tag:blogger.com,1999:blog-44345992670181815042024-02-20T17:17:40.494-08:00Anubhavanubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.comBlogger261125tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-33405433827248580592015-05-30T08:48:00.000-07:002015-05-30T08:48:14.253-07:00चल यार पत्थर मार...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पत्रकार या पत्थर मार। चाहे कुछ भी कह लो। प्रकाश अक्सर यही सोचता कि यदि वास्तव में कोई पत्रकार है तो वह पत्थर मार भी है। व्यवस्थाओं की खामियों पर पत्थर की मानिंद हमला करना, चोट पहुंचाना तो उसका कर्तव्य है। इस कर्तव्य को निभाने की भले ही उसके पास ताकत नहीं बची है। फिर भी वह अपना कर्तव्य जानता है, जिसे वह कभी पूरा नहीं कर सकता। इसका उसे मलाल तक नहीं है। पूरी तरह से दलदल व गंदगी के गर्त में जा रही पत्रकारिता के नए स्टूडेंट्स को देखकर उसके मन में तरह-तरह के सवाल उठते हैं। सवाल उठता है कि क्यों युवा अपना भविष्य अंधेरे के गर्त में डालने के लिए इस पेशे को चुन रहे हैं। बाहर से जो चमक-दमक का काम लगता है, वही बाद में उनके लिए आफत का काम बनने लगता है। चुनौतियों से जूझना व बाद में हारकर बैठ जाना ही इस धंधे की नियति है। एक पत्थर मारने के लिए हाथ में ताकत तक नहीं बची रहती है। साथ ही कलम में इतनी स्याही नहीं रहती है कि किसी की काली करतूत को शब्दों में ढालकर वह जनता के सम्मुख ला सके।<br />
पहले तो किसी डिग्री या डिप्लोमा लिए बगैर ही पत्रकारिता के पेशे से युवा जुड़ जाते थे। हर दिन के उनके कार्य व अनुभव के आधार पर ही वे इस विधा के गुर सीखते रहते थे। सीनियर उन्हें इस काम में मदद भी करते थे। हर दिन सीखने का दिन होता था, जो आज भी है। अब तो डिग्री या डिप्लोमाधारक हो ओर हल्का अनुभव हो। वाकपटु हो, भले ही काम धेले भर का ना आता हो। अपने कार्यों को बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करने की योग्यता हो, तो बन गए सफल पत्रकार। फिर भी पत्थर मारने की कला कोई मायने नहीं रखती। यह मिशन नहीं, सिर्फ रोटी व रोजी को चलाने की कला भर बनकर रह गई है।<br />
इसी तरह के विचारों का तानाबाना अक्सर प्रकाश बुनता रहता। इस पेशे में आने से पहले उसने कई काम किए। कभी किसी सरकारी आफिस में डेलीवेज पर कलर्क की नौकरी की तो कभी किसी बिल्डर के पास मुंशीगिरी। इन सभी काम में एक सुख यह था कि शाम को समय से घर पहुंचो। रात को चादर तान कर मीठी, गहरी व लंबी नींद लो। न ही अगले दिन की कोई चिंता रहती थी। लोगों से मिलने का समय ही समय। अब तो जिंदगी ही जैसे एक आफसेट मशीन के माफिक हो गई। जो लगातार चलती रहती है और छापती रहती है। इसके अगल-बगल झांकने की भी फुर्सत नहीं होती। घर के लिए समय नहीं। बाहर नाते, रिश्तेदारों के सुख-दुख में शामिल होने के लिए भी शायद कभी-कभार ही मौका मिलता। वहीं असल जिंदगी में हर रोज नाटक करना पड़ता। कई बार खबरों की सूंघ में झूठ का सहारा लेना पड़ता। छल, कपट, फरेब को अपनाकर पैदा की गई रिपोर्ट को प्रकाशित करने के बाद भले ही अखबार वाहवाही लूट ले, लेकिन उसकी अंतरआत्मा हमेशा कचौटती रहती।<br />
अब तो प्रकाश के लिए यह पेशा मिशन नहीं, बल्कि परिवार चलाने का साधन है। वह तो जल्द से किसी को यह भी नहीं बताता कि वह पत्रकार है। पहले तो खुद को पत्रकार बताते हुए उसकी छाती फूलकर चौड़ी हो जाती थी। मोटरसाइकिल में प्रेस का छापा लिखवाना उसे अब पसंद नहीं। अब तो प्रिंटिंग प्रेस वालों के साथ ही मोहल्ले में कोने पर रहने वाले धोबी ने भी अपने दरवाजे के बाहर प्रेस की तख्ती टांगी हुई है। धोबी भी अब कपड़े धोने से मना करने लगे हैं। वे भी सिर्फ प्रेस करने पर ही विश्वास करते हैं। कितना भी टेढ़ा-मेढ़ा सिलवटों वाला कपड़ा हो, प्रेस के दबाव में वह सीधा हो जाता है। शायद प्रेस के जादू को ही समझकर सफेदपोश को सीधा करने का बीड़ा उठाने के प्रयास में कई बेचारे खुद ही बदल गए। दिन भर ऐसे लोगों के खिलाफ गरियाना उनकी आदत हो गई। वहीं,शाम को सभी बैर-भाव भूलकर उन्हीं लोगों की शराब के साथ ही मुर्गे उड़ाना उनकी नियति हो गई। यही तो सही मायने में समाजवाद है। शाम तक सभी एक छत के नीचे आ जाते हैं।<br />
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पांडे जी कहिन..<br />
पांडेजी को जब प्रकाश ने शहर में पहली बार देखा तो उसे काफी अजरज हुआ। पांडेजी एक साप्ताहिक पत्र निकालते थे। दिन में वह अधिकारियों के पास जब किसी समाचार की जानकारी लेने जाते तो उन्हें अपना परिचय देने की जरूरत नहीं पड़ती। वह मोपेड में चलते थे। मोपेड में नंबर प्लेट इतनी छोटी थी कि उस पर नंबरों के अलावा कुछ और लिखने की गुंजाइश नहीं रहती थी। नंबरों से पहले यदि प्रेस लिखते तो वह इतना छोटा होता कि चौराहे पर वाहनों के कागजात की चेकिंग कर रहा पुलिसवाला प्रेस लिखा नहीं देख पाता। ऐसे में पांडेजी ने नायब तरीका निकाला और हेलमेट पर अंग्रेजी के मोटे अक्षरों से प्रेस लिख डाला। यदि गलती से सड़क पर किसी पुलिसवाले, पार्किंग पर ठेकेदार ने टोका तो वे भुनभुना जाते। फिर चिल्लाकर बोलते अबे दिखाई नहीं देता-प्रेस। सिपाही या ठेकेदार शायद उनकी लंबी सफेद दाढ़ी का लिहाज करते और एक तरफ मुंह फेर लेते। अधिकारी के सामने कुर्सी पर बैठते हुए वह आगे मेज पर हेलमेट ऐसे रखते कि प्रेस लिखा हुआ अधिकारी को हर वक्त दिखता रहे। ताकि उसे पूरे समय यह ध्यान रहे कि वह ऐसे शख्श से बात कर रहा है, जो कभी भी व कहीं भी आग लगाने की कुव्वत रखता हो। पांडेजी का साफ फंडा था कि किसी भी अधिकारी की कमियां तलाशो। उसके घोटालों को उजागर करो। फिर जब अधिकारी गिड़गिड़ाए तो उससे समझोता करो। यह समझोता भी दीर्घकालीन हो। यानी जब तक अधिकारी उस शहर में हो तब तक हर माह अखबार चलाने में पीछे से अपना योगदान करता रहे। यह योगदान अधिकारी की क्षमता के अनुरूप ही तय होता था। इसे पांडेजी बुरा नहीं मानते थे। क्योंकि ऐसे लोग तो कुछ ही होते हैं, जिनसे समझोता करना पड़ता था। बाकी तो लिखने के लिए भीड़ है। डायन भी एक घर छोड़ देती है, तो वे भी ऐसा ही क्यों न करें। अखबार भी चल रहा था और उनकी साख भी बनी हुई थी।<br />
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लॉटर से कमाई<br />
उन दिनों एक नंबर की लॉटरी का चलन जोरों पर था। पुलिस ने पहले लॉटरी के खिलाफ अभियान चलाया। स्टाल उखाड़े गए, लाठियां भांजी गई, फिर अचानक पुलिस चुप होकर बैठ गई। इस लॉटरी की लत में युवा के साथ ही बुजुर्ग भी फंसने लगे। सभी एक झटके में करोड़पति होना चाहते थे। छात्रों ने पहले स्कूल की फीस ही दांव पर लगाई, फिर वे घर से छोटी-मोटी चोरी भी करने लगे। नतीजा वही हुआ जो कि महिलाएं सड़कों पर आने लगी। मुट्ठियां तनने लगी। लॉटरी के स्टाल उखाड़े जाने लगे। पांडेजी जैसे लोगों ने लॉटरी वालों से समझोता कर लिया। वे इसे व्यापार से जोड़कर देखने लगे। पुलिस को पत्थरमारों से सहयोग की जरूरत थी। बरबाद हो रहे भविष्य की चिंता प्रकाश हो होने लगी। वह लॉटरी के विरोध में लिखने लगा। समाचार में उदाहरण दिए जाने लगे कि कैसे 12 साल के बालक ने मां का हार चुराया बेच डाला। फिर सभी राशि लॉटरी के नाम पर दांव पर लगा दी। प्रकाश का यहां पत्थर मारना काम नहीं आया। उसे कोतवाल ने कोतवाली में बुलाया। अच्छा-बुरा समझाया। फिर बताया कि उसका वेतन सिर्फ 1800 रुपये है, लेकिन यदि वह सहयोग करेगा तो हर माह उसे 2500 रुपये कोतवाली से मिलेंगे। प्रकाश हकाबका कोतवाल को ताक रहा था। कोतवाल समझा रहा था कि कुछ महीने कमाने का मौका मिल रहा है, तो इसे गंवाना बेवकूफी है। मैं तुम्हें आगे बढ़ना देखना चाहता हूं। चुपचाप से हर महीने पैसे मेरे से ले लिया करो।<br />
प्रकाश का सिर चकरा रहा था। उसे तो अब कोतवाल के शब्द भी नहीं सुनाई दे रहे थे कि वह क्या बोल रहा है। फिर कोतवाल ने कहा कि लॉटरी के खिलाफ समाचार लिखना बंद कर दो। ऐसे रहो कि शहर में कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम्हारे जैसे कई पत्रकार यही कर रहे हैं। मजे में हैं वे सभी। तुम भी ऐसा ही करो। देखो जल्द ही तुम्हारे पास चार पहिये की गाड़ी आ जाएगी। फिर कोतवाल ने प्रकाश से पूछा-क्या फैसला लिया। जवाब में प्रकाश वहां से उठकर चला गया। उसने अपने समाचार पत्र के मुख्यालय में प्रधान संपादक को फोन मिलाया। उन्हें सारी बातों से अवगत करा दिया। वहां से निर्देश आए कि तुम लॉटरी के खिलाफ लिखना जारी रखो। कुछ दिन तक खिलाफ छपता रहा। बाद में उसके ऐसे समाचार लगने बंद हो गए। कई बार जब प्रकाश का महीने का बजट गड़बड़ाता तो वह यह सोचकर पछता रहा होता कि उसने कोतवाल की बात क्यों नहीं मानी। पांडेजी के फार्मूले पर क्यों नहीं चला।<br />
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बाबा ने बढ़ाया अत्मविश्वास<br />
उम्र करीब 65 साल। सिर के बाल सफेद और काफी लंबे। चेहरे पर लंबी सफेद दाढ़ी। सफेद कुर्ता व पायजामा उनकी ड्रेस। कंधे पर झोला और झोले पर अखबार व अखबार की कतरने। लिखने के लिए सादे कागज। देहरादून की सड़कों पर अक्सर वह पैदल ही चलते रहते। उनका नाम भी शायद कोई जानता था। सभी उन्हें मौनी बाबा कहते थे। क्योंकि उन्होंने मौन धारण किया हुआ था। शायद किसी ने उनकी आवाज तक नहीं सुनी। उन्होंने क्यों मौन धारण किया यह कोई नहीं जानता, लेकिन जब से किया उसे तोड़ा नहीं। जब मौत भी आई तो उनके मुंह से कोई शब्द तक नहीं निकला। मौनी बाबा कहां और क्या नौकरी करते थे। इसकी जानकारी भी प्रकाश को नहीं थी और न ही उसने यह जानने की जरूरत महसूस की। वह अक्सर कलक्ट्रेट में प्रकाश को मिल जाते। जब प्रकाश दोनों हाथ जोड़कर बाबा को नमस्ते करता तो वह एक सादे कागज के टुकड़े पर लिखते कि कैसे हो। प्रकाश बोलकर जवाब देता। बाबा की पकड़ सहकारिता में कुछ ज्यादा थी। गांधीजी के सिद्धांतों पर चलने वाले बाबा को सहकारिता की दुर्दशा देखकर कुछ ज्यादा ही दुख होता था। वह प्रकाश पर काफी विश्वास करते थे। उसे लिखकर सहकारिता से जुड़े जिला सहकारी बैंक, विभिन्न सहकारी समितियों के घोटालों का क्लू देते। प्रकाश छानबीन करता और कई बार वह बाबा के प्रताप से कई बड़े घोटालों को उजागर कर चुका था।<br />
बाबा का अपना कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था और न ही वे किसी समाचार पत्र से बंधे हुए थे। फिर भी उनकी पहचान एक पत्रकार के रूप में थी। वह पांडेजी की तरह हेलमेट की बजाय न तो झोले में प्रेस ही लिखते थे और न ही खुद को पत्रकार कहते थे। फिर भी प्रकाश की नजरों में मौनी बाबा विशुद्ध रूप से एक पत्रकार थे। वह प्रकाश को लिखकर कहते कि फलां जगह जाकर यह पता करो। फिर लेख लिखो। जैसे-जैसे मौनी बाबा जीवन के आखरी पड़ाव की तरफ सरक रहे थे, उनके भीतर भी एक परिवर्तन होने लगा। सड़क किनारे फैले कचरे को पेड़ों की पत्तियों वाली टहनी से वह झाड़ू की तरह एक कोने में एकत्र करते। फिर उसमें आग लगा देते। उनका मौन यही कहता कि बेटे मैं तो सड़क का कचरा साफ कर रहा हूं और तुम समाज का कचरा साफ करते रहो। जब भी प्रकाश किसी मुसीबत में पड़ता या निराश होता,तो वह मौनी बाबा को याद करता। उन्हें याद करते ही उसके भीतर रक्त शिराओं में ऊर्जा भर जाती। सिर्फ उसे यही दुख हमेशा सालता रहा कि मौनी बाबा ने जब अपनी देह त्यागी, तो उन्होंने अपने बेटे से प्रकाश से मिलने की इच्छा जताई। बेटे ने प्रकाश से संपर्क भी किया, लेकिन प्रकाश के पास बाबा से मिलने का समय तक नहीं था। जब समय मिला, तब बाबा नहीं रहे।<br />
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भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-91623333759584173202014-05-26T08:41:00.001-07:002014-06-30T06:10:14.821-07:00मसाण लगी रे....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
चमोली जनपद की एक सुनसान व उबड़-खाबड़ सड़क पर जिलाधिकारी का कार दौड़ रही थी। रात के करीब साढ़े 11 का वक्त था। दूरस्थ गांव में समस्याओं को लेकर ग्रामीणों के साथ बैठक कर डीएम वापस गोपेश्वर लौट रहे थे। लौटते वक्त कुछ ज्यादा देर हो गई। कहीं दूसरी जगह रात बिताने की बजाय वह अपने बंगले में ही पहुंचना चाहते थे। तभी हल्की बारिश शुरू होने पर चालक को वाहन चलाने में दिक्कत होने लगी। स्पीड हल्की कर वह अंधेरे में आगे तक सड़क देखने का प्रयास कर रहा था। तभी सफेद कपड़ों में सुनसान राह में एक व्यक्ति उन्हें नजर आया। इस व्यक्ति ने हाथ में एक रस्सी पकड़ी थी। इससे एक बकरा बंधा था। व्यक्ति जबरन बकरे को खींच कर ले जा रहा था, जबकि रात को बकरा आगे बढ़ने से शायद इंकार कर रहा था। ऐसे में वह कई बार एक ईंच भी आगे नहीं सरक रहा था।<br />
इस दृश्य को देख जिलाधिकारी चंद्रभान की उत्सुकता बढ़ गई। उन्होंने चालक से गाड़ी रोकने को कहा। चालक ने गाड़ी रोकी तो जिलाधिकारी नीचे उतरे और उक्त व्यक्ति के पास पहुंचे। उन्होंने पूछा- तुम कौन हो और इतनी रात को कहां जा रहे हो।<br />
जवाब में वह व्यक्ति बोला- मैं पंडित हूं और शमशान घाट जा रहा हूं। मुसाण पूजन करना है।<br />
पहाड़ में सिर्फ व्यक्ति दो ही चीज से डरता है। इनमें एक है गुलदार और दूसरा है भूत। दिन हो या रात, गुलदार किसी भी भरे पूरे परिवार के किसी भी सदस्य पर मौत का पंजा मार देता है। कई बार तो गांव के गाव बच्चों व बूढ़ों से खाली होने लगते हैं। साथ ही महिलाएं भी उसका शिकार बनती हैं। अक्सर गुलदार बीमार, बूढ़े, बच्चों, महिलाओं को आसानी से शिकार बना लेता है। किसी हैजा की तरह गुलदार का आतंक एक गांव में पसरता है तो यह बढ़कर आसपास के कई गांवों तक पहुंच जाता है। सांझ ढलते ही लोग घरों में दुबकने को मजबूर होने लगते हैं। बच्चों को हमेशा बड़ों की नजर में रखा जाता है, लेकिन किसी छलावे की तरह गुलदार कभी भी झपट्टा मारकर अपनी भूख मिटाने में कामयाब हो जाता है।<br />
गुलदार के बाद पहाड़ों में लोग यदि डरते हैं तो वह है भूत। इस भूत के भी कई नाम होते हैं। जो स्थान व गांव बदलने के साथ ही बदल जाते हैं। कहीं उसे मसाण के नाम से जाना जाता है, तो कहीं खबेश कहते हैं। कहीं देवता का प्रकोप तो कहीं कुछ ओर। भूत या मसाण का आतंक भी गुलदार की तरह है। कभी किसी गांव में कोई बीमारी फैलती है तो इसका सारा दोष मसाण पर ही मढ़ दिया जाता है। फिर डॉक्टर के पास जाने की बजाय पंडित, बाकी या तांत्रिक के पास जाकर इलाज तलाशा जाता है। इलाज करने वाले भी पक्के जादूगर होते हैं। एक बकरे की बलि या फिर अन्य टोटके अपनाते हैं। इसके बाद गांव को बीमारी से निजात दिलाने का दावा करते हैं।<br />
पंडितजी को देखते ही डीएम चंद्रभान समझ गए कि यह भी किसी गांव की बीमारी को दूर करने के लिए मुसाण पूजन को जा रहा है। उन्होंने कार को सड़क किनारे पार्क करने को कहा और चालक, अपने साथ बैठे गनर व अर्दली को साथ लेकर पंडितजी के पीछे हो गए। करीब आधा किलोमीटर पैदल मार्ग पर चलने के बाद वे एक शमशान घाट पर पहुंच गए। वहां पहले से ही कुछ ग्रामीण मौजूद थे। वह समझ गए कि अब बेजुवान की बलि दी जाएगी। इससे पहले ग्रामीण कुछ करते डीएम चंद्रभान ने अपना परिचय उन्हें दिया और पूछा कि आपकी दिक्कत क्या है। ग्रामीण बोले कि गांव में मसाण लगा हुआ है। लोग बीमार हो रहे हैं। बीमारी का इलाज नहीं हो रहा है। कई ग्रामीण मर चुके हैं। कई लोग गांव छोड़कर छानियों (गांव से दूर जंगल में मवेशियों के छप्पर) में शरण ले चुके हैं। अब मुसाण पूजन ही मुसीबत से बचने का एकमात्र उपाय है।<br />
डीएम ने ग्रामीणों से कहा कि तु्म्हारा मसाण को मैं भगा दूंगा, लेकिन तुम भी मुझे कुछ दिन का वक्त दो। साथ ही इस जानवर की बलि आज न चढ़ाओ। मेरी बात को मानो सब कुछ ठीक हो जाएगा। पहले ग्रामीण ना नुकुर करते रहे, लेकिन डीएम की सख्ती के आगे उन्हें उस दिन बलि का आयोजन टालना पड़ा। अगली सुबह प्रभावित गांव में खुद जिलाधिकारी पहुंचे। उनके साथ चिकित्सकों की टीम ने गांव में बीमार लोगों का परीक्षण शुरू किया। जल संस्थान व अन्य विभागों की टीम इस जांच में जुट गई कि गांव में बीमारी फैलने का क्या कारण है। टैस्टिंग में पानी के सेंपल फेल निकले। इस पर पता चल गया कि असली मसाण तो पानी में है। जिलाधिकारी की मुहीम रंग लाई और बीमार ग्रामीण एक सप्ताह के भीतर स्वस्थ हो गए। अधिकारियों की टीम भी गांव से शहर लौट गई। इस गांव में फिर मसाण पूजन तो नहीं हुआ, लेकिन काली पूजन किया गया। उस काली का, जिसके आशीर्वाद से गांव के लोग बीमारी से छुटकारा पा गए। काली पूजन पर एक समारोह आयोजित किया गया। इस आयोजन में उस बकरे की बलि दी गई, जिसे गले में छुरी चलने से डीएम ने पहले बचाया था।<br />
भानु बंगवाल <br />
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anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-8674376762975225682014-05-11T23:48:00.001-07:002014-05-12T00:55:59.097-07:00तेरे कष्ट चबा रहा हूं बेटा...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मोबाइल में मैसेज आने पर अंकित को पता चला कि बैंक में सेलरी आ गई है। मैसेज पढ़ने पर उसे इस बात का दुखः हुआ कि इस बार भी सेलरी में मामूली इजाफा हुआ है। उसे उम्मीद थी कि नए वेतनमान के मुताबिक सेलरी बढ़ेगी। इसे लेकर उसने आगामी खर्च का खाका भी मन में खींच लिया था। पर हुआ वही ढाक के तीन पात। महंगाई के इस दौर में वेतन में सिर्फ एक हाजर रुपये ही बढ़े। वह जानता था कि यह राशि उसके हिसाब से काफी कम है। क्योंकि एक चपरासी का भी इंक्रीमेंट एक हजार से ज्यादा लगता है। वह वह कर भी क्या सकता था। सिर्फ अपुनी किस्मत को कोसने के सिवाए। बैंक से सप्ताह के बजट के हिसाब से पैसे निकालने के बाद वह किसी काम से मोटरसाइकिल से देहरादून की चकराता रोड को रवाना हुआ। भरी दोपहरी में धूप कांटे की तरह चुभ रही थी। बल्लूपुर चौक से आगे सड़क कुछ सुनसान थी। तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी। उसने मोटर साइकिल सड़क किनारे खड़ी की और फोन रिसीव किया। काल उसके मित्र की थी। जो दूसरे संस्थान में कार्यरत था। मित्र खुश था कि उसके वेतन में उ्म्मीद के ज्यादा इजाफा हुआ। वह जानना चाह रहा था कि अंकित का कितना वेतन बढ़ा। निराश अंकित ने उसे यही बताया कि कुछ नहीं बढ़ा और फोन काट दिया। वह सोच रहा था कि ऐसा हर बार होता है। जब भी इंक्रीमेंट लगने का नंबर आता है, उससे पहले दफ्तर में कसरत शुरू हो जाती है। अधिकारी वर्ग यह जताता है कि वह नालायक है। उसके यह समझ नहीं आ रहा था कि सालभर लायक रहने के बावजूद वेतन बढ़ने के दौरान वह नायालक कैसे हो जाता है। तभी अंकित को एक आवाज सुनाई दी- बेटा यहां आओ, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।<br />अंकित ने देखा कि सड़क किनारे पेड़ की छांव में एक साधु बैठा है। वही उसे बुला रहा है। वह ऐेस बाबाओं से बचता रहता था। इस दिन वह निराश था और वह कुछ कदम आगे बढ़कर बाबा के पास खड़ा हो गया। तभी साधु ने कहा- बेटा तुम दुखी लगते हो। बाबा को दुख बताओ, सारे दुख दूर हो जाएंगे। <br />बाबा आप स्वयं अंतरयामी हो, आपको मेरे दुख पता होने चाहिए। इस जमाने में सुखी कौन है- अंकित बोला।<br />ऐसा करो बाबा को चाय पिला दो। बस भगवान तेरे दुख हर लेगा- साधु ने कहा<br />अंकित मोटर साइकिल में किक मारकर बाबा से पीछा छुड़ाने की सोच रहा था। जैसे ही वह मोटर साइकिल में बैठा तभी बाबा बोला- बच्चा जिद मत कर मेरी बात मान ले। <br />अंकित के मन में न जाने क्या ख्याल आया उसने पर्स निकाला और एक दस का नोट तलाशकर बाबा को थमा दिया। तिरछी नजर से उसके पर्स की तरफ देख रहे बाबा ने यह जान लिया कि पच्चीस साल के इस युवा के पर्स में अच्छी खासी रकम है। उसने दस रुपये लेते हुए कहा-बेटा यह बताओ कि तुम दुख चाहते हो या सुख। <br />अंकित ने कहा-बाबा दुख कौन चाहेगा। सभी सुख चाहते हैं और मै भी यही चाहता हूं। <br />बाबा बोला- बेटा तुम्हारी कमजोरी यह है कि मन की बात हर किसी को बता देते हो। जिसका भला करते हो वह तुम्हारी बुराई करता है। तुम्हारी किस्मत में सुख की जगह दुख ही ज्यादा आते हैं। ऐसा करो कि तुम्हारे पर्स में जो ब़ड़ा नोट है, वह मुझे दो मैं उस पर फूंक मारूंगा। उस नोट से तुम्हारी किस्मत बदल जाएगी। <br />अंकित ने सोचा कि नोट पर फूंक मरवाने पर क्या हर्ज है। उसने पर्स से एक हजार का नोट निकाला और हाथ में कसकर पकड़कर बाबा के मुंह के आगे कर दिया। बाबा बोला- यह नोट मेरे हाथ में दो। अभी तुम्हारे कष्ट दूर करता हूं। बाबा की बातों का सच जाने को अंकित ने एक हजार का नोट बाबा के हाथों में थमा दिया। नोट को उलट-पलटकर देखने के बाद बाबा ने उसे कई तह में फोल्ड किया। फिर अचानक नोट को अपने मुंह में डाल दिया और चबाने का उपक्रम करने लगा। <br />अंकित ने देखा कि यह बाबा तो उसका इंक्रीमेंट चबा रहा है। वह मन ही मन भय से सिहर उठा कि कहीं वह इस इंक्रीमेंट से भी हाथ ना धो बैठे। वह बोला- बाबा क्या कर रहे हो। <br />निराश मत हो बच्चा, मैं तेरे दुखों को चबा रहा हूं- बाबा बोला। जो अंकित के नोट को निगलना चाहता था। अंकित ने यह देखकर कहा कि बाबा मेरा नोट वापस करो। तभी तपाक से बाबा बोला-यह धन ही दुखों का कारण है, इस दुख को मैं चबा डालूंगा। <br />अंकित को यह बाबा उस नेता के समान लग रहा था, जो यह कहता कि जनता की भलाई उसका धर्म है, लेकिन जनता का खून चूसता रहता। या फिर वह डाक्टर जो मरीज को बचाने के लिए उसकी पूरी जेब लूट लेता है। या फिर वह अधिकारी जो उससे कमर तोड़ काम कराता है, लेकिन वेतन बढा़ने में उसे नालायक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। सभी तो लुटेरे हैं, जहां जिसे जैसा मौका मिले वह लूट लेता है। वह कहां फंस गया इस बाबा के पास। घर का बजट बिगड़ता देख अंकित को अब गुस्सा आने लगा। उसने साहस बटोरा और बाबा का गला पकड़ लिया। दोनों हाथों से उसका टेंटुआ दबाया और बोला-मेरा नोट वापस निकाल। हड़बड़ाकर बाबा ने दो हिंचकी ली और नोट मुंह में दांतों तले ले आया। बोला-बेटा ये दुख खुद ही अपने हाथ से निकाल ले। <br />तब तक नोट काफी गीला हो चुका था। उसे देखकर अंकित घिना रहा था। उसने बाबा से कहा कि नोट को उसकी कमीज की जेब में डाल। साथ ही उसने बाबा के गले पर हाथों का दबाव और बढ़ा दिया। बाबा ने वैसा ही किया। नोट अंकित की जेब में डाल दिया। इस नोट को लेकर वह पेट्रोल पंप गया और पहले तह खोलकर सुखाया। फिर सौ रुपये का पेट्रोल मोटरसाइकिल में डलवाया और हजार का यह नोट चलाया। बाकी बचे पैसे जेब में डालकर वह पानी की टंकी के पास गया और अच्छी तरह से हाथ धोए। तब जाकर अपनी मंजिल को आगे बढ़ा। वह सोचने लगा कि वाकई इंसान के दुखों का कारण यह जर ही तो है। बजट में कम पड़े तो दुखी, ज्यादा हों तो दुखी, कोई ठग ले तो दुखी। इस दुख को वह बाबा के मुंह से छीनकर पेट्रोल पंप में दे आया था। <br />भानु बंगवाल<br /></div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-4133594232533101112014-05-06T00:05:00.001-07:002014-05-18T19:52:20.223-07:00ड्रीम गर्ल ने तोड़ा ड्रीम...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ड्रीम गर्ल भले ही अब गर्ल न रह गई हो। वह दो बच्चों की अम्मा हो गई और उम्र के उस मुकाम पर पहुंच गई हो, जहां इस उम्र में बुढ़िया की संज्ञा दी जाती है। फिर भी भूतकाल की इस ड्रीम गर्ल ने खुद को इतना फिट किया हुआ है कि उसकी त्वजा से बुढ़ापा कतई नहीं झलकता है। जब वह गर्ल थी, तब शायद कुछ मोटी थी, लेकिन अब तो वह स्लिम हो चुकी है। आज भी वह वही नजर आती है, जिसे देखकर शायद हर कोई यह गीत गुनगुनाने लगे--किसी शायर की गजल ड्रीम गर्ल। <br />फिल्मों के कलाकारों को देखने का क्रेज हर किसी को होता है। बच्चे तो फिल्म देखकर ही बड़े हो रहे हैं। छोटे में तो लड़़के हीरो व लड़कियां हिरोइन की तरह बनना चाहते हैं। क्योंकि फिल्मी दुनियां की चकाचौंथ बड़ों व बूढ़ों के साथ ही बच्चों को भी प्रभावित करती है। यदि किसी शहर में कोई फिल्म हस्ती आ जाए तो उसे देखने को जन सैलाब सा उमड़ने लगता है। पहले किसी शहर में यदि किसी फिल्म की शूटिंग होती थी, तो आमजन को इसका पता भी नहीं लग पाता था। यदि लगता भी तो फिल्मी हस्तियों की झलक देखने का मौका नहीं लग पाता था। अब ट्रेंड बदला और चुनावी मौसम में इन फिल्मी हस्तियों के रोड शो आयोजित होने लगे। ऐसे में लोगों की इन फिल्मी हस्तियों को देखने की मुराद भी पूरी होने लगी। इस बार के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने फिर से ड्रीम गर्ल यानी हेमा मालनी के रोड शोर कई शहरों में आयोजित किए और आमजन को उसके दीदार का मौका मिला।<br />वैसे बचपन में अन्य बच्चों की तरह मैं फिल्मी हस्तियों की चमक-दमक से काफी प्रभावित रहा। मैं खुद भी फिल्म अभिनेता बनना चाहता था। पर उम्र बढ़ने के साथ ही मेरा यह भ्रम भी दूर होता रहा। फिर भी ऐसी फिल्म हस्तियों का दीदार करने का जब भी मुझे मौका मिला तो अनुभव कुछ ज्यादा कड़ुवे ही साबित हुए। गर्मियों में मैं अक्सर चार-पांच दिनों के लिए मसूरी रहने को चला जाता था। वहां हमारे दूर के एक ताऊजी रहते थे। 80 के दशक में मई माह के दौरान मैं मसूरी था। वहां मुझे पता चला कि मसूरी की सबसे ऊंची चोटी लाल टिब्बा के पास बंगाली फिल्म-पूर्ति की शूटिंग चल रही है। फिल्म तारिका शबाना आजमी इसकी नायिका है। इसका पता चलते ही मैं भी शूटिंग देखने की चाहत मन में लिए लंढौर बाजार से पैदल ही शूटिंग स्थल की तरफ रवना हो गया। वर्ष मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि उस दिन 19 मई थी। इस दिन मेरा जन्मदिन था, लेकिन किसी को पता नहीं था। ऐसे में जन्मदिन भी नहीं मनाया और मैं शूटिंग देखने को चल दिया। कड़ाके की गर्मी थी। दूरदर्शन टाबर के पास तक खड़ी चढ़ाई चढ़ते मैं हांफ रहा था। जिस ओर मैं जा रहा था, उस तरफ हर जाने वाले व्यक्ति को देख मैं यही सोचता कि वह भी शूटिंग देखने ही जा रहा है।<br />काफी चढ़ाई चढने के बाद एक संकरी पगडंडी वाले रास्ते पर ही मुझे चलना था। इस रास्ते से पहले सड़क किनारे खड़े एक बड़े वाहन पर एक जेनरेटर धड़धड़ा रहा था। यह जेनरेटर फिल्म शूटिंग स्थल के लिए बिजली बना रहा था। आगे मोटर का रास्ता नहीं था तो करीब डेढ़ किमी पहले ही इसे रखा गया था। मैं जेनरेटर से जुड़ी बिजली की केबल के सहारे आगे बढ़ता गया। क्योंकि जहां तक केबल पहुंचाई गई थी, वहीं मैरी मंजिल थी। तभी एक सुंदर सी युवती भी मेरे पीछे से तेजी से चलती हुई आगे को बढ़ी। मैने सोचा कि यह भी शूटिंग देखने जा रही है। तब मैं करीब 15 साल का था और युवती की उम्र का अंदाजा लगाना मेरे लिए मुश्किल था। फिर भी वह मुझे एक छोटी व सुंदर गुड़िया सी प्रतीत हो रही थी। मैं उसकी बराबरी में चलने लगा। तंग व सुनसान रास्ते पर वह कई बार लड़खड़ा जाती, लेकिन मैं उछल, कूद व फांद कर ऐसे रास्तों पर मतवाली चाल से चलता। कभी उससे आगे हो जाता, जब पता चलता कि वह काफी पीछे छूट गई तो जानबूझकर मैं अपनी चाल को धीरे कर देता। फिर वह जब बराबर तक पहुंचती तो मैं अपनी चाल बढ़ा देता। यहां हमारी रेस सी शुरू हो गई थी। ठीक उसी तरह जैसे सड़क चलते आपस में अनजान दो साइकिल सवार कई बार साइकिल की रैस लगाने लगते हैं। <br />पूरे सफर में मैं उस युवती से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। एक अनजान सा भय मेरे भीतर था। या फिर यूं कह सकते हैं कि किशोर अवस्था में मैं काफी झेंपू था। हां मन में यही तानाबाना बुनता रहा कि इस युवती से कैसे बात करने की शुरूआत की जाए। लड़कियों के मामले में दब्बू प्रवृति एक दिन में दूर हो नहीं सकती थी। फिर कैसे युवती से बात हो। मैने सोचा कि यही पूछ लिया जाए- क्या आप भी शूटिंग देखने को जा रही हो। यही विचार मन में पक्का किया। कुछ हिम्मत जुटाई। गला खंखारा और कांपते हुए शरीर को सामान्य करने का प्रयास किया। तब तक हम उस कोठी तक पहुंच गए, जिसके गेट पर कई गार्ड खड़े थे और भीतर शूटिंग की तैयारी चल रही थी। गेट के बाहर शूटिंग देखने की चाहत रखने वाले करीब पच्चीस लोग खड़े थे, जिन्हें सुरक्षाकर्मी भीतर नहीं जाने दे रहे थे। हमारे करीब पहुंचते ही तमाशबीनों की नजरें हमारी तरफ हो गई। कई के कैमरों में फ्लैश चमकने लगी। बिजली की फुर्ती से युवती गेट के भीतर चली गई और मुझे सुरक्षाकर्मी ने रोक लिया। बाद में पता चला कि वही युवती शबाना आजमी थी।<br />इसी तरह का एक किस्सा और भी कष्टदायी रहा। एक समाचार पत्र के कार्यक्रम में फिल्म हीरो सुनील सेठी ने आना था। मेरे पास वीआइबी पास थे। साथ ही उस दिन मेरा अवकाश भी था। मैं परिवार समेत कार्यक्रम स्थल तक पहुंच गया। पास होने के बावजूद गेट से भीतर घुसना किसी जंग जीतने के समान था। तब मेरा छोटा बेटा करीब छह साल व बड़ा दस का था। देहरादून के रेंजर मैदान के गेट पर भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस कई बार लाठियां भी फटकार चुकी थी। इस भगदड़ में मेरा छोटा बेटा गेट के बाहर नाले में गिरते बचा। खैर किसी तरह भीतर गए। सबसे आगे की सीट मिली। पर जैसे ही सुनील सेठी आया भीड़ बेकाबू हो गई। पीछे से दबंग व ताकतवर लोग आगे बढ़ गए और हम धक्के खाते हुए इतने पीछे हो गए कि मंच नजर नहीं आ रहा था और सुनील सेठी को हमें स्क्रीन पर ही देखना पड़ा। <br />इस बार ड्रीम गर्ल को देखने का मौका था। वो भी रोड शो में। सड़क तो इतनी लंबी होती है कि कहीं से भी देख लो। न भीड़ का धक्का और न ही किसी भगदड़ का डर। देहरादून में रविवार की शाम पांच बजे एस्लेहाल से यह रोड शो शुरू होनी था। मेरी ऑफिस की छुट्टी थी। पत्नी, बच्चे सभी हेमा मालनी को देखने को उत्साहित थे। अक्सर ऐसे कार्यक्रम देर से ही शुरू होते हैं, लेकिन ज्यादा भीड़ होने के कारण समय से पहले ही ऐसे कार्यक्रमों में पहुंचना समझदारी होती है। फिर भी मैं शाम साढ़े पांच बजे घर से रवाना हुआ। क्योंकि घंटाघर के पास मुझे जहां खड़ा होना था, घर से वहां पहुंचने में मुझे दस मिनट लगने थे। मोटर साइकिल पर मैं और छोटा बेटा व स्कूटी में पत्नी व बड़ा बेटा सवार हो गए। कुछ आगे जाने पर पुलिस ने रास्ता बंद किया हुआ था। ट्रैफिक डायवर्ट होने पर मुझे उस रास्ते से निकलना पड़ा जहां संडे को जाने से मेरा दम फूलने लगता है। क्योंकि वहां संडे बाजार सजता है और भीड़ का रैला हर वक्त रहता है। घर से दस मिनट की बजाय करीब पौन घंटे में किसी तरह भीड़ में रेंगते हुए हम घंटाघर के पास एक मित्र के कपड़ों के शो रूम में पहुंचे। वहां वाहनों को पार्क कर हम दुकान में चले गए। तब तक भी रोड शो शुरू नहीं हुआ था। <br />दुकान में घुसते ही छोटा बेटा कपड़ों को देखकर ललचाने लगा। महंगे व ब्रांडेड कपड़े उसे दिलाने का मतलब था कि पूरे दो माह का बजट बिगाड़ना। वह नहीं माना तो एक शर्ट दिला दी। जो शायद संडे बाजार में दो सौ रुपये में मिलती और यहां पूरे एक हजार रुपये में मिली। प्रोग्राम था कि यदि रोड शो लेट होगा तो किसी सस्ते होटल में खाना खाया जाएगा। खाने का बजट शर्ट में चला गया। सड़क किनारे भाजपाइयों की भीड़ बढ़ने लगी। स्वागत के लिए महिलाएं फूलों की पंखुड़ियों से भरी थाली लिए खड़ी थी। उस मालनी के स्वागत के लिए, जो ड्रीम गर्ल थी। उन फूलों से उस मालनी का स्वागत होना था, जिसे किसी माली ने बड़ी मेहनत से फूलवारी में उगाया था। <br />इंतजार खत्म हुआ। चुनावी गीत, ढोल-दमऊ, गाजे-बाजे, नारों के शोर के साथ जुलूस हमारे करीब आ रहा था। हम खुश थे कि सपना पूरा होने वाला था ड्रीम गर्ल को पास से देखने का। करीब पचास मीटर निकट जब जुलूस <br />आया तो उस दूरी से देखकर लगा कि वाकई वह आज भी ड्रीम गर्ल है। वह खुले वाहन में खड़ी थी। उसे और निकट से साफ देखने की चाहत में छोटा बेटा मोटर साइकिल की सीट पर खड़ा हो गया। जब वह हमारी सीध पर पहुंचने वाली थी तो उस पर फूल बरसाने वालों को मैं कोसने लगा। फूलों से परेशान होकर ड्रीम गर्ल ने सिर पर पल्लू डालने का प्रयास किया। पल्लू इतना लंबा हो गया कि वह घूंघट में बदल गया। तब तक वह हमारी सीध में पहुंच गई। उसने जैसे ही घूंघट हटाया तो वह हमारी सीध से काफी आगे निकल गई और दीदार करने को रह गया बस...........पिछवाड़ा। क्योंकि उसके पीछे टेडी बने दो कार्टून चल रहे थे, जो शायद हमें चिढ़ाने के लिए हमारे पास आकर हाथ हिला रहे थे। <br />भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-18138968708677555702014-05-04T04:38:00.000-07:002014-05-04T04:38:30.983-07:00यह दबंग तो डरती भी है...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
घंटाघर से होकर जैसे ही वो गुजरी है, मौके पर मौजूद पुलिस उसे देखकर सतर्क हो जाती है। जगह-जगह पर खड़े खुफिया विभाग के लोग भी उसे संदेह की निगाह से देखने लगते हैं। क्योंकि उसकी शक्ल, कदकाठी व शारीरिक बनावट ही कुछ ऐसी है कि जो भी उसे देखता है, बस एक बार देखता ही रह जाता है। कद करीब पांच फुट तीन ईंच। शरीर मोटा व ढोल की तरह। बाल बॉबकट व चेहरे का रंग काला। जींस के साथ ही ऊपर से मोटी जैकेट। जैकेट की सभी जेब ठसाठस भरी हुई। कमर में छोटा बैग। बैग में स्टील कैमरे। जींस की बेल्ट पर कैमरे की प्लैश फंसाई हुई। उस पर मतवाली चाल। सर्दी के मौसम में भी वह जब सड़क पर चल रही थी, तो ऐसा लगता था कि वह हांफ रही हो। <br />उस दिन देहरादून के गांधी पार्क में भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की सभा थी। ऐसे में शहर की मुख्य सड़कों पर लोकल इंटेलिजेंस यूनिट, आइबी व अन्य खुफिया विभाग के लोग तैनात थे। उस युवती पर नजर पड़ते ही खुफिया विभाग के दो लोग उसके पीछे हो लिए। वे शायद यही समझे कि हो सकता है कि युवती एक मानव बम हो। शायद उसकी जैकिटों की जेब बमों से भरी हो। युवती का पीछा करते करीब सौ मीटर आगे तक जाने पर अचानक वह गायब हो गई। वहां पर एक कांप्लेक्स था। इस कांप्लेक्स के पास जब युवती गायब हुई तो खिफिया विभाग वालों ने उसकी पड़ताल की। काफी लोगों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि जैसा हुलिया उन्होंने बयां किया, वैसी ही एक युवती ने हाल ही में एक समाचार पत्र में ज्वाइनिंग ली है। वह प्रैस फोटोग्राफर है। तब जाकर खुफिया विभाग के लोगों ने राहत की सांस की। <br />वह मानव बम तो नहीं थी, लेकिन एक बम के समान जरूर थी। एक समाचार पत्र में उसने उन दिनों ज्वाइन किया था। इत्तेफाक से मैं भी तब उसी समाचार पत्र में था। सोनम नाम की इस युवती को बॉस ने मुझसे मिलवाया और कहा कि इसे कुछ दिन तक अपने साथ ही कार्यक्रमों में ले जाना। ताकि यह यहां के बारे में कुछ जान सके। उस भारीभरकम वजन वाली करीब 27 वर्षीय युवती को मैने अपने स्कूटर में जब पहली बार बैठाया तो पड़ाक की आवाज आई। मैने न तो स्कटर रोका और न ही यह देखा कि यह आवाज कहां से आई। पर मैं समझ गया था कि फुट रेस्ट टूटकर सड़क पर ही गिर गया है। उसका वजन की इतना था कि मैं पतली-दुबली कद काठी का व्यक्ति स्कूटर लहरा कर चला रहा था। साथ ही मन में सोचता कि इस मुसीबत से कैसे छुटकारा मिलेगा। <br />धीरे-धीरे सोनम ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया। वह जो भी फोटो लाती वह कमाल का होता। यही नहीं वह पर्यावरण प्रेमी, पशु व पक्षी प्रेमी भी थी। वह कई बार सांप का खेल दिखाने वाले सपेंरों से उनकी पिटारी छीनकार भाग चुकी थी। साथ ही आसपास के जंगल में इन सांपों को मुक्त भी करा चुकी थी। गुस्सा आने पर तो सभी उससे डरने लगते। एक बार एक काफी उम्र की महिला अपनी गलती से ही उसके स्कूटर से टकराने से बच गई। किसी तरह महिला को तो सोनम ने बचा लिया, लेकिन उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। वह स्कूटर खड़ा करके महिला के पास गई। गुस्से में उसे ऐसा डांटा कि महिला तो थरथर कांपने लगी। इस पर सोनम का कोमल हृदय जागा और उसने महिला को टटोला कि कहीं चोट तो नहीं लगी। <br />तब समाचार पत्र के सिटी कार्यालय में अक्सर सोनम के किस्से ही चर्चित थे। वह जिस भी रिपोर्टर के साथ फोटो खींचने जाती बाद में वही रिपोर्टर उसका कोई न कोई किस्सा सुनाने लगता। कई तो कान पकड़ते कि इसे साथ लेकर नहीं जाएंगे। य़ह तो किसी से भी भिड़ जाती है। युवावस्था में नाट्य संस्था से जुड़ा होने के कारण मेरी आदत हर किसी की आवाज निकालने व नकल करने की थी। एक दिन मैं सोनम की आवाज निकालकर साथियों से चुहलबाजी कर रहा था। मेरी पीठ दरवाजे की तरफ थी। मेरी नकल का मजा लेने वाले सभी साथी अचानक चुप हो गए। मैं हैरान था कि इन्हें मेरी बात पर मजा क्यों नहीं आ रहा है। मैने पीछे पलटकर देखा तो मेरे पूरे शरीर की हालत ऐसी हो गई कि काटो तो खून नहीं। पीछे सोनम खड़ी मुझे सुन रही थी। कुछ क्षण घबराने के बाद मैने खुद को संभाला और उससे कहा आओ मैं आज तुम्हारी नकल उतारने का प्रयास कर रहा हूं। तुम काफी भाग्यशाली हो, जो सामने न रहने भी याद की जाती हो। मेरी बातों से पता नहीं उस पर क्या प्रभाव पड़ा कि वो नाराज नहीं हुई। हां इसके बाद से मैने कभी उसकी नकल नहीं उतारी। <br />समय बीता और बदलता चला गया। सोनम ने भी देहरादून छोड़ दिया। मैं भी उस समाचार पत्र को छोड़कर दूसरे में चल गया। पता ही नहीं चला कि सोनम कहां है। हां जब भी कोई वीआइपी शहर में आता तो मुझे अक्समात ही उसकी याद आने लगती। एक दिन फेसबुक में एक फ्रेंड रिक्वेस्ट आई। इसमें सोनम नाम तो था, लेकिन प्रोफाइल में फोटो नहीं थी। साथ ही प्रोफाइल में उसके बारे में कोई डिटेल भी शो नहीं हो रही थी। <br />ऐसे में मैने रिक्वेस्ट भेजने वाली युवती को मैसेज किया कि जिसकी फोटो नहीं होती वह फर्जी होते हैं। फर्जी आइडी वालों को मैं दोस्त नहीं बनाता। इस पर जवाब आया कि मुझे भूल गए क्या। मैने तो आपके साथ काम किया है। तब जाकर समझा कि यह तो वही दबंग है। जो इन दिनों शायद बिहार में है। उससे फेसबुक के जरिये मिलकर मुझे खुशी हुई। मैने उससे कहा कि आप दूसरों की फोटो खींचती हो, लेकिन अपनी फोटो क्यों नहीं डाली। इस पर जवाब आया कि फोटो डालने से मैं डरती हूं कि कहीं लोग उसे देखकर डर ना जाएं। तब जाकर मुझे पता चला कि यह दबंग सोनम डरती भी है। क्योंकि, लोग व्यक्ति व व्यक्तित्व देखकर नहीं, बल्कि फोटो देखकर ही फेसबुक में अपना कुनबा बढ़ाते हैं। <br />भानु बंगवाल </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-12749213169296826922014-05-01T00:08:00.002-07:002014-05-01T01:22:56.860-07:00एक दिन की भड़ास....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मई दिवस। यानी कि पहली मई। दुनियां के मजदूरों की एकता का दिवस। अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठाने का दिन। सालभर सहने वाले उत्पीड़न के खिलाफ एक दिन भड़ास निकालने का दिन। पूरे साल भर बुद्धू बनने के बाद इस दिन यह कहने का अवसर कि-नो उल्लू बनाईंग। क्या सचमुच इस दिन में एक जादू छिपा है, या फिर हम हर साल लकीर को पीटकर यही कहते हैं कि-दुनियां के मजदूरों एक हो। बचपन से मई दिवस को एक की अंदाज में मनाते हुए मैं देखता आ रहा हूं। तब और अब में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। हां पहले जो मजदूर सड़कों पर उतरता था, उसमें एक उत्साह, तरंग व उमंग जरूर रहती थी। अब तो यह दिन परंपराभर का रह गया है। <br />जब में छोटा था तब मुझे पहली मई का बेसब्री से इंतजार रहता था। कारण यह था कि पिताजी जिस सरकारी संस्थान में कार्य करते थे, वहां के कार्मिक भी मई दिवस से जुलूस में शामिल होते थे। सभी कार्मिकों में इस दिन के प्रति इतना उत्साह रहता था कि वे जुलूस में अपने बच्चों को लेकर भी जाते। तब बाजार तक जाने के ज्यादा मौके बच्चों को नहीं मिलते थे। ऐसे में मई दिवस के जुलूस के बहाने बच्चों का बाजार तक का चक्कर लग जाता था। साथ ही मजा यह कि मोहल्ले के सभी बच्चे एकसाथ रहते। <br />दोपहर तप्ती धूप में कर्मचारी जुलूस निकालते। देहरादून में घंटाघर से करीब चार किलोमीटर दूर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान से जब दोपहर बाद चार बजे कर्मचारी जुलूस निकालते तो उनके साथ नारे लगाने वालों में बच्चे कुछ ज्यादा ही उत्साह में दिखते। करीब आध घंटे में जुलूस एस्लेहाल तक पहुंच जाता। यहां पर अन्य संस्थानों के जुलूस में यह जलूस भी मर्ज हो जाता। फिर एक विशाल जुलूस शहर के मुख्य बाजारों से होकर गुजरता। यह सच ही था कि इस एक दिन कारंवा बढ़ता जाता और जुलूस में सभी रंग शामिल होते जाते। छोटा व बड़ा कर्मचारी सभी तो इसमें शामिल होता। <br />जैसे-जैसे जुलूस आगे बढ़ता मेरा धैर्य जवाब देने लगा। पैर में छाले पड़ने लगते। चलने की हिम्मत जवाब देने लगी। इसकी चुगली मैं अपने पिताजी से करता। जो काफी गर्म मिजाज के थे। उन्हें कोई समस्या या दिक्कत बताओ तो पुचकार के बजाय थप्पड़ पड़ने का अंदेशा ज्यादा रहता था। पर इस दिन तो उनका गुस्सा भी नदारद रहता था। वह मेरा उत्साहवर्धन करते। फिर किसी ठेलीवाले से एक रुपये में एक दर्जन केले खरीदते और मुझे छह केले थमा देते और आधे वे खुद खाते। केले पेट में जाते ही मुझे और थकान महसूस होने लगी। मेरा पेट गुड़गुड़ करने लगा। तब सार्वजनिक शौचालय भी नहीं होते थे। ऐसे में मुझे नाली पर बैठकर ही हल्का होना पड़ता। साथ ही यह डांट भी लगती कि अगली बार मुझे जुलूस में नहीं लाया जाएगा।<br />विभिन्न स्थानों से गुजरने के बाद यह जुलूस एक सभा में बदल जाता। तब रोटी मांग रहे लोगों का पेट भाषण से भरा जाता। भाषण भी इतने उबाऊ होते कि सुनने वाला गश खाकर गिर पड़े। हां यह जरूर रहता कि इन भाषणों में मजदूरों को खुशहाल भविष्य के सपने दिखाए जाते। एक दिन सत्ता आपकी होगी। सामंतशाही का अंत होगा। हर आम को उसका हक मिलेगा। यही तो इन भाषणों में होता। वैसे तब इन दिन का ना तो मुझे अर्थ व महत्व ही समझ आता था और न ही आज भी समझ पाया। क्योंकि हम परंपराओं को निभाते आ रहे हैं। वहीं इसके उलट मजदूरों की आबाज को बुलंद करना महज नाटक साबित हो रहा है। <br />हर साल ऐसे जुलूस निकलते। मजदूर तो मजदूर ही रहता है। मजदूर नेता जरूर दोनों हाथों से संपत्ती बटोरता रहता है, लेकिन फिर वह भी मजदूरों का नेता कहलाता है। मजदूर व मजबूरों का तो उसी तरह हाजमा बिगड़ रहा है, जैसे बचपन में मेरा जुलूस के दिन बिगड़ता था। तभी तो दिनरात की मेहनत करन के बावजूद मजदूर की जीवन की गाड़ी पटरी में नहीं उतरती। हाजमा गड़बड़ाने की तरह उसका बजट भी गड़बड़ताता है। वहीं श्रमिक नेता मजदूरों की एकता के नाम पर चंदा डकार कर अपना हाजमा मजबूत कर रहे हैं। मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे फिजाओं में गूंजते रहते हैं। मजदूरों को उनकी ताकत का अहसास कराया जाता। उस ताकत का, जो आम आदमी को खास बना देती है। तभी तो इन आम लोगों की भीड़ से खास लोग जन्म ले रहे हैं। फिर भी वे खुद को आम कहलाना ही पसंद करते हैं। ऐसे आम आदमी के पास ऐसी कार होती हैं। एसी की हवा का आनंद लेते हुए वे होटलों में बैठकर मजदूरों व मजबूरों की चिंता करते हैं। फिर बाहर निकलकर वे गला साफ करते हैं कि-मजदूर एकता जिंदाबाद। <br />आज से चाहे पचास साल पहले ही बात करें, तब भी मालिक व मजदूरों में एक टकराव की स्थिति रहती थी, जो आज भी है। मजदूरों के लिए श्रम कानून बने हैं, लेकिन उन पर अमल करने और अमल कराने वाले दोनों ही चुप हैं। मजदूरों की आवाज कहलाने वाला मीडिया भी उनके अधिकारों को लेकर चुप है। मीडिया को भी हाईटेक न्यूज चाहिए। ऐसे लोगों के समाचार, जो वाकई पाठक हों। तभी तो पिछले पंद्रह-बीस सालों से मजूदरों के श्रम व अधिकारों को लेकर समाचार अब गायब ही होने लगे हैं। पहले समाचार पत्रों में ऐसे समाचार पहले पेज से लेकर आखरी पेज में स्थान बनाते थे। अब मजदूरों को समाचारों में रंगकर क्या हासिल होगा, यह बात अब मीडिया भी जानता है। तभी तो वह भी सिर्फ एक दिन मई दिवस के दिन सक्रिय होकर कहता है- मजदूर एकता जिंदाबाद। वहीं आज के जुलूस में कार्मिक तो हैं, लेकिन बच्चे गायब हैं। क्योंकि कोई भी कर्मचारी नहीं चाहेगा कि उसका बेटा आम आदमी की कतार में रहे। ऐसे में कर्मचारी अकेले ही जुलूस में चिल्लाकर कहता है मजदूर एकता। <br />भानु बंगवाल <br /></div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-3173592740304008962014-04-24T05:02:00.000-07:002014-04-24T05:20:03.313-07:00दस नंबरी.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उस दौरान दस नंबरी का आशय ऐसे व्यक्तित्व से लगाया जाता था, जो चालाक हो, तेज तर्रार हो. कुछ धूर्त हो, कुछ बदमाश हो, बदमाशों की खैर रखता हो आदि-आदि। कारण कि 1976 में मनोज कुमार की जो फिल्म रीलिज हुई उसका नाम दस नंबरी था। ऐसे में दस नंबरी नाम का व्यक्तित्व उक्त प्रकार का होना चाहिए। पर उस मोहल्ले में तो एक महिला का नाम ही दस नंबरी पड़ गया। वह भी गर्व से अपने इस नाम को सुनकर फूली न समाती थी। देहरादून के राजपुर रोड स्थित राष्ट्रपति आशिया के क्वार्टर में एक कमरे के मकान में रहती थी दस नंबरी। राष्ट्रपति आशिया की देखरेख एक दफेदार (जेसीओ) करता है। इसमें मुख्य भवन में करीब 26 कमरों की कोठी है। इसमें फखरूदीन अली अहमद से लेकर कई राष्ट्रपति जब दून आए तो वहीं ठहरे थे। यही नहीं फखरूदीन अली अहमद ने तो इस परिसर में आम की पौध का रोपण भी किया था, जो अब बड़े फलदार पेड़ का रूप ले चुके हैं। यह परिसर काफी बड़ा है। इसके एक छोर में पहले घोड़ों की घुड़साल व गोशालाएं थी। बाद में इन गोशालाओं को कमरे का रूप दे दिया गया और उन्हें मामूली किराए में गरीब लोगों को रहने को दिया जाने लगा। यह किराए का सिलसिला करीब 1950 के बाद शुरू हुआ। तब राष्ट्रपति आशिया की जमीन पर बनी बैरिकों में कमरों की संख्या करीब साठ से अधिक रही होगी। पर किराए पर करीब चालीस से अधिक कमरे दिए गए थे। इनका किराया राष्ट्रपति का अंगरक्षक (बार्डीगाड) वसूलता था। इस राशि से परिसर की सफाई आदि का कार्य मैनटेंन किया जाता था। राष्ट्रपति आशिया के इन क्वार्टर को बार्डीगाड लाइन कहा जाता था। इससे सटे मोहल्ले का नाम बिगड़कर बारीघाट हो गया। घना मोहल्ला, लेकिन तब किसी भी कमरे में बिजली की सुविधा नहीं थी। सभी किराएदार मिट्टी के तेल की डिबिया या लैंप जलाकर रात को घर रोशन करते थे। दफेदार किसी को बिजली कनेक्शन लेने की अनुमति नहीं देता था। उसे डर था कि कहीं लोगों के पास वहां रहने का प्रमाण एकत्र न हो जाए और जरूरत पड़ने पर कमरे खाली करना मुश्किल हो जाएगा। गरीब लोग इसलिए खुश थे कि पांच रुपये महीने में उन्हें पंद्रह फीट लंबा व नौ फुट चौड़ा कमरा मिला हुआ था। <br />
बार्डीगाड लाइन में हर कमरे के आगे व पीछे काफी खाली जमीन थी। ऐसे में वहां रहने वाले लोग अपने कमरे के सामने व पीछे की जमीन पर अपनी जरूरत की सब्जियां भी उगाते थे। <br />
इसी बार्डीगाड लाइन में मकानों की एक लेन के आगे बेलपत्री का पेड़ था। ऐसे में उस लाइन को बेल वाली लाइन कहा जाता था। पंडित, राजपूत, सफाईकर्मी, मजदूर, धोबी सभी तरह के लोग वहां रहते थे। पड़ोसियों में काफी एका था। दूख-सुख में सभी एक दूसरे के काम आते थे। बेल वाली लाइन में दस नंबर के कमरे में एक सरकारी विभाग का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी रहता था। उसकी पत्नी का नाम लोगों ने दस नंबरी रख दिया। दस नंबरी को अपने इस नाम से जहा भी रंज नहीं था। वह इस नाम पर गर्व करती थी। ये नाम रखने वाले भी बड़े कमाल के होते हैं। कैसे उनके मन में ख्याल आते हैं और हो जाता है किसी का भी नामकरण। जब स्कूल जाने की मैने शुरूआत की तो मेरा रंग काफी गोरा था। तब बच्चों ने मेरा नाम मलहम रख दिया। बच्चे मुझे चिढ़ाते और मैं यही कोसता कि किसी धूर्त ने मेरा यह नामकरण किया। फिर छठी जमात में गया तो वहां नए बच्चे मिले। मैं खुश था कि अब मलहम नाम से छुटकारा मिल जाएगा। पर मेरी किस्मत ऐसी नहीं थी। नए बच्चों ने मेरा नाम भानु बुढ़िया रख दिया। छठी करने के बाद मैने पिताजी से अपना स्कूल बदलवाया। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरा परमानेंट नाम भानु बुढ़िया पड़ जाए। स्कूल बदला और मैं सातवी से डीएवी इंटर कॉलेज में जाने लगा। वहां मुझे ऐसे नामों से मुक्ति मिल गई। पर वहां शायद ही कोई शिक्षक ऐसा नहीं था, जिसका बच्चों ने कोई नाम नहीं रखा था। आदत, रंग, कद-काठी, आदि के अनुरूप किसी को गुटका, तो कोई टीचर पहाड़ी चूहा, तो कोई लंबू, कोई कालिया के नाम से फैमस था। तब मुझे यह बात समझ आ गई कि ऐसे नामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। व्यक्ति को अपने कर्म पर ही ध्यान देना चाहिए। <br />
दस नंबरी एक सीधी साधी महिला थी। उसके कोई बच्चे नहीं थे। उसने बकरियां पाली हुई थी। किसी से परिचय होने पर वह अपना नाम दस नंबरी ही बताने लगी थी। तब महीने में एक बार इस मोहल्ले की करीब आठ दस महिलाएं दस नंबरी के नेतृत्व में फिल्म देखने जरूर जाती। फिल्म के लिए सभी अपना-अपना खर्च करते। दोपहर में वह बकरियां चराने पास के जंगल जाती। दस नंबरी के सदव्यवहार से बच्चे भी खुश रहते थे। गर्मियों में स्कूल की छुट्टी पर हम बच्चे इस जंगल में धमाचौकड़ी मचाते। कभी-कभी पिकनिक का प्रोग्राम बनता तो बच्चे घर से बर्तन, चावल, चीनी आदि लेकर जंगल पहुंचते। वहां लकड़ियां एकत्र कर चूल्हा जलाकर मीठे चावल बनाते। कभी खिचड़ी का भी प्रोग्राम बनता। एक दिन हम मीठे चावल बना रहे थे। समीप ही दस नंबरी बकरियां चरा रही थी। वह पास आई और बोली कि खीर बनाओ। हमने कहा दूध कहां से आएगा। इस पर उसने कहा कि मेरी निमरी (बकरी का नाम) का दूध निकाल लो। बच्चों ने ऐसा ही किया। सचमुच दस नंबरी का प्यार उस खीर में घुल गया। उस खीर का स्वाद मैं आज तक नहीं भुला। <br />
समय बदला करीब वर्ष 2008 के बाद राष्ट्रपति आशिया के किराएदारों को कमरे खाली करने का फरमान आया। तब तक वहां के कमरों का किराया भी बढ़कर दो से तीन सौ तक पहुंच गया था। फिर भी यह काफी कम था। सौ साल पुरानी बैरिकें खंडहर होने लगी थी। कुछ लोगों ने अपने मकान बना लिए और कई किराए के मकान में चले गए। अब वहां मकानों के खंडहर ही शेष बचे हैं। कई कमरों की छत तक गायब है। न तो बेल वाली लाइन में बेल पत्री का पेड़ ही बचा है और न ही दस नंबरी इस संसार में है। वैसे अब दुनियां में दस नंबरियों की कमी नहीं है। नेता, पुलिस, वकील, पत्रकार आदि की जमात में दस नंबरी नजर आ जाएंगे। पर उस दस नंबरी की तरह नहीं, जो खुद को दस नंबरी कहलाने में गर्व महसूस करें। आजकल के दस नंबरी तो दूसरों का खून चूसकर खुद को संत कहलना पसंद करते हैं। हां अभी भी दस नंबर का कमरा खंडहर के रूप में नजर आता है। कैनाल रोड से उसकी खिड़की आज भी वैसी नजर आती है, जैसे चालीस साल पहले थी। अक्सर कैनाल रोड की तरफ मार्निंग वाक में जाते समय दस नंबर के कमरे की खिड़की देखकर मरे कदम रुक जाते हैं। मुझे लगता है कि भीतर से दस नंबरी यही गाना गुनगुना रही है कि- दुनियां एक नंबरी और मैं दस नंबरी। <br />
भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-8032475385897329902014-04-20T04:35:00.001-07:002014-04-20T04:35:14.822-07:00जमाना बदल रहा है...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हर वक्त एक तकियाकलाम लोगों का यही रहता है कि जमाना बदल रहा है। चाहे चालिस साल पहले की बात रही हो या फिर चार सौ साल पहले की। तब भी शायद लोगों के मुंह में यही बात रही होगी कि जमाना बदल रहा है। जमाना तो बदलेगा ही। यही प्रकृति का नियम है। कोई भी चीज एक तरह से नहीं रहती। उसमें परिवर्तन तो आता ही रहता है। फिर भी सौ साल में जिस तेजी से विकास हुआ यह शायद पहले नहीं हुआ हो। जहाज बने, कार-मोटर का जमाना आया। गांव शहरों में तब्दील हो गए। 80 के दशक में कंप्यूटर आए। पहले इसका विरोध हुआ, लेकिन अब यह व्यक्ति की जरूरत बन गया। संचार क्रांति ने तो एक नए युग का सूत्रपात किया। चुनाव आए तो नेताजी भी हाईटेक हो गए। लोगों को रिझाने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल भरपूर करने लगे। वहीं प्रेम की पींगे बढ़ाने के लिए भी यह माध्यम सबसे सुलभ नजर आने लगा। चिट्टी लिखकर किसी लड़की को देना अब गुजरे जमाने की बात हो गई। इसमें भी यह रिस्क रहता था कि कहीं लड़की के बजाय उसके भाई या पिता के हाथ पड गई तो शायद बबाल ही मच जाए। अब तो मोबाईल या फिर फेसबुक का सहारा लेकर बातचीत की शुरूआत होने लगी। कई ऐसे उदाहरण हैं जिनका घर फेसबुक के माध्यम से ही बसा। यहीं से पहले चेट हुई, फिर यह चेट प्रेम में बदली और फिर कहानी शादी तक पहुंची। <br />अब देखो भीख भी हाईटेक तरीके से मांगी जा रही है। मैसेज के जरिये अपना दुखड़ा सुनाकर मदद मांगने वालों की कमी नहीं है। ऐसे लोग कहीं न कहीं किसी न किसी को मुर्गा बनाने में कामयाब भी हो जाते हैं। इसी तरह ठगी करने वाले भी हाईटेक तरीके इस्तेमाल करने लगे हैं। ऐसे लोग छोटा लालच देते हैं। जो लालच में फंसा वह गया काम से।<br />मुझे मोबाइल में फोन आया और फोन करने वाले ने खुद को भारत संचार निगम का एसडीओ बताया। उसने पूछा कि मेरा फोन का बिल कितने का आता है। मैने जब उसे बताया कि हर माह करीब एक हजार रुपये का बिल आता है तो वह बोला कि आज से निगम ने एक स्कीम लांच की है। यदि तुम तीन हजार रुपये आज ही जमा करा दोगे तो पूरे साल भर तक कोई बिल नहीं आएगा। साल में पूरे नौ हजार का फायदा । सिर्फ एक बार पैसे जमा कराने में। मैं भी छोटे लालच के फेर में फंसने लगा। फिर मुझे ध्यान आया कि कहीं यह ठग तो नहीं। मैने उसका नाम पूछा। साथ ही कुछ बीएसएनएल के कर्मचारियों व अधिकारियों के नाम भी। मेरी बात का वह सही जवाब देता रहा। मैने कहा कि मैं बीएसएनएल के कार्यालय में जाकर पैसे जमा करा दूंगा। इस पर वह बोला कि पैसे पीसीओ के माध्यम से ही रिचार्ज होंगे। <br />मुझे ध्यान आया कि बीएसएनएल में जब भी पोस्टपेड कनेक्शन पर मैं कोई भी नेट का प्लान बदलता हूं तो उसके लिए निगम के कार्यालय में जाकर फार्म भरना पड़ता है। साथ ही भुगतान किए गए पिछले बिल की प्रतिलिपी भी जमा करनी पड़ती है। उस व्यक्तिने कहा कि अभी किसी बच्चे को पीसीओ में पैसे लेकर भेज दो। वहां से मेरी बात कराओ, मैं बताऊंगा कि पैसे कैसे रिचार्ज करने हैं। उसने बच्चा शब्द शायद इसलिए कहा हो कि पीसीओ में पहुंचने के बाद बच्चे को आसानी से बेवकूफ बना देगा। पहले रिचार्ज का ऐसा तरीका बताएगा जिससे, पैसे मेरे एकाउंट में नहीं जाएंगे। फिर अपना कोई नंबर बताकर वहां पैसे ट्रांसफर कर देगा। <br />मैने कहा कि मैं खुद पीसीओ जा रहा हूं, वहीं से बात करूंगा। फोन काटकर मैने बीएसएनएल के एक परिचित कर्मचारी को फोन मिलाया। तो पता चला कि ऐसी कोई स्कीम नहीं है। उसी कर्मचारी से मुझे पता चला कि जो नाम फोन करने वाले ने अपना बताया वह मसूरी में तैनात एक एसडीओ का है। मैने मसूरी के एसडीओ का नंबर लिया और उन्हें फोन किया। एसडीओ की आवाज अलग थी। उनसे बात करने पर पता चला कि उन्होंने मुझे फोन ही नहीं किया। जिस नंबर से मुझे फोन आया था वह बीएसएनएल का भी नहीं था। मैने दोबारा उसी महाशय को फोन मिलाया तो परिचय में उसने अपने को खुद बीएसएनएल का एसडीओ बताया, पर इस बार अपना नाम दूसरा बताया। इस ठग को मैने बताया कि आपका भांडा फूट गया है। हर बार नाम बदलकर आप किसी का उल्लू बना सकते हो, लेकिन अब यह खेल नहीं चलेगा। इस पर उसने फोन काट दिया। <br />मैं समझा कि वह डर गया होगा। अब उसे डर होगा कि कहीं मैने पुलिस को फोन तो नहीं कर दिया। कुछ देर बाद उसे दोबारा फोन मिलाया तो व्यस्त मिला। फिर उसने मुझे फोन किया। जब मैने पहले वाले एसडीओ के बारे में पूछा तो वह बोला- मैं बोल रहा हूं। मैने कहा कि यह तो मसूरी एसडीओ का नाम है। उनसे मेरी बात भी हो चुकी है। अब भी आप खुद के लिए उनका नाम ले रहे हो। इस पर वह धमकाते हुए बोला कि आइंदा मुझे फोन मत करना। इसके बाद महाशय ने फोन काट दिया। अब जब भी मैं उस नंबर यानी-7408112771 को मिलाता हूं तो वह बीजी रहता है। यानी महाशय किसी दूसरे शिकार की तलाश में व्यस्त हैं। क्योंकि इस बड़ी दुनिया में उसे ऐसे कई मिल जाएंगे, जो आसानी से जाल में फंस जाएंगे। <br />भानु बंगवाल <br /></div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-72785004574656542872014-04-15T01:20:00.000-07:002014-04-15T01:20:06.296-07:00गुब्बारे ही गुब्बारे....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
लाल हरे, पीले, नीले गैस से भरे गुब्बारे। भला किसे अच्छे नहीं लगते। बच्चे इन गुब्बारों को पाने के लिए लालायित रहते हैं। बड़ों को भी ये बुरे नहीं लगते। विवाह समारोह हो या फिर कोई अन्य आयोजन। कहीं सजावट करनी हो तो अब गुब्बारों का प्रयोग भी किया जाने लगा है। फिर भी मैं बचपन से ही गुब्बारे देख रहा हूं और उनके स्वरूप में जरी भी अंतर नजर नहीं आया। देहरादून में होली के पांचवे दिन झंडे का मेला लगता है, जो करीब एक माह तक रहता है। इस मेले का मुझे बचपन में बेसब्री से इंतजार रहता था। मां व पिताजी एक बार मेला जरूर ले जाते थे, लेकिन मुझे वे सब खिलौने नहीं मिलते जो मैं लेना चाहता था। कारण की छह भाई बहनों में किस-किस की मुराद पूरी होती। सो कुछ खाने को जरूर मिलता, वहीं खिलौने के नाम पर कभी बांसुरी मिल जाती या फिर एक किरमिच (कॉस्को) की बॉल। जो शायद तब पचास पैसे या फिर एक रुपये में आती थी। गुब्बारे को देख कर मैं ललचाता, लेकिन पिताजी का तर्क यही होता कि इसमें हवा भरी है, घर तक पहुंचने से पहले रास्ते में फूट जाएगा। ऐसे में इसे खरीदना फिजूल खर्ची है। ऐसे खिलौने लो, जो कुछ दिन तक बचे रहें। <br />गुब्बारे देख मैं सोचा करता कि यदि मेरे पास गैस का गुब्बारा हो तो मैं उसमें धागे की पूरी रील जोड दूंगा। वह आसमान में इतना ऊपर जाएगा कि शायद किसी का गुब्बारा उतना ऊपर न गया हो। पतंग से भी ऊपर मैं अपने गुब्बारे को पहुंचाऊंगा। पर किस्मत में गुब्बारा था नहीं। मेले के अलावा मुझे कभी गुब्बारे वाला दिखाई नहीं देता था। मेला घर से काफी दूर था। अकेले जाकर मैं उसे खरीद नहीं सकता था। हर बार मन मसोसकर रह जाता। <br />तब मैं तीसरी जमात में पढ़ता था। स्कूल घर से करीब तीन किलोमीटर दूर था। पैदल ही स्कूल जाना होता था। एक दिन इंटरवल के दैरान मैने देखा कि स्कूल के गेट के सामने एक गुब्बारे वाला खड़ा है। छोटी सी उसकी रेहड़ी में एक गंदा का सिलेंडर रखा था। साथ ही कुछ गुब्बारे धागे से रेहड़ी में बंधे थे, जो हवा में झूल रहे थे। यदि धागा टूट जाए तो शायद आसमान को चूमते हुए गायब हो जाते। गुब्बारे दूर आसमान में परिंदों से ऊंचा उड़ना चाहते थे। पर उन पर तो दो फिट का धागा बंधा था। गुब्बारेबाले के पास बच्चों की भीड़ थी। मुझे हर दिन स्कूल जाते वक्त पिताजी दस पैसे देते थे। उस दिन के पैसे मैं चूरन खाने में उड़ा चुका था। अब गुब्बारा कहां से लूं, यह मुझे नहीं सूझ रहा था। फिर मेरे दिमाग में एक युक्ति आई। जैसे ही स्कूल की घंटी बजी तो बच्चे गेट के भीतर दौड़ने लगे। गुब्बारेवाला अकेला नजर आया। मैं उसके पास पहुंचा और बोला- भैया यदि आप अपने सारे गुब्बारे आज ही बेचना चाहते हो तो छुट्टी के बाद मेरे साथ चलना। मेरे मोहल्ले में आज तक कोई गुब्बारे वाला नहीं आया। वहां जाओगे तो शायद काफी लोग गुब्बारे खरीद लेंगे। यह कहकर मैं भी स्कूल की तरफ भागकर अपनी क्लास की तरफ दौड़ गया।<br />मेरा मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। यही विचार बार-बार आ रहा था कि गुब्बारे वाला क्यों मेरे कहने पर चलेगा। पाठ की जगह मुझे किताब में गुब्बारे ही नजर आ रहे थे। जैसे गुब्बारेबाला कह रहा हो-लाया हूं मैं गुब्बारे। लील, हरे, नीले, पीले, बैंगनी........। शाम चार बजे स्कूल की छुट्टी हुई। मैं बस्ता संभालकर गेट की तरफ दौड़ा। देखा कि गुब्बारेवाला वहीं खड़ा है। जो शायद मेरा इंतजार कर रहा था। मैं खुश था। उसे अपने साथ लेकर चलने लगा। दो किलोमीटर राजपुर रोड की चढ़ाई में चलने के बाद गुब्बारे वाले के सब्र का बांध टूटने लगा। वह गर्मी से हांफ रहा था। साथ ही वह दुबला आदमी थकान से कांप रहा था। कितनी दूर है तेरा मोहल्ला-वह बोला। बस <br />कुछ दूर और भैया- मैने कहा। साथ ही मैं उसका कष्ट दूर करने के लिए ठेली को धक्का मारने लगा। ढाई किलोमीटर की सड़क के बाद हम कच्ची सड़क पर आ गए। फिर पगडंडी का रास्ता। वह वापस लौटने को हुआ तभी मैने उसे दूर से मोहल्ला दिखाया। हम ऊंचाई पर थे, नीचे मकानों की कतारें थी। मैने कहा बस वहीं तक चलना है। जैसे-तैसे हंम मोहल्ले में पहुंच गए। उसे देखते ही बच्चों की भीड़ लग गई। मैं बस्ता छोड़ने घर को दौड़ा। मां से पैसे मांगे, लेकिन उसने खाली हाथ हिला दिए। पिताजी से डरते-डरते मैने पैसे मांगे, पर गुब्बारे पर उनका सिद्धांत नहीं डोला। उन्होंने कठोर शब्दों में मुझे गुब्बारे में फिजूलखर्ची से मना कर दिया। <br />मैं मुंह लटकाकर गुब्बारेवाले के पास पहुंचा। तब तक उसके लगभग सारे गुब्बारे बिक चुके थे। वह बहुत खुश था। उसका गैस से भरा सिलेंडर भी खाली हो चुका था। वह जाने की तैयारी कर रहा था। बस एक आखरी गुब्बारा उसकी ठेली से बंधा था। जो शायद उसने मुझे बेचने के लिए बचाया था। मुझे देखते ही वह बोला-कहां चले गए थे। सारे गुब्बारे बिक गए। एक तुम्हारे लिए रखा हुआ है। मैने निराश होकर कहा- भैया इसे किसी को बेच दो। मेरे पास पैसे नहीं है। इस पर वह मुस्कराया और उसने धागा तोड़ते हुए मुझे गुब्बारा थमा दिया। ये मेरी तरफ से तुम्हारा तोहफा है-वह बोला। गुब्बारा लेकर मैं खुश था। घर आकर मैने धागे में एक धागे की रील जोड़ी और घर के पिछवाड़े में जाकर रील खोलने लगा। गुब्बारा ऊपर-ऊपर जा रहा था। मैं धागा बढ़ाए जा रहा था। फिर एक समय ऐसा आया कि काफी ऊंचाई में जाने के बाद गुब्बारा धागे का बोझ सहन नहीं कर पाया और एक स्थान पर जाकर रुक गया। तब मुझे अहसास हुआ कि जरूरत से ज्यादा बोझ डालने पर किसी का भी यही हश्र हो सकता है। तभी रात का अंधेरा बढ़ने लगा। माताजी की आवाज आई कि घर नहीं आना क्या। मैं धागा लपेटते हुए गुब्बारे को नीचे ऊतराने लगा। <br />घर में मैने कमरे में गुब्बारे के धागे को इतनी ढील दी कि वह छत से जा लगा। मैं खुश था कि इससे कई दिन तक खेलूंगा। रात को सोने से पहले मैं गुब्बारे को ही देखता रहा। न जाने कब नींद आई, लेकिन सपने में भी मुझे गुब्बारे ही गुब्बारे दिखाई दिए। सुबह उठा तो देखा कि गुब्बारा अपना स्थान छोड़ चुका है। उसकी हवा इतनी कम हो गई कि वह जमीन से दो फुट ऊपर ही नजर आया। उसका आकार कॉस्को की गेंद के बराबर का रह गया। <br />तब और आज के गुब्बारों में मुझे कोई फर्क नहीं आता। आज भी देश भर में रंग-बिरंगे गुब्बारे नजर आ रहे हैं। कोई गुब्बारा गरीबी दूर करने का नारा दे रहा है, तो कोई स्थिर सरकार का। केजरीवाल का गुब्बारा पहले खूब उड़ा, फिर एक स्थान पर जाकर रुक गया। इसके बाद जमीन ही छोड़ दी। कांग्रेस का गुब्बारा उसी पुरानी गैस के साथ उड़ रहा है। भाजपा का गुब्बारा मोदी गैस से भरा है। अब देखना यह है कि समय आने पर कितने गुब्बारों में गैस बची रहती है। क्योंकि जब तक गैस रहेगी, तब तक गुब्बारे अच्छे लगते हैं। फिर सिकुड़कर अ्सहाय हो जाते हैं। इनसे जरूरत से ज्यादा अपेक्षा करना मूर्खता है। ये या तो फूट जाते हैं या फिर एक निश्चित ऊंचाई के बाद उड़ना बंद कर देते हैं। <br />भानु बंगवाल<br /></div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-55406428971542220142014-04-12T22:54:00.002-07:002014-04-12T23:24:28.689-07:00क्या फर्क पड़ता है....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इंसान के जीवन में वर्तमान का जितना महत्व है, उतना ही उसके भूत व भविष्य का भी है। तभी तो भूतकाल से सबक लेकर व्यक्ति अपने वर्तमान को बेहतर बनाने का प्रयास करता है। साथ ही उज्ज्वल भविष्य का ताना-बाना बुनता है। इस साल अप्रैल माह में नजर डाली जाए तो लगेगा कि यह महीना तो बस वादों का है। क्योंकि देश भर में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। कई राज्यों में तो मतदान हो गया और कई में चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। टेलीविजन के किसी भी न्यूज चैनल को ऑन करो तो नेताजी का दौरा, आरोप-प्रत्यारोप, छिछालेदारी, झूठ व फरेब सब कुछ सुनाई व दिखाई देगा। चुनाव के मौसम के साथ ही यह असर तो अप्रैल का भी है। अप्रैल यानी की सनकी महीना। इन दिनों बगीचों में फूल खिले होते हैं। आम व लीची के बगीचे फल से लकदक रहते है। कोयल की कूक सुनाई देने लगती है। मदमस्त माहौल चारों तरफ का नजर आता है। देहरादून में तो इस बार कमाल हो गया। होली के बाद से जहां लोगों के गर्म कपड़े उतर जाते थे, वहीं इस बार सर्दी जाने का नाम ही नहीं ले रही है। यदि दिन में गर्मी पड़ती है तो अगले दिन बारिश हो रही है। रात को तो शायद ही किसी ने रजाई को तिलांजलि दी हो। यानी सनकी महीने में मौसम भी सनकी हो गया है। नेताजी भी तो सनक में हैं। वोट मांगते हैं तो वादे व कसमों से भी नहीं चूकते हैं। टेलीवीजन में विज्ञापन देखकर अब जनता भी सनकी हो गई है। वह भी पलटकर कहने लगी कि- नो उल्लू बनाईंग। पिछले आश्वासन का क्या हुआ। ऐसे में नेताजी का असहज होना भी लाजमी है। हांलाकि जनता के पास ज्यादा विकल्प नहीं है। उसे उन्हीं चेहरों से एक को चुनना है, जो चुनाव मैदान में हैं। फिर भी मुकाबला रोचक है। <br />
गांव में सड़क, बिजली, पानी पहुंचाने का नारे अब फीके पड़ने लगे हैं। कुछ नया नेताजी के पास नहीं है। फिर भी कई गांव ऐसे हैं जहां के लोगों ने आज तक सड़क न होने से मोटर तक नहीं देखी। बिजली का बल्ब कैसे चमकता है यह भी उन्हें नहीं पता। इस हाईटेक युग में ऐसी बातें की जाएं तो कुछ अटपटा लगता है। भूत वर्तमान व भविष्य से अपनी बात शुरू करने के बावजूद शायद मैं भी विषय से भटक गया। पुरानी बातों का महत्व याद करते करते नेताजी बीच में टपक गए। शायद यह भी सनकी महीने अप्रैल का ही असर है। बात हो रही थी कि विकास शहरों तक ही सीमित रहा। गांव में तो यह अभी कोसों दूर है। आफिसों में एसी लगे हैं। घर में पंखा चलाने से लोग इसलिए कतराते हैं कि बिजली का बिल ज्यादा आ जाएगा। वही लोग सर्दी लगने के बावजूद आफिस पहुंचते ही एसी का बटन ऑन कर देते हैं। फिर जब दूसरे साथियों को ठंड लगती है तो एसी बंद करने को लेकर माहौल गरमाने लगता है। कोई कहता है कि गर्मी है, तो दूसरे को सर्दी लगने से बखार चढ़ने लगता है। एक साहब बार-बार बटन ऑफ करते फिर कुछ देर बाद एसी खुद ही ऑन हो जाता। ऐसे में साहब को यह नहीं सूझ रहा था कि क्या करें। <br />
मुझसे उनकी व्यथा देखी नहीं गई और मैने उन्हें एक कहानी सुनाई। यह कहानी मेरे दूर के एक चाचा ने सुनाई थी। करीब चालीस साल पहले उनकी दादी पहली बार गांव से शहर में आई। पहली बार वह बस में बैठी। रास्ते में इतनी डरी कि तबीयत खराब हो गई। रास्ते भर उल्टी की शिकायत रही। घर पहुंची तो एक पोते ने दादी को कैंपाकोला (कोल्ड ड्रिंक) की बोतल खोलकर दी और कहा कि इसे पिओ तबीयत ठीक हो जाएगी। तभी दूसरा नाती वहां आया और नमस्ते की जगह बोला-हेलो दादीजी। दादी ने समझा कि वह बोतल हिलाने को कहा रहा है। उसने भी वही किया। जोर-जोर से बोतल हिलाने लगी। सारी कोल्ड ड्रिंक एक झटके में उछलकर बोतल से बाहर हो गई और दादी के कपड़ों में गिर गई। दादी परेशान। तभी दूसरे पौते ने कहा कि दादी परेशान हो गई। उसने घरबाई दादी को कुछ इस तरह बैठने को कहा-दादीजी सोफे में बैठ जाओ। दादीजी कमरे में सुफ्फा (अनाज फटकने वाली छाज) तलाशने लगी। फिर वह बिगड़ी की मुझे सुफ्फे में बैठाएगा। कितना शैतान हो गया है गोलू। दादीजी को समझाया गया कि बैठने की गद्दीदार बड़ी कुर्सी को शहर में सोफा कहा जाता है। तब वह शांत हुई। <br />
दादीजी की मुसीबत यहां भी कम नहीं हुई। रात को सोने के लिए दादीजी के लिए एक कमरे में बिस्तर लगाया गया। रात को सोने से पहले पोते ने समझाया कि जब सोने लगोगी तो बिजली का बटन आफ कर देना। दादी बोली मुझे सिखाता है। मैं लालटेन बंद करना जानती हूं। सुबह दादी के कमरे में उनकी बहू चाय लेकर पहुंची। देखा कि फर्श में कांच फैला हुआ है। सास आराम से सो रही है। बहू घबरा गई। उठाकर पूछा कि बल्ब कैसे फूट गया। इस पर सास ने उल्टे सवाल किया कि बहू कैसी लालटेन कमरे में टांगी। काफी देर तक फूंक मार-मार कर थक गई, लेकिन यह बुझने का नाम ही नहीं ले रही थी। फिर जूता मारकर बुझाने का प्रयास किया। जब निशाना सही नहीं लगा तो छड़ी उठाकर इसे फोड़ डाला। <br />
मित्र बोले क्या तुम यह चाहते हो कि एसी जब बार-बार तंग कर रहा हो तो उसा बटन तोड़ दूं। यह नहीं हो सकता। मेरी नौकरी चली जाएगी। इससे अच्छा तो यह है कि एसी का अत्याचार सह लूंगा। अब देखो वही तो हो रहा है। नेताजी उल्लू बना रहे हैं, जनता सह रही है। कहीं तो उन पर थप्पड़ पड़ रहे है और कहीं कोई जूता तक फेंक रहा है। भारत से लेकर अमेरिका तक यही हाल है। सभी बड़े नेताओं पर जूतों का निशाना समय-समय पर लगाने का प्रयास होता रहता है। पर दादी के निशाने की तरह उनका भी निशाना चूक जाता है। नेताजी बेशर्म हैं। जितने ज्यादा जूते पड़ते हैं उतनी ज्यादा ही उनकी लोकप्रियता बढ़ती है। लोग नो उल्लू बनाईंग कहकर पुरानी बातें याद दिलाते हैं, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। क्योंकि उनकी नजर में पुरानी बातें तो सिर्फ चुस्कियां लेने भर की हैं, सबक लेने के लिए नहीं। <br />
भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-39214848108706540212014-03-29T23:12:00.002-07:002014-03-29T23:28:39.478-07:00कीमत लहू की..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
क्या व्यक्ति-व्यक्ति के खून में फर्क हो सकता है। सबके खून का रंग तो एक सा होता है। हां फिर फर्क यही हो सकता है कि व्यक्ति-व्यक्ति का ब्लड का ग्रुप बदल जाता है। फिर क्यों कहा जाता है कि इसका खून ठंडा है, उसका खून गर्म है। यह अंदाजा तो हम व्यक्ति की आदत से ही लगाते हैं। ऐसी आदत खून से नहीं बल्कि व्यक्ति के संस्कार व कर्म से पड़ती है। वैसे देखा जाए, जब तक हमारी शिराओं में बगैर किसी व्यवधान के रक्त दौड़ता रहता है, तब तक जीवन की डोर सुरक्षित रहती है। किसी के शरीर में एक बूंद खून बनने में जितना वक्त लगता है, उससे कम वक्त तो देश को जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर बांटने वाले लोग दूसरों का खून बहाने मे भी नहीं लगाते हैं। ऐसे लोग किसी के जीवन को बचाने में भले ही अपना खून न दे सकें, लेकिन दूसरों के खून से होली खेलने में जरा भी गुरेज नहीं करते। <br />फिर भी समाज में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है, जो दूसरों का जीवन बचाने में रक्तदान करना अपना सोभाग्य समझते हैं। एक दिन एक मित्र मिले बोले रक्तदान करके आ रहा हूं। सार्टीफिकेट भी मिला है। अब तक उनके पास ऐसे दो प्रमाणपत्र हो गए हैं। मैने मन में सोचा कि मैने भी तो रक्तदान किया, लेकिन कभी प्रमाणपत्र लिया ही नहीं। सच यह है कि रक्तदान करना आसान नहीं। यदि शरीर में एक छोटा कांटा चुभ जाए और एक बूंद खून निकल जाए तो व्यक्ति विचलित हो उठता है। फिर किसी को रक्तदान के लिए एक बोतल खून शरीर से निकालना क्या आसान काम है। फिर भी रक्तदान से व्यक्ति को जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। रक्तदान के नाम पर शुरूआत में हर व्यक्ति डरता है, लेकिन यदि एक बार कोई रक्तदान कर दे तो फिर उसे बार-बार इस पुनीत कार्य के लिए जरा भी भय नहीं लगता।<br />वैसे देखा जाए तो अक्सर पहली बार रक्तदान का मौका घर परिवार के किसी व्यक्ति की जान बचाने में ही आता है। मेरे साथ भी पहली बार ऐसा ही वाक्या हुआ। सरकारी नौकरी से रिटायर्डमेंट के बाद पिताजी को एक साथ कई बीमारी ने जकड़ लिया। फेफड़ों में इनफेक्शन, सांस की बीमारी ना जाने क्या-क्या। एक दिन तो ऐसा आया कि उन्हें बेहोशी छाने लगी। वर्ष 1991 की बात है। तब मैं स्थानीय समाचार पत्र में क्राइम रिपोर्टिंग करता था। बड़ा भाई और मैं पिताजी को सरकारी अस्पताल ले गए। पिताजी को दून अस्पताल में विश्वास नहीं था। अस्पताल पहुंचने पर जब उन्हें होश आया तो वह प्राइवेट वार्ड के एक कमरे में बैड पर लेटे थे। उनसे हमने झूठ बोला कि उन्हें प्राइवेट अस्पताल में लाया गया है। ताकि वह उपचार कर रहे डॉक्टरों पर विश्वास कर सकें। <br />पिताजी की हालत नाजूक थी। डॉक्टरों ने कहा कि तुरंत खून चाहिए। कम से कम दो बोतल। एक यूनिट (बोतल) खून तो किसी समाजसेवी संस्था से मिल गया। दूसरी की इंतजाम नहीं हो सका। इस पर मैने अपना रक्त परीक्षण कराया तो वह मैच कर गया। तब मैं काफी कमजोर था। मोटा होने के लिए मैं खानपान में तरह-तरह के टोटके करता, लेकिन मेरा वजन 45 किलो से ज्यादा नहीं बढ़ रहा था। हालांकि मुझे कोई तकलीफ नहीं थी। मैं फुर्तीला भी था, लेकिन शरीर से दिखने में दुर्बल ही नजर आता। मेरे खून देने की बात आई तो कई ने कहा कि मत दो। कहीं से इंतजाम करा लो। कहीं खून देने से ऐसा न हो कि कोई दूसरी मुसीबत खड़ी हो जाए। कहीं उलटे मुझे ही खून चढ़ाने की नौबत न आ जाए। पर मुझे तो बेटे का धर्म निभाना था। सो मैंने खून दे दिया। हां पिताजी को यह नहीं बताया गया कि मैने खून दिया। क्योंकि यह जानकर वह परेशान हो उठते। <br />उस दौरान पंजाब के आतंकवाद ने पांव पसारकर देहरादून में भी अपनी पैंठ बना ली थी। अक्सर पुलिस व आतंकियों की मुठभेड़ देहरादून में भी होती रहती। जिस दिन सुबह मैने खून दिया, उससे पहली रात को डोईवाला क्षेत्र में आतंकवादी खून की होली खेल चुके थे। सड़क पर बम लगाकर उन्होंने बीएसएफ का ट्रक उड़ा दिया था। जैसे ही मैने खून दिया। तभी पता चला कि दून अस्पताल में बीएसएफ के शहीद कमांडर व कुछ जवानों के शव पोस्टमार्टम के लिए दून अस्पताल लाए गए हैं। खून देने में दर्द का क्या अहसास होता है या फिर खुशी का क्या अहसास होता है। इसका मुझे अंदाजा तक नहीं हुआ। क्योंकि मैं रक्तदान के तुरंत बाद आतंकियों से संबंधित घटना की रिपोर्टिंग में जुट गया। मेरे सामने शहीदों के खून से सने शव पड़े हुए थे। वहीं अस्पताल में मेरे पिताजी समेत न जाने कितनों की जान बचाने के लिए मरीजों पर खून चढ़ रहा था। <br />पिताजी अस्पताल से ठीक होकर घर पहुंच गए। उनकी तबीयत पूछने लोग आते, वह अपना हाल सुनाते। बाद में उन्हें यह तो पता चल गया कि उन्हें दून अस्पताल में रखा गया है, लेकिन यह पता नहीं चला कि खून किसने दिया। अक्सर वह यही कहते कि सरकारी अस्पताल था। इसलिए अब मुझमें पहले जैसी ताकत नहीं रही। ठीक से इलाज नहीं किया। लगता है कि खून भी नकली चढ़ाया गया। असली होता तो हाथों में कंपकपाहट नहीं होती। हालांकि अस्पताल से घर आने के बाद वह नौ साल और जिए।<br />वर्ष 96 में मेरा तबादला सहारनपुर हो गया। वहां जब भी मैं होटल में खाना खाता तो मेरे पास सुहागा का चूर्ण जेब में रहता। किसी ने बताया था कि सुहागा गर्म कर उसका चूर्ण बना लो। खाने में इसे मिलाया जाए तो व्यक्ति मोटा हो जाता है। मैं भी वही करता था, पर मोटा नहीं हो सका। एक दिन सूचना मिली कि चंडीगढ़ से दून समाचार पत्रों को ले जा रहा वाहन रास्ते में पलट गया। इस दुर्घटना में एक पत्रकार महाशय घायल हो गए। घायल को सहारनपुर के जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया। ये पत्रकार महाशय तब ठीक-ठाक पैग चढ़ाने के मामले में बदनाम थे। यदि वह वाहन में नहीं बैठे होते और अपने वाहन में होते तो सही समझा जाता कि नशे में उन्होंने गाड़ी सड़क से उतार दी। अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि पत्रकार महाशय की हालत काफी गंभीर है। यदि तुरंत खून नहीं मिला तो बचना मुश्किल है। मैं उन महाशय को सिर्फ नाम से जानता था। व्यक्तिगत मेरी उनसे कोई मुलाकात तक नहीं थी। हम कुछ पत्रकारों से अस्पताल में चिकित्सकों ने पूछा कि किसी का ब्लड ग्रुप ए पॉजीविट है। तो मुझसे मोटे-मोटे, लंबी चौड़ी कदकाठी वाले सभी बगलें झांकने लगे। तब मुझे ही आगे आना पड़ा, सबसे कमजोर था। खून से पत्रकार महाशय बच गए, लेकिन न तो मैं कभी उनसे मिल पाया और न ही कभी वह मुझसे मिले। शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम हो कि, उन्हें जिसने खून दिया है वह देहरादून में उनके घर के पास मश्किल से दो सौ मीटर की दूरी पर रहता है। खैर ये महाशय भी स्वस्थ्य रहें ऐसी मेरी कामना है। <br />तीसरी बार मुझे खून अपनी बड़ी बहन के लिए देना पड़ा। बहन का आपरेशन था। दो यूनिट खून की जरूरत थी। मेरा ग्रुप मैच करने पर मैं रक्तदान को तैयार हो गया। साथ ही दो और बहने भी खून देने को तैयार थी। तभी मेरे मित्र नवीन थलेड़ी ने कहा कि वह खून दे देगा बहनों को परेशान नहीं करते। हम दोनों से रक्त दिया। बहन को खून की एक यूनिट ही चढ़ी। एक यूनिट बच गई। जो अस्पताल के ब्लड बैंक में रख दी गई। कुछ दिन बाद मुझे एक फोन आया कि एक महिला 80 फीसदी जली हुई है। उसे तुरंत खून चाहिए। यदि आप अनुमति दें तो ब्लड बैंक में बची आपकी यूनिट का इस्तेमाल उसकी जान बचाने में कर सकते हैं। न तो मैने मरीज महिला को देखा ना ही रक्त मांगने वाले को। रक्त मांगने वाला शायद दलाल भी हो सकता था। पर मैने यह सोचकर अनुमति दे दी कि हो सकता है कि मेरे खून से महिला की जान बच जाए। इस बार मुझे यह भी पता नहीं चल सका कि जिसे मैने खून दिया उसका क्या हुआ। <br />भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-29156531928383117172014-03-27T11:21:00.001-07:002014-03-27T11:21:40.683-07:00क्रेजी किया रे....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक शक्ल के दो व्यक्ति कई बार मिल जाते हैं। ऐसा ज्यादातर जुड़वां भाई या जुड़वां बहनों में देखा जा सकता है। फिर भी कद-काठी, आदत से दोनों में अंतर कर पाना आसान होता है। कई बार दोनों की शक्ल ऐसी हो कि अंतर करना भी मुश्किल पड़ जाए तो शायद पहचान करने में पापड़ बेलने पड़ सकते हैं। फिर भी इंसान ऐसे हमशक्लों को पहचान ही लेता है। वैसे तो फिल्मों में होता है कि एक शक्ल के दो व्यक्ति को जब कोई पहचान नहीं सका तो बाद में पालतू जानवर ही अपने मालिक को पहचानता है। जानवर तो सुंघकर मालिक को पहचान लेते है। इसके ठीक उलट एक शक्ल वाले दो जानवरों के बीच भेद करना हो तो शायद काफी मुश्किल हो सकता है। क्योंकि बेजुबान तो यह भी नहीं बता सकता कि असली कौन है या नकली कौन। ऐसे में कोई क्रेजी हो तो क्या कहने। <br />एक पुलिस के अधिकारी के घर में पालतू कुत्ते का नाम क्रेजी था। लेबराडोर प्रजाति के इस कुत्ते का रंग काला था। क्रेजी की नटखट हरकतों का सुबह से लेकर शाम तक घऱ में कोई न कोई जिक्र जरूर छिड़ा रहता। साहब के साथ ही साहब के बेटे ने क्रेजी को सिर चढ़ा रखा था। मैडम की तो वह सुनता ही नहीं था। इस पर मैडम क्रेजी से कुछ चिढ़कर रहती थी। देहरादून की एक कालोनी में इंस्पेक्टर साहब किराए के मकान में रह रहे थे। एक दिन मैडम ने क्रेजी को किसी बात पर डंडा दिखा दिया, जिससे क्रेजी रुष्ट हो गया। घर का गेट खुला देककर चुपचाप क्रेजी घऱ से खिसक गया। पहले इंस्पेक्टर के बेटे ने क्रेजी को घर के आसपास तलाश किया। फिर भी जब उसका पता नहीं चला तो उसने अपने पिता को इसकी रिपोर्ट मोबाइल से दी। पिता ने कहा कि घर के आसपास गलियों के कुत्तों के साथ खेल रहा होगा। बेटे ने बताया कि चारों तरफ तलाश कर लिया है। कहीं पता नहीं चल रहा है। लगता है कि किसी ने चोरी कर लिया। थानेदार का कुत्ता कौन चोरी करेगा। किसी को बेमौत मरना है। यही सोचकर इंस्पेक्टर साहब गरजे और कहा-मैं कुछ सिहापियों को घर भेज रहा हूं। वे कुत्ता तलाशने मे तुम्हारी मदद करेंगे। <br />इंस्पेक्टर साबह का फरमान मातहत कैसे नकारते। जो सिपाही चोर व बदमाश की तलाश में भटकते थे, वे साहब के क्रेजी की तलाश में जुट गए। नतीजा शून्य ही निकला। क्रेजी का कोई पता नहीं चला। कई दिन खोज चली, बाद में यह मान लिया गया कि अब क्रेजी का मिलना मुश्किल है। जिस तरह अपराधी काफी प्रयास के बाद भी नहीं मिलता तो पुलिस फाइनल रिपोर्ट लगाकर केस बंद कर देती है। यही हाल क्रेजी की खोज का भी हुआ। एक माह कर सभी इस आस में थे कि क्रेजी मिल जाएगा। धीरे-धीरे उसके मिलने की उम्मीद धूमिल पड़ गई। उसकी खोज भी बंद कर दी गई। <br />क्रेजी के खोने के ढाई माह बाद एक घटना घटी। इंस्पेक्टर साहब का बेटा रोहित मोटरसाइकिल से किसी दोस्त के घर जा रहा था। रास्ते में उसे क्रेजी की शक्ल का एक कुत्ता दिखा। रोहित रुका और इस उम्मीद से कि कहीं यह क्रेजी तो नहीं उसने कुत्ते को पुकारा.... क्रेजी। कुत्ता भी उसकी तरफ देखने लगा। दोबारा पुचकारने पर कुत्ता रोहित के निकट आ गया। यह क्रेजी ही तो था। जो ढाई साल का था। वही हरकत, वही लाड-प्यार दिखाने की उसकी आदत। हां क्रेजी मिल गया। रोहित खुश हुआ और कुत्ते को पुचकारते हुए अपने पीछे आने को कहा। आगे-आगे रोहित और पीछे-पीछे यह क्रेजी। रोहित उसे घर लाया। घऱ में सभी खुश थे कि जो काम पुलिस का तंत्र नहीं कर सका वह रोहित ने कर दिखाया। अबकी बार मैडम ने भी क्रेजी को खूब दुलारा। शायद वह रुठा न हो। मैडम को क्रेजी कुछ मैला लगा तो उसे शैंपू से नहलाया गया। फिर क्रेजी को पशु चिकित्सक के पास ले जाकर वे टीके लगाए गए जो लगने बाकी थे। खोने के बाद जब क्रेजी दोबारा घर आया तो किसी को यह शक नहीं हुआ कि वह क्रेजी नहीं है। उसकी सारी आदतें पहले जैसी ही थी। <br />क्रेजी के मिलने के करीब पंद्रह दिन बाद इंस्पेक्टर की नजर एक और ऐसे कुत्ते पर पड़ी जो एक चारदीवारी के भीतर उछलकूद मचा रहा था। यह चारदीवार उनके घर के निकट ही थी, जो सैन्य एरिया की थी। ऊंची दीवार पर सड़क की तरफ जो गेट था, उसी के भीतर उसे वह कुत्ता नजर आया जो क्रेजी की ही शक्ल व प्रजाति का था। उन्हें लगा कि कहीं यही तो क्रजी नहीं। कहीं भूलवश रोहित दूसरा कुत्ता घर ले आया। यही क्रेजी हो सकता है। क्योंकि यह घऱ के ही पास चारदीवारी में कैद है। इस फौजी एरिया का मुख्य गेट ही अक्सर खुलता था, जो उनके घऱ से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर था। पिछला गेट बंद रहता था, उसकी दूरी घर से मुश्किल से सौ मीटर थी। उन्होंने इस कुत्ते को भी क्रेजी-क्रेजी पुकारा तो वह पिछले गेट के पास सामने खड़ा हो गया और दुम हिलाने लगा। इंस्पेक्टर को लगा कि यही क्रेजी है। 22 साल के रोहित को अपने कुत्ते को ही पहचानने में कैसे गलती हुई, वह यह नहीं समझ सके। <br />इंस्पेक्टर साहब सैनिक एरिया में मुख्य गेट से पहुंचे। वहां मौजूद फौजियों से उन्होंने कुत्ते के बारे में पूछा। फौजी ने बताया कि यह कुत्ता तो पिछले ढाई माह से उनके पास है। पहले तो काफी दुबला था, अब मोटा भी हो गया। इंस्पेक्टर साहब ने जब क्रेजी को पुचकारा तो वह ठीक उसी तरह उनसे लिपटने लगा जैसे उसकी आदत थी। वह कार में बैठाकर इस क्रेजी को घर ले आए। एक घर में एक शक्ल के दो कुत्ते और दोनों क्रेजी। आवाज दो तो दोनों सामने खड़े हो जाएं। दोनों एक दूसरे पर गुर्राते कि मानो दूसरा नकली हो। कुत्तों को आपस में लड़ता देख इंस्पेक्टर का परिवार परेशान हो गया। एक शक्ल के दो आदमी हो तो उसे कुत्ता पहचान सकता है, लेकिन कुत्ते को कौन पहचाने कि कौनसा असली क्रेजी है। दो कुत्ते पालना भी मुश्किल है। मंहगाई में बजट उनकी परवरिश में ही बिगड़ जाएगा। पर किस क्रेजी को घर से बाहर करें यह किसी को नहीं सूझ रहा था। डर यह था कि कहीं असली क्रेजी बाहर न हो जाए। मैडम कहती जो बाद में मिला वही क्रेजी है। रोहित कहता कि जो पहले मिला वही क्रेजी है। कोई तय नहीं होने से दोनों क्रेजी ही मौज कर रहे थे। <br />होली आई और मैडम ने घर में गुजिया बनाई। दोनों क्रेजी मैडम के सामने कीचन के बाहर बैठे थे। मैडम ने दो गुजिया उठाई और एक-एक दोनों के आगे उछाल दी। बस यहीं भेद खुल गया। एक क्रेजी गुजिया एक झटके में चट कर गया, वहीं दूसरा उसे सूंघ कर अलग हट गया। मैडम को याद आया कि क्रेजी तो गुजिया बड़े शोक से खाता था। मैडम खुशी से चिल्लाई- रोहित, जिस क्रेजी को तुम लाए, थे, वह हमारा क्रेजी नहीं है। उसे अपने दोस्त को दे दो। <br />भानु बंगवाल <br /> </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-76669633594662130872014-03-22T22:42:00.002-07:002014-03-22T22:42:27.433-07:00मौके की नजाकत भांपकर बदल रहे वेश...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
लो आ ही गया चुनाव का मौसम। छल, कपट, फरेब से नाता रखने वाले, दूसरों को धोखा देने वालों से हिसाब चुकाने का मौका। इस मौके से चूकना नहीं है। क्योंकि आपकी चौखट में अब भिखारियों के आने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इनमें से कौन ज्यादा ईमानदार भिखारी है, उसका चयन ही तो आपने करना है। उसकी अच्छी बुरी आदतों का नापतौल आपको ही करना है। फैसला आपको ही देना है। वैसे तो आप हर बार फैसला देते हैं, लेकिन यह खुद से भी सवाल करना है कि जो हम करने जा रहे हैं, क्या यह वास्तव में ठीक है। हम जिसे चुन रहे हैं, क्या वो किसी की भलाई कर सकता है। वैसे तो इन भिखारियों से भलाई की उम्मीद लगाना बेमानी होगा। फिर भी जब हम भ्रष्टाचारियों में से एक को चुनते हैं तो यह देखना जरूरी है कि आखिर कौन कम भ्रष्टाचारी है। <br />नेताओं के लिए मैं ऐसे अपमानजनक शब्द यूं ही नहीं बोल रहा हूं। मेरे शब्दों से यदि किसी को ठेस पहुंचे तो मैं उनसे क्षमाप्रार्थी हूं। वर्तमान में देश की राजनीति का जो हश्र इन नेताओं ने कर दिया, उसमें इस तरह के शब्द भी कम ही पड़ते हैं। क्योंकि मुझे भिखारी व नेताओं में ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। यदि दोनों को एक तराजू के दो पलड़े में डाला जाए तो भिखारी का पलड़ा ही शायद भारी निकले। क्योंकि भिखारी के लिए कोई छोटा या बड़ा नहीं है। मौके की नजाकत भांपते हुए वह अपना वेश बदलता है। पेट की आग बुझाने के लिए वह दूसरों को दुआएं देता है। वह हर जाति, समुदाय व धर्म के त्योहार में शरीक होता है। ईद के मौके पर ईदगाहस्थल के बाहर भिखारी मुस्लिम टोपी पहने नजर आता है। चादर फैलाकर वह भीख मांगता है और देने वालों को दुआएं देता है। क्रिसमस के मौके पर वह गिरिजाघरों के बाहर नजर आता है। वही व्यक्ति शिवरात्री जन्माष्टमी आदि हिंदुओं के त्योहार में मंदिरों के बाहर भी दिख जाता है। यहां सिर्फ उसके पहनावे में ही फर्क होता है। भीख मांगने का तरीका वही होता है। बस मस्जिद के बाहर अल्लाह भला करे, मंदिर के बाहर भगवान भला करे, गिरीजाघर के बाहर यीशु भला करे, जैसे शब्द उसकी जुबां से निकलते हैं। इन सब के बावजूद वह भीख में जो भी दक्षिणा लेता है, उसके बदले दुआ जरूर देता है। <br />अब नेताओं के चरित्र पर भी नजर डालिए। वह भी हर धर्म, संप्रदाय, जाति की बात करता है। कई बार तो वह धार्मिक आयोजनों में जाता है, तो पहनावा भी वहीं के हिसाब से रखता है। मौका मिलने पर वह भी वोट मांगता है। पर नेता तो लेता ही लेता है, बदले में वह कुछ नहीं देता। उलटा वोट मिलने के बाद यदि वह जीत जाए तो पब्लिक का खून चूसने के रास्ते भी तलाश कर लेता है। सच तो यह है कि मौका मिलने पर वह आदमी के लहू में रोटी डूबो कर खाने से भी संकोच नहीं करता। <br />भिखारी वक्त की नजाकत को भांपकर वेश बदलता है, भीख मांगने का स्थान बदलता है। नेता भी तो यही कर रहा है। पूरे जीवन भर एक पार्टी में रहकर दूसरे दल को गरियाता रहता है। चुनाव से पहले ऐन वक्त पर मौका देखकर पार्टी बदलने में भी जरा गुरेज नहीं करता। भले ही पहले तक उस दल को वह हर दिन गालियां देता रहा हो। चुनाव के मौसम में आजकल ऐसे लोगों की बाढ़ सी आई हुई है। बस वे तो आपस में लड़ना व दूसरों को लड़ाना जानते हैं। पूरब को पश्चिम से, उत्तर को दक्षिण से, ठाकुर को ब्राह्मण से, जाति, धर्म, सांप्रदायिकता के नाम पर एक दूसरे को लड़ाने में वह माहिर है। एक ठाकुर नेता ने एक दल छोड़ा। कारण यह रहा कि जातिभाई आगे बढ़ने नहीं दे रहा है। पुराने दल में नेताजी दमदार नेताओं की श्रेणी में आते थे। अब दूसरे दल में वह सेवा करने को पहुंच गए। सेवाभाव उन्हें अपने पुराने दल में नजर नहीं आया। जनता के हक की योजनाओं का लाभ खुद ही चट कर गए। अब कहते हैं कि दूसरे दल में सेवाभाव करेंगे और जूठी पत्तलों को उठाएंगे। खुद तो दल बदला, लेकिन पत्नी को पुराने दल में ही छोड़ दिया। यह भी ठीक है। दो दलों में घुसपैंठ रहेगी तो दोनों हाथों में लड्डू रहेंगे। वक्त की नुजाकत को देखते आपने खूब वेश बदला। पर जनता तो सब देख रही है, वह तो भोली है, नासमझ है। ऐसी जनता जाए भाड़ में। <br />भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-26057853768799455002014-03-16T03:38:00.000-07:002014-03-16T03:38:05.582-07:00भ्रष्टाचारी में भी ईमानदारी...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वैसे देखा जाए तो भ्रष्टाचार पर चर्चा कोई नया विषय नहीं है। आज से करीब चालीस साल पहले भी जब में छोटा था, तब भी लोगों के मुंह से यही सुनता था कि समाज में भ्रष्टाचार किस कदर बढ़ रहा है। यही नहीं बुजुर्ग अंग्रेजों के जमाने के किस्से सुनाते थे। साथ ही वे आजादी के आंदोलन की गाथा को भी बड़े चाव से सुनाते। साथ ही यह भी कहते कि अंग्रेजों के समय में भ्रष्टाचार कम था। अब ज्यादा देखने को मिल रहा है। इससे यह तो नहीं माना जा सकता कि अंग्रेजों के समय भ्रष्टाचार कम रहा होगा। हां इतना जरूर है कि पहले भ्रष्टाचार के मामले खुलते नहीं थे, अब आम हो गए हैं। यही नहीं चाहे महाभारत काल रहा हो या फिर राम के दौर का समय। तब भी समाज में छल-कपट व्याप्त था। जो छल-कपट का सहारा लेते, उन्हें ही राक्षस की संज्ञा दी जाती। उन्हीं के कर्म ही तो भ्रष्टाचार का स्वरूप थे।<br />एक दिन सुबह सूचना मिली कि बहन के ससुराल पक्ष में एक महिला की मौत हो गई। मरने वाली महिला करीब 80 साल की थी, जो सरकारी स्कूल में शिक्षिका रही। जीवन भर वह कभी बीमार तक नहीं हुई। आखरी वक्त पर महिला ने जब बिस्तर पकड़ा तो दोबारा उठ नहीं सकी। पति भी सरकारी स्कूल से रिटायर्ड प्रींसिपल थे। तीन बेटे भी अच्छी खासी नौकरी पर हैं। सभी का अपना भरापूरा परिवार है। साधन संपन्न इतने हैं कि बेटों ने मां के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी। निजी अस्पताल के आइसीयू में बुजुर्ग महिला ने ढाई माह काटे। फिर चल बसी। <br />भले ही किसी के सुख में शामिल न हों, लेकिन दुख की घड़ी में जरूर जाना चाहिए। ऐसी घड़ी में शोकाकुल परिवार को सांत्वना की जरूरत होती है। ऐसे मौकों पर मेरी समझ में नहीं आता कि वहां जाकर क्या कहूंगा। मैं तो चुपचाप एक कोने में बैठ गया। पहले से पता था कि महिला बीमार थी, यह भी पता था कि कब मरी। ऐसे में मैं क्या पूछता कि कैसे हुआ, कब हुआ। जिस दिन मैं शोकाकुल परिवार के घर पहुंचा, उससे एक दिन पहले महिला का दाह संस्कार हो चुका था। घर में बातचीत का क्रम भी कुछ अजीब सा लगा। कोई राजनीति की बात छेड़ता तो कोई समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की दुहाई देता। बातचीत में ज्यादातर लोग नेताओं को ही कोसते। साथ ही सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार के किस्से भी सुनाते। मृतका के पति बताते हैं कि पूरी नौकरी के दौरान उन्होंने न तो रिश्वत ली और न ही दी। रिटायर्ड होने के बाद पेंशन व अन्य भत्तों की फाइल को आगे सरकाने के लिए वह एक लिपिक के पास पहुंचे तो उसे दो सौ रुपये देने पड़े। उसी दौरान लिपिक के पास एक सिफारिशी व्यक्ति भी पहुंचा। उससे पैसे नहीं मिले तो लिपिक ने यह कहकर टाल दिया कि देयों को भरने के लिए फार्म खत्म हो गए हैं। ट्रैजरी से फार्म आने में तीन दिन लग जाएंगे। <br />बातचीत का क्रम यहां भी खत्म नहीं हुआ और यह महाशय आगे बताने लगे कि बड़े बेटे को अपना ट्रांसफर लखनूऊ से ऋषिकेश कराना था। इलाहाबाद में फाइल फंसी हुई थी। साथ ही करीब ऐसे दस और लोगों की फाइल थी, जो ऋषिकेश जाना चाहते थे। सभी के पास कोई न कोई सिफारिश थी। उनके बेटे से एक बाबू ने पूछा कि तुम्हारे पर किसकी सिफारिश है। इस पर उसने जवाब दिया कि मेरे पास कोई सिफारिश नहीं है। साथ ही उसने बाबू की जेब में चार सौ रुपये रख दिए। इस पर बाबू ने कहा कि ये रुपये वापस रखो। जब ट्रांसफर हो जाएगा, तब देना। साथ ही उसने बताया कि हर फाइल के साथ मंत्रियों करी सिफारिश आई हुई है, पर काम तुम्हारा ही करुंगा। हुआ भी यही, बेटे का काम हो गया। तबादला आदेश मिलने पर ही उसने लिपिक को चार सौ रुपये दिए। महाशय ठंडी सांस लेकर बोले भ्रष्टाचार तब भी था और अब भी है, लेकिन तब ईमानदारी थी। तब काम करने के बाद ही पैसा लेते थे। अब तो पैसा भी लेते हैं और काम की कोई गारंटी नहीं। <br />भानु बंगवाल </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-79481771673710651542014-03-08T21:55:00.002-08:002014-03-10T00:19:59.284-07:00छोटी सी खता, इतनी बड़ी सजा...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सर्दी की रात के करीब साढ़े 11 बजे का समय। हल्की बूंदाबांदी ने मौसम को और ठंडक बना दिया। हाईवे और मुख्य मार्गों को यदि छोड़ दिया जाए तो शहर से लेकर गांव की सड़कें लगभग सुनसान थी। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं-कहीं सायरन बजाते पुलिस के वाहन सड़कों के सन्नाटे को तोड़ रहे थे। इतनी सर्दी भरी रात को भी पुलिस चुपचाप थाने में नहीं बैठी थी और पूरे सहारनपुर जिले की पुलिस रात को सड़कों पर दौड़ रही थी। साथ ही पुलिस के कई अधिकारी व सिपाही अपनी किस्मत को भी कोस रहे थे कि वे क्यों पुलिस में भर्ती हुए। किसी और डिमार्टमेंट में होते तो इस सर्द भरी रात को बच्चों के साथ बिस्तर में लंबी तान कर सो रहे होते। पर ड्यूटी में मुस्तैद रहना उनकी मजबूरी भी थी और फर्ज भी था। इस फर्ज को फोन की एक कॉल ने जगा दिया। यह कॉल पुलिस के लिए चुनौती बन गई।<br />पुलिस कंट्रोल रूम में रात करीब 11 बजे सूचना आई कि मोटर साइकिल सवार तीन बदमाशों ने शहर में तमंचे की नोक पर कई लोगों से लूटपाट की। वे गांव की सुनसान सड़क की तरफ भाग निकले। इसी कॉल के बाद जैसे ही कंट्रोल रूम से सूचना फ्लैश हुई तो पूरे जिले की पुलिस हरकत में आ गई। उस समय पुलिस कप्तान डॉ. रोहित एक पार्टी में दो पैग के साथ भोजन छकने के बाद अपने घर को लौट रहे थे। तभी वायरलैस पर लूट की सूचना मिली तो वे खुद भी अपनी कार सड़कों पर दौड़ाने लगे। साथ ही जिले की पुलिस को तलाशी अभियान चलाने, मोटर साइकिल सवारों पर नजर रखने के निर्देश देने लगे। वायरलैस सेट का माइक कप्तान साहब ने हाथ में लेकर मुंह से सटाया हुआ था। वह सीओ व अन्य थाना इंचार्जों से उनकी लोकेशन भी पूछ रहे थे। खुद उन्होंने अपनी कार चिलकाना रोड की तरफ दौड़ा रखी थी।<br />सहारनपुर जिले की चिलकाना रोड से करीब दस किलोमीटर हटकर एक गांव में अधिकांश घरों में लाइट बुझी हुई थी। कई घरों में ग्रामीण गहरी नींद में थे। सिर्फ हरिचरण के घर में कोहराम मचा हुआ था। क्योंकि हरिचरण के 25 वर्षीय जवान बेटे को जवान बेटे योगेश को सांप ने डस लिया था। अगल-बगल के घरों के कुछ लोग उनके यहां थे। बेटे को सांप ने शाम को काटा था। घर से करीब दस किलोमीर दूर एक डॉक्टर को दिखाने पर उसने सांप के काटे घाव पर चीरा लगाकर दवा भी दे दी थी। रात तक वह ठीक था, लेकिन 12 बजे से बाद से योगेश का दिल घबरा रहा था। परिवार में महिलाएं इसलिए घबराई हुई थी कि शायद अब योगेश न बचे। तभी हरिचरण से पड़़ोस का युवक हरीश बोला-चाचा डरने की कोई बात नहीं है। वह अभी मोटर साइकिल से पास के कस्बे में जाकर डॉक्टर को ले आएगा। सब ठीक हो जाएगा। इनती रात को कैसे जाओगे बेटा। ऊपर से बारिश हो रही है- हरिचरण बोला। हरीश ने कहा-ये बारिश आज पहली बार थोड़े ही हो रही है। मैं आध घंटे में डॉक्टर को लेकर आता हूं। हरिचरण ने सलाह दी कि रात का समय है, यूं कर उसके छोटे बेटे विनोद को भी साथ लेता जा। लौटते समय डॉक्टर समेत तीन लोग मोटर साइकिल में आ ही जाओगे।<br />हरीश ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की। हरिचरण का 18 वर्षीय बेटा विनोद पीछे से बैठ गया। तभी विनोद ने कहा कि भैया रुको, मैं घर से एक मिनट में आया। विनोद भीतर गया और उसी वक्त वापस आ गया। हरीश ने मोटर साइकिल स्टार्ट कर दी। फिर चलते समय विनोद से पूछा कि तुम क्यों वापस गए। विनोद ने कहा कि रात का समय है। कहीं बदमाश मिल गए तो क्या होगा। इसलिए ये कट्टा लेने गया था। कट्टा (देशी तमंचा) का नाम सुनकर हरीश का दिल उछल पड़ा। वह बोला इसकी क्या जरूरत थी और तुम्हारे पास कहां से आया। इसे फेंक दो। इस पर विनोद बोला- भैया आजकल गांवों में डकैती की घटनाएं काफी बढ़ रही हैं। इससे निपटने के लिए युवकों ने सुरक्षा के लिए हथियार रखे हैं। ऐसे हथियार तो घर-घर में मिल जाएंगे। इस पर हरीश ने कहा- फिर भी बगैर लाइसेंस के हथियार रखना गैरकानूनी है। इससे कभी व्यक्ति मुसीबत में पड़ सकता है। फिर भी आगे से ख्याल रखो कि ऐसे हथियार न रखो। यदि किसी बदमाश ने तुम्हें मारने की ठान रखी हो तो हथियार कुछ नहीं करेंगे। रास्ते भर योगेश को हरीश समझा रहा था कि वह गलत कर रहा है, वहीं योगेश अपनी बात को सही ठहराने में तर्क में कुतर्क देता रहा।<br />हरीश पछता रहा था कि वह अपने साथ योगेश को क्यों लाया। गणेश राम का इकलौता बेटा था हरीश। जो एक साल पहले ही सेना में भर्ती हुआ था। पहली छुट्टी में वह गांव आया था। उसके माता-पिता का इरादा था कि छुट्टियों के दौरान ही उसका रिश्ता भी तय कर दिया जाए। इसके लिए कुछएक स्थानों पर बातचीत भी चल रही थी। शायद दो-तीन दिन के भीतर टीके की रस्म भी पूरी हो जानी थी, पर नियति को कुछ ओर मंजूर था।<br />डॉक्टर फिरोज को जब हरीश ने योगेश की हालत बताई तो वह बोला कि सांप के काटने से मरीज ज्यादा घबरा जाता है। उस पर जहर का असर होता तो पहले ही हो जाता। अब तो सिर्फ वहम है। फिर भी वह साथ चलकर उसे दवा दे देगा। उसकी हालत में निश्चित ही सुधार होगा। डॉ. फिरोज रात को ही तैयार हुए और उनके साथ मोटर साइकिल में बैठकर गांव की तरफ चल दिए। गांव से करीब दो किलोमीटर निकट जब वे पहुंचे तो उस समय रात के दो बज चुके थे। तभी पीछे से पुलिस की सायरन बजाती कार की आवाज सुनाई दी। हरीश ने योगेश से कहा कि पुलिस आ रही है, कट्टे को सड़क किनारे झाड़ी में फेंक दो। योगेश ने कहा भैया डरने की बात नहीं। घर पहुंच ही चुके हैं। मोटर साइकिल की स्पीड तेज कर दो। हरीश ने स्पीड तो बढ़ाई, लेकिन वह कट्टे को फेंकने को भी जोर देता रहा। डॉ. फिरोज को जब कट्टे का पता चला तो वह भी हरीश की तरह योगेश को समझाते रहे। योगेश भी ढीठ था, वह कट्टा फेंकने को राजी न हुआ। वह बोला कि पुलिस तो गश्त कर रही है। यह उनकी नियमित ड्यूटी है। तुम चलते रहो।<br />हरीश मोटर साइकिल की स्पीड जितनी तेज करता, सायरन बजाती पुलिस कार उतनी ही तेजी से उनका पीछा करती। कार निकट आ रही थी। साथ ही कार में लगे छोटे लाउड स्पीकर से उन्हें रुकने को कहा जा रहा था, पर घबराहट में उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था। हरिचरण के घर के घेर (आहते) तक कार उनके पास पहुंच गई। युवक मोटर साइकिल से उतरते कि कार के भीतर से कप्तान साहब की रिवालवर आग उगलने लगी। तीनों युवक आहते में ही ढेर हो गए। कप्तान साहब सादी वर्दी में थे। अपनी सफलता पर खुशी से चौड़े होते हुए उन्होंने कार से बाहर कदम निकालने को दरवाजा खोला। तभी वायरलैस पर सूचना फ्लैश हुई कि रात 11 बजे जारी की गई लूट की सचूना फर्जी थी। यह दूसरे जनपद के सीओ ने फ्लैश कराई थी। जो पुलिस की मुस्तैदी परखने के लिए मात्र टेस्ट रिपोर्ट थी। गलती का अहसास होते ही कप्तान साहब ने कार का दरबाजा बंद किया और वहां से खिसक गए। हरिचरण का बेटा योगेश जिसे सांप ने डंसा था, वह भी तब तक दम तोड़ चुका था। वहीं घर के आहते में तीन और बेकसूरों की लाश पड़ी थी।<br />भानु बंगवाल </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-85419640243505931872014-03-02T04:59:00.002-08:002014-03-02T06:42:57.278-08:00ये टोटके भी हैं निराले...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ऐसे लोगों की इस दुनियां में कमी नहीं है, जो बात-बात पर टोटकों को सहारा लेते हैं। यानी कुछ करो, नहीं लेकिन वे टोटके करना नहीं भूलते हैं। इन्हीं टोटकों के भरोसे अपनी किस्मत को चमकाने के प्रयास में रहते हैं। यदि डूबता व्यक्ति हाथ-पैर पतवार की तरह नहीं चलाएगा, तो शायद ही वह बच पाए। किसी भी काम की सफलता व्यक्ति की मेहनत पर ही तय होती है। टोटके तो सिर्फ मन का भ्रम मिटाने के लिए होते हैं। इनसे किसी का भला नहीं हो सकता। फिर भी इस सच्चाई से अनजान लोग न जाने क्यों ऐसी बातों का सहारा लेते हैं, जिनसे उनकी किस्मत बदलना संभव नहीं है। टेवीविजन के चैनलों पर भी ऐसे टोटकों के प्रचार की भरमार देखी जा सकती है। फला अंगूठी पहनों, मंत्र वाला फला जंत्र को अपनाओ और फिर देखो उसका कमाल। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि एक अंगूठी पहनने से आपकी किस्मत बदल जाए। किस्मत तो सिर्फ उसकी ही बदलेगी जो आपको अपना यंत्र बेच रहा है। जो यह दावा करता है कि मंत्र से शुद्ध की हुई अंगूठी से आपकी किसम्मत चमकेगी, भला तो उसी का ही होता है। क्योंकि वह ऐसी अंगूठियां बेचकर दोनों हाथों मालामाल हो रहा है। <br />
मैं एक व्यक्ति को जानता हूं, जो पहले तांगा चलाता था। अब देहरादून की सड़कों पर तांगे चलते नहीं। उसके सामने यह समस्या थी कि वह अपने घोड़े का इस्तेमाल कहां करे। शादी के मौके पर ही घुड़चढ़ी के लिए घोड़े की डिमांड होती है। ऐसे में वह अपना गुजारा कैसे करे। फिर घोड़ेवाले को टोटका सूझा। काले व भूले रंग के घोड़े पर उसने काला रंग चढ़ा दिया। फिर घोड़ा लेकर सड़क पर हर दिन घूमने लगा। टोटके को जीवन में अपनाने वालों की नजर जब उसके घोड़े पर पड़ी तो ऐसे लोगों ने घोड़े की नाल खरीदनी शुरू। नाल को वह मुंहमांगी कीमत पर बेचने लगा। काले घोड़े की नाल खरीदने वाले लुहार से नाल के लोहे का छल्ला बनवाकर हाथ में अंगूठी बनाकर पहनते हैं। घोड़ास्वामी जैसे ही घोड़े की नाल उतारकर बेचता, उसी समय वह अपने थैले से दूसरी नाल घोड़े के पैर में ठोक देता। नाल बेचने का उसका यह धंधा खूब चल पड़ा। एक दिन में उसे चार-पांच ग्राहक तो मिल ही जाते हैं।<br />
शनिवार के दिन अधिकांश दुकानदार दुकान के शटर में ताले के पास टोटका भी बांधने लगे हैं। इसमें एक नूींबू, पांच हरी मिर्च होती है। दुकान खुलने के समय मुख्य बाजारों में नींबू व मिर्च की माला बेचने वाले भी खूब मिल जाते हैं। ऐसी सामग्री बेचकर उनका धंधा भी खूब चल रहा है। यदि हिसाब लगाएं तो सप्ताह में एकदिन शहर भर में हजारों रुपये के नींबू व मिर्च को दुकान के शटर में बांधकर टोटकेबाज बर्बाद कर देते हैं। यदि माह व साल का हिसाब लगाएं तो टोटकों में लाखों रुपये की रकम एक पूरे शहर में बर्बाद कर दी जाती है। जबकि ऐसे टोटकों को परिणाम शून्य है। नींबू व मिर्च के जरिये बर्बाद हो रही राशि की जगह गरीबों को खाना खिलाया जाता तो शायद देश का भला हो सकता।<br />
बचपन में मैने एक व्यक्ति के घरकी चौखट पर दरबाजे पर प्याज लटका देखा। मैने जब पूछा इससे क्या होता है, तो उसने बताया कि घर में सुख शांति रहती है। बुरी आत्मा नहीं आती। कुछ दिन बाद पता चला कि उस व्यक्ति के घर में ही चोरी हो गई। दरबाजे पर लटका प्याज उसके घर की रक्षा नहीं कर सका। एक व्यक्ति तरह-तरह के नग की अंगूठी पहनता था। नगों के बारे में वह कहता कि ये नग धन का प्रतीक है। इस नग से जीवन की रक्षा होती है। एक दिन उस व्यक्ति के सीने मे दर्द उठा। चिकित्सालय जाने पर डॉक्टर ने उसे स्ट्रेचर पर लिटाया, तभी उसने दम तोड़ दिया। उसका नग भी उसे नहीं बचा सका। कई बार मोहले के चौराहे पर कपड़ा, नारियल, व अन्य टोटके का सामान मुझे नजर आता है। पैसों की बर्बादी कर टोटकेबाज अपनी व परिवार की किस्मत बदलने के लिए ऐसी हरकत करते हैं। मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से किसी की किस्मत बदल जाएगी। <br />
टोटका अपनाओ और पढ़ाई न करो, क्या छात्र परीक्षा पास कर सकेंगे। तैयारी न करो तो इंटरव्यू कैसे पास करोगे। दुकान में सामान की वेरायटी न रखो, टोटका आजमाओ, ग्राहक को संतुष्ट न करो, तो शायद ग्राहक भी दुकान में नहीं फटकेगा। फिर भी टोटके वालों की अपनी दुनियां है, अपना विश्वास है, जो अंधा है। टोटका आजमाओ, अभ्यास न करो और मैच जीतकर दिखाओ, काम न करो और कमाई कर दिखाओ, पढ़ाई न करो और परीक्षा पास कर दिखाओ। जंत्र व मंत्र की अंगूठी पहनो, फिर बीमार होने पर डॉक्टर के पास न जाओ, तब जानो। शायद ही किसी का भला ऐसा टोटका करेगा। फिर भी टोटके वालों के तर्क हैं। उनके पास इसके फायदों की लंबी लिस्ट है। तभी तो इस विज्ञान युग में टोटके भी अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं। <br />
भानु बंगवाल </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-77436044427996183232014-02-22T23:28:00.000-08:002014-02-22T23:28:00.516-08:00मदद की लिफ्ट..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कभी-कभी मेरा भी मन करता है कि दूसरों की मदद को हमेशा उसी तरह तत्पर रहूं, जैसे मैं लड़कपन में रहता था। तब मोहल्ले में किसी को भी कोई छोटा-बड़ा काम पड़ता तो मेरे पास चला आता। मैं किसी का काम करने से मना नहीं करता। चाहे बाजार से सामान लाना हो या फिर बिजली या पानी का बिल जमा करने के लिए लंबी लाइन में खड़ा होना हो। अब ये मेरे से नहीं होता। सच पूछो तो अब मेरे पास दूसरों की मदद के लिए समय तक नहीं बचा है। आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हूं। ऐसे में मैं किसी की क्या मदद कर सकता हूं। कहते हैं कि दूसरे की मदद कर हम किसी पर अहसान नहीं करते हैं। जब हम किसी की मदद करते हैं तो उसके बाद हमारे भीतर सच्चे आनंद की अनुभूति होती है। यह आनंद हमें जिस व्यक्ति की मदद से मिलता है, सच मायने में वह मदद का मौका देकर हम पर ही अहसान करता है। <br />अब मदद के लिए समय न होने के बावजूद भी मैं यही सोचता हूं कि जब भी मौका मिले, तो खुद को कृतज्ञ करने से पीछे न रहूं। राह चलते जरूरतमंद को वाहन में लिफ्ट देना भी मुझे अच्छा लगता है, लेकिन कई बार मेरी यह दरियादिली ही मुसीबत का कारण बनने लगती है। एक रात सड़क पर मैने एक व्यक्ति को लिफ्ट दी तो मोटरसाइकिल पर बैठते ही वह कभी इधर तो कभी उधर को लुढ़कने लगा। तब मुझे पता चला कि महाशय नशे में हैं। उसे बैठाकर मैं खुद ही डरने लगा कि कहीं वह गिर गया तो मेरी मुसीबत बढ़ जाएगी। फिर भी किसी तरह मैं उसका घर का पता पूछकर उसे घर तक छोड़ने गया। उसके घर पहुंचते ही इस अनजान महाशय की पत्नी मुझपर ही बिगड़ गई और गालियां देने लगी। वह मुझे महाशय का दोस्त समझ बैठी और पति को शराब पिलाने वाला मुझे ही समझने लगी। उस दिन मैने संकल्प लिया कि कभी शराबी व्यक्ति की मदद नहीं करूंगा। <br />यह संकल्प मेरा ज्यादा दिन नहीं चला। एक रात आफिस से घर जाते समय मुझे एक परिचित मिला। जो सड़क किनारे स्कूटर पर किक मार रहा था। स्कूटर सीधा तक खड़ा नहीं हो रहा था। ऐसे में किक ठीक से नहीं लग रही थी और स्कूटर स्टार्ट नहीं हो रहा था। मैं इस परिचित फोटोग्राफर की मदद को रुक गया। मैने स्कूटर स्टार्ट कर दिया। साथ ही यह भी देखा कि परिचित काफी नशे में है। मैने उसे समझाया कि आराम से जाना, लेकिन उसने बात नहीं मानी। करीब पांच सौ मीटर आगे जाने के बाद वह एक ठेली से टकरा गया। मौके पर मौजूद लोगों ने उसे घेर लिया। किसी तरह उसे लोगों से छुड़ाया। फिर उसका स्कूटर एक व्यक्ति के घर के आगे खड़ा कराया। इस परिचित को काफी चोट लग चुकी थी। उसे मरहम पट्टी की जरूरत थी। मैं उसे देहरादून के दून अस्पताल ले गया। उसकी मरहम पट्टी कराई। फिर उसे घर छोडने के बाद देर रात अपने घर पहुंचा। इस घटना के कुछ दिन बाद एक महिला मेरे घर पहुंची। वह उस फोटोग्राफर की पत्नी थी। महिला मुझसे लड़ने लगी कि उसके पति को मैने शराब पिलाई व उसका स्कूटर छीन लिया। उसके फोटोग्राफर पति को यह याद नहीं रहा कि उसका स्कूटर कहां है, लेकिन यह जरूर याद रहा कि मैं उसे घर तक छोड़ कर आया था। तब मैने महिला को सारी बात बताई। साथ ही यह भी बताया कि उसके पति का स्कूटर कहां सुरक्षित रखा हुआ है। <br /> ऐसी मदद के बाद से मुझे सच्चे आनंद की अनुभूति के बजाय कष्ट ज्यादा हुआ। इसके बावजूद मदद का कीड़ा मेरे भीतर से कम नहीं हुआ। गर्मी की एक रात मैं देहरादून के घंटाघर से राजपुर रोड को होकर अपने घर को लौट रहा था। तभी मुझे सड़क पर करीब बीस वर्षीय एक युवक पैदल चलता नजर आया। उसके कंधे में भारी-भरकम बैग था। मैने उससे पूछा कि वह कहां जाएगा। उसने बताया कि सालावाला। यह स्थान मेरे रास्ते पर ही पड़ता था। रास्ते में मधुबन होटल तक लिफ्ट देने पर युवक को कुछ दूर ही पैदल जाना पड़ता। युवक दिल्ली में नौकरी करता था। छुट्टी में वह घर आ रहा था। मैने उसे लिफ्ट देनी चाही, लेकिन उसने मोटरसाइकिल में बैठने से साफ मना कर दिया। मेरी और से ज्यादा अनुग्रह करने पर तो वह चिढ़ गया। कहने लगा आप अपना रास्ता नापो मैं खुद ही घर चला जाऊंगा। मुझे उसके इस जवाब पर कोई ताजुब्ब नहीं हुआ। क्योंकि अनजान व्यक्ति से लिफ्ट लेना उसे सुरक्षित नहीं लग रहा था। कौन जाने किस वेश में लुटेरा लिफ्ट देकर उसे सुनसान जगह पर लूट कर चलता बने। <br />भानु बंगवाल <br /> </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-24847285074141022472014-02-18T05:05:00.003-08:002014-02-18T20:56:18.569-08:00ओला, सर्दी और चाय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दूनघाटी का मौसम भी कमाल का है। कभी बारिश होने लगती है, तो कभी आसमान साफ नजर आने लगता है। हल्का मौसम खराब हुआ, पहाड़ों में बर्फ पडी़ और ठंड बढ़ने लगती है देहरादून में। सर्दी का असर व्यक्ति को तो पड़ता ही है, साथ ही इस मशीनी युग में मशीनों पर भी दिखाई दे रहा है। बात कुछ अटपटी है, लेकिन मेरा कंप्यूटर तो यही कह रहा है। पिछले शनिवार को देहरादून में ओले क्या गिरे, इस कंप्यूटर ने काम करना बंद कर दिया। आदमी हो तो ठंड दूर करने का इलाज किया जाए, लेकिन कंप्यूटर का क्या इलाज करेंगे। कंप्यूटर से नेट गायब। बीएसएनएल य़ानी भाई साहब नहीं लगे,,में शिकायत की तो वहां से तर्क दिया गया कि ओले गिरने से ज्यादातर लोगों के मॉडम फूंक गए। भाई मेरा कंप्यूटर तो बंद था, फिर इसे सर्दी कैसे लग सकती है। लगातार जांच होती रही। फिर जाकर पता चला कि एक्सचेंज का ही फाल्ट है। जो चौथे दिन मंगलवार को ही ठीक हो पाया। <br />कंप्यूटर से ज्यादा बुरा हाल मेरा था। ठीक-ठाक कपड़े भी पहन रहा था। बारिश में बरसाती का भी इस्तेमाल कर रहा था। जब औले गिरे में ऑफिस में था, जहां एसी की गरमाहट थी। ठंड लगने का सवाल ही नहीं था। शनिवार की रात घर पहुंचा तो देखा आंगन में बच्चों ने ओले एकत्र कर बर्फ का स्नोमैन बनाया हुआ था। बच्चों ने बताया कि पूरा आंगन ओलों से भर गया था। तब उन्होंने यह स्नोमैन बनाया। मुझे बच्चों के इस खेल पर गुस्सा आने लगा। खासकर छोटे बेटे पर, जो कुछ दिन पहले खांसी, जुकाम व बुखार से पीड़ित था। रात को खौं-खौं कर सोने नहीं दे रहा था। उसे मैने समझाया कि बार-बार दवा लाने से घर का बजट बिगड़ रहा है। उसे ऐसे खेल की क्या जरूरत थी। खैर पत्नी ने समझाया कि अब बच्चों ने खेल कर दिया तो उसके बाद बिगड़ने की क्या आवश्यकता है। मैने कहा कि आगे के लिए वे नसीहत लेंगे। कुछ ही दिनों से उनकी परीक्षा शुरू हो जाएंगी। ऐसे में बीमार होने से बचना चाहिए। <br />बच्चे फिर से बीमार न हो जाएं यह चिंता मुझे सता रही थी। तभी मैं भी ठंड से कांपने लगा। रात्रि का भोजन लेने के बाद भी कंपकपी दूर नहीं हुई तो पत्नी ने कहा कि कड़क चाय बना दूं। सब ठीक हो जाएगा। क्या सर्दी का इलाज चाय है। मैं यही सोच रहा था। शराब पीने वाला दो पैग से सर्दी दूर भगाता है। उसका तर्क होता है दो पैग मारो सभी बीमारी दूर। पीने वाला पैग भी मारता है, लेकिन अगले दिन तबीयत और ज्यादा खराब नजर आती है। अन्य लोग चाय से सर्दी दूर करने का उपाय खोजते हैं। वाकई ये चाय भी क्या चीज है। इसका देहरादून व गढ़वाल के लोगों से बहुत पुराना नाता नहीं है। आजादी से कुछ साल पहले ही शायद यहां के लोगों ने चाय का स्वाद चखा था। अब इसके बगैर न तो किसी की सुबह होती है और न ही रात। <br />वैसे करीब 1830 में अंग्रेजों ने देहरादून में चाय की खेती शुरू की थी। चाय की खेती के लिए ईस्ट होप टाउन, आरकेडिया टी स्टेट, व हरबंशवाला के साथ ही विकासनगर में चाय के बगीचे लगाए गए। दूनघाटी में जिस चाय का उत्पादन होता था वह ग्रीन-टी के नाम से मशहूर थी। निकोटीन रहित इस चाय की मांग भारत के अमृतसर जिले में अधिक थी। नीदरलैंड,जर्मनी, इंग्लैंड,रसिया के साथ ही यूरोप के कई देशों में इसकी मांग थी। इसका उपयोग दवा बनाने में भी किया जाता था। इसकी मांग के अनुरूप निर्यात नहीं हो पाता था। 1997 में अमेरिका ने देहरादून के बगीचों से उत्पन्न चाय की गुणवत्ता को देखकर इसे आरगेनिक टी घोषित किया था। अलग प्रदेश उत्तराखंड बना तो यहां खेती की जमीन की जगह कंकरीट के जंगल नजर आने लगे। साथ ही चाय के बगान उजाड़ होने लगे। चाय बगान सिकुड़ रहे हैं और उनकी जगह भवनों ने ले ली। <br />भले ही देहरादून में चाय की खेती पहले से हो रही थी, लेकिन आमजन चाय का टेस्ट तक नहीं जानता था। आमजन को भी चाय की चुस्की का चस्का अंग्रेजों ने ही लगाया। मेरे पिताजी बताते थे कि 1940 के दौरान अंग्रेजों ने लोगों में चाय का चस्का डालने की शुरूआत की। इसके लिए पल्टन बाजार में चाय का स्टाल लगाया गया। इस स्टाल में चाय बनाकर फ्री में रहागीरों को पिलाई जाने लगी। कुछ दिन बाद मेरा फ्री की बजाय चाय की कीमत वसूली जाने लगी। साथ ही चाय पीने वाले को एक पुड़िया में चाय पत्ती भी दी जाती। ताकि वह घर में चाय बनाकर पी सके। चाय का जादू ऐसा चला कि लोग इसके आदि हो गए। दूर-दराज के पर्वतीय क्षेत्र में जहां मोटर तक नहीं पहुंच सकी, वहां घरों में चाय पत्ती पहुंच गई और केतली में हर सुबह चाय उबलने लगी। पहाड़ों में तो चाय ने कलयुगी अमृत के रूप में अपनी जगह बना ली। <br />करीब बाइस साल पहले वर्ष 1992 में चकराता रोड निवासी एक बुजुर्ग ने मुझे चाय की कहानी कुछ इस तरह सुनाई। उन्होंने बताया कि जब वह छोटे थे तो उस समय चाय सिर्फ पैसे वालों के घर में ही बनती थी। चाय को मजे के लिए नहीं, बल्कि दवा के रूप में पिया जाता था। उन्होंने बताया कि जब वह आठ साल के थे, तो उनके पड़ोस में कभी-कभार चाय बना करती थी। उसकी खुश्बू से ही लोग अंदाजा लगाते थे कि पड़ोस की आंटी चाय बना रही है। उन्होंने बताया कि सर्दी के दिन थे, मैने आंटी से कहा कि चाय पिला दो। इस पर आंटी उन्हें कमरे में ले गई। बिस्तर पर बैठाकर उनके पूरे शरीर में कंबल लपेट दिया। इस दौरान स्टोव में चाय चढ़ा दी गई। फिर गर्मागरम चाय परोसी गई। जो कंबल में लपेटे ही उन्हें पिलाई गई। चाय पीते ही सारी सर्दी भाग गई। <br />तब और अब। इन साठ-सत्तर साल के अंतराल में चाय के माइने ही बदल गए। चाय में वह गर्मी नहीं रही। मैने भी सर्दी लगने पर जो चाय पी। उसने भी असर नहीं दिखाया। शायद मिलावटखोरी ने चाय की ताकत भी खत्म कर दी। तभी तो पिछले चार दिन से सुबह-दोपहर व शाम को चाय के साथ ही सर्दी-जुकाम,बखार की दवा खा रहा हूं, लेकिन तबीयत ठीक होने का नाम तक नहीं ले रही है। ओले पड़े और कुछ ही घंटों में पिघल गए, लेकिन शरीर में सर्दी ने जो प्रवेश किया, वह तो वहीं जम कर बैठ गई। इसका चाय इलाज चाय की चुस्की में भी नजर नहीं आ रहा है। फिर भी चाय का महत्व कम नहीं हुआ। कई बार चाय के बहाने बड़े-बड़े समझोते तक हो जाते हैं। चाय की महत्ता को पहचानते हुए नरेंद्र मोदी के माध्यम से भाजपा ने तो चाय चौपाल का अभियान ही छेड़ दिया है। चाय सियासी दावपेंच का आधार बन रही है। अब देखना है कि इस मामले में चाय अपनी कितनी गर्मी दिखाती है। <br />
भानु बंगवाल </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-40398335838479734842014-02-09T23:09:00.001-08:002014-02-09T23:13:58.510-08:00हम भी खुश, तुम भी...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इस रंग बदलती दुनियां में जिस आदमी का रंग सबसे ज्यादा बार-बार बदलता रहता है। वह नेता होता है। नेता ही ऐसी कौम है, जिसे सत्ता पर रहने पर भी काम है और विपक्ष में रहने के दौरान भी। हां फर्क बस इतना है कि सत्ता में रहने के दौरान वह सरकार का गुणगान करता है, वहीं, विपक्ष में रहने के दौरान वह सरकारी की खिंचाई करता है। नेताजी के साथ ही उनके चेले भी इसी काम में जुटे रहते हैं। वैसे चेलों का भी कोई दीन ईमान नहीं रह गया। वे भी समय और मौके की नजाकत देखकर रंग बदलते रहते हैं। उनके रंग बदलने के साथ ही नेता भी बदल जाते हैं। आज इसका दामन थामा है तो कल मौका देखकर दूसरे का थामने में वे तनिक गुरेज तक नहीं करते हैं। नेताजी सत्ता में अच्छे पद पर बैठे तो चेले भी रोजगार में जुट जाते हैं। किसी न किसी बहाने उनका रोजगार चल पड़ता है। पहले वे अपना भला करते हैं, फिर वे अपनी पहचान वालों का नंबर लगाते हैं। यही परंपरा तो हर राज्य में चल रही है। इससे उत्तराखंड भी अछूता नहीं है। <br />
उत्तराखंड में बार-बार मुख्यमंत्री बदलने को भले ही कोई राज्य के विकास में रोड़ा अटकना बताए, लेकिन इस परिपाटी ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम से जोड़ दिया है। जो खाली बैठकर एक-दूसरे को कोसते रहते थे, वे अब व्यस्त हो गए हैं। यानी उन्हें रोजगार मिल गया है। कुछ करने का मौका, अपनी जेब भरने का मौका, या फिर दूसरों का भी कुछ न कुछ भला करने का मौका। इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है। पहले भाजपा के कार्यकाल में भुवन चंद्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बने तो उनसे जुड़े कार्यकर्ता बिजी हो गए। फिर निशंक मुख्यमंत्री बने तो उनके गुट के कार्यकर्ताओं को भी किसी न किसी काम के बहाने रोजगार मिला। कई कार्यकर्ता तो बड़े-बड़े कामों के ठेकेदार बन गए। वहीं, खंडूड़ी से जुड़े कार्यकर्ता उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद उनके कामों को पूरा कराने में व्यस्त रहे। इस तरह भाजपा के दोनों गुटों को काम मिलता रहा। कांग्रेस की सरकार बनी तो बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने से उनसे जुड़े कार्यकर्ता व्यस्त रहने लगे। कई की ठेकेदारी चल पड़ी। फिर हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर उनसे जुड़े युवा भी अब रोजगार की तलाश में जुट गए। जो कार्यकर्ता निठल्ले बैठे थे, वे अब तड़के घर से निकल रहे हैं। उनके फोन बिजी जा रहे हैं। सीएम के कार्यक्रमों में अक्सर वे नजर आ रहे हैं। अब किसी को कोसने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। पांच साल की सरकार में बार-बार मुख्यमंत्री बदलेंगे तो हर गुट के कार्यकर्ताओं को फायदा मिलेगा। फायदा क्यों न मिले। हजारों घोषणाएं हो रही हैं। इन घोषणाओं के शिलान्यास हो रहे हैं। इसे पूरा करने के लिए कार्यकर्ता ही आगे आएंगे। बार-बार मुख्यमंत्री बदलने से हर गुट के कार्यकर्ता को ठेकेदार बनने का मौका मिल रहा है। बिजनेस बनती जा रही राजनीति यहां कार्यकर्ताओं के लिए फायदे का सौदा साबित हो रही है। वहीं निवर्तमान सीएम के कार्यकाल की घोषणाओं को पूरा करने के लिए उनसे जुड़े कार्यकर्ता भी जुटे रहेंगे। इसका कुछ तो असर राज्य के आधारभूत ढांचे के विकास कार्यों पर जरूर पड़ेगा और कुछ कार्यकर्ताओं की जेब पर भी। वहीं, नेताओं के बिजी रहने से शहर, गांव, मोहल्लों व कस्बों में अमन चैन भी रहेगा। क्योंकि नेता यदि खाली हो तो यह शुभ नहीं होता। नेता के बिजी रहने में ही सबकी भलाई है। यानी, हम भी खुश, तुम भी खुश और सारा जग खुश। <br />
भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-47928276614742259942014-02-08T22:56:00.002-08:002014-02-08T22:56:45.197-08:00थोड़ी सी जो पी ली...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पीने-पिलाने की बात जब चले तो यह बताना जरूरी नहीं कि क्या पिया। क्योंकि पीने वालों के लिए तो शराब ही सबकुछ है। इसके लिए वे इंतजार करते हैं मौकों का। शादी हो या फिर कोई समारोह। जब तक हलक से नीचे नहीं उतरे तब तक आयोजन उनकी नजर में अधूरा ही रहता है। पीने वालों के अपने फार्मूले हैं, अपने तर्क हैं। रोज पीता हूं, लेकिन होश में रहता हूं। यह कहना होता है अक्सर पीने वालों का। वहीं, जो नहीं पीता वह पीने वालों को यही उपदेश देता है कि मत पिया करो। सेहत के लिए ठीक नहीं। तब पीने वाले उदाहरण देते हैं कि फलां को देखो, पीता नहीं था, लेकिन जल्द मर गया। उसे ही बीमारी लगी। वहीं, उपदेश देने वाले शराब से बर्बाद लोगों की सूची अपने जेहन में रखते हैं। शराब पीने वालों को वे ऐसे लोगों के उदाहरण देते हैं। <br />वैसे देखा जाए तो कोई भी नशा हो, जरूरत से ज्यादा नुकसानदायक होता है। हर काम की एक सीमा होती है। फिर भी मेरे शराबी भाइयों को ये समझ नहीं आता है। कल से छोड़ेंगे कहकर पैग-पर-पैग चढ़ाते जाते हैं। वह कल कभी नहीं आता। <br />वैसे शराबियों की कहानी भी अजीबोगरीब होती है। मरणासन्न अवस्था में पड़े एक व्यक्ति को डॉक्टर ने कहा कि आपका लीवर डेमेज हो चुका है। भीतर कुछ बचा नहीं है। हड्डियों में पानी भर गया। शराब छोड़ दो तो शायद कुछ ज्यादा दिन तक जी लोगे। इस पर व्यक्ति बोला, प्राण छूट जाएंगे, लेकिन मेरी शराब नहीं छूट सकती। हुआ भी यही, वह व्यक्ति ज्यादा दिन नहीं जिया। उसके बात बीबी व बच्चों की बेकदरी नहीं हुई, बल्कि वे ज्यादा सुखी नजर आने लगे।<br />अक्सर शराबी व्यक्ति गलती करने के बाद यही कहकर माफी मांगने लगता है कि नशे की हालत में उससे ऐसा हुआ। अब वह गलती नहीं करेगा। मेरे भाई, नशे में आप दूसरे का दरबाजा क्यों नहीं खटखटाते। अपने बच्चों, पत्नी या फिर अन्य को पहचानने में गलती क्यों नहीं करते हो। एक दिन मैं बस से दिल्ली से देहरादून को सफर कर रहा था। बस चलने के आधे घंटे के बाद कंडक्टर में सवारियों की गिनती की। फिर अपना हिसाब मिलाया। इसके बाद वह बोला कि बिना टिकट कौन है। सभी सवारी चुप। कंडक्टर को बस रुकवानी पड़ी। हरएक सवारी से टिकट दिखाने को कहा। जांच चल रही थी कि एक व्यक्ति बोलने लगा कि बस चलाते रहो, टिकट चलती बस में ही चेक कर लेना। कंडक्टर ने उस व्यक्ति से पूछा कि आपके पास टिकट है। वह व्यक्ति अटक-अटक कर बोल रहा था। वह बोला मेरे पास सिकट (टिकट) है। कंडक्टर ने कहा दिखाओ। इस पर वह बोला मेरे पर्स में है। वह जेब टटोलने लगा। कंडक्टर को पता चल गया कि यही नशेड़ी बगैर टिकट है। उसने टिकट खरीदने को कहा तो वह बहस करता रहा कि मेरे पास सिकट है, पर दिखा नहीं रहा था। कभी कमीज की जेब टलोल रहा था तो कभी पेंट की जेब। कभी पर्स खोलता, लेकिन टिकट कहीं नहीं था। हो सकता है कि उसने टिकट खरीदा हो और गिर गया हो, लेकिन उसके शराब के नशे में होने के कारण कंडक्टर उसका क्यों विश्वास करता। नतीजन, बस से उसे उतार दिया। उतरते ही वह भद्दी गालियां बरसाने लगा। उसकी आवाज तब तक सुनाई देती रही, जब तक बस आगे नहीं निकल गई। <br />शराबी को तो सिर्फ अपनी बोतल से ही प्यार होता है। वह बीबी, बच्चों की कसम खा सकता है। हर जरूरी काम छोड़ सकता है, लेकिन पीने के समय में पीना नहीं छोड़ता। वर्ष 1975 में देहरादून में शराब के गिने चुने ठेके थे। राजपुर रोड से सटे मोहल्लों में रहने वाले शराबी अक्सर पांच-छह किलोमीटर दूर का सफर कर राजपुर स्थित शराब के ठेके में शराब पीने जाते। पीने के बाद वापस लौटते समय ऐसे कई एक बोतल घर के कोटे के रूप में खरीदकर चल देते। एक रात करीब आठ बजे राजपुर रोड के तेज ढलान में सेंट्रल ब्रेल प्रेस के निकट एक सिटी बस पलट गई। इस दुर्घटना में बस की छत जमीन पर और चारों पहिये आसमान की तरफ हो गए। गनीमत यह रही कि गिनी-चुनी दस-बारह सवारियों में से किसी की जान नहीं गई। अलबत्ता कुछ को हल्की खरोंच जरूर आई। बस पलटने की आवाज पर आसपास के लोग मदद को मौके की तरफ दौड़े। बस में फंसी सवारियों को बाहर निकालने लगे। तभी एक व्यक्ति ने मदद करने वाले हाथों को झटक दिया। फिर उसने खुद को टटोला। फिर यह देखकर खुश हुआ कि उसकी बोतल सही सलामत थी। जब उससे एक ने पूछा कि चोट तो नहीं लगी, तो उसका कहना था कि हां बोतल बच गई। नहीं तो कल दोबारा लेने जाना पड़ता। सभी सवारी खुश थी कि उनकी जान बची, वहीं शराबी बोतल न टूटने पर खुश था।<br />कई बार तो शराब का आदि ऐसे संकट में फंसता है कि उससे निकलना भी मुश्किल हो जाता है। घंटाघर के निकट देहरादून में कभी सिटी बस अड्डा होता था। अक्सर रात को यहां भी शराबी नजर आते थे। कुछ का तो यह ठिकाना ही था। एक बस के पीछे एक शराबी अचेत पड़ा था। लोगों ने इसकी सूचना पुलिस को दी। पुलिस ने टटोला तो नब्ज नहीं चल रही थी। दून अस्पताल लेकर पुलिस पहुंची, तो डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। इस पर पुलिस ने शव को अस्पताल की मार्चरी में डलवा दिया। मार्चरी भी ऐसी कि उसका दरबाजा टूटा हुआ था। मृतक की पहचान हो चुकी थी। अगले दिन पंचनामा भरा जाना था। ऐसे में शव को कपड़े में लपेटकर सील नहीं किया गया। नियति को कुछ और मंजूर था। जिसे मृत मान रहे थे, सुबह उसके शरीर पर हरकत होने लगी। वह चुपचाप उठा और मोर्चरी से निकलकर चल दिया। अगले दिन हड़कंप मच गया कि मुर्दा गायब हो गया। काफी खोजबीन हुई। पुलिस मृतक के घर की तरफ चल दी। वहां जब सिपाही पहुंचे तो देखा कि जिसे मृत समझकर मार्चरी में डाल दिया था, वह घर के आंगन में बैठा चाय पी रहा है। <br />कुछ साल से देहरादून में विक्रम टैंपो ही लोगों की लोकल आवाजाही का सुलभ साधन हैं। देहरादून में राजपुर रोड में राजपुर की तरफ जाते समय काफी चढ़ाई पड़ती है। वापसी में गाड़ी न्यूट्रल में ही सड़क पर ऐसे फिसलती है, जैसे पूरी स्पीड में दौड़ रही है। एक शाम एस्लेहाल से विक्रम में राजपुर रोड की सवारी लेकर चालक चला। एक व्यक्ति जो चालक के बगल में बैठा था ठीक से अपना सिर तक नहीं संभाल पा रहा था। पूरे नशे में होने के बावजूद वह बार-बार बोलकर चालक को परेशान भी कर रहा था। चालक बार-बार उससे यही कहता चाचा चुप होने का क्या लोगे। आरटीओ की सीधी चढ़ाई में चालक ने विक्रम की गति धीमी की, तभी पीछे बैठा एक युवक उतरा और बगैर पैसे दिए, भागने लगा। ये ड्राइवर भी चौकन्ने होते हैं। यदि वे हर सवारी पर नजर नहीं रखें तो सभी बगैर पैसे दिए रफूचक्कर हो जाए। चालक ने टैंपो रोका और फुर्ती से सवारी को पकड़ने को दौड़ पड़ा। खड़ी चढ़ाई में टैंपो को रोका गया था। चालक के भागने पर टैंपो पीछे को लुढ़कने लगा। अन्य सवारियां चिल्लाने लगी। तभी लगा कि टैंपो अब पीछे को नहीं जा रहा है। सभी सवारियों ने देखा कि जो शराबी चालक के पास बैठा बड़बड़ कर रहा था, वह टैंपो के पीछे खड़ा है। उसके दोनों हाथ टैंपो पर लगे थे और वह पीछे टैंपो को लुढ़कने से रोकने को आगे को धक्का दे रहा है। इसी बीच टैंपो चालक भी पैसे वसूलकर आ गया। उसने यह नजारा देखा तो अपनी गलती का उसे अहसास हुआ कि ठीक से उसने ब्रेक नहीं लगाए। साथ ही किसी हादसे को टालने वाले शराबी के आगे वह नतमस्तक हो गया। <br />भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-59115672691651163692014-01-19T06:42:00.002-08:002014-01-19T06:42:19.003-08:00समय से हारा गणित <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कहते हैं कि समय के अनुरूप योजना बनाकर काम करना ही बेहतर होता है। हर काम का समय फिक्स कर लो। ज्यादातर मैं भी इसी युक्ति पर ही काम करता हूं। पर कई बार युक्ति फेल हो जाती है। फिर भी समय की चाल बलवान है। इसका पहिया तो चलता रहता है। हमें तो उस सेतालमेल बैठाना पड़ता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। जब समय के अनुरूप काम करने का मेरा गणित समय की चाल से हार गया। <br />सर्दी पड़ी बच्चों की छुट्टी भी पड़ी। समय के मुताबिक मुझे ये समय रंग-रोगन के लिए उपयुक्त लगा। ये रंग रोगन भी बड़े काम की चीज है। जिस पर लगाया जाए, उसकी सूरत ही बदल जाती है। दीवारों पर लगे तो दीवार चमक उठती है। क्रीम, पाउडर फेशियल के रूप में चेहरे पर लगाने से दूर से व्यक्ति भी चमकता हुआ दिखाई देता है। हालांकि सुंदरता बाहर की नहीं, बल्कि भीतर की ही अच्छी होती है। फिर भी व्यक्ति खुद के साथ ही अपने घर को संवारने के लिए हर संभव प्रयास करता है। घर को संवारना भी कोई आसान काम नहीं है। हर चार-पांच साल में दीवारें रंग छोड़ने लगती हैं। दीवारों का पलस्तर उखड़ने लगता है। फिर पहले दीवारों की मरम्मत होती है, तब जाकर उसमें रंग-रोगन चढ़ाया जाता है। घर चमक जाता है। इस बहाने घर की सफाई हो जाती है, लेकिन सामान इधर से उधर सरकाने में फजीहत भी कुछ ज्यादा ही हो जाती है। <br />सर्दियों में बच्चों के साथ ही पत्नी के स्कूल की छुट्टियां पड़ी तो मुझे भी यही समय घर में रंगाई-पुताई कराने में सबसे उपयुक्त लगा। पुताई करने वाला आया और उसने एक सप्ताह में काम पूरा करने का वादा किया। एक सप्ताह फजीहत होनी थी। खैर मानसिक रूप से सभी तैयार थे। काम शुरू हुआ। जैसै-जैसे काम होता जाता, वैसे-वैसे ही और बढ़ता जाता। दस दिन बीते, लेकिन घर के भीतर से ही पुताई वाले बाहर नहीं निकले। वे तो दुश्मन जैसे नजर आने लगे। हर सांस में रंग रोगन की महक भीतर फेफड़ों में घुस रही थी। घर के सभी सदस्यों को परमानेंट जुखाम सा महसूस होने लगा। जो भी घर आता, वही हमें सीख देने से भी बाज नहीं आता। नसीहत दी जाती कि सर्दियों में क्यों काम छेड़ा, गर्मियों में छेड़ते। अब उन्हें कौन समझाए कि गर्मियों में बच्चों की छुट्टी पड़ती है और वे कहीं बाहर जाने की योजना बनाते हैं। ये ही वक्त हमें ज्यादा सहूलियत का लग रहा था, सो पंगा ले लिया। एक दिन लगा कि अब दो दिन का ही काम है। अगले दिन बारिश हो गई। उस दिन काम ही नहीं हुआ। फिर मसूरी के साथ ही आसपास की पहाड़ियों में जमकर बर्फ गिरी। मेरा मन भी हुआ कि बच्चों के साथ देहरादून से धनोल्टी जाकर बर्फ का आनंद उठाया जाए, लेकिन पुताई से पीछा ही नहीं छूट रहा था।<br />रविवार को सुबह से ही धूप खिली हुई थी। मैं समय के अनरूप ही काम को निपटाने का प्रयास करने में जुट गया। घर में कुछ बल्ब व ट्यूब जल नहीं रहे थे। ऐसे में मैने बिजली के काम के लिए इलेक्ट्रीशियन बुलाया। वह भी अपना काम कर रहा था और मैं उसकी मदद। मैने बच्चों से कहा कि बिजली का काम निपटने के बाद सभी मसूरी की तरफ चलेंगे। बच्चों में भी इस पर खासा उत्साह था। एक ट्यूब को बदलने के बाद मैं एक टेबल को पत्नी की मदद से उठाकर उसकी निर्धारित जगह में रखना चाह रहा था। तभी टेबल एक्वेरियम से टकरा गई। चट की आवाज के साथ ही उसका शीशा चटख गया। उससे पानी लीक होने लगा। आनन फानन मछलियों को पानी की बाल्टी में डाला गया। एक्वेरियम को खाली किया गया। चटखे कांच को जोड़ने के लिए आरेल्डाइट लाया। अब मेरे काम की प्राथमिकता मसूरी नहीं थी, बल्कि मछलियों का घर ठीक करना था। एक्वेरियम रिपेयर किया गया। इस काम में मुझे कई घंटे लग गए। देर शाम तक भी वह नहीं सूख पाया। मछिलिंया बेघर रही। ठीक उसी तरह जैसे हम कमरों की पुताई के दौरान पहले बेघर हो रहे थे। कभी विस्तर किसी कमरे में लगता तो अगले दिन दूसरे में। किसी दिन कीचन में काम नहीं हुआ और होटल से खाना आया। ठीक उसी तरह मेरी मछलियां भी एक दिन से लिए एक्वेरियम से बाहर हो गई। साथ ही बच्चों का छुट्टी के दिन मसूरी जाना भी केंसिल हो गया। क्योंकि समय काफी निकल चुका था। इस दिन बच्चों के साथ ही मछलियां दोनों ही शायद मुझे कोसते रहे होंगे। फिर भी मुझे संतोष रहा कि मैने सभी मछलियों का जीवन बचा लिया।<br /> भानु बंगवाल </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-65531547479615415432014-01-05T02:48:00.001-08:002014-01-05T02:48:56.739-08:00यूं ही आ गए....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक दिन दोपहर में खाना खाने के बाद मैं एक घंटे की नींद लेने की तैयारी कर रहा था, कि तभी गेट को खड़खड़ाने की आवाज सुनाई दी। सचमुच मुझे नींद प्यारी है। सोने के दौरान मैं किसी भी प्रकार का खलल नहीं चाहता। ये बात मेरे बच्चे भी जानते हैं। ऐसे में जब वे मुझे सोता पाते हैं तो वे भी दबी जुबां से फुसफुसाहट में बात करते हैं। गेट के बजने की आवाज पर मैने सोचा कि बिजली के बिल के लिए मीटर रीडर आया होगा। क्योंकि टेलीफोन, मोबाइल, पानी के बिल आ चुके थे और मैं समय से भुगतान भी कर चुका था। पत्नी गेट पर गई और नमस्ते, हालचाल पूछने की आवाजें करीब आती चली गई। मैं बोखलाकर बिस्तर से उठा और बाहर को निकला। देखा सामने करीब 65 साल से अधिक उम्र का एक व्यक्ति व करीब तीस साल का एक युवक खड़े हैं। मैने अंदाजा लगाया कि वे बाप-बेटे हैं। खैर आगंतुक ने ही मुझसे पूछा कि तुम्हारा नाम भानु है। मुझे पहचाने नहीं, कहां से पहचानोगे। मैं काफी साल बाद आया हूं। तुम्हारे पिताजी से मिलने मैं आता रहता था। वे भी हमारे घर खूब आते थे। मुझे आज याद आई तो मैं आप लोगों से मिलने चला आया।<br />
बैठक में बैठने के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। पहले मैने उनकी पहचान पूछी। पता चला कि वे हमारे दूर के रिश्तेदार हैं, जिन्हें मैने शायद पहले कभी नहीं देखा, या फिर देखा होगा तो मुझे याद नहीं। मेरी एक चाचीजी के वो भाई लगते थे। ऐसे में वे मेरे मामा हुआ और उनका बेटा मेरा भाई। इधर-उधर की बातचीत हो रही थी और मैं इसी उधेड़बुन में लगा था कि वे हमारे यहां किस काम से आए हैं। क्योंकि आजकल किसी के पास इतना टाइम नहीं कि वो किसी से यूं ही मिलने चला आए वो भी इतने सालों के बाद जब उसे कोई पहचानता नहीं हो। अक्सर जब भी कोई घर आता है तो वह घूमफिर किसी मकसद को उजागर कर देता है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। मैने मामाजी से पूछा कि वह पहले कहां थे। उन्होंने बताया कि नौकरी के दौरान वे अक्सर बाहर रहे, अब रिटायर्ड हो गए हैं और देहरादून में ही मकान बनाकर रह रहे हैं।<br />
मेरे घर में ना तो शादी की उम्र की कोई लड़की है और न ही लड़का। फिर ये सज्जन क्यों आए यही विचार मेरे मन में उठ रहे थे। फिर लगा कि ये अपने बेटे को कहीं नौकरी दिलाने की बात छेड़ेंगे। उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं की तो मैने ही चाय की चुस्कियों के दौरान उनके बेटे दीपक से सवाल किया कि तुम क्या करते हो। वह बोला पहले मैं देहरादून में किसी स्कूल में पढ़ाता था। फिर पिताजी के साथ पंजाब चला गया। वहां भी स्कूल में पढ़ाया। जब वापस लौटा तो पुराने स्कूल में उसके समय के सभी अस्थाई टीचर स्थाई हो गए। नौकरी तो लगी नहीं, लेकिन अब प्रापर्टी डीलिंग का काम कर रहा हूं। वह ठीकठाक चल रहा है। मामाजी भी मुझसे कभी पत्रकारों के जीवन के बारे में, उनके कामकाज आदि के बारे में पूछते। मुझे लगा कि शायद इन्हें बेटी का रिश्ता किसी पत्रकार से तो नहीं कराना है। ऐसे में पत्रकारों के बारे में पूछकर मुझे टोह रहे हों। मैने भी पत्रकारों की मौजी लाइफ की जगह वे सच्चाई बताई, जिसे सुनकर कोई भी पत्रकार बनने का साहस नहीं कर सके। हर समय टेंशन, खाना खाना भूल आजो, नौकरी का भरोसा नहीं, रात को यह पता नहीं कि कितने बजे बिस्तर नसीब हो, जितना करो वह कम है, छोटी सी चूक हो गई तो वर्षों की मेहनत से जो इमैज तैयार की उस पर बट्टा लगना तय है।<br />
फिर मेरे मन में वही सवाल उठ रहा था कि क्या बाप-बेटे यूं ही मिलने चले आए। पिताजी को ही मामाजी जानते थे। पिताजी की मौत वर्ष 2000 में हो गई थी। तब से 14 साल हो गए। हां मेरे पिताजी काफी मिलनसार थे। वे जब नौकरी में थे तो छुट्टी के दो दिन अक्सर किसी न किसी के घर जरूर जाते थे। तब पलटकर लोग भी हमारे घर आते थे। जब वह रिटायर्ड हुए तो यह सिलसिला तब तक जारी रहा,जब तक वह चलने-फिरने में समर्थ रहे। उनकी मौत के बाद यूं ही मिलने को घर आने वाले भी गायब हो गए। अब तो जो भी आता है वह किसी न किसी काम के ही आता है। हां यूं ही मिलने वाले वे तो जरूर आते हैं, जो पहले से ही नियमित आ रहे हैं। जैसे मेरी बहने, जीजा, मांजा या ससुराल पक्ष के वे लोग जिनसे हम फोन से भी संपर्क में रहते हैं। अब मुझे लगा कि शायद ये मामाजी यह कहेंगे कि बेटा यदि कोई जमीन बेचेगा या खरीदेगा तो हमें ही बताना, लेकिन उन्होंने ऐसा भी नहीं किया। किसी का समाचार या विज्ञापन छपवाने को भी नहीं कहा। क्योंकि अक्सर मेरे घर आने वाले घूमफिर कर बात करने के बाद कुछ न कुछ ऐसा काम बताते हैं, जो कहीं सिफारिश करने वाला होता है। ऐसों को मैं भी एक कान से सुनकर टाल देता हूं। हां यदि किसी की बात जायज होती है तो यह सलाह जरूर देता हूं कि उन्हें क्या करना चाहिए। वैसे मैं नियमों से चलने मैं ही विश्वास करता हूं और दूसरा मुझे शायद मूर्ख समझता है। वैसे तो आजकल सामने वाला दूसरे को मूर्ख ही समझता है। बॉस कर्मचारी को मूर्ख मानता है और कर्मचारी बॉस को। एक पत्रकार दूसरे को हमेशा मूर्ख ही बताता है। वह दूसरे की खूबियां कभी सहन नहीं करता। वह सोचता है कि सबकुछ जैसे वही जानता है। कुछ देर बाद यह कहकर दोनों उठे कि अच्छा चलते हैं, हमारे घर भी आना। हां घर की लोकेशन उन्होंने जरूर बताई। मैने दीपक को अपना मोबाइल नंबर दिया। फिर वे चले गए।<br />
उनके जाने के बाद मैं फिर यही सोचने लगा कि आखिर वे दोनों क्यों आए। खैर वे चले गए और मुझे उनका आना अच्छा लगा। मैं दोबारा बिस्तर में लेटा कि फिर गेट बजा। अबकी बार गांव का एक परिचित आया। जो किसी के बेटे की शादी का कार्ड देने के लिए आया था। वह घर भी बैठा नहीं अभिवादन के बाद कार्ड थमाकर चलता बना। चाय की काफी जिद करने के बाद भी वह रुका नहीं। क्योंकि यूं हीं आने के लिए शायद उनके पास टाइम नहीं था और इन महाशय के जाने के बाद मेरे पास भी सोने का टाइम नहीं बचा।<br />
भानु बंगवाल </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-294845047088134642013-12-28T21:44:00.000-08:002013-12-28T21:44:01.823-08:00जमाना बदलने से पहले खुद बदलो......<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बाते साल को अलविदा और नए साल का स्वागत। पिछली दुख भरी बातों को भूलकर नई उमंग व तरंग के साथ नए साल का हर दिन बिताने का संकल्प। कुछ नया करने, कुछ नया जानने, कुछ नया दिखाने का प्रयास। कल की बात जो पुरानी हो चुकी है, उसे छोड़कर नई उमंग के संचार के साथ खून में नया बदलाव। कुछ ऐसा ही संकल्प लेने के विचार मन में घर कर रहे हैं कि चलो इस बार भी कुछ नया किया जाए। इन नई बातों का संकल्प लेने के लिए क्या किसी तामझाम की जरूरत है। नए साल का स्वागत क्या दारू, मुर्गा की पार्टी के साथ हो, जैसा कि अधिकांश मित्र योजना बना रहे हैं। या फिर पूरे जनवरी माह में ही नए साल के उल्लास में डूबा जाए। या फिर घर में टेलीविजन देखकर बीते साल को अलविदा कहा जाए और नए साल का स्वागत किया जाए। इस दौरान बच्चों के साथ मूंगफली और रेवड़ी चबाने का आनंद लिया जाए।साथ ही नए साल में कुछ नया करने का संकल्प लिया जाए। या फिर अगले दिन फर्श में फैले मूंगफली के छिलकों को झाड़ू से समेटते हुए सारे संकल्प छिलकों की तरह डस्टबीन में डाल दिए जाएं। फिर यह लक्ष्य रखे जाएं कि इस बार नहीं तो क्या हु्आ अगली बार से ही कुछ नया किया जाएगा। फिर एक साल का इंतजार किया जाए।<br />
हर साल हम कहते हैं कि इस साल कुछ ज्यादा ही हो रहा है। पिछली बातों से नई बातों की तुलना करते हैं। चाहे वह कोई भी गतिविधि हो, मौसम का मिजाज हो, या किसी व्यक्ति विशेष की आदत हो। पिछली बातों से नई की तुलना करना व्यक्ति की आदत है। हम यह देखते हैं कि नए साल का स्वागत जैसे हो रहा है, वैसे पहले कभी नहीं देखा गया। रात को दारू पीने के बाद सड़क पर हुड़दंग मचाते युवक व युवतियां। मोटे पेट वालों के घर में पार्टियां, जिसमें बाप-बेटा साथ-साथ बैठकर पैग चढ़ा रहे हैं। कुछ ऐसे ही अंदाज में नए साल का स्वागत किया जा रहा है। यदि मैं फ्लैशबैक में जाऊं तो पहले भी नए साल का स्वागत होता था। दारू पीने वाले शायद पीते होंगे, लेकिन उनका किसी को पता नहीं चलता था।<br />
देहरादून की राजपुर रोड पर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में मेरा बचपन कटा था। वहां पिताजी नौकरी करते थे। सन 1973 में जब मैं करीब सात साल का था, तो उस बार भी 31 दिसंबर के कार्यक्रम का मुझे बेसब्री से इंतजार था। उस जमाने में कर्मचारी पचास पैसे या फिर एक रुपये चंदा एकत्र करते थे। जमा पैसों की रेबड़ी व मूंगफली मंगाई जाती थी। साथ ही चाय बनाने का इंतजाम किया जाता था। कुछ लकड़ी खरीदी जाती। एक छोटे से मैदान में शाम आठ बजे लकड़ी जमा कर आग जलाई जाती। उसके चारों तरफ दरी में लोग बैठते। एक किनारे खुले आसमान के नीचे छोटा सा स्टेज बनता। शायद अब जिसे ओपन स्टेज कहा जाता है। स्थानीय लोग संगीत, नृत्य का आयोजन करते। तबले की धुन, हारमोनियम के सुर के साथ ही मोहल्ले के उभरते कलाकार अपनी कला प्रदर्शित करते। कुछ युवक सलवार व साड़ी पहनकर लड़की बनकर नृत्य करते। तब सीधे लड़कियों का नृत्य काफी कम ही नजर आता था। लड़कियों को घर की देहरी में ही कैद करके रखा जाता। वे स्कूल भी जाती, लेकिन शायद ही किसी को सार्वजनिक तौर पर नृत्य का मौका मिलता हो। शादी के मौके पर ही लड़कियां लेडीज संगीत पर ही डांस करती, वो भी महिलाओं के बीच में। फिर भी मुझे 31 दिसंबर का कार्यक्रम काफी अच्छा लगता। फिर समय में बदलाव आया और कुछ लोग इस दिन के कार्यक्रम में शराब की रंगत में नजर आने लगे। जो पीते नहीं थे, वे कार्यक्रम में जाने के साथ ही चंदा देने से कतराने लगे। उन्हें लगता कि उनके चंदे की रकम से ही पीने वाले दारू का खर्च उठा रहे हैं। पुराने साल के कार्यक्रम से नए की तुलना होने लगी। कुछ नया न दिखने पर लोग इससे विमुख होने लगे। धीरे-धीरे टेलीविजन ने देहरादून में भी पैंठ बनानी शुरू कर दी। 31 दिसंबर को दूरदर्शन पर फिर वही हंगामा नाम से कार्यक्रम आने लगा और स्थानीय कलाकारों के स्टेज गायब हो गए। घर में टेलीविजन था नहीं, ऐसे में मैं भी तब दो साल 31 दिसंबर की रात टेलीविजन देखने अपने पिताजी के एक मामाजी यानी मेरे बुडाजी के घर गया। उनका घर हमारे घर से दो किलोमीटर दूर था। सो रात को सोने का कार्यक्रम भी उनके (बुडाजी के) घर होता।<br />
हर बार 31 दिसंबर की रात को हम नए साल का स्वागत तो अपने-अपने अंदाज से करते हैं, लेकिन हम ऐसा क्यों कर रहे ये हमें पता भी नहीं होता। होना यह चाहिए कि हम नए साल में अपनी एक कमजोरी को छोड़ने का संकल्प लें। तभी हमारे लिए नया साल नई उम्मीदों वाला होगा। इस बार नए साल से पहले पूरे देश में एक नई बातें देखने को मिली। आम लोगों के बीच से उपजे आंदोलन की परिणीति के रूप में दिल्ली में आम पार्टी की सरकार बनी। इससे लोगों को उम्मीद भी है्ं। पार्टी से जुड़ा हर व्यक्ति सिर पर टोपी लगाकर देश में भ्रष्टाचार उखाड़ने की बात कर रहा है। टोली पहनो या ना पहनों इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि खादी पहनने से कोई महात्मा गांधी नहीं बन जाता। भ्रष्टाचार के लिए किसी दूसरे पर लगाम लगाने से पहले खुद में ही बदलाव लाना होगा, कि हम गलत रास्ते पर नहीं चलें। हमें सही व गलत का ज्ञान हो। हमें ही यह तय करना होगा कि क्या सही है या फिर क्या गलत। यदि हम खुद को बदलने का संकल्प लेंगे तो निश्चित ही यह तानाबाना बदलेगा। फिर जमाना बदलने में भी देर नहीं लगेगी।<br />
भानु बंगवाल</div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-60892618302776189732013-12-21T23:08:00.000-08:002013-12-21T23:08:02.441-08:00कहीं शार्टकट न बन जाए लॉंगकट....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बुजुर्ग लोग सही फरमाते हैं कि जो रास्ता पहले से नहीं देखा, उस पर नहीं चलना चाहिए। कई बार शार्टकट के लिए अपनाए जाने वाले रास्ते ही मुसीबत बन जाते हैं। फिर सवाल यह उठता है कि जब तक नया रास्ता नहीं देखेंगे तो उसके बारे में हमें क्या पता चलेगा। वो व्यक्ति ही क्या जो प्रयोगवादी न हो। प्रयोग करने से ही सही व गलत का पता चलता है। प्रयोग जरूर करें, लेकिन समय व परिस्थिति के अनुरूप। साथ ही यह ध्यान भी रखना जरूरी है कि हमारा प्रयोग कितना व्यवहारवादी साबित होगा। <br />वैसे तो प्रयोग ही आविष्कार की जननी है। बचपन में मुझे अन्य बच्चों से हटकर कुछ नया करने का बड़ा शौक था। मैं हर उपकरण, खिलौने व मशीन को काफी बारीकी से देखता और यह जानने की कोशिश करता कि यह कैसे काम कर रहा है। तब मैं जूते की पॉलिश की खाली डब्बी, पुराने सेल (बेटरी), खराब टार्च समेत काफी कबाड़ एकत्रित करके रखता। एक बार मैने डालडे (घी) के दो डब्बों को तारकोल से ट्रेननुमा जोड़कर उसमें पॉलिस की डब्बी के पहिये बनाऐ। आगे वाले डब्बे को आधा पानी से भरा और पीछे वाले में कबाड़ डालकर आग जलाने की कोशिश। मेरी कल्पना थी कि जब अगले डिब्बे का पानी खोलेगा, तो भाप बनकर निकलेगा। इस भाप का करनेक्शन पहियों के पास किया गया। ताकि तेजी से निकली हवा से वे घुमेंगे। हाय रे बचपन का दिमाग। डब्बे गर्म होने पर सारे तारकोल के जोड़ खुल गए। मेरी कल्पना की ट्रेन कई टुकड़ों में बिखर गई। खराब सेल को दोबारा रिचार्ज करने के लिए एक दिन मैं सेल को पानी में उबाल रहा था। चूल्हे की आंच धीमी हुई तो मैं पांच लीटर के जेरीकन से चूल्हे में डीजल डालने लगा। तभी धमाका हु्आ और मेरे हाथ से जेरीकन छूट गया। मुझे लगा कि मेरा हाथ टूट गया। मुझे गर्मी का अहसास होने लगा। तभी नजर गई तो देखा कि मेरी पेंट दोनों जांच के पास से धूं-धूं कर जल रही है। मैं इधर-उधर भागा तो लपटें और तेज हो गई जो सिर तक पहुंच रही थी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेरी मौत सामने खड़ी थी। तभी मुझे पानी के नल के नीचे एक आधा भरा बड़ा ड्रम नजर आया। मैं किसी तरह उसमें घुसा तब जाकर आग बुझी। यहां यह बताना चाहूंगा कि जब जेरीकन धमाके से फटा तो उसका ऊपरी हिस्सा चिर गया। पकड़ हल्की होने के कारण यह मेरे हाथ से छिटका, लेकिन सीधा ही जमीन पर गिरा। कुछ डीजल जो मेरी पेंट में गिरा आग से वही जलने लगा था। जब तक आग तेज होती, मैंने उसे बुझा दिया, लेकिन यह खौफ मुझे कई साल तक कचौटता रहा। लड़कपन में भी मेरे प्रयोग बंद नहीं हुए। बारबर (नाई) की दुकान में हेयर ड्रायर आया तो मुझे भी बाल सेट करना का शौक चढ़ा। तब दो रुपये में बालों में ड्रायर लग जाता था। गर्म हवा को बालों के संपर्क में लाने पर बालों को कभी भी घुमाया जा सकता है। यह पता चलते ही मैने प्रेशर कूकर की भाप से बालों को सेट करने की विधि निकाली और दो रुपये बचाए। जब भी चावल पकते और सीटी आती तो मैं कंघी लेकर कूकर से सट जाता। भाप का संपर्क बालों से कर उन्हें सेट करने का प्रयास करता। एक दिन कूकर की सीटी नहीं बजी। सेफ्टीवाल भी मजबूत निकला। नतीजन कूकर का ढक्कन ही उड़ गया। वह छत से टकराकर नीचे गिरा। छत पर चावल चिपक गए। क्रिया की प्रतिक्रया के स्वरूप जितनी तेजी से ढक्कन ऊपर गया उतना ही बल कूकर में नीचे की तरफ लगा। इससे गैस का चूल्हा पिचक गया। जिस टेबल में गैस का चूल्हा रखा था वह भी क्रेक हो गई। यहां मेरी किस्मत ने साथ दिया कि मुझे कुछ नहीं हुआ। <br />मुझे सहारनपुर में नौकरी के दौरान मेरठ बुलाया गया। वहां मुझे नया स्कूटर खरीद कर दिया गया। मैं मेरठ से सहारनपुर स्कूटर से आ रहा था। देववंद के पास मैने सहारनपुर के लिए एक ग्रामीण से रास्ता पूछा। वह भी शार्टकट रास्ता बता गया। रास्ते मे एक बरसाती नदी से होकर गुजरना था। नदी में पानी नहीं था, लेकिन रेत में फिसलन थी। बीच नदी में मेरा स्कूटर धंस गया। रात का समय था, ऐसे में उस बीराने में कोई मददगार तक नहीं मिला। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। किसी तरह पैदल उतरकर मैं पूरी ताकत से स्कूटर को आगे सरका रहा था। करीब आधे घंटे में मैं स्कूटर को किनारे पहुंचाने में कामयाब हुआ। इसके कुछ दिन बाद एक दिन रेलवे क्रासिंग पर गेट बंद था। मेरे साथी ने कहा कि बगल से शार्टकट है। आगे पटरियां हैं। वहां से रास्ता पार कर लेंगे। मैं भी शार्टकट अपनाते हुए चल दिया। पटरी एक नहीं करीब सात-आठ थी। उन्हें पार करने में दोनों को पापड़ बेलने पड़ गए। स्कूटर के पहियें पटरी पर फंस रहे थे। साथी ईंट लगाता तब हम पटरी पर चढा़कर आगे बढ़ते। गनीमत थी कि इस बीच कोई ट्रेन नहीं आई। मैने साथी को पहले ही कह दिया था कि यदि दूर से ट्रेन दिखी तो स्कूटर छो़ड़कर सुरक्षित स्थान पर खड़े हो जाएंगे। <br />वैसे शार्टकट के फायदे कम, नुकसान ज्यादा हैं। छोटे लालच में हम बड़ा नुकसान कर बैठते हैं। व्यक्ति के जीवन में शार्टकट के मौके अक्सर मिलते हैं। नौकरी पाने के लिए रिश्वत का शार्टकट, किसी लाइन में खड़े होने से पहले जान पहचान या रुतबे का फायदा उठाकर लिया गया शार्टकट, सड़क पार करने के लिए चौराहे तक पहुंचे बगैर डिवाइडर से निकलने का शार्टकट, पैसे कमाने के लिए अपनाया गया शार्टकट। ऐसे शार्टकट से फायदे की उम्मीद काफी कम होती है। शार्टकट से पैसे कमाने वाले अक्सर जेल की सलाखों में रहते हैं। एक मित्र का कहना था है उसी रास्ते से जाओ जहां से सभी जाते हैं और वह सुरक्षित हो। चाहे वह कुछ लंबा जरूर हो। प्रयोग जरूर करो, लेकिन पहले उसके हर पहलू पर विचार भी करो। तभी मंजिल आसान होगी। <br />भानु बंगवाल </div>
anubhavhttp://www.blogger.com/profile/14984613598013820579noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4434599267018181504.post-5176120402799399332013-12-16T05:48:00.000-08:002013-12-16T05:48:02.866-08:00चिल्लर....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वैसे तो अब चिल्लर की जरूरत कभी-कभार ही पड़ती है। जब लोग मंदिर जाते हैं तो भगवान को चिल्लर चढ़ाने से नहीं चूकते। हालांकि भले ही जुए में लाखों रुपये दांव पर लगा दें। मंदिर में चढ़ाने के लिए ऐसे लोग खुले पैसे ही तलाशते हैं। क्योंकि भगवान कुछ नहीं बोलते, ऐसे में उन्हें चिल्लर चढ़ाने में हर्ज ही क्या है। वहीं उसके उलट भिखारी को यदि एक का सिक्का दे दो, तो पलटकर वह कुछ न कुछ ताना जरूर मार देता है। भिखारी भी पांच या दस का नोट ले रहे हैं। चिल्लर की उन्हें भी जरूरत नहीं। छोटे बच्चे तो चिल्लर की तरफ देखते ही नहीं। उन्हें भी करारा दस, पचास या सो का नोट चाहिए। मुझे अपना बचपन याद है। मोहल्ले में कई दृष्टिहीन रहते थे। मैं उनके छोटे-छोटे काम को हमेशा तत्पर रहता। वे दुकान से मुझसे समान मंगाते। दस या बीस पैसे बचते तो मुझे ही दे देते। मैं भी लालच में उनकी सेवा को हमेशा तत्पर रहता। कभी कभार साल में एक दो बार हमारे एक दूर के चाचा देहरादून आते तो हमारे यहां भी जरूर आते। उनका नाम सोमदत्त था और वह मुजफ्फरनगर रहते थे। जब भी वह वापस लौटते तो मुझे दो के नोट की गड्डी से एक करारा नोट निकालकर देते। वही नोट मुझे ऐसा लगता कि कई दिन मेरी मौज बन जाएगी। आज दो रुपये यदि मैं अपने बच्चों को दूं तो वे पलटकर यही जवाब देंगे कि इसका क्या आएगा। चिप्स का पैकेट भी दस रुपये से कम नहीं है।<br />मुझे चिल्लर की जरूरत सिर्फ बिलों की अदायगी के लिए पड़ती है। टेलीफोन, बिजली, पानी के बिल के साथ ही नगर निगम का जब भी हाऊस टैक्स देना होता है तो चिल्लर की जरूरत जरूर पड़ती है। इन सरकारी डिपार्टमेंट वालों को चिल्लर से ना जाने क्या मोह है। किसी भी बिल में ऐसी रकम नहीं होती कि सीधे दस, पचास या सौ के नोट से काम चल सके। पांच, सात, आठ रुपये खुले चाहिए होते हैं। क्योंकि यदि चिल्लर नहीं हुई तो काउंटर में बैठा व्यक्ति खुले नहीं है कहकर वापस रकम नहीं नहीं लोटाता। बिल के पीछे बचे दो, तीन रुपये लिख देता है। अब दो-तीन रुपये के लेने लिए दोबारा कौन जाएगा। यह भी गारंटी नहीं कि अगले दिन उसी व्यक्ति की काउंटर में ड्यूटी हो। मेरे जैसे हर व्यक्ति से वह दो-दो रुपये बचाकर अपनी चाय-पानी का खर्च जरूर निकाल लेता है। भिखारी भी जिस चिल्लर को नहीं लेता, वे उसे वापस नहीं करते और यही चाहते हैं कि पैसे जमा कराने वाला चिल्लर वापस न मांगे। <br />नगर निगम से हाउस टैक्स का बिल आया। बिल की आदायगी के लिए मुझे 88 रुपये खुले चाहिए थे। मैं खुले पैसे के लिए सुबह-सुबह मोहल्ले के लाला के पास गया। लाला की लंबाई कुछ कम है, ऐसे में सभी मोहल्ले वालों ने उसका नाम गट्टू लाला रखा है। मैं लाला के पास गया और संकोच करते हुए मैने पांच सौ रुपये के खुले मांगे। मैने कहा कि ऐसे नोट देना, जिससे मैं नगर निगम में खुले 88 रुपये जमा करा सकूं। लाला ने सौ के चार नोट दिए और दो पचास के। साथ ही बोला कि नगर निगम में आपको खुले पैसों की परेशानी नहीं होगी। वहां कैश काउंटर में बैठने वाला व्यक्ति काफी ईमानदार है। वह व्यक्ति का एक रुपये तक नहीं रखता। उसके पास हमेशा खुले पैसे होते हैं। मैने कहा यदि नहीं हुए तो उसे भी परेशानी होगी और मुझे भी। मैने घर में बच्चों की गुल्लक टटोली और उससे 38 रुपये का जुगाड़ किया। अब मेरे पास बिल के खुले पैसे थे, ऐसे में मुझे कोई टेंशन नहीं थी। <br />दस बजे निर्धारित समय पर मैं निगम पहुंच गया, लेकिन वहां कर्मचारी कुर्सी पर नहीं दिखे। सभी सुबह की ठंड को दूर करने के लिए धूप सेंकने में मशगूल थे। करीब पौन घंटे बाद कर्मचारी कुर्सी पर बैठे। मुझसे पहले दो-तीन लोगों का नंबर था। कैश काउंटर में बैठा व्यक्ति मुझे वैसा ही मिला, जैसा कि लाला ने बताया था। सुबह-सुबह उसके पास भी ज्यादा खुले नोट नहीं थे। लोग बड़े नोट लेकर आए थे। वह अपनी पैंट की जेब, पर्स, तिजोरी सभी को टटोलकर लोगों को चिल्लर लौटा रहा था। मेरा जब नंबर आया तो उसने कहा कि खुले पैसे हों तो अच्छा रहेगा। मैने उसे सौ के पांच नौट के साथ ही खुले 88 रुपये दिए। वह खुश हो गया। उसने कहा कि अब कुछ और लोगों को भी वह चिल्लर लौटा सकेगा। <br />भानु बंगवाल </div>
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