Wednesday 26 June 2013

Doing Service Forgetting Are Own pain

 दिल में दर्द छिपा देते रहे दवा...
उत्तराखंड में आई दैवीय आपदा ने जनमानस को झकझोर कर रख दिया। लोगों ने आपदा का तांडव झेला, जिंदगी के लिए जूझते रहे। जान बचाने की कोशिश की और फिर सब कुछ किस्मत के भरोसे छोड़ दिया। जब जान बची तो भोजन-पानी के साथ ही रात गुजारने का संकट सामने आने लगा। ऐसे में लोगों की मदद को स्थानीय लोग ही आगे आए। इनमें से कई ऐसे लोग भी थे, जो आपदा में अपने खेत-खलिहान, घर, दुकान सभी कुछ खो चुके थे। उनके सामने भी खाद्यान्न का संकट था। फिर भी वे आपदा में फंसे लोगों की भोजन-पानी से मदद करते रहे। इसके विपरीत मुसीबत में फंसे लोगों का कई ऐसे लोगों से भी वास्ता पड़ा, जिन्हें मुसीबत के मारों से कोई लेना देना तक नहीं था। उनका मकसद इस मौके का फायदा उठाकर अपनी पोटली भरना था। ये निष्ठुर व्यापारी थे या मजदूरों का मुखौटा लगाए बदमाश, पता नहीं, लेकिन उन्होंने जो कुछ भी किया, उससे राज्य की छवि को बट्टा लगा।
जिस पहाड़ में बेटा बीमार माता-पिता को अस्पताल पहुंचाने के लिए कंधे में उठाकर मीलों पैदल चलता हो और मुसीबत पडऩे पर पूरा गांव एक हो जाता हो, वहां के लोगों पर यात्रियों से लूट-खसोट का आरोप लगाना बेमानी होगा। आपदा आई तो लोगों ने मुख्य रास्ते छोड़कर सुरक्षित स्थानों व पहाडिय़ों की तरफ चढऩा शुरू कर दिया। गौरीकुंड से लेकर केदारनाथ के करीब 14 किलोमीटर लंबे रास्ते में जगह-जगह लोगों ने ऐसे स्थानों पर पनाह ली, जिसे सुरक्षित समझा गया। गौरीगांव में ही करीब चालीस परिवारों ने मुसीबत में फंसे यात्रियों के लिए अपने घर के कोठार (खाद्यान्न भंडार) खोल दिए। लोगों ने अपने घर के राशन की चिंता किए बगैर ही मुसीबत में फंसे लोगों को भोजन की व्यवस्था की। यहां तक कि पीडीएस के जरिये मिलने वाले राशन से किसी तरह जिंदगी गुजारने वाले ग्रामीणों तक ने फंसे श्रद्धालुओं के लिए चलने वाले लंगर में योगदान दिया। इसी तरह जंगल चïट्टी में जो दुकानें सुरक्षित बची, वहां भी लोगों ने शरण ली। मदद का सिलसिला यहीं नहीं थमा और आसपास से लोग यात्रियों के भोजन का जुगाड़ करते रहे। गौरीगांव के द्वारिका गोस्वामी व राजेंद्र गोस्वामी के मुताबिक जब राशन समाप्त होने लगा तो यात्रियों को एक समय का ही भोजन उपलब्ध कराया जा सका। करीब पांच हजार लोगों ने इस गांव ने शरण ली थी। चमोली में हेलंग से लेकर पीपलकोटी तक सड़क किनारे गांवों में बसे लोगों ने भी अपने घरों में फंसे यात्रियों को पनाह दी और उनके भोजन की भी व्यवस्था की। पंचायत घर लोगों के लिए खोल दिए। यहीं नहीं यात्रियों की मदद की ऐवज में कुछ नहीं लिया। ठीक यही हाल पांडुकेश्वर, गोविंदघाट आदि क्षेत्र में भी था। पांडुकेश्वर में तो कई लोग ऐसे थे, जिनके अपने मकान ध्वस्त हो गए, इसके बावजूद वहां लोगों ने मुसीबत में फंसे यात्रियों के रहने के लिए आपसी सहयोग से लंगर तक चलाए। पांडुकेश्वर में जगजीत मेहता व अतुल शर्मा, लामबगड़ में जगबीर परमार का घर व खेत सभी बह गए। वहां हेलीकाप्टर ने इंटर कालेज में खाद्यान्न गिराया तो इन लोगों ने खाद्यान्न स्थानीय लोगों को नहीं लेने दिया। उन्होंने कहा कि पहले इस खाद्यान्न से यात्रियों को खाना बनाकर खिलाया जाएगा और उन्होंने खिलाया भी। उत्तरकाशी के गंगोत्री रूट पर फंसे यात्री हों या फिर यमुनोत्री रूट पर। सभी स्थानों पर स्थानीय लोगों ने मुसीबत में फंसे यात्रियों की मदद की। इस मदद में ये नहीं देखा कि यात्री धन्ना सेठ है या फिर गंगू तेली। टिहरी जनपद में भी यही स्थिति थी। महिलाएं खेती बाड़ी छोड़ लंगर में खाना पकाने पहुंच रही थी।
इसके बावजूद यात्रा रूट पर फंसे लोगों से लूट खसोट की सूचनाएं भी आईं। कई स्थानों पर पानी की एक बोतल के सौ रुपये में बेचे जाने की सूचनाएं आती रहीं। अब सवाल यह है कि जिस पहाड़ में लोग मुसीबत के मारों की मदद कर रहे हों, वहां पर ये लूट खसोट कौन कर रहा था। भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए जरूरी है कि सरकार चार धाम यात्रा के दौरान बाहर से आने वाले लोगों का रजिस्टे्रशन करें। संदिग्ध लोगों पर खास नजर रखी जाए कि कहीं कोई असामाजिक तत्व साधु वेश धरकर या फिर मजदूर बनकर लूटपाट के इरादे से तो नहीं घुस रहा है।
भानु बंगवाल

Thursday 20 June 2013

Adulteration was not , so temple was saved ...

 मिलावट नहीं थी, तो बच गया मंदिर...
इस मिलावट ने किसी को कहीं का नहीं छोड़ा। भ्रष्टाचार चरम पर है। मिलावट का जमाना है। हर काम में कमीशनखोरी है। सो ऐसे में किसी भी काम की गुणवत्ता पर सवाल उठने लाजमी हैं। हाल ही में नौ जून को मैं सपरिवार केदारनाथ धाम के लिए देहरादून के लिए चला था। इसी शाम को मैं गौरीकुंड पहुंचा और अगले दिन दस जून की दोपहर बाद केदारनाथ धाम पहुंच गया। धाम में बड़ी रौनक थी। अगले दिन में 11 जून को गौरीकुंड वापस लौटा। रास्ते में तेज बारिश होने लगी। यानी उसी दिन से मौसम बिगड़ने लगा। गौरीकुंड पहुंचने के बाद पता चला कि हम जिस स्थान से होकर गौरीकुंड पहुंचे, वहां घोड़ा प्रीपेड काउंटर के पास फ्लड आया है। सोनप्रयाग से आगे गुप्तकाशी की तरफ वापस जाने के रास्ते कई जगह से बंद हो गए हैं। किसी तरह हम गौरीकुंड से निकले और मंगलवार की रात गोपेश्वर पहुंचे। यहां रात्रि विश्राम कर अगले दिन हम बदरीनाथ धाम पहुंचे और गुरुवारकी सुबह वापसी का सफर शुरू कर देर रात देहरादून घर पहुंच गए। ठीक दो दिन बाद मौसम और बिगड़ा और समूचे उत्तराखंड में  तबाही मचने लगी। मंगलवार 18 जून को जब केदारनाथ धाम में आपदा की तस्वीरें सामने आई तो देखा कि एक सप्ताह पूर्व पहले केदारनाथ में मंदिर के पास मैं  जिस होटल में ठहरा था, उसका तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया। इसी तरह आसपास की दुकानें तस्वीर से गायब थी।
आपदा आई और इसके साथ ही आपदा के कारणों पर बहस भी शुरू हो गई। कोई इसे मानव की प्रकृति में जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी बता रहा है, कोई जल विद्युत परियोजनाओं का निमार्ण, कोई पहाड़ों में विस्फोट, तो कोई कुछ अन्य कारण गिना रहा है। खैर कारण जो भी हो, लेकिन केदारनाथ में जिस रास्ते से होकर आपदा आई, वहां तो शायद किसी की दखलअंदाजी हो ही नहीं सकती। जिन पहाड़ों से पानी, मलबा व पत्थर बरसे, वे तो इतनी ऊंचाई पर थे कि मानव ने वहां शायद ही कोई निर्माण किया हो। फिर भी वहीं से आपदा आई। पत्थरों की बारिश हुई और केदारनगरी तबाह हो गई। इस तबाही के बीच अडिग खड़ा रहा केदारनाथ मंदिर। जिसमें करोड़ों हिंदुओं की  आस्था टिकी हुई है। इस मंदिर में जान बचाकर शरण लेने वाले भी कई लोग मौत के आगोश में समाने से बच गए।
पूरी केदारनगरी में जो भी भवन पत्थरों की चपेट में आए, वे सभी जमींदोज हो गए। फिर ऐसा क्या था मंदिर में कि पत्थरों की मार सहने के बाद भी वहीं अडिग खड़ा रहा। सच तो यह है कि जब इस मंदिर का निर्माण करीब 1200 साल पहले आदि शंकराचार्य ने कराया, तब शायद मिलावट का जमाना नहीं था। न तो किसी निर्माण कार्य में कमीशनखोरी ही थी और न ही नकली सामान बेचने का चलन था। तब नकली व अधपकी ईंटों का जमाना नहीं था। मजबूत पत्थरों की चिनाई जिस मसाले के साथ ही जाती थी, उसकी गुणवत्ता से भी कोई समझोता नहीं किया जाता रहा होगा। अब आजकल के निर्माण को ही ले लो। नेता, विभागीय अधिकारी, ठेकेदार से लेकर उसमें सभी तो कमाना चाहते हैं। वहीं, यदि कोई खुद ही अपने लिए निर्माण कराता है तो भले ही वह कमीशन नहीं दे रहा होता, लेकिन क्या गारंटी है कि सीमेंट या सरिया असली है। मिलावट से सीमेंट भी अछूता नहीं है। कहां गई वे कंपनियां जो अपने सीमेंट का वर्षों चलने का दावा करती हैं। पत्थरों की बरसात में उनके सीमेंट से बनी इमारतें केदारनाथ में जमींदोज हो गई। मंदिर को छोड़कर करीब 20 से 25 साल के भीतर बने होटल, पुल, सड़कें व अन्य निर्माण  इस बरसात की मार नहीं झेल पाए। वहीं इसके विपरीत 1200 साल पुराना मंदिर मजबूती से खड़ा रहा। पत्थरों की मार तो  केदारनाथ मंदिर में भी पड़ी होगी। फिर भी वह क्यों खड़ा रहा। यह इसलिए हुआ कि उसके निर्माण में किसी नेता, अधिकारी ने दलाली नहीं खाई। उसके निर्माण में गुणवत्ता से समझोता नहीं किया गया। उसके निर्माण में घटिया सामान का इस्तेमाल नहीं किया गया।
भानु बंगवाल 

Saturday 15 June 2013

step by step , the changing culture ...

 कदम-कदम पर बदलती संस्कृति...
पहाड़ के लोगों का पहाड़ सा जीवन। इस कठिन जीवन के बारे में मैदानी क्षेत्र के लोग तब जानते हैं, जब वे पहाड़ की यात्रा करते हैं और कहीं भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र में घंटों तक फंस जाते हैं। मानसून की पहली बरसात में तो पहाड़ की सड़कें जख्मी हो गई। ऐसे में चारधाम यात्रा पर तो लगभग ब्रेक ही लग गया। विभिन्न स्थानों पर पहाड़ी दरकने से यात्री फंस रहे हैं। कई बार तो एक ही स्थान पर चार व पांच घंटे तक लोगों को रास्ता खुलने का इतंजार करना पड़ रहा है। एक बाधा पार की तो दूसरी बाधा कुछ ही आगे मिल जाती है। फिर वही इंतजार और आगे का सफर। ऐसे में एक दिन का सफर कई बार दो या तीन दिन का हो जाता है।
पहाड़ की संस्कृति भी कदम-कदम पर बदलती रहती है। लोगों के लिए बरसात जो आफत लेकर आती है, वही कई के लिए कमाई का जरिया भी बन जाती है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो परेशान लोगों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं। उनकी व्यापारिक सोच जाग्रत हो जाती है और वे सुविधा के नाम पर फंसे यात्रियों की जेब ढीली करने से भी गुरेज नहीं करते। वहीं, इसके विपरीत ऐसे भी लोग हैं, जो यात्रियों की सेवा को ही परम धर्म समझते हैं।
ऋषिकेश बदरीनाथ हाईवे पर चमोली जनपद में ऐसे कई स्थान हैं, जहां इन दिनों रास्ते अवरुद्ध हो रहे हैं। चमोली से लेकर जोशीमठ तक के सफर में करीब 15 से 20 स्थानों पर चट्टान दरक रही है। लोग जगह-जगह फंस रहे हैं। यहां एक बात यही नजर आई कि इस रास्ते पर कुछ-कुछ दूरी मे विपरीत सोच वाले लोग रहते हैं। चमोली से पीपलकोटी तक सड़क किनारे बसे गांव व स्थानीय लोग व्यापारिक सोच के हैं। वहां ज्यादातर लोगों ने अपने घरों को ही लॉज का रूप दे रखा है। एक-दो कमरों मे बिस्तर लगाए हुए हैं। रास्ता बंद होने पर ग्रामीण यात्रियों को रहने की जगह किराये पर देते हैं। इससे यात्रियों की परेशानी भी कम होती है और ग्रामीणों की आमदनी भी हो जाती है। वहीं, पीपलकोटी से बदरीनाथ की तरफ जाने वाली सडक में हेलंग तक करीब 15 से 20 किलोमीटर तक बसे गांव के लोगें की सोच व्यावसायिक नहीं है। अतिथि सत्कार करना तो कोई यहां के लोगों से सीखे। पागलनाला, टंगणी स्लाइड, गुलाबकोटी आदि ऐसे करीब सात स्थान हैं, जहां सड़क अक्सर बाधित हो जाती है। इन स्थानों पर यदि यात्री रात को फंसते हैं, तो ग्रामीण पंचायत घरों को उनकी सेवा के लिए खोल देते हैं। यही नहीं कई लोग तो अपने मेहमान की तरह ही अपने घर में यात्रियों को शरण देते हैं। इसकी एवज में वे किसी से कुछ लेते तक नहीं। एक ही सड़क किनारे बसे गांवों में करीब 15 किलोमीटर की दूरी मे ही लोगों की सोच व संस्कृति में कितना अंतर है। ऐसे गांवों में फंसने वाले यात्रियों में भी आपसी तालमेल देखा जाता है। मुसीबत के समय यात्री भी एक-दूसरे की मदद को तत्पर रहते हैं। यदि कोई यात्री भोजन जुटाने को कहीं दूर तक जाता है, तो वह दूसरों के लिए भी कुछ न कुछ खानपान की सामग्री साथ लेकर लौटता है। इसे आपस में बांटकर ही लोग किसी तरह काम चलाते हैं। काश दूसरे की मदद करने वाले गांवों के लोग अपना दायरा और बढ़ाएं और ऐसे लोग समूचे उत्तराखंड में फैल जाएं। तभी देवभूमि उत्तराखंड की महत्ता और अधिक बढ़ेगी।
भानु बंगवाल

Friday 14 June 2013

Some happy, some sad ...

कुछ सुखद, कुछ दुखद ...
कोई भी सफर या यात्रा करो। उसके दो तरह के अनुभव मिलते हैं। ये अनुभव कुछ सुखद होते हैं, तो कुछ इतने कष्टकारी होते हैं कि व्यक्ति कान पकड़ लेता है कि दोबारा वह ऐसी यात्रा नहीं करेगा। फिर भी जीवन तो चलने का नाम है। हर कष्ट को सहन कर,  हर बाधाओं को पार करके ही मनुष्य को जीवन में सच्चे सुख का अनुभव होता है। ऐसा ही अनुभव मुझे मिला केदारनाथ व बदरीनाथ की यात्रा का। पांच दिन की इस यात्रा के दौरान मुझे कभी ज्यादा मजा आया तो कभी अपनी किस्मत को भी कोसने लगा कि मैं यहां क्यों आया। घर से बच्चों के साथ मैं देहरादून से गौरीकुंड के लिए रवाना हुआ। इस रास्ते में मुझे कोई दिक्कत नहीं आई। हां इतना जरूर है किजो गणित गौरीकुंड पहुंचने का लगाया उसमें अनुमान के मुताबिक कुछ ही फर्क निकला। यानी दो घंटे ही मैं लेट हुआ। गौरीकुंड पहुंचकर बच्चों को तब आश्चर्य हुआ जब खानपान की हर वस्तु की कीमत दो से तीन गुनी थी। इसके लिए मैं पहले से तैयार था। बच्चों को जो पसंद था वह देहरादून से ही खरीद लिया गया था। ताकी बाहर ज्यादा सामान न लेना पड़े। मैने बच्चों को समझाया कि इस दुर्गम स्थान पर ढुलाई ज्यादा पड़ती है। साथ ही यहां के व्यापारी मात्र दो से तीन माह तक ही व्यापार करते हैं। केदारनाथ मंदिर के कपाट बंद होने के बाद उनका धंधा भी चौपट हो जाता है। ऐसे में यदि वे थोड़ा महंगा भी बेच रहे हैं तो कोई बात नहीं।
एक रात गौरीकुंड में छोटे से सुंदर से लॉज में बिताने के बाद अगली सुबह यानी दूसरे दिन हम नहा-धोकर केदारनाथ धाम की पैदल चढाई पर थे। 14 किलोमीटर की इस खड़ी चढ़ाई में मैं और मेरी पत्नी, दो बेटे (एक दस साल व एक पंद्रह साल) पैदल ही चल दिए। सामान के नाम पर हमने एक बैग में सभी की बरसाती, बनियान, खानपान का सामान आदि ही पैक किए।  दो तीन किलोमीटर के बाद यही बैग हमें ऐसा लगने लगा कि जैसे किसी पहाड़ को उठाकर चल रहे हैं। इस चढाई में सबसे ज्यादा परेशानी घोड़ा-खच्चर से लोगों को हो रही थी। वे एक निश्चित दिशा में नहीं चल रहे थे। उनसे बचने के लिए लोगों को परेशान होना पड़ रहा था। कई बार लोगों का घोड़ा संचालकों से विवाद भी हो जाता। करीब सात घंटे की मश्कत के बाद हम केदारनाथ धाम पहुंच गए। तब तक हम पैकेट के सामान कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स, बिस्कुट आदि सभी निपटा चुके थे। बैग का बोझ भी कम करना था। केदारनाथ धाम पहुंचने के बाद मैं सर्दी से कांपने लगा। खैर जैकेट साथ थी। कुछ आराम जरूर मिला। शाम को मंदिर से करीब आठ सौ मीटर की खड़ी चढाई पर हम भैरवनाथ मंदिर भी गए। वहां से होटल के कमरे में आ गए। फिर रात करीब आठ बजे मंदिर में जाकर आरती में शामिल हुए। रात को वहां इतनी सर्दी थी कि दो रजाई से ही काम चला। अगली सुबह तीसरे दिन साढ़े पांच बजे वापस गौरीकुंड की तरफ रवाना हो गए।
सुबह एक बात पर हम सभी आश्चर्यचकित थे कि रास्ते में ज्यादा घोड़े नहीं दिख रहे थे। ऐसे में हम सभी की चाल घोड़े के समान थी। क्योंकि घोड़ों के कारण हमें बच-बच कर चलना पड़ता। पता चला कि घोड़ों की हड़ताल है।कुछएक घोड़े वाले चोरी-छिपे ही यात्रियों को घोड़ों पर बिठाकर ले जा रहे थे। ऐसा ही हाल पालकी व कंडी वालों का था। यहीं से हमें सुखद व दुखद दोनों ही स्थिति का सामना करना पड़ा। चढ़ाई में जितना कष्ट था ढलान में भी उतना ही था। पैर जाम हो चुके थे। कदम उठते नहीं थे। धीरे-धीरे चाल धीमी पड़ने लगी। सूरज बादलों में छिपा था। फिर बारिश भी होने लगी। धीरे-धीरे बारिश पूरे शबाब पर थी। हमने बरसाती निकाल ली और चलते ही रहे। जैसे-जैसे समय बीता हड़ताली भी सक्रिय हो गए। लाल झंडे वालों ने हेलीकाप्टर सेवा के खिलाफ हड़ताल करखी थी। जो थोड़े बहुत घोड़े, पालकी व कंडी पर यात्री चल रहे थे, हड़तालियों ने उन्हें रोककर सवारी उतारनी शुरू कर दी। ऐसे में की वे यात्री परेशान हो गए, जो चलने में समर्थ नहीं थे। उनका हड़तालियों से विवाद भी हुआ। कंडी से उतरने के बाद बच्चे रोने लगे। उनकी सुनने वाला कोई नही था।
ढलान उतरने वाले तो पैदल चलकर यहां के लोगों को कोस रहे थे, वहीं पैदल चलने वाले खुश थे। केदारनाथ की चढ़ाई चढ़ने वाले तो कई बगैर घोड़ा व अन्य संसाधनों के वापस गौरीकुंड को रवाना हो गए। सुबह 11 बजे गौरीकुंड पहुंचकर मुझे चोपता,गोपेश्वर होते हुए बदरीनाथ को रवाना होना था। इसके लिए मैने टैक्सी मंगाई थी। पता चला कि लगातार हो रही बारिश के कारण टैक्सी भी गौरीकुंड नहीं पहुंच पाई। करीब सात-आठ किलोमीटर पहले सीतापुर के पास भूस्खलन होने पर टैक्सी वहीं फंसी पड़ी है। एक-एक घंटे इंतजार करते-करते शाम के पांच बज गए और टैक्सी हमसे करीब पांच किलोमीटर दूर सोनप्रयाग तक ही पहुंच सकी। सोनप्रयाग में करीब चार हजार से ज्यादा वाहन थे। वहां से एक बार में सौ वाहन गौरीकुंड की तरफ भेजे जा रहे थे। जब इतने ही वाहन वापस लौटते तभी आगे फिर सौ वाहन को भेजा जाता। ऐसे मौके का फायदा उठाकर कुछ वाहन सोनप्रयाग में बैरियर से पहले तक की सवारी ढो रहे थे। फिर वहां से गौरीकुंड की सवारी। मैं भी परिवार के साथ के साथ सोनप्रयाग तक पहुंचा। मोबाईल ऐसे स्थानों पर खिलौना साबित हो रहे थे। कभी-कभार बीएसएनएल का नेटवर्क ही मिल पाता था। सोनप्रयाग से आगे चलने में लंबे जाम मिले। एक घंटे का रास्ता दो घंटे में तय हो रहा था। कई स्थानों पर तो आधे-आधे घंटे रुकना पड़ रहा था। ऐसे में कहीं रुककर खाना खाने का भी समय तक नहीं मिला। नंदप्रयाग से आगे कुंड नामक स्थान पर तो पुल पर ही करीब एक घंटे के जाम में हम फंसे रहे।
इस जाम के बाद रात करीब साढ़े नौ बजे हम चोपता के रास्ते पर थे। बच्चे व पत्नी सो रहे थे, मैं और ड्राइवर दोनों ही जाग रहे थे।
बड़े-बड़े गड्ढों वाली सर्पीली सड़क, कहीं कीचड़ भरा हुआ तो कभीं पानी। ऐसे में वाहन में भी काफी डर लग रहाथा। रात का समय था। सामने सड़क किनारे एक छाया सी दिखी। वाहन की गति हल्की कर गौर से देखा तो पाया कि सड़क किनारे गाय मरी पड़ी है। उसे एक बडा सा गुलदार खा रहा था। गाड़ी की रोशनी पड़ने पर वह दूसरी तरफ खाई की ओर चल दिया। उसे देखने को हमने गाड़ी धीरे-धीरे बैक की। बच्चों को जगाने का प्रयास किया, पर वे गहरी नींद में थे। पत्नी ये नजारा देख डर गई। वह आगे बढ़ने की जिद करने लगी। गुलदार आगे शाही चाल से रैलिंग के साथ-साथ चल रहा था। हम उलटी गाड़ी ढलान पर उसके पीछे सरका रहे थे। वह पलटा और गुर्राते हुए हमें डराने लगा। फिर खाई की तरफ छलांग लगाते हुए छिप गया। ये अनुभव कुछ रोमांचकारी था।
रास्ते में कहीं कोई चेकिंग नहीं थी। चोपता में एक जगह जहां होटल थे, वहीं पुलिस ने बैरियर लगाया हुआ था। शायद ये याद दिलाने के लिए कि रात को पहाड़ में वाहन चलाना प्रतिबंधित है। करीब सात गाड़ियां वहां फंस गई। रात के 12 बजे थे। हो सकता है कि पुलिस कर्मी उस होटलवाले के लिए ही यह काम कर रहे थे, जिसके समीप बैरियर था। लोगों का अनुरोध उनके आगे फीका पड़ रहा था। खैर किसी तरह सिफारिश का फायदा उठाकर बैरियर का डंडा उठवाया। गौरीकुंड से गोपेश्वर तक के जिस रास्ते को सुबह 11 बजे से पार करने में हमें अपराह्न के दो या तीन बजने थे वह जगह-जगह भूस्खलन के कारण रात दो बजे तय हो सका। गोपेश्वर में रात्रि विश्राम के बाद चौथे दिन हम सुबह गोपीनाथ मंदिर में गए और बदरीनाथ को रवाना हो गए। आगे का सफर करीब ठीक था। कुछएक स्थान पर हल्का जाम मिला। अपराह्न करीब साढ़े तीन बजे हम बदरीनाथ में पहले उस स्थान पर पहुंचे जहां हमे ठहरना था। एक इग्लूनुमा कॉटेज में सामान रखकर हम भारत-चीन सीमा के आखरी गांव माणा गए। वहीं मुझे एक देहरादून का मित्र भी मिल गया जो करीब एक सप्ताह से बदरीनाथ आया हुआ था। माणा में एक बात जरूर अच्छी लगी कि वहां के लोग अब स्थानीय उत्पादों का महत्व समझने लगे हैं। हाथ से तैयार भेड़ की ऊन के वस्त्र वे बेच रहे थे। साथ ही दुर्लभ जड़ी-बूटी, तुलसी की चायपत्ती आदि भी वे सस्ती दर पर लोगों को बेच रहे थे। पहले बाहर के व्यापारी उन्हें ठग लेते थे। अब वे खुद व्यापारी बन गए।
रात साढ़े सात बजे मंदिर में प्रवेश कर भगवान बदरीविशाल के दर्शन के बाद हम कॉटेज में चले गए। फिर भोजन के बाद बिस्तर पर लेटे तो गहरी नींद भी आई। पांचवे दिन सुबह चार बजे उठने के बाद हर्बल चाय का आनंद लिया और स्नान करने के बाद मैं ब्रह्मकपाल पहुंचा और पित्रों का पिंडदान किया। इसी दौरान बेटे गर्मकुंड में स्थान का आनंद लेते रहे। फिर सुबह दोबारा दर्शन कर हम वापस आठ बजे देहरादून को रवाना हुए। इस दिन दो दिन की बारिश से पहाड़ की सड़कें छलनी हो गई। जगह-जगह भूस्खलन से रास्ते बंद थे। ऐसे में कई स्थान पर रास्ता साफ होने का इंतजार भी करना पड़ा। शाम सात बजे तक जहां देहरादून पहुंच जाना था, वहीं मैं रात साढ़े दस बजे घर पहुंचा। फिर भी यात्रा में सुख व दुख दोनों का जो अनुभव रहा, वह काफी रोमांचकारी रहा।
भानु बंगवाल 

Wednesday 5 June 2013

No career, passion is rural journalism..

करियर नहीं, जुनून है ग्रामीण पत्रकारिता...
वैसे तो पत्रकारिता का क्रेज युवाओं में इस कदर सिर चढ़कर बोल रहा है कि वे इसे करियर के रूप में अपनाना चाहते हैं। पिछले कई साल से फिल्मों में भी पत्रकारों को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया, उसे देखकर युवाओं का पत्रकारिता का तरफ रुझान स्वाभाविक भी है। कुछ नया करना, आम बात को खास में बदलकर प्रस्तुत करना, भला किसे अच्छा नहीं लगता है। भले ही बाहर से ये चमक-दमक की जिंदगी नजर आती है, लेकिन ये सच है कि यदि वास्तव में कोई पत्रकारिता के मिशन से जुड़ा है, तो समझो उसके पास सोने, खाने व परिवार के लोगों के साथ समय बिताने के लिए समय ही नहीं रहता। कब और किस वक्त कहां दौड़ना पड़ जाए यह कहा नहीं जा सकता।
फिर भी शहरों में पत्रकारों के पास तमाम सुविधाएं हैं और वे समय से हर काम पूरा भी कर लेते हैं। साथ ही हल्की-फुल्की मस्ती में भी उनका दिन निकल जाता है, लेकिन इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्र में पत्रकारिता तो मात्र जुनून है, करियर नहीं।
ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों के लिए पत्रकारिता के माध्यम से रोजी-रोटी चलाना संभव नहीं है।क्योंकि कस्बाई पत्रकारों को शायद ही कोई समाचार पत्र इतना मानदेय देता हो कि उससे उसका परिवार का
खर्च चल सके। फिर भी पत्रकारिता का जुनून ऐसा है कि वे अपना समय लगाने के साथ ही इस मिशन के लिए अपनी जेब तक ढीली कर देते हैं। छोटे कस्बे व गांव में पत्रकारिता करना चुनौती से भरा काम है। कारण कि सभी लोग पहचान वाले होते हैं।  ऐसे में हरएक की यही चाहत होती है कि पत्रकार उनके पक्ष की ही खबर लिखे। यदि इसके विपरीत कोई लिखता है तो उसे अपने ही लोगो का विरोध झेलना पड़ता है। उत्तराखंड में ऐसे पत्रकारों की लंबी फेसिहत है, जो किसी न किसी समाचार पत्र से जुड़कर छोटे कस्बों की रिपोर्टिंग कर रहे हैं। इनके आगे नेटवर्किंग की समस्या रहती है। साथ ही बड़ी चुनौती घटनास्थल तक पहुंचने की होती है। उदाहरण के तौर पर देखें कि उत्तरकाशी के मौरी ब्लाक के ओपला क्षेत्र में आग लगी है, तो पुरोला से जब कोई पत्रकार मौके पर पहुंचता है तो वाहन से सफर तय करने के बाद उसे करीब 18 किलोमीटर की दूरी पैदल भी नापनी पड़ी। इसी तरह यदि कहीं भूस्खलन हो या फिर भारी बर्फबारी हो तो मौके पर पहुंचा भी पत्रकार के लिए मुश्किल होता है और समय पर वापस लौटना भी। कई बार तो बर्फबारी प्रभावित क्षेत्र की रिपोर्टिंग करने पहुंचे पत्रकार दोबारा बर्फ गिरने पर मौके पर ही फंस जाते हैं। फिर उनकी वापसी भी एक दो दिन बाद होती है।
कंधे पर थैला, थैले में डायरी, शर्ट की जेब पर कलम आदि का फैशन भले ही अब शहरों से गायब हो गया हो, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकार के पास वह समाचार पत्र जरूर मिलेगा, जिससे वह जुड़ा होता है। कहीं किसी दुर्गम क्षेत्र में वह जाता है, वहां के लोग उससे उम्मीद रखते हैं कि वह ताजा समाचारों से उन्हें भी अवगत कराए। ऐसे में पत्रकार नारद की भूमिका निभाते हैं।
पुरोला के एक बुजुर्ग पत्रकार बताते हैं कि कुछ जनजातीय वाहुल्य क्षेत्र ऐसे हैं, जहां समाचार ही पलट जाते हैं। मौरी के एक गांव में हत्या होती है। हत्या का समाचार वह लिखते हैं। जो समाचार पत्र में प्रकाशित भी हो जाता है। अगले दिन वह समाचार का फालोअप करने के लिए तथ्य जुटाने का प्रयास करते हैं। ऐन मौके पर पता चलता है कि दोनों पक्षों का समझौता हो गया। ग्रामीणों ने आपसी बैठक करके ही पूरे केस का निपटारा कर दिया। न कोई अदालत का झंझट और न कोई मुकदमेबाजी। इन सबके बावजूद आज भी कई लोग ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में पत्रकारिता के मिशन से जुड़े हैं। जिनके आगे बस चुनौती है चुनौती है।
भानु बंगवाल