Sunday 13 January 2013

Sacrifice ....

बलिदान....
करुणा आज काफी खुश थी। उसे ऐसा लगा कि जैसे उसकी जिंदगी का सबसे खुशी का दिन आज ही है। कारण यह था कि उसकी छोटी बहन शानू के ससुराल से खुशी के संदेश का फोन आया। उसकी सास ने करुणा को बताया कि शानू ने बेटे को जन्म दिया। जच्चा व बच्चा दोनों ही ठीक हैं। जिस शानू का कुछ साल पहले भविष्य गर्त में नजर आ  रहा था, उसके मां बनने पर करुणा को ऐसा लगा कि सारी दुनियां की खुशी उसके आंचल में डाल दी गई। यह खुशी करुणा के बलिदान से ही शानू को मिली, लेकिन वह इसे बलिदान नहीं मानती। उसकी नजर में यह बड़ी बहन का फर्ज है। ऐसा फर्ज माता-पिता औलाद के लिए निभाते हैं, लेकिन करुणा तो शानू की बड़ी बहन तो थी ही, साथ ही उसे मां का प्यार भी देती आई।
देहरादून में बचपन में ही करुणा की मां की मौत हो गई थी। तब उसकी बहन शानू करीब तीन साल की थी और करुणा की उम्र करीब दस साल की थी। मां की मौत के बाद करुणा ने ही छोटी बहन का ख्याल रखा। पिता सरकारी आफिस में अफसर थे। करुणा की दादी व अन्य परिजनों ने उसके पिता से दूसरी शादी को कहा। सबका कहना था कि पत्नी आएगी तो बच्चों को कम से कम खाना तो बना कर खिलाएगी। छोटी उम्र से ही दोनों बच्चे काम करेंगे तो पढ़ाई कब करेंगे। पिता भवानी दत्त शुरुआत में शादी को टालते रहे, लेकिन जब परिजन ज्यादा जोर देने लगे तो वह राजी हो गए। परिवार के ही कुछ सलाहकार भवानी की शादी के खिलाफ थे। उनका कहना था कि सौतेली मां ने यदि बच्चों का ख्याल नहीं रखा तो तब दोनों बेटियों का क्या होगा। सोतेली मां की जब अपनी औलाद होगी तो तय है कि वह करुणा और शानू को मां का प्यार नहीं देगी। हो सकता है कि वह दोनों लड़कियों पर अत्याचार भी करने लगे।
भवानी दत्त ने भी इसी दृष्टिकोण से सोचा और फिर उसका उपाय भी निकाल लिया। शादी से पहले भवानी ने परिवार नियोजन के लिए अपना आपरेशन कराया और फिर एक सीदी साधी गरीब घर की अपनी हम उम्र लड़की से शादी कर ली। गरीबी के कारण उस लड़की का विवाह नहीं हो पाया था।
शुरूआत में नई मां से दोनों लड़कियां डरी। फिर धीरे-धीरे दोनों ने उसकी आदत डाल ली। दोनों बेटियों के प्रति मां का व्यवहार भी अच्छा था। बेचारी नई मां भी बलिदानी थी। विवाह के बाद ही उसे पता चला कि वह कभी किसी बच्चे को जन्म नहीं दे पाएगी। क्योंकि उसके पति ने पहले ही आपरेशन करा लिया था। यह टीस उसे कई साल तक सालती रही, फिर उसने दोनों बेटियों को ही मां का प्यार दिया और उन्हें अपनी सगी बेटियों की तरह माना। बेटियां जवान हुई और करुणा की शहर से बहुत दूर बंगलौर में नौकरी लग गई। वह घर से बाहर रहने लगी। शानू तब बीए में पढ़ रही थी। इसी दौरान वह मोहल्ले के एक युवक के संपर्क में आई। पिता और सौतेली माता को जब इसका पता लगा तो उन्होंने उसे घर व परिवार धर्म का पाठ पढ़ाया। शानू को समझाया कि युवक तेरे काबिल नहीं है। वह दस से आगे तक नहीं पढ़ पाया। तेरा उस के साथ सुखद भविष्य नहीं है। पढ़ाई पूरी कर और बड़ी बहन की तरह पांव में खड़े हो। युवक भी नशेड़ी था। उसके घर वाले भी शानू से शादी के खिलाफ थे। उसके परिजनों ने भी नशा छुड़ाने के लिए बेटे को दिल्ली में किसी अस्पताल में भर्ती कराया। इधर शानू भी मानसिक रूप से परेशान रहने लगी। उसे पागलपन सवार हो जाता। वह सामान उठाकर पटकने लगती। कई बार उसे कपड़े पहनने तक ही सुधबुध तक नहीं रहती। ऐसे में उसका इलाज मनो चिकित्सक से शुरू कराया गया। साथ ही उसे घर में कमरे में बंद करके रखा जाने लगा।
उन दिनों शानू को देख कोई यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि वह ठीक हो जाएगी। मोहल्ले का युवक तो ठीक हो गया और उसके परिजनों ने उसके लिए लड़की तलाश कर उसका विवाह भी करा दिया। उसके लिए कुछ वाहन खरीदे गए और वह ट्रैवल्स का काम करने लगा।
शानू की बिगड़ती हालत देख करुणा एक दिन उसे अपने साथ बंगलौर ले गई। कुछ दिन उसने अपनी नजर में उसे रखा। उसे अच्छा-बुरा समझाया। समय के साथ शानू में भी परिवर्तन आया और वह नार्मल होने लगी। उसने अधूरी छूटी बीए की पढ़ाई भी पूरी की। एक दिन माता-पिता ने शानू के लिए लखनऊ में अपनी जाति का ही लड़का तलाश कर उसका विवाह करा दिया। सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। विवाह के करीब डेढ़ साल बाद शानू ने लड़की को जन्म दिया। बस यहीं से उसके बुरे दिन शुरू हो गए। ससुराल पक्ष में पति, सास से लेकर हर कोई शानू के साथ ऐसा वर्ताव करने लगा कि जैसे बेटी को जन्म देकर उसने कोई अपराध किया है। बात-बात पर ताने और बुरे वर्ताव के चलते शानू फिर से अपना मानसिक संतुलन खो बैठी। इस पर ससुराल वालों ने उसके माता-पिता पर आरोप मढ़ा कि उन्होंने पागल बेटी उनके लड़के के पल्ले बांध दी है। दोनों पक्षों का विवाद अदालत तक पहुंचा और तलाक के बाद ही मामला निपटा। ससुराल वाले शानू की बेटी को अपने साथ ले गए। वह अपने पिता के घर पर रहने लगी। पागलपन के दौरे के दौरान कभी शानू मांग में सिंदूर सजाकर सजधज कर घर में बैठ जाती तो कभी कई दिनों तक सिर पर कंघी तक नहीं करती।
बड़ी बहन को फिर छोटी की चिंता सताने लगी। वह उसे फिर अपने साथ ले गई। हवा-पानी बदला और करुणा की मेहनत भी रंग लाई। शानू फिर से ठीक होने लगी। करुणा को परिजन शादी के लिए कहते, लेकिन पैंतीस से ज्यादा उम्र निकल गई थी। साथ ही छोटी की दशा देखकर उसने शादी न करने का संकल्प ले रखा था। वह शानू को अपने पांव में खड़ा होते देखना चाहती थी। आफिस जाने के दौरान करुणा के संपर्क में राकेश नाम का एक युवक आया। हर रोज की मुलाकात जान पहचान में बदल गई। फिर धीरे-धीरे दोनों अपने घर परिवार की बातें एक दूसरे को बताने लगे। इन बातों में करुणा की बातें छोटी बहन शानू पर ही केंद्रित रहती। उधर, युवक ने बताया कि उसका विवाह हो चुका था। पत्नी की मौत हो गई। एक छोटा बेटा है। एक दिन युवक ने करुणा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। इसे करुणा ने ठुकरा दिया। उसने बताया कि वह शादी न करने का संकल्प ले चुकी है। उसने अपनी छोटी बहन शानू से विवाह करने का उसे प्रस्ताव दिया, जिसे राकेश ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। शानू की कहानी करुणा राकेश पर पहले ही बता चुकी थी। उसे सुनकर राकेश का कहना था कि डिप्रेशन कोई बीमारी नहीं है। यह तो हमारे अपने ही कारण पैदा होती है। यदि माहोल सही मिले तो व्यक्ति आसानी से मानसिक परेशानियों का मुकाबला कर सकता है। शानू का राकेश से विवाह हुआ। नए ससुराल के लोगों ने उसका खूब ख्याल रखा। फिर शानू ने बेटे को जन्म दिया और वह अपने पति, सास-ससुर, सौतेले बेटे और नवजात शिशु के साथ बेहद खुश है। उधर, बड़ी बहन करुणा को जैसे ही शानू के दोबारा मां बनने की सूचना मिली, खुशी से उसकी आंखे छलक उठी। आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। आखिरकार छोटी बहन के लिए उसका बलिदान काम आया।
एक परिवार के सदस्यों का किसी न किसी रूप में दिया गया बलिदान। सचमुच किसका बलिदान बड़ा है, यह कहना मुश्किल है। एक पिता का बेटियों की अच्छी परवरिश के लिए किया गया बलिदान,  जिसने दूसरी शादी तो की, लेकिन पुत्र या अन्य संतान का मोह त्याग दिया। उस मां का बलिदान, जो दुल्हन तो बनी, लेकिन जीवन भर अपनी कोख से मां बनने का सपना उसका पूरा नहीं हो सका। करुणा का बलिदान, जिसने अपनी छोटी बहन की खातिर अपनी शादी का प्रस्ताव ठुकरा दिया और प्रस्ताव रखने वाले युवक से अपनी बहन का रिश्ता करा दिया। राकेश का बलिदान, जो चाहता तो करुणा को था, लेकिन उसकी बहन को उसने अपना लिया।
भानु बंगवाल

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