
मैने 12 वीं की परीक्षा दी। एक दिन समाचार पत्र में मैने एक विज्ञापन देखा। उसमें लिखा था कि- हमें अपनी हिंदी फिचर फिल्म, प्यार इसी को कहते हैं, के लिए नए चेहरों की तलाश है। इस पते पर अपनी फोटो के साथ आवेदन भेजें। नीचे पता अंबाला शहर का था। मैने भी विज्ञापन पढ़कर अपनी फोटो के साथ आवेदन कर दिया। आवेदन करने के बाद से ही मुझे लगा जैसे में अभिनेता बन गया। मैं हर सुबह से शाम तक ख्वाब देखने लगता। मैने छोटी-छोटी हास्य स्क्रीप्ट लिखी और उसका अभिनय करने की रिहर्लसल करने लगा। कुछएक आयटम मैने तैयार कर लिए। अक्सर मैं अपनी बहनों व पड़ोस के साथियों को अपना अभिनय दिखाता। अभिनय का मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं था। कहां डायलाग कैसे बोलने हैं, आवाज को कहां दबाना है और कहां उठाना है। इसका मुझे अंदाज तक नहीं था। फिर भी मैं यही समझता कि मैं ही बेहतर कर रहा हूं। एक दिन मुझे अंबाला की फिल्म कंपनी की तरफ से पत्र आया कि मेरा आवेदन स्वीकार कर लिया गया है। अब मुझे स्क्रीन टेस्ट के लिए वहां जाना था। टेस्ट की तारिख भी पत्र में दी गई थी।
पत्र मिलते ही मेरा तो दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया। मैंने अभिनय का अभ्यास और अधिक कर दिया। देर रात बिस्तर से उठकर मैं डायलॉग बुदबुदाने लगता। अब मैने अपने पहनावे, हेयर स्टाइल आदि पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया। बाल अमिताभ बच्चन स्टाइल में ही थे। शरीर मेरा पतला था। दोनों कान को ढके हुए गर्दन तक काफी लंबे बाल मेरे सिर पर ऐसे नजर आते जैसे मैने विग पहना हुआ है। इसी दौरान एक दिन मैं बाजार से राशन लेकर साइकिल से घर जा रहा था। सड़क किनारे एक पेड की छांव पर दो साधु बैठे थे। एक साधु ने मेरी तरफ इशारा किया। मुझे वह साधु बड़ा महात्मा नजर आ रहा था। लगा कि वह मेरा भूत, वर्तमान व भविष्य बता देगा। वह बोलेगा कि मेरा भाग्य चमकने वाला है। मैं एक स्टार बनने वाला हूं। ऐसे में मैं साधु के निकट पहुंचा। साइकिल खड़ी की और बोला बाबा क्यों बुला रहे हो। साधु ने कहा कि बाबा को चाय पीनी है। पांच रुपये दे। तब शायद एक रुपये में चाय की पियाली मिलती थी। मैने कहा कि बाबा मेरे पर पांच रुपये खुले नहीं है। सौ का नोट है, वो भी राशन के पैसे चुकाने के बाद बचा है। उसे पिताजी को देकर हिसाब बताना है। बाबा ने कहा कि वह पांच रुपये खोल देगा सौ का नोट दे। मैने उसे सौ का नोट थमा दिया। बाबा ने नोट की कई तह बनाई और छोटा कर दिया। फिर मेरे हाथ में रखकर मुट्ठी बांधने को कहा। मेने मुट्ठी बांधी तो मुझे लगा कि नोट की जगह कुछ दूसरी वस्तु है। बाबा ने मुझसे कहा कि ये शिवजी का प्रसाद है। इसे खाना और घर में सभी को खिलाना। तेरा जीवन सफल हो जाएगा। मैं डरा कि नोट का हिसाब पिताजी को कहां से दूंगा। इस पर मैने मुट्ठी खोल दी। देखा कि हाथ में मिश्री की डली थी। मैने बाबा से कहा कि इसे अपने पास ही रखो और मुझे मेरा नोट वापस दो। इस पर बाबा ने दोबारा मेरी मुट्ठी बांधी और कहा कि नोट तेरे हाथ में रख रहा हूं, लेकिन यह प्रसाद बन रहा है। अबकी बार मेरी हथेली में एक ताबीज जैसी वस्तु थी। मैने चेतावनी दी कि यदि मेरा नोट वापस नहीं दोगे तो मैं शोर मचा दूंगा। तब बाबा कुछ नरम हुआ और मेरा नोट वापस दिया। फिर बोला चाय के पैसे दे जा। मैरी जेब में करीब तीन रुपये छुट्टे थे। मेने उसे देकर अपनी जान छुड़ाई।
अब इंटरव्यू की तिथि निकट आ रही थी। मुझे अंबाला जाना था। मैने पिताजी से ही मदद को कहा। पहले पिताजी आग बबूला हुए। उन्हें फिल्मों से काफी चिढ़ थी। वह कहते थे कि फिल्में अच्छा संदेश नहीं देती हैं। युवा पीढ़ी को बिगाड़ने में फिल्मों का ही योगदान है। फिर भी पिताजी ने कहा कि यदि तेरी जिद है तो उनके दफ्तर में कोशिक बाबू हैं, उनसे मिल ले। कोशिक बाबू के बड़े भाई आंबाला रहते हैं। वहां वे तेरी मदद कर देंगे। मैं कोशिक अंकल से मिला। पहले उन्होंने भी मुझे लंबा-तगड़ा लेक्चर दे दिया। फिर उन्होंने अंबाला स्थित अपने भाई का पता मुझे लिख कर दिया। साथ ही भाई को एक पत्र भी लिखा। उसमें यह लिखा था कि ये हमारे परिचित है और इसकी हर संभव मदद करना। मैं पत्र लेकर अंबाला गया और पहले कोशिक अंकल के भाई के घर पहुंचा। इंटरव्यू से एक दिन पहले ही मैं अंबाला पहुंच गया। कोशिक परिवार काफी अच्छा था। उन्होंने मेरी आवाभगत ऐसी की कि जैसे मैं उनका कोई करीबी मेहमान हूं। उन्हें पता चला कि मेरा उसी दिन जन्मदिन भी है। इस पर उन्होंने घर में वे सब पकवान बनाए, जो शायद मेरी मां ने भी मेरे जन्मदिन पर नहीं बनाए होंगे। यह परिवार काफी छोटा था। पति, पत्नी और एक बेटी। बेटी मेरी उम्र की ही रही होगी। इस घर में मैने रात काटी। उन्होंने मुझे एक्टिंग करने को कहा। मैने जितने अभिनय रटे थे, तोते के समान उन्हें अभिनय के साथ दिखाता चला गया। सभी ने मेरी तारीफ की, पर मुझे पता नहीं कि तारीफ मेरा दिल रखने को की या फिर वाकई में मेरे अभियन से वे प्रभावित हुए।
अगले दिन कोशिक अंकल ने मेरे स्क्रीन टेस्ट से संबंधित पत्र पर लिखे पते को देखा और मुझे साथ लेकर वहां चल दिए। एक बाजार में एक भवन पर जब हम पहुंचे तो वहां संबंधित कंपनी का बोर्ड लगा मिला। वह नृत्य, संगीत, कला केंद्र आदि सभी कुछ था। भीतर जाने पर एक निर्देशक महोदय चौड़ी मेज के आगे बैठे थे। दीवारों पर फिल्मों के पोस्टर लगे थे। पहले निर्देशक महोदय ने भी मुझे यही समझाने का प्रयास किया कि ये लाइन बड़ी गंदी है। इसमें क्यों जाना चाहते हो। मुझे उसपर गुस्सा आ रहा था कि यदि मुझे डराना ही था तो अखबार में विज्ञापन क्यों छापा। फिर निर्देशक ने कहा कि पहले मन बना लो कि फिल्मों में आना चाहते हो या नहीं। मैने कहा कि मैं मन बनाकर ही आया हूं। इस पर उन्होंने कहा कि इंटरव्यू फीस जमा करा दो। करीब 30 साल पहले सौ रुपये इंटरव्यू फीस भी काफी बड़ी रकम थी। मैने फीस जमा कराई और फिर निर्देशक महोदय के कमरे में आ गया। उन्होंने स्क्रीन टेस्ट के नाम पर मुझे कुछ भी अभिनय करने को कहा। मैने भी तीन पागलों की कहानी वाला अभिनय कर उसे दिखा दिया, जो मैं हर दिन तोते की तरह रटता रहता था। उसने कहा कि कुछ दिन में आपको शूटिंग के लिए बुलाया जाएगा। इस दौरान रहने व खाने की व्यवस्था कंपनी करेगी। यदि फिल्म हिट हो गई तो आपको आगे बढ़ने का मौका मिल जाएगा।
खैर में कोशिक परिवार से विदा लेकर घर चला आया। हर दिन मेरी नजर डाकिये पर रहती थी कि शूटिंग के लिए बुलावे का पत्र कभी भी आ सकता है। पर पत्र नहीं आया। फिर एक दिन मेरी नजर समाचार पत्र की एक खबर पर पड़ी। जो यह थी कि फिल्म में काम दिलाने के नाम पर युवाओं से ठगी करने वाला गिरफ्तार। यह समाचार अंबाला की उसी कंपनी का था, जिसमें मैं इंटरव्यू देकर आया था।
भानु बंगवाल

Saturday 20 April 2013

Who eats and growls too .....

जो खाता भी है और गुर्राता भी.....
देश भी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और नेताओं की करतूत हर दिन उजागर हो रही है। कैसे हो गए ये नेता, जो देश सेवा कम और अपना भला ज्यादा कर रहे  हैं। जनता के सुख, दुख को लेकर आंसू बहाने का भले ही वे नाटक करते फिरते हौं, लेकिन उनका चरित्र तो एक बंदर के समान है। जो काफी चालाक है। जो मौका देखने पर भीखारी बन जाता है, वहीं मौका मिला तो लूटेरा भी। जब मौका मिलता है तो चोरी भी करता है। जब पोल खुल जाती है तो वह ठीक उसी तरह गुर्राने लगता है, जैसे चोरी व झपट्टा मारने वाले बंदर को भगाने का प्रयास करो तो वह गुर्राने लगता है। देश में बढ़ रही ऐसे बंदरों की फोज ने ही समय-समय पर बड़े घोटाले किए हैं। धर्म के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाया है। उनकी लपलपाती जुंवा कब कहां फिसल जाए इसका भी पता नहीं चलता है। तभी तो ऐसी बयानबाजी कर बैठते हैं कि पड़ोसी मुल्क भी इसका मजा लेने लगता है और उसे टांगखिंचाई का मौका मिल जाता है। 
अमीरी-गरीबी, ऊंच-नीच, भेद-भाव, छोटा-बड़ा, शिक्षित-अशिक्षित, सच्चाई-झूठ, गुण-अवगुण। इस तरह न जाने कितने रंग व रूप हैं इस इंसान के, जो इंसान ने अपने कर्म से ही बनाए हैं। यही इस देश की समस्या भी है। इन समस्याओं का समाधान नेताओं के हाथ में आश्वासन की गोली के रूप में है। उनके पास हर मर्ज की दवा है, लेकिन इलाज नहीं है। वहीं कोई व्यक्ति सवभाव में आलसी है, तो कोई मेहनती और कोई कामचोर। कोई चोरी करता है, तो कोई लूटमार को ही अपने जीवन का सुलभ साधन बना लेता है। नेताओं में भी अधिकांश का चरित्र ठीक ऐसा ही है। वहीं इसके उलट कोई सत्य की राह पर चलने का संकल्प लेता है। ये तो है इंसान की आदत व स्वभाव, लेकिन क्या हो गया इस दुनिया को। यहां इंसान तो इंसान, जानवर की भी आदत बिगड़ती जा रही है। इंसान की तरह भी जानवर भी अब आलसी, चोर, या लुटेरे होते जा रहे हैं। जानवरों की इस प्रवृति में बदलाव भी काफी समय से देखने को मिल रहा है। ऐसे जानवरों में हम बात करेंगे बंदरों की।
इन दिनों उत्तराखंड के हर शहर व गांव में बंदर भी एक समस्या बनते जा रहे हैं। चाहे मुख्य मार्ग हों, फिर कोई मंदिर या फिर खेत खलिहान। हर जगह बंदरों के उत्पात के नजारे देखने को मिल जाएंगे। पहले बंदर जंगलों में ही अपना डेरा जमाए रहते थे। जंगली फल, पेड़ों के फूलों व नई पत्तियों की मुलायम कोंपले, किसी छोटे पौधे की मुलायम जड़ खोदकर इसमें ही बंदर अपना भोजन तलाशते थे। दिन भर वे पेट की खातिर जंगलों में ही भटकते रहते और वहीं भोजन के साथ ही प्राकृतिक जल स्रोत पर निर्भर रहते। अब जंगलों में शायद बंदर नजर नहीं आते, वे तो कामचोर हो गए। उन्हें कामचोर बनाया इंसान ने। तभी तो मुख्य सड़कों के किनारे बंदरों के झुंड के झुंड नजर आते हैं। सड़कों के गुजरते लोग अपने वाहनों से खानपान की सामग्री इन बंदरों के झुंड की तरफ उछालते हैं। ऐसे में ये बंदर हर वाहन को देखते ही दौड़ लगा देते हैं कि शायद कोई उससे उनके भोजन के लिए खानपान की वस्तु उनकी तरफ उछालेगा। ऐसे में कई बार बंदर वाहनों की चपेट में आकर अपनी जान तक गंवा बैठते हैं। देहरादन-सहारनपुर, देहरादून-हरिद्वार व देहरादून- पांवटा मार्ग पर जहां कहीं जंगल पड़ते हैं, वहां सड़क किनारे बंदर इंसान की ओर से फेंके जाने वाले भोजन के इंतजार में बैठे रहते हैं।
वहीं देहरादून-हरिद्वार मार्ग पर कई लक्ष्मण सिद्ध समेत कई मंदिर पड़ते हैं। इन क्षेत्र के बंदरों का ठिकाना ये मंदिर ही होते हैं। कब किस मंदिर में भंडारा चल रहा है, इसकी भनक भी उन्हें लग जाती है। जंगलों से लंबा सफर तय कर वे एक मंदिर से दूसरे मंदिर तक पहुंच जाते हैं। भंडारे का बचा-खुचा खाना ही इन बंदरों का भोजन होता है। जब उन्हें सुलभता से भोजन मिल रहा है तो वे क्यों जंगल में जाकर भोजन की तलाश करेंगे। यही नहीं जब बंदरो को कच्चा अनाज व कच्चे फल की बजाय पका भोजन मिल जाता है तो उनकी कच्चे अनाज व जंगलों से फल खाने
की आदत भी खत्म होती जा रही है। एक दिन मेरी बहन ने बताया कि उनके यहां भागवत कथा चल रही थी। कथा के समापन पर वे हरिद्वार गए। कथा के दौरान वेदी में प्रयुक्त होने वाले कच्चे केले कथा समापन के दौरान बच गए थे। उन्होंने केले अपने साथ रख लिए कि रास्ते में बंदरों को दे देंगे। रास्ते में बंदरों का झुंड दिखा,तो उन्होंने उन्हें केले दिए। केले कच्चे थे, ऐसे में बंदरों ने इन केलों को खाया ही नहीं। कुछएक बंदरो ने केले को छिला और फेंक दिया। यानी उन्हें भी अब पक्के फल की दरकार थी।
इसी तरह की एक घटना मुझे याद है। ऋषिकेश में मुनि की रेती क्षेत्र में मैं सड़क किनारे किसी का इंतजार कर रहा था। तभी मेरी नजर करीब चार मंजिले मकान पर पड़ी। शाम का समय था। मकान की खिड़की के छज्जे पर एक बंदर खड़ा था और ऊपर वाली खिड़की से मकान के भीतर झांक रहा था। इस बंदर के पेट से एक छोटा बंदर यानी उसका बच्चा चिपका हुआ था। खिड़की में लोहे की सरिया लगी थी। ऐसे में बड़ा बंदर भीतर नहीं घुस सकता था। कुछ देर भीतर की टोह लेने के बाद बंदर के पेट से चिपका बच्चा फुदका और वह सरियों के गैप के रास्ते से भीतर चला गया। अचानक वह फुदक कर बाहर आया और फिर अपनी मां के पेट में चिपक गया। बड़ा बंदर भी नीचे को झुक गया मानो भीतर वाला व्यक्ति उन्हें न देख सके। भीतर कमरे की बत्ती जली और कुछ देर बाद फिर बुझ गई। बत्ती बुझने के बाद फिर से बच्चा फुदका और मकान के भीतर घुस गया। अबकी बार वह वापस आया तो उसके हाथ में दो केले थे। उसने बड़े बंदर को केले थमाए और फिर से भीतर घुसा। इस तरह वह कभी सेब लाता कभी रोटी। बड़ा बंदर छज्जे में ही सारा सामान एकत्र कर रहा था। कुछ देर बाद दोनो ने कुछ केले व सेब खाए, कुछ फेंके और कुछ साथ लेकर फुर्र हो गए। यानी जरूरत पढ़ने पर ये जानवर अब चोरी से भी बाज  नहीं आते हैं। वहीं मंदिरों व धार्मिक स्थलों पर तो ये बंदर सीधे लोगों के सामान पर झपट्टा मार देते हैं। ठीक उस डाकू की तरह जिसकी लूटमार की कहानी मैं बचपन में अपनी मां से सुना करता था।
इसी तरह खेतों में भी इन बंदरों का आतंक रहता है। खड़ी फसल व फलों के बाग में इनका आतंक हमेशा रहता है। कई धार्मिक स्थलों में तो बंदर व्यक्ति से थैला, पर्स, चश्मा या अन्य सामान छीनकर पेड़ में चढ़ जाते हैं। तब ही वे सामान को वापस फेंकते हैं, जब व्यक्ति उनके पास कोई खाद्य सामग्री फेंकते हैं। कई बार तो ऐसे बंदर व्यक्ति की जेब तक तलाश लेते हैं। कई बार सामने व्यक्ति के पड़ने की स्थिति में वे हिंसक भी हो जाते हैं। उत्तराखंड ही क्या, यूपी समेत शायद देश के हर हिस्से में इन बंदरों की आदत बिगड़ती जा रही है। मैं करीब पंद्रह साल पहले सहारनपुर था तो वहां भी बंदरों का उत्पात अक्सर देखता रहता था। सिर्फ साल में एक दिन मुझे बंदर वहां गायब नजर आते थे। वो दिन था वसंत पंचमी का। इस दिन वहां घर-घर में पतंगबाजी होती थी। लोग मकानों की छतों में होते और दिन भर वो काटी का शोर फिजाओं में गूंजता रहता। ऐसे में बंदर दिन भर डर के मारे कहां गायब होते इसका मुझे पता नहीं। ऐसे में मैं यही सोचता कि काश हर दिन वसंत पंचमी होती और छतों में बच्चे, बूढ़े और जवानों का शोर गूंजता तो शायद बंदर शहर से पलायन कर जंगलों में पनाह ले लेते। वही, उनके और इंसान दोनों के लिए ठीक रहता। जिस तरह बंदर कुछ सामग्री मिलने पर अपनी मुंह में बनी थैली में भरना शुरू कर देता है। जितना मुंह में ठूंस सकता है वह ठूंसता है। उसी तरह नेता भी पूरे पांच साल लोगों को चूसता रहता है। नेता है तो वह लेता ही लेता है। देता कुछ नहीं। उसकी थैली कभी नहीं भरती। सिर्फ एक बार जब कभी चुनाव आते हैं तब ही उसकी गांठ खुलती है। अब देखना यह है कि नेता ज्यादा खतरनाक है या फिर ये बंदर। क्योंकि दोनों ही प्रवृति एक सी होती जा रही है। इसी से मुझे एक पत्रकार स्वर्गीय कुलवंत कुकरेती की कविता की कुछ पंक्तियां याद आती है। जो इस प्रकार है---
एक बंदर
आदमी बनाम बंदर
और बंदर बनाम आदमी
कितना चतुर है ये बंदर
जो खाता भी है और गुर्राता भी.....

भानु बंगवाल

Sunday 14 April 2013

.Elephant became enemy, who is responsible ...

दुश्मन बना हाथी, जिम्मेदार कौन...
फरवरी माह में भांजे की शादी में मुझे पूनम मिली। वो अपने पति के साथ शादी में आई थी। उसने अपने पति से मेरा परिचय कराया। मेरा बचपन जिस मोहल्ले में कटा था, वहां पूनम अपने माता-पिता के साथ रहती थी। परिवार में वह सबसे बड़ी थी। उसके बाद दो भाई व एक बहन और थे। बाद में पिताजी सरकारी नौकरी से  रिटायर्ड हुए तो उन्होंने मकान खरीदा और हम उस मोहल्ले को विदा कर गए, जहां मेरा बचपन कटा था। बाद में पता चला कि पूनम की शादी हो गई, लेकिन उसके पति को देखने का सौभाग्य मुझे भांजे की शादी के दिन ही मिला। इस शादी के दो दिन बाद ही पता चला कि अभागी पूनम के पति की मौत हो गई। हरिद्वार से वे रात को कार से सपरिवार देहरादून लौट रहे थे। ऋषिकेश देहरादून मार्ग पर रात को कार से आगे बिगड़ैल हाथी धमक गया। पूनम का पति कार चला रहा था। पहले सभी कार में दुबके रहे, लेकिन हाथी तो हमले पर आमादा था। हाथी ने कार से शीशे तोड़ डाले। पूनम का पति जान बचाने को कार से निकल कर भागा, लेकिन हाथी ने देख लिया। उसका मकसद था कि हाथी का ध्यान बटाएगा और दूसरा कार को आगे बढ़ा देगा। फिर वह भी कार में बैठ जाएगा, लेकिन भाग्य को शायद कुछ और मंजूर था। उसे हाथी ने पकड़ कर पटक दिया। बाकी सदस्य कार दौड़ाकर भाग निकले। पूनम का पति हाथी के हमले में जान गंवा बैठा और पूनम विधवा हो गई।
गढ़वाल में अब तक जहां पर्वतीय इलाकों में रहने वाले लोग जहां गुलदार से हमेशा भयभीत रहते थे, वहीं घाटी व निचले इलाकों में गुलदार के हमले की घटनाएं कभी कभार ही सुनने को मिलती थी। अब गुलदार के साथ हाथी भी इंसान की जान का दुश्मन बनता जा रहा है। ऋषिकेश में जहां तीन साल पहले तक हाथी के हमले की घटनाएं कभी कभार ही सुनने को मिलती थी, वहीं अब अक्सर ऐसे हमले होने आम बात बनती जा रही है। ऋषिकेश व आसपास के क्षेत्र मे करीब ढाई साल में हाथी के हमले में अब तक 37 लोग जान गंवा चुके हैं।
अचानक हाथी के स्वभाव में क्या अंतर आया कि वह मानव की जान का दुश्मन बन गया। इसके कारणों की पड़ताल करने और उसका समाधान तलाशने की बजाय वन विभाग ने ऋषिकेश से देहरादून को जाने वाली सड़क के किनारे पर जगह-जगह हाथी से सावधान के बोर्ड लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी। रविवार को मैं देहरादून से एक बरात में शामिल होकर ऋषिकेश जा रहा था। बस में सभी लोगों की जुवां पर हाथी की ही चर्चा थी। साथ ही एक भय यह भी था कि मार्ग पर कब कहां आथी धमक सकता है। सुरक्षा की दृष्टि से बस के शीशे बंद किए हुए थे और सभी यही कामना कर रहे थे कि हाथी न दिख जाए। ये व्यक्ति का जीवन ही ऐसा है कि भले ही रास्ते में कितनी बाधा व भय हों, लेकिन व्यक्ति को गनतव्य तक जाना है तो जाकर ही रहेगा। यही कारण है कि हाथी प्रभावित जोन पर दो या चार पहिये वाहन सरपट दौड़ रहे थे। सड़क किनारे सटे जंगलों से लकड़ी लाते कई ग्रामीण नजर भी आए। मानो सड़क पर निकलने वाले को यही विश्वास रहता है कि उसके रास्ते पर हाथी नहीं आएगा। तभी तो पूनम का पति भी इसी विश्वास के चलते रात को उस मार्ग पर गाड़ी लेकर चला गया, जहां लोग हाथी के डर से नहीं जाते।
ढाई साल के भीतर हाथी के स्वाभाव में अंतर क्यों आया। जो हाथी अपने जंगल के रास्ते में सड़क पड़ने पर चुपचाप झुंड के साथ सड़क पार कर जंगल में चला जाता था, वह क्यों अब हमला कर रहा है। क्यों वह रास्ते में मानव को देखकर चुपचाप आगे नहीं बढ़ रहा है। क्यों वह अब वाहनों की तरफ ऐसे दौड़ता है जैसे मानव उसका सबसे बड़ा दुश्मन है। इन सब बातों के लिए देखा जाए तो व्यक्ति ही जिम्मेदार है। कारण यह है कि जिस जंगल में हाथी विचरण करता था। जहां उसे चारा-पत्ती आसानी से मिल जाती थी। उस जंगल में मानव का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। हाथी का प्रिय भोजन रैंणी व बांस की पत्ती जंगल से गायब हो रही है। पानी के प्राकृतिक स्रोत से सटकर मकान बन गए हैं। जगंल से गुजरने वाली सूखी व बरसाती नदियों पर व्यक्ति अवैध खनन कर रहा है। जंगल में जब भोजन व पानी हाथी को नहीं मिल रहा है, तो वह ऐसे स्थान की तरफ रुख कर रहा है, जहां लोग रहते हैं। ऋषिकेश में जंगल से सटे ग्रामीण इलाकों में अवैध शराब बनाने का धंधा भी जोरों पर है। शराब बनाने वाले लोग जंगलों में शराब की भट्टियां बनाते हैं। शराब बनाने के लिए उन्होंने साल के पेड़ तक छिल डाले हैं। ऐसे में पेड़ भी सूखने लगे हैं। साल के पेड़ की छाल व सड़ा-गला अनाज वे जंगलों में छिपाकर रखते हैं। इसे गलाकर लहन तैयार की जाती है। लहन से ही शराब बनती है। ऐसी लहन को नष्ट करने में पुलिस व आबकारी विभाग जहां सफल नहीं हो पाता है, वहीं जंगलों में इन विभागों का काम हाथी कर रहे हैं। वे जमीन में दबाए गए ड्रम व पालीथिन की बोरियों की में रखी लहन को खोज निकालते हैं। उसे खाकर वे मदमस्त हो जाते हैं। जब कभी उन्हें लहन नहीं मिलती, तो वे गुस्से में और आक्रमक होकर बस्ती व खेतों की तरफ रुख करते हैं। वहां पर वे फिर खड़ी फसल को रौंद डालते हैं। यही नहीं कुछ हाथी को अब सड़क किनारे खड़े अनाज के ट्रक तक लूटने लगे हैं। भोजन की तलाश में वे टिहरी व चंबा की तरफ जाने वाले से अनाज से भरे ट्रकों के आगे धमकने लगे हैं। इन ट्रकों पर रखी राशन की बोरियों को वे सूंड से नीचे गिराकर अपना भोजन तलाश रहे हैं। अब हाथियों को ऐसी आदत पड़ने लगी है कि वे जंगल में भोजन तलाशने की बजाय व्यक्ति पर हमला कर भोजन प्राप्त कर रहा है। क्योंकि जंगल में उसके लिए मानव ने कुछ छोड़ा ही नहीं।
भानु बंगवाल

Friday 12 April 2013

A passion for cricket, thieves nailed

क्रिकेट का जुनून, चोरों की शामत
पहले क्रिकेट कभी कभार ही टेलीविजन में देखने व रेडियो में सुनने को मिलता था। इन दिनों तो आइपीएल का दौर चल रहा है। जहां कहीं भी शाम को जाओ तो लोग टेलीविजन से चिपके नजर आते हैं। वैसे अब तो क्रिकेट का बुखार कभी भी चढ़ जाता है। पर यह भी सच है कि करीब तीस साल पहले भी क्रिकेट के प्रति युवाओं में इसी तरह से रुचि थी, जो आज के दौर में दिखाई देती है। हालांकि जब कभी मैं छोटा था तो क्रिकेट का बल्ला खरीदने की भी मेरी औकात नहीं थी। तब कपड़े धोने की थपकी से ही क्रिकेट खेला करता था। तब मैदान की समस्या नहीं होती थी। अब तो मैदान की जगह भवनों के जंगलों ने ले ली है। ऐसे में बच्चों को क्रिकेट खेलने के लिए तंग गलियां या फिर मकानों की छत ही मिलती है। इसमें भी वे मात्र बल्ला सरकाते हैं, शॉट नहीं मारते हैं।
वर्ष 1996 में देहरादून से सहारनपुर के लिए मेरा तबादला हो गया था। तब सहारनपुर में भी क्रिकेट का ऐसा ही जुनून मुझे देखने को मिला, जैसा मैं देहरादन में बचपन से देखता आ रहा था। वहां दोपहर के समय जिन सड़कों, गलियों व चौराहों में हर वक्त जाम लगा रहता था। वहीं रात करीब दस बजे के बाद युवाओं का शोर गूंजता। रात को बिजली के बल्बों के तेज प्रकाश में प्लास्टिक की बाल से मोहल्लों में क्रिकेट टूर्नामेंट होते। यानी रात को चौकों व छक्कों की बौछार काफी लोकप्रिय थी। आसपास के लोग ऐसे टूर्नामेंट को देखने के लिए वहां जमे रहते। एक तरह से ये क्रिकेट टी-20 की तर्ज पर ही होता था। हांलाकि अब टी-20 क्रिकेट काफी लोकप्रिय हो गया है, लेकिन इसकी शुरूआत भारत की गलियों, चौराहों व मौहल्लों से ही हुई होगी, ऐसा मेरा मानना है।
सहारनपुर में मैं एक समाचार पत्र में संवाददाता था। वहां कुछ समाचार पत्रों के कार्यालय एक-दूसरे के निकट थे। एक पत्रकार को देर तक काम करने व घूमने की आदत होती है। वह समय से घर नहीं जाता। क्योंकि यदि देर रात को कोई घटना हो जाए तो उसे वापस कार्यालय को दौड़ना पड़ता है। ऐसे में रात को काम निपटाने के बाद कुछ पत्रों से जुड़े संवाददाता एक स्थान पर क्रिकेट खेलने को एकत्र हो जाते थे। वह स्थान था एक सिनेमा हाल का आहता। इस स्थान पर हर खिलाड़ी को हिदायत थी कि वह ऊंचे शॉट नहीं मारेगा। क्योंकि सिनेमा हाल की दीवार से सटे हुए लोगों के मकान थे। ऐसे में यदि किसी मकान में बाल गिरेगी तो वहां से वापस लाना टेढ़ी खीर था। फिर भी यदि कोई खिलाड़ी तेज और ऊंचा शाट मारता तो उसे आउट मान लिया जाता, साथ ही उसे ही बाल वापस लानी पड़ती थी। बाल लाने के लिए खिलाड़ी सिनेमा के पोस्टर लगाने के लिए इस्तेमाल होने वाली बांस की लंबी सीड़ी का सहारा लेता और दीवार से सटी मकान की छत तक पहुंचता। फिर जिस छत में बाल गिरी वहां दबे पांव चुपके से जाता और बाल वापस लाता। कई बार छत में ढम-ढम या धप-धप होने पर भवन स्वामी भी लड़ने को आ जाता। ऐसे में बाल लाने वाले को चोरों की तरह अपना काम करना पड़ता था।
एक रात की मुझे याद है कि ऐसा ही क्रिकेट खेला जा रहा था। एक साथी ने ऊंची शॉट मारी और गेंद दीवार से सटे कई भवनों को पार करती हुई चौथे भवन की छत पर गिरी। इस पर शॉट मारने वाले साथी हो बाल लानी थी। वह दबे पांच सीड़ी से दीवार पर चढ़ा और एक भवन की छत पर कूद गया। कुछ आगे दूसरे भवन पर जाने पर वह दवे पांव वापस आ गया। उसने सभी को बताया कि एक भवन की छत पर तीन संदिग्ध युवक अंधेरे की आड़ लेकर बैठे हैं। शायद चोरी की वारदात के लिए वे वहां छिपे हों। उन दिनों सहारनपुर में चोरी की घटनाएं भी काफी हो रही थी। ज्यादातर वारदातों में चोर देर रात को छत के रास्ते से ही भीतर घुसते थे। साथी के बताने पर कुछ और साथी सीड़ी से चढ़कर उस छत तक पहुंचे, जहां संदिग्ध युवक बैठे थे। उन्हें दबोच लिया गया। अंदेशा सही निकला कि वे चोरी के इरादे से ही छत पर बैठकर आधी रात होने का इंतजार कर रहे थे। शोर मचा तो आसपड़ोस के लोग जमा हो गए। उस भवन का मालिक भी छत पर पहुंचा, जिसकी छत पर चोर छिपे थे। तीनों युवकों को पुलिस के हवाले कर दिया गया। इस दिन के बाद से आसपड़ोस में रहने वालों में एक अंतर जरूर आ गया था। जो हमारे क्रिकेट खेलने से चिढ़ते थे, वे हमें हर रात क्रिकेट खेलने की सलाह देने लगे। साथ ही यह भी कहते कि खूब क्रिकेट खेलो, लेकिन छत में जब जाओ तो धप-धप मत करना। उन्हें हमारे क्रिकेट खेलने से खुद की सुरक्षा का अहसास होने लगा था।
भानु बंगवाल

Sunday 7 April 2013

Dance - Dance - Dance

डांस-डांस-डांस
सचमुच डांस भी एक कसरत से कम नहीं है। धुमधड़ांग वाले किसी म्यूजिक की ताल में उस व्यक्ति के कदम स्वयं ही थिरकने लगते हैं, जो डांस की ए, बी, सी, डी को थोड़ा बहुत जानता है। यदि नहीं भी जानता तब भी उसका मन जरूर थिरकने लगता है। पहले कभी किसी जमाने में तो नाचने का मौका शादी के अवसर पर ही मिलता था। पहले से ही लोग तय करके रखते थे कि फलां की शादी है और उसमें खूब डांस करेंगे। शादी से पहले कई दिनों तक महिला संगीत चलता था। उसमें महिलाएं आपस में गीत गाने के साथ ही नृत्य करती थी। अब तो हर कहीं डांस ही डांस नजर आता है। इन दिनों युवाओं में आइपीएल का बुखार चढ़ा हुआ है। कंप्यूटर व नेट में देर तक बैठने वाले युवा टेलीविजन के आगे चिपक रहे हैं। टेलीविजन में आइपीएल के दौरान चौके व छक्के जैसे लगते हैं तो डांस बालाएं थिरकने लगती हैं। किसी समारोह व कार्यक्रम का आयोजन हो तो शुरूआत डांस से ही होती है। नेताजी के जुलूस में डांस, धार्मिक कार्यक्रम में डांस, यानी हर एक मौके पर डांस ही डांस होने लगा है। सचमुच कुछ देर के लिए तो यह डांस हरएक को उन्मादित कर देता है।
वैसे देखा जाए तो होली व बरात के मौके पर वे भी डांस करने से नहीं चूकते, जिन्हें नाचना नहीं आता। बरात में गाने भी लगभग कुछ वही होते हैं, जो पिछले बीस या तीस साल से लोग सुनते आ रहे हैं। बैंड पर बजने वाले इन गानों में- आज मेरे यार की शादी है, झूम बराबर झूम शराबी आदि ऐसे गाने हैं, जो करीब हर शादी में गाए और बजाए जाते हैं। इसके साथ ही एक नागिन फिल्म के गाने की धुन-मेरा मन डोले, मेरा तन डोले, पर तो नृत्य करने वालों की जोड़ी ही बन जाती है। ऐसी जोड़ी में एक मुंह में रुमाल फंसाकर उसे बीन का रूप देकर थिरकता है, वहीं दूसरा साथी दोनों हाथ को मिलाकर फन तैयार करता है और नागिन का रूप धरकर नाचता है। ऐसी ही एक बरात का मुझे एक किस्सा याद है। देहरादून के हरिद्वार रोड में जोगीवाला स्थित एक वैडिंग प्वाइंट में मुझे किसी शादी में शामिल होने जाना था। रात का समय था। एक जगह सड़क पर ट्रेफिक जाम सा हो रखा था। मैं मोटरसाइकिल से उतरकर स्थिति जानने को आगे बढ़ा तो देखा कि सड़क पर दो व्यक्ति लेटे हुए हैं। दूर से देखने पर प्रतीत हुआ कि किसी वाहन की चपेट में आकर दोनों या तो घायल हैं, या फिर मर गए। उनके आसपास भीड़ जमा थी। एक व्यक्ति पीठ के बल जमीन पर गिरा पड़ा था। दूसरा उसके ऊपर गिरा हुआ था। अचानक दोनों में हरकत होने लगी। लोगों ने देखा कि ऊपर वाला कुछ झूमता व थिरकता हुआ उठने लगा। तभी नीचे वाला भी धीरे-धीरे झूमता हुआ उठने लगा। ऊपर वाला जब ज्यादा सीधा हुआ तो उसके हाथ में एक रुमाल था, जिसका एक सिरा दांत में फंसा हुआ था। वहीं नीचे वाला नागिन की तरह हाथ लहरा रहा था। पता चला कि दोनों एक बरात में डांस कर रहे थे। शराब के नशे में एक संपेरा बनकर नाच रहा था। दूसरा नागिन बनकर। डांस में वे इतने मगन हुए कि बरात कब आगे निकल गई उन्हें पता ही नहीं चला। वे सड़क में लेटकर डांस करते रहे और बरात लड़की वालों के घर तक पहुंच गई। उन्हें दुर्घटना में घायल जानकर दोनों तरफ से वाहन खड़े हो गए। फिर कुछ लोगों ने उन्हें टोका तब उन्हें इसका आभास हुआ कि बरात निकल गई। इस पर वे डांस करना छोड़ दौड़ लगाकर आगे चल दिए।
भानु बंगवाल

Wednesday 3 April 2013

Retirement

रिटायरमेंट....
किसी काम से रिटायर होना यानी सेवानिवृत होना। कितना अटपटा लगता है रिटायर शब्द को सुनकर। सबसे अटपटा तो उसे लगता होगा, जो अपनी जीवन की दो पारियां समाप्त कर तीसरी पारी में प्रवेश करता है। किसी सरकारी सेवा से रिटायर्ड होने पर तो व्यक्ति शायद यह सोचकर खुश होगा कि  फंड व विभिन्न देयों से काफी रकम उसके हाथ में आ जाएगी। व्यक्ति तीसरी पारी की भावी योजनाएं भी बनाने लगता है। हर योजना को वह पैसों से जोड़कर भी देखता है। कुछ पैसों से मकान की मरम्मत कराउंगा या फिर मकान बनाउंगा। बेटी की शादी या फिर खुद के लिए दुकान खोलूंगा या फिर कोई बिजनेस करूंगा आदि-आदि। सबसे ज्यादा अटपटा तो किसी निजी संस्थान से सेवानिवृत होना लगता है। पहले तो प्राइवेट नौकरी करना ही आसान नहीं है। हर साल इंक्रीमेंट के दौरान गर्दन पर तलवार लटकी रहती है। भय यह रहता है कि कहीं इंक्रीमेंट से पहले छंटनी में खुद का नंबर न आ जाए। क्योंकि यह तो दुनियां की रीत है कि ताकतवर को ही कहीं रहने का हक है। कमजोर साबित होने वाले व्यक्ति के लिए शायद कोई जगह नहीं है। ऐसे में काम के प्रति समर्पण की भावना के साथ ही खुद को मजबूती से खड़ा रखने वाला ही बगैर किसी व्यवधान के अपनी नौकरी बचा पाता है।
सरकारी नौकरी में तो जैसे तैसे समय खींच जाता है, लेकिन प्राइवेट नौकरी में कभी-कभार ही किसी व्यक्ति की सेवानिवृत्ति के मामले सामने आते हैं। ज्यादातर लोग एक स्थान पर टिक नहीं पाते और कई तो नौकरी पूरी होने से पहले ही छोड़ देते हैं।
हाल ही में एक संस्थान में शुक्लाजी सेवानिवृत हुए। शुक्लाजी की संस्थान में काफी अहम भूमिका रही। कद-काठी से वह जितने लंबे-तगड़े नजर आते हैं, उतने ही सख्त वह काम के प्रति भी रहे। समय से काम पूरा करने को लेकर उनकी कई बार अपने अधिनस्थ व दूसरे सहयोगियों के साथ तीखी झड़प तक हो जाती थी। लगता था कि  जिस व्यक्ति से उनकी बहस हो रही है, वह बड़े विवाद को जन्म लेगी। काम निपटा और बात आई गई में बदल जाती। न वह दिल में रखते और न ही कोई दूसरा ही दिल में रखता। हंसी व मजाक की फूलझड़ी भी बीच-बीच में चलती रहती। यह थी शुक्ला जी की कार्यप्रणाली। समर्पण और सहयोगियों को साथ लेकर चलने की भावना। इसी भावना को लेकर उन्होंने प्राइवेट नौकरी में अपना जीवन समर्पित किया। उनकी कार्यप्रणाली दूसरों के लिए प्रेरणा, सबक व नसीहत भी है। कब वह साठ के हुए उन्हें इसका आभास तक नहीं हो का।
हमेशा सख्त दिखने वाले शुक्लाजी धर्म परायण व्यक्ति हैं। जब वह घर से आफिस को निकलते हैं, तो बचा-खुचा खाना एक डब्बे में लेकर चलते हैं। रास्ते में जहां भी गाय मिलती, उसे हाथ जोड़कर वह उसे भोग लगाते। तब जाकर आफिस पहुंचते।
रिटायरमेंट की तिथि जैसे ही निकट आ रही थी। उससे पहले ही शुक्लाजी मायूस से नजर आने लगे। जिस जगह नौकरी में उनकी जिंदगी ही कट गई, वही स्थान कुछ दिन बाद उनके लिए बेगाना होने वाला था। विदाई के दिन वह अपनी भावुकता पर रोक नहीं लगा सके। लाख कोशिश के बावजूद उनकी आंखों से आंसू छलक रहे थे। सभी स्टाफ के कर्मचारी व सहयोगियों ने कहा कि भले ही ड्यूटी में अब उनका साथ नहीं रहेगा, लेकिन हम दिल से आपके साथ हैं। आप जब भी आवाज दोगे तो हम खड़े हो जाएंगे। इसके बावजूद शुक्लाजी के आंसू बरबस ही बह रहे थे। ठीक उसी तरह जब कोई अपने गांव, शहर या घर को छोड़कर अपना भविष्य बनाने के लिए किसी दूसरे शहर में जाता है। या फिर बेटी की शादी में माता-पिता को उसके बिछु़ड़ने का जो दुख होता है, ठीक उसी तरह शुक्लाजी के मन में भी इसी तरह का दुख था। बिछड़ने के इस दुख को वही समझ सकता है, जो इसे देख चुका होता है। क्योंकि व्यक्ति कहीं भी रहे। वह बचपन की यादें, किशोर अवस्था के दिन, नौकरी के अनुभव व पुरानी सभी यादें वह भूल कर नहीं भुला सकता। इन्हीं यादों के सहारे व नई पारी की शुरूवात अब शुक्लाजी को करनी है।
भानु बंगवाल