Thursday 24 April 2014

दस नंबरी.....

उस दौरान दस नंबरी का आशय ऐसे व्यक्तित्व से लगाया जाता था, जो चालाक हो, तेज तर्रार हो. कुछ धूर्त हो, कुछ बदमाश हो, बदमाशों की खैर रखता हो आदि-आदि। कारण कि 1976 में मनोज कुमार की जो फिल्म रीलिज हुई उसका नाम दस नंबरी था। ऐसे में दस नंबरी नाम का व्यक्तित्व उक्त प्रकार का होना चाहिए। पर उस मोहल्ले में तो एक महिला का नाम ही दस नंबरी पड़ गया। वह भी गर्व से अपने इस नाम को सुनकर फूली न समाती थी। देहरादून के राजपुर रोड स्थित राष्ट्रपति आशिया के क्वार्टर में एक कमरे के मकान में रहती थी दस नंबरी। राष्ट्रपति आशिया की देखरेख एक दफेदार (जेसीओ) करता है। इसमें मुख्य भवन में करीब 26 कमरों की कोठी है। इसमें फखरूदीन अली अहमद से लेकर कई राष्ट्रपति जब दून आए तो वहीं ठहरे थे। यही नहीं फखरूदीन अली अहमद ने तो इस परिसर में आम की पौध का रोपण भी किया था, जो अब बड़े फलदार पेड़ का रूप ले चुके हैं। यह परिसर काफी बड़ा है। इसके एक छोर में पहले घोड़ों की घुड़साल व गोशालाएं थी। बाद में इन गोशालाओं को कमरे का रूप दे दिया गया और उन्हें मामूली किराए में गरीब लोगों को रहने को दिया जाने लगा। यह किराए का सिलसिला करीब 1950 के बाद शुरू हुआ। तब राष्ट्रपति आशिया की जमीन पर बनी बैरिकों में कमरों की संख्या करीब साठ से अधिक रही होगी। पर किराए पर करीब चालीस से अधिक कमरे दिए गए थे। इनका किराया राष्ट्रपति का अंगरक्षक (बार्डीगाड) वसूलता था। इस राशि से परिसर की सफाई आदि का कार्य मैनटेंन किया जाता था। राष्ट्रपति आशिया के इन क्वार्टर को बार्डीगाड लाइन कहा जाता था। इससे सटे मोहल्ले का नाम बिगड़कर बारीघाट हो गया। घना मोहल्ला, लेकिन तब किसी भी कमरे में बिजली की सुविधा नहीं थी। सभी किराएदार मिट्टी के तेल की डिबिया या लैंप जलाकर रात को घर रोशन करते थे। दफेदार किसी को बिजली कनेक्शन लेने की अनुमति नहीं देता था। उसे डर था कि कहीं लोगों के पास वहां रहने का प्रमाण एकत्र न हो जाए और जरूरत पड़ने पर कमरे खाली करना मुश्किल हो जाएगा। गरीब लोग इसलिए खुश थे कि पांच रुपये महीने में उन्हें पंद्रह फीट लंबा व नौ फुट चौड़ा कमरा मिला हुआ था।
बार्डीगाड लाइन में हर कमरे के आगे व पीछे काफी खाली जमीन थी। ऐसे में वहां रहने वाले लोग अपने कमरे के सामने व पीछे की जमीन पर अपनी जरूरत की सब्जियां भी उगाते थे।
इसी बार्डीगाड लाइन में मकानों की एक लेन के आगे बेलपत्री का पेड़ था। ऐसे में उस लाइन को बेल वाली लाइन कहा जाता था। पंडित, राजपूत, सफाईकर्मी, मजदूर, धोबी सभी तरह के लोग वहां रहते थे। पड़ोसियों में काफी एका था। दूख-सुख में सभी एक दूसरे के काम आते थे। बेल वाली लाइन में दस नंबर के कमरे में एक सरकारी विभाग का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी रहता था। उसकी पत्नी का नाम लोगों ने दस नंबरी रख दिया। दस नंबरी को अपने इस नाम से जहा भी रंज नहीं था। वह इस नाम पर गर्व करती थी। ये नाम रखने वाले भी बड़े कमाल के होते हैं। कैसे उनके मन में ख्याल आते हैं और हो जाता है किसी का भी नामकरण। जब स्कूल जाने की मैने शुरूआत की तो मेरा रंग काफी गोरा था। तब बच्चों ने मेरा नाम मलहम रख दिया। बच्चे मुझे चिढ़ाते और मैं यही कोसता कि किसी धूर्त ने मेरा यह नामकरण किया। फिर छठी जमात में गया तो वहां नए बच्चे मिले। मैं खुश था कि अब मलहम नाम से छुटकारा मिल जाएगा। पर मेरी किस्मत ऐसी नहीं थी। नए बच्चों ने मेरा नाम भानु बुढ़िया रख दिया। छठी करने के बाद मैने पिताजी से अपना स्कूल बदलवाया। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरा परमानेंट नाम भानु बुढ़िया पड़ जाए। स्कूल बदला और मैं सातवी से डीएवी इंटर कॉलेज में जाने लगा। वहां मुझे ऐसे नामों से मुक्ति मिल गई। पर वहां शायद ही कोई शिक्षक ऐसा नहीं था, जिसका बच्चों ने कोई नाम नहीं रखा था। आदत, रंग, कद-काठी, आदि के अनुरूप किसी को गुटका, तो कोई टीचर पहाड़ी चूहा, तो कोई लंबू, कोई कालिया के नाम से फैमस था। तब मुझे यह बात समझ आ गई कि ऐसे नामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। व्यक्ति को अपने कर्म पर ही ध्यान देना चाहिए।
दस नंबरी एक सीधी साधी महिला थी। उसके कोई बच्चे नहीं थे। उसने बकरियां पाली हुई थी। किसी से परिचय होने पर वह अपना नाम दस नंबरी ही बताने लगी थी। तब महीने में एक बार इस मोहल्ले की करीब आठ दस महिलाएं दस नंबरी के नेतृत्व में फिल्म देखने जरूर जाती। फिल्म के लिए सभी अपना-अपना खर्च करते। दोपहर में वह बकरियां चराने पास के जंगल जाती। दस नंबरी के सदव्यवहार से बच्चे भी खुश रहते थे। गर्मियों में स्कूल की छुट्टी पर हम बच्चे इस जंगल में धमाचौकड़ी मचाते। कभी-कभी पिकनिक का प्रोग्राम बनता तो बच्चे घर से बर्तन, चावल, चीनी आदि लेकर जंगल पहुंचते। वहां लकड़ियां एकत्र कर चूल्हा जलाकर मीठे चावल बनाते। कभी खिचड़ी का भी प्रोग्राम बनता। एक दिन हम मीठे चावल बना रहे थे। समीप ही दस नंबरी बकरियां चरा रही थी। वह पास आई और बोली कि खीर बनाओ। हमने कहा दूध कहां से आएगा। इस पर उसने कहा कि मेरी निमरी (बकरी का नाम) का दूध निकाल लो। बच्चों ने ऐसा ही किया। सचमुच दस नंबरी का प्यार उस खीर में घुल गया। उस खीर का स्वाद मैं आज तक नहीं भुला।
समय बदला करीब वर्ष 2008 के बाद राष्ट्रपति आशिया के किराएदारों को कमरे खाली करने का फरमान आया। तब तक वहां के कमरों का किराया भी बढ़कर दो से तीन सौ तक पहुंच गया था। फिर भी यह काफी कम था। सौ साल पुरानी बैरिकें खंडहर होने लगी थी। कुछ लोगों ने अपने मकान बना लिए और कई किराए के मकान में चले गए। अब वहां मकानों के खंडहर ही शेष बचे हैं। कई कमरों की छत तक गायब है। न तो बेल वाली लाइन में बेल पत्री का पेड़ ही बचा है और न ही दस नंबरी इस संसार में है। वैसे अब दुनियां में दस नंबरियों की कमी नहीं है। नेता, पुलिस, वकील, पत्रकार आदि की जमात में दस नंबरी नजर आ जाएंगे। पर उस दस नंबरी की तरह नहीं, जो खुद को दस नंबरी कहलाने में गर्व महसूस करें। आजकल के दस नंबरी तो दूसरों का खून चूसकर खुद को संत कहलना पसंद करते हैं। हां अभी भी दस नंबर का कमरा खंडहर के रूप में नजर आता है। कैनाल रोड से उसकी खिड़की आज भी वैसी नजर आती है, जैसे चालीस साल पहले थी। अक्सर कैनाल रोड की तरफ मार्निंग वाक में जाते समय दस नंबर के कमरे की खिड़की देखकर मरे कदम रुक जाते हैं। मुझे लगता है कि भीतर से दस नंबरी यही गाना गुनगुना रही है कि- दुनियां एक नंबरी और मैं दस नंबरी।
भानु बंगवाल

Sunday 20 April 2014

जमाना बदल रहा है...

हर वक्त एक तकियाकलाम लोगों का यही रहता है कि जमाना बदल रहा है। चाहे चालिस साल पहले की बात रही हो या फिर चार सौ साल पहले की। तब भी शायद लोगों के मुंह में यही बात रही होगी कि जमाना बदल रहा है। जमाना तो बदलेगा ही। यही प्रकृति का नियम है। कोई भी चीज एक तरह से नहीं रहती। उसमें परिवर्तन तो आता ही रहता है। फिर भी सौ साल में जिस तेजी से विकास हुआ यह शायद पहले नहीं हुआ हो। जहाज बने, कार-मोटर का जमाना आया। गांव शहरों में तब्दील हो गए। 80 के दशक में कंप्यूटर आए। पहले इसका विरोध हुआ, लेकिन अब यह व्यक्ति की जरूरत बन गया। संचार क्रांति ने तो एक नए युग का सूत्रपात किया। चुनाव आए तो नेताजी भी हाईटेक हो गए। लोगों को रिझाने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल भरपूर करने लगे। वहीं प्रेम की पींगे बढ़ाने के लिए भी यह माध्यम सबसे सुलभ नजर आने लगा। चिट्टी लिखकर किसी लड़की को देना अब गुजरे जमाने की बात हो गई। इसमें भी यह रिस्क रहता था कि कहीं लड़की के बजाय उसके भाई या पिता के हाथ पड गई तो शायद बबाल ही मच जाए। अब तो मोबाईल या फिर फेसबुक का सहारा लेकर बातचीत की शुरूआत होने लगी। कई ऐसे उदाहरण हैं जिनका घर फेसबुक के माध्यम से ही बसा। यहीं से पहले चेट हुई, फिर यह चेट प्रेम में बदली और फिर कहानी शादी तक पहुंची।
अब देखो भीख भी हाईटेक तरीके से मांगी जा रही है। मैसेज के जरिये अपना दुखड़ा सुनाकर मदद मांगने वालों की कमी नहीं है। ऐसे लोग कहीं न कहीं किसी न किसी को मुर्गा बनाने में कामयाब भी हो जाते हैं। इसी तरह ठगी करने वाले भी हाईटेक तरीके इस्तेमाल करने लगे हैं। ऐसे लोग छोटा लालच देते हैं। जो लालच में फंसा वह गया काम से।
मुझे मोबाइल में फोन आया और फोन करने वाले ने खुद को भारत संचार निगम का एसडीओ बताया। उसने पूछा कि मेरा फोन का बिल कितने का आता है। मैने जब उसे बताया कि हर माह करीब एक हजार रुपये का बिल आता है तो वह बोला कि आज से निगम ने एक स्कीम लांच की है। यदि तुम तीन हजार रुपये आज ही जमा करा दोगे तो पूरे साल भर तक कोई बिल नहीं आएगा। साल में पूरे नौ हजार का फायदा । सिर्फ एक बार पैसे जमा कराने में। मैं भी छोटे लालच के फेर में फंसने लगा। फिर मुझे ध्यान आया कि कहीं यह ठग तो नहीं। मैने उसका नाम पूछा। साथ ही कुछ बीएसएनएल के कर्मचारियों व अधिकारियों के नाम भी। मेरी बात का वह सही जवाब देता रहा। मैने कहा कि मैं बीएसएनएल के कार्यालय में जाकर पैसे जमा करा दूंगा। इस पर वह बोला कि पैसे पीसीओ के माध्यम से ही रिचार्ज होंगे।
मुझे ध्यान आया कि बीएसएनएल में जब भी पोस्टपेड कनेक्शन पर मैं कोई भी नेट का प्लान बदलता हूं तो उसके लिए निगम के कार्यालय में जाकर फार्म भरना पड़ता है। साथ ही भुगतान किए गए पिछले बिल की प्रतिलिपी भी जमा करनी पड़ती है। उस व्यक्तिने कहा कि अभी किसी बच्चे को पीसीओ में पैसे लेकर भेज दो। वहां से मेरी बात कराओ, मैं बताऊंगा कि पैसे कैसे रिचार्ज करने हैं। उसने बच्चा शब्द शायद इसलिए कहा हो कि पीसीओ में पहुंचने के बाद बच्चे को आसानी से बेवकूफ बना देगा। पहले रिचार्ज का ऐसा तरीका बताएगा जिससे, पैसे मेरे एकाउंट में नहीं जाएंगे। फिर अपना कोई नंबर बताकर वहां पैसे ट्रांसफर कर देगा।
मैने कहा कि मैं खुद पीसीओ जा रहा हूं, वहीं से बात करूंगा। फोन काटकर मैने बीएसएनएल के एक परिचित कर्मचारी को फोन मिलाया। तो पता चला कि ऐसी कोई स्कीम नहीं है। उसी कर्मचारी से मुझे पता चला कि जो नाम फोन करने वाले ने अपना बताया वह मसूरी में तैनात एक एसडीओ का है। मैने मसूरी के एसडीओ का नंबर लिया और उन्हें फोन किया। एसडीओ की आवाज अलग थी। उनसे बात करने पर पता चला कि उन्होंने मुझे फोन ही नहीं किया। जिस नंबर से मुझे फोन आया था वह बीएसएनएल का भी नहीं था। मैने दोबारा उसी महाशय को फोन मिलाया तो परिचय में उसने अपने को खुद बीएसएनएल का एसडीओ बताया, पर इस बार अपना नाम दूसरा बताया। इस ठग को मैने बताया कि आपका भांडा फूट गया है। हर बार नाम बदलकर आप किसी का उल्लू बना सकते हो, लेकिन अब यह खेल नहीं चलेगा। इस पर उसने फोन काट दिया।
मैं समझा कि वह डर गया होगा। अब उसे डर होगा कि कहीं मैने पुलिस को फोन तो नहीं कर दिया। कुछ देर बाद उसे दोबारा फोन मिलाया तो व्यस्त मिला। फिर उसने मुझे फोन किया। जब मैने पहले वाले एसडीओ के बारे में पूछा तो वह बोला- मैं बोल रहा हूं। मैने कहा कि यह तो मसूरी एसडीओ का नाम है। उनसे मेरी बात भी हो चुकी है। अब भी आप खुद के  लिए उनका नाम ले रहे हो। इस पर वह धमकाते हुए बोला कि आइंदा मुझे फोन मत करना। इसके बाद महाशय ने फोन काट दिया। अब जब भी मैं उस नंबर यानी-7408112771 को मिलाता हूं तो वह बीजी रहता है। यानी महाशय किसी दूसरे शिकार की तलाश में व्यस्त हैं। क्योंकि इस बड़ी दुनिया में उसे ऐसे कई मिल जाएंगे, जो आसानी से जाल में फंस जाएंगे। 
भानु बंगवाल

Tuesday 15 April 2014

गुब्बारे ही गुब्बारे....

लाल हरे, पीले, नीले गैस से भरे गुब्बारे। भला किसे अच्छे नहीं लगते। बच्चे इन गुब्बारों को पाने के लिए लालायित रहते हैं। बड़ों को भी ये बुरे नहीं लगते। विवाह समारोह हो या फिर कोई अन्य आयोजन। कहीं सजावट करनी हो तो अब गुब्बारों का प्रयोग भी किया जाने लगा है। फिर भी मैं बचपन से ही गुब्बारे देख रहा हूं और उनके स्वरूप में जरी भी अंतर नजर नहीं आया। देहरादून में होली के पांचवे दिन झंडे का मेला लगता है, जो करीब एक माह तक रहता है। इस मेले का मुझे बचपन में बेसब्री से इंतजार रहता था। मां व पिताजी एक बार मेला जरूर ले जाते थे, लेकिन मुझे वे सब खिलौने नहीं मिलते जो मैं लेना चाहता था। कारण की छह भाई बहनों में किस-किस की मुराद पूरी होती। सो कुछ खाने को जरूर मिलता, वहीं खिलौने के नाम पर कभी बांसुरी मिल जाती या फिर एक किरमिच (कॉस्को) की बॉल। जो शायद तब पचास पैसे या फिर एक रुपये में आती थी। गुब्बारे को देख कर मैं ललचाता, लेकिन पिताजी का तर्क यही होता कि इसमें हवा भरी है, घर तक पहुंचने से पहले रास्ते में फूट जाएगा। ऐसे में इसे खरीदना फिजूल खर्ची है। ऐसे खिलौने लो, जो कुछ दिन तक बचे रहें।
गुब्बारे देख मैं सोचा करता कि यदि मेरे पास गैस का गुब्बारा हो तो मैं उसमें धागे की पूरी रील जोड दूंगा। वह आसमान में इतना ऊपर जाएगा कि शायद किसी का गुब्बारा उतना ऊपर न गया हो। पतंग से भी ऊपर मैं अपने गुब्बारे को पहुंचाऊंगा। पर किस्मत में गुब्बारा था नहीं। मेले के अलावा मुझे कभी गुब्बारे वाला दिखाई नहीं देता था। मेला घर से काफी दूर था। अकेले जाकर मैं उसे खरीद नहीं सकता था। हर बार मन मसोसकर रह जाता।
तब मैं तीसरी जमात में पढ़ता था। स्कूल घर से करीब तीन किलोमीटर दूर था। पैदल ही स्कूल जाना होता था। एक दिन इंटरवल के दैरान मैने देखा कि स्कूल के गेट के सामने एक गुब्बारे वाला खड़ा है। छोटी सी उसकी रेहड़ी में एक गंदा का सिलेंडर रखा था। साथ ही कुछ गुब्बारे धागे से रेहड़ी में बंधे थे, जो हवा में झूल रहे थे। यदि धागा टूट जाए तो शायद आसमान को चूमते हुए गायब हो जाते। गुब्बारे दूर आसमान में परिंदों से ऊंचा उड़ना चाहते थे। पर उन पर तो दो फिट का धागा बंधा था। गुब्बारेबाले के पास बच्चों की भीड़ थी। मुझे हर दिन स्कूल जाते वक्त पिताजी दस पैसे देते थे। उस दिन के पैसे मैं चूरन खाने में उड़ा चुका था। अब गुब्बारा कहां से लूं, यह मुझे नहीं सूझ रहा था। फिर मेरे दिमाग में एक युक्ति आई। जैसे ही स्कूल की घंटी बजी तो बच्चे गेट के भीतर दौड़ने लगे। गुब्बारेवाला अकेला नजर आया। मैं उसके पास पहुंचा और बोला- भैया यदि आप अपने सारे गुब्बारे आज ही बेचना चाहते हो तो छुट्टी के बाद मेरे साथ चलना। मेरे मोहल्ले में आज तक कोई गुब्बारे वाला नहीं आया। वहां जाओगे तो शायद काफी लोग गुब्बारे खरीद लेंगे। यह कहकर मैं भी स्कूल की तरफ भागकर अपनी क्लास की तरफ दौड़ गया।
मेरा मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। यही विचार बार-बार आ रहा था कि गुब्बारे वाला क्यों मेरे कहने पर चलेगा। पाठ की जगह मुझे किताब में गुब्बारे ही नजर आ रहे थे। जैसे गुब्बारेबाला कह रहा हो-लाया हूं मैं गुब्बारे। लील, हरे, नीले, पीले, बैंगनी........। शाम चार बजे स्कूल की छुट्टी हुई। मैं बस्ता संभालकर गेट की तरफ दौड़ा। देखा कि गुब्बारेवाला वहीं खड़ा है। जो शायद मेरा इंतजार कर रहा था। मैं खुश था। उसे अपने साथ लेकर चलने लगा। दो किलोमीटर राजपुर रोड की चढ़ाई में चलने के बाद गुब्बारे वाले के सब्र का बांध टूटने लगा। वह गर्मी से हांफ रहा था। साथ ही वह दुबला आदमी थकान से कांप रहा था। कितनी दूर है तेरा मोहल्ला-वह बोला। बस
कुछ दूर और भैया- मैने कहा। साथ ही मैं उसका कष्ट दूर करने के लिए ठेली को धक्का मारने लगा। ढाई किलोमीटर की सड़क के बाद हम कच्ची सड़क पर आ गए। फिर पगडंडी का रास्ता। वह वापस लौटने को हुआ तभी मैने उसे दूर से मोहल्ला दिखाया। हम ऊंचाई पर थे, नीचे मकानों की कतारें थी। मैने कहा बस वहीं तक चलना है। जैसे-तैसे हंम मोहल्ले में पहुंच गए। उसे देखते ही बच्चों की भीड़ लग गई। मैं बस्ता छोड़ने घर को दौड़ा। मां से पैसे मांगे, लेकिन उसने खाली हाथ हिला दिए। पिताजी से डरते-डरते मैने पैसे मांगे, पर गुब्बारे पर उनका सिद्धांत नहीं डोला। उन्होंने कठोर शब्दों में मुझे गुब्बारे में फिजूलखर्ची से मना कर दिया।
मैं मुंह लटकाकर गुब्बारेवाले के पास पहुंचा। तब तक उसके लगभग सारे गुब्बारे बिक चुके थे। वह बहुत खुश था। उसका गैस से भरा सिलेंडर भी खाली हो चुका था। वह जाने की तैयारी कर रहा था। बस एक आखरी गुब्बारा उसकी ठेली से बंधा था। जो शायद उसने मुझे बेचने के लिए बचाया था। मुझे देखते ही वह बोला-कहां चले गए थे। सारे गुब्बारे बिक गए। एक तुम्हारे लिए रखा हुआ है। मैने निराश होकर कहा- भैया इसे किसी को बेच दो। मेरे पास पैसे नहीं है। इस पर वह मुस्कराया और उसने धागा तोड़ते हुए मुझे गुब्बारा थमा दिया। ये मेरी तरफ से तुम्हारा तोहफा है-वह बोला। गुब्बारा लेकर मैं खुश था। घर आकर मैने धागे में एक धागे की रील जोड़ी और घर के पिछवाड़े में जाकर रील खोलने लगा। गुब्बारा ऊपर-ऊपर जा रहा था। मैं धागा बढ़ाए जा रहा था। फिर एक समय ऐसा आया कि काफी ऊंचाई में जाने के बाद गुब्बारा धागे का बोझ सहन नहीं कर पाया और एक स्थान पर जाकर रुक गया। तब मुझे अहसास हुआ कि जरूरत से ज्यादा बोझ डालने पर किसी का भी यही हश्र हो सकता है। तभी रात का अंधेरा बढ़ने लगा। माताजी की आवाज आई कि घर नहीं आना क्या। मैं धागा लपेटते हुए गुब्बारे को नीचे ऊतराने लगा।          
घर में मैने कमरे में गुब्बारे के धागे को इतनी ढील दी कि वह छत से जा लगा। मैं खुश था कि इससे कई दिन तक खेलूंगा। रात को सोने से पहले मैं गुब्बारे को ही देखता रहा। न जाने कब नींद आई, लेकिन सपने में भी मुझे गुब्बारे ही गुब्बारे दिखाई दिए। सुबह उठा तो देखा कि गुब्बारा अपना स्थान छोड़ चुका है। उसकी हवा इतनी कम हो गई कि वह जमीन से दो फुट ऊपर ही नजर आया। उसका आकार कॉस्को की गेंद के बराबर का रह गया।
तब और आज के गुब्बारों में मुझे कोई फर्क नहीं आता। आज भी देश भर में रंग-बिरंगे गुब्बारे नजर आ रहे हैं। कोई गुब्बारा गरीबी दूर करने का नारा दे रहा है, तो कोई स्थिर सरकार का। केजरीवाल का गुब्बारा पहले खूब उड़ा, फिर एक स्थान पर जाकर रुक गया। इसके बाद जमीन ही छोड़ दी। कांग्रेस का गुब्बारा उसी पुरानी गैस के साथ उड़ रहा है। भाजपा का गुब्बारा मोदी गैस से भरा है। अब देखना यह है कि समय आने पर कितने गुब्बारों में गैस बची रहती है। क्योंकि जब तक गैस रहेगी, तब तक गुब्बारे अच्छे लगते हैं। फिर सिकुड़कर अ्सहाय हो जाते हैं। इनसे जरूरत से ज्यादा अपेक्षा करना मूर्खता है। ये या तो फूट जाते हैं या फिर एक निश्चित ऊंचाई के बाद उड़ना बंद कर देते हैं।
भानु बंगवाल

Saturday 12 April 2014

क्या फर्क पड़ता है....

इंसान के जीवन में वर्तमान का जितना महत्व है, उतना ही उसके भूत व भविष्य का भी है। तभी तो भूतकाल से सबक लेकर व्यक्ति अपने वर्तमान को बेहतर बनाने का प्रयास करता है। साथ ही उज्ज्वल भविष्य का ताना-बाना बुनता है। इस साल अप्रैल माह में नजर डाली जाए तो लगेगा कि यह महीना तो बस वादों का है। क्योंकि देश भर में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। कई राज्यों में तो मतदान हो गया और कई में चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। टेलीविजन के किसी भी न्यूज चैनल को ऑन करो तो नेताजी का दौरा, आरोप-प्रत्यारोप, छिछालेदारी, झूठ व फरेब सब कुछ सुनाई व दिखाई देगा। चुनाव के मौसम के साथ ही यह असर तो अप्रैल का भी है। अप्रैल यानी की सनकी महीना। इन दिनों बगीचों में फूल खिले होते हैं। आम व लीची के बगीचे फल से लकदक रहते है। कोयल की कूक सुनाई देने लगती है। मदमस्त माहौल चारों तरफ का नजर आता है। देहरादून में तो इस बार कमाल हो गया। होली के बाद से जहां लोगों के गर्म कपड़े उतर जाते थे, वहीं इस बार सर्दी जाने का नाम ही नहीं ले रही है। यदि दिन में गर्मी पड़ती है तो अगले दिन बारिश हो रही है। रात को तो शायद ही किसी ने रजाई को तिलांजलि दी हो। यानी सनकी महीने में मौसम भी सनकी हो गया है। नेताजी भी तो सनक में हैं। वोट मांगते हैं तो वादे व कसमों से भी नहीं चूकते हैं। टेलीवीजन में विज्ञापन देखकर अब जनता भी सनकी हो गई है। वह भी पलटकर कहने लगी कि- नो उल्लू बनाईंग। पिछले आश्वासन का क्या हुआ। ऐसे में नेताजी का असहज होना भी लाजमी है। हांलाकि जनता के पास ज्यादा विकल्प नहीं है। उसे उन्हीं चेहरों से एक को चुनना है, जो चुनाव मैदान में हैं। फिर भी मुकाबला रोचक है।
गांव में सड़क, बिजली, पानी पहुंचाने का नारे अब फीके पड़ने लगे हैं। कुछ नया नेताजी के पास नहीं है। फिर भी कई गांव ऐसे हैं जहां के लोगों ने आज तक सड़क न होने से मोटर तक नहीं देखी। बिजली का बल्ब कैसे चमकता है यह भी उन्हें नहीं पता। इस हाईटेक युग में ऐसी बातें की जाएं तो कुछ अटपटा लगता है। भूत वर्तमान व भविष्य से अपनी बात शुरू करने के बावजूद शायद मैं भी विषय से भटक गया। पुरानी बातों का महत्व याद करते करते नेताजी बीच में टपक गए। शायद यह भी सनकी महीने अप्रैल का ही असर है। बात हो रही थी कि विकास शहरों तक ही सीमित रहा। गांव में तो यह अभी कोसों दूर है। आफिसों में एसी लगे हैं। घर में पंखा चलाने से लोग इसलिए कतराते हैं कि बिजली का बिल ज्यादा आ जाएगा। वही लोग सर्दी लगने के बावजूद आफिस पहुंचते ही एसी का बटन ऑन कर देते हैं। फिर जब दूसरे साथियों को ठंड लगती है तो एसी बंद करने को लेकर माहौल गरमाने लगता है। कोई कहता है कि गर्मी है, तो दूसरे को सर्दी लगने से बखार चढ़ने लगता है। एक साहब बार-बार बटन ऑफ करते फिर कुछ देर बाद एसी खुद ही ऑन हो जाता। ऐसे में साहब को यह नहीं सूझ रहा था कि क्या करें।
मुझसे उनकी व्यथा देखी नहीं गई और मैने उन्हें एक कहानी सुनाई। यह कहानी मेरे दूर के एक चाचा ने सुनाई थी। करीब चालीस साल पहले उनकी दादी पहली बार गांव से शहर में आई। पहली बार वह बस में बैठी। रास्ते में इतनी डरी कि तबीयत खराब हो गई। रास्ते भर उल्टी की शिकायत रही। घर पहुंची तो एक पोते ने दादी को कैंपाकोला (कोल्ड ड्रिंक) की बोतल खोलकर दी और कहा कि इसे पिओ तबीयत ठीक हो जाएगी। तभी दूसरा नाती वहां आया और नमस्ते की जगह बोला-हेलो दादीजी। दादी ने समझा कि वह बोतल हिलाने को कहा रहा है। उसने भी वही किया। जोर-जोर से बोतल हिलाने लगी। सारी कोल्ड ड्रिंक एक झटके में उछलकर बोतल से बाहर हो गई और दादी के कपड़ों में गिर गई। दादी परेशान। तभी दूसरे पौते ने कहा कि दादी परेशान हो गई। उसने घरबाई दादी को कुछ इस तरह बैठने को कहा-दादीजी सोफे में बैठ जाओ। दादीजी कमरे में सुफ्फा (अनाज फटकने वाली छाज) तलाशने लगी। फिर वह बिगड़ी की मुझे सुफ्फे में बैठाएगा। कितना शैतान हो गया है गोलू। दादीजी को समझाया गया कि बैठने की गद्दीदार बड़ी कुर्सी को शहर में सोफा कहा जाता है। तब वह शांत हुई।
दादीजी की मुसीबत यहां भी कम नहीं हुई। रात को सोने के लिए दादीजी के लिए एक कमरे में बिस्तर लगाया गया। रात को सोने से पहले पोते ने समझाया कि जब सोने लगोगी तो बिजली का बटन आफ कर देना। दादी बोली मुझे सिखाता है। मैं लालटेन बंद करना जानती हूं। सुबह दादी के कमरे में उनकी बहू चाय लेकर पहुंची। देखा कि फर्श में कांच फैला हुआ है। सास आराम से सो रही है। बहू घबरा गई। उठाकर पूछा कि बल्ब कैसे फूट गया। इस पर सास ने उल्टे सवाल किया कि बहू कैसी लालटेन कमरे में टांगी। काफी देर तक फूंक मार-मार कर थक गई, लेकिन यह बुझने का नाम ही नहीं ले रही थी। फिर जूता मारकर बुझाने का प्रयास किया। जब निशाना सही नहीं लगा तो छड़ी उठाकर इसे फोड़ डाला।
मित्र बोले क्या तुम यह चाहते हो कि एसी जब बार-बार तंग कर रहा हो तो उसा बटन तोड़ दूं। यह नहीं हो सकता। मेरी नौकरी चली जाएगी। इससे अच्छा तो यह है कि एसी का अत्याचार सह लूंगा। अब देखो वही तो हो रहा है। नेताजी उल्लू बना रहे हैं, जनता सह रही है। कहीं तो उन पर थप्पड़ पड़ रहे है और कहीं कोई जूता तक फेंक रहा है। भारत से लेकर अमेरिका तक यही हाल है। सभी बड़े नेताओं पर जूतों का निशाना समय-समय पर लगाने का प्रयास होता रहता है। पर दादी के निशाने की तरह उनका भी निशाना चूक जाता है। नेताजी बेशर्म हैं। जितने ज्यादा जूते पड़ते हैं उतनी ज्यादा ही उनकी लोकप्रियता बढ़ती है। लोग नो उल्लू बनाईंग कहकर पुरानी बातें याद दिलाते हैं, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। क्योंकि उनकी नजर में पुरानी बातें तो सिर्फ चुस्कियां लेने भर की हैं, सबक लेने के लिए नहीं।
भानु बंगवाल