Saturday 23 March 2013

Son's Game, father's concern ...

बेटे का खेल, पिता की चिंता ... 
हर माता-पिता का सपना होता है कि उनकी औलाद उनके मनमुताबिक सही राह पर चले। सही व गलत को समझे, तरक्की करे और एक ऐसा व्यक्तित्व बने कि दूसरों के लिए उदाहरण बन जाए। इसके बावजूद यह दुनियां काफी रंगबिरंगी है। इसमें खुशियों के प्रतीक अबीर, गुलाल के साथ ही दुख देने वाले काले रंग भी हैं। कोई नहीं चाहता कि उसकी जिंदगी काली हो, लेकिन यह रंग भी जरूर आता है। कई बार तो व्यक्ति के जीवन में काला रंग चढ़ता ही जाता है। इससे छुटकारा पाने के लिए वह तरह-तरह का प्रयास करता है। यदि मामला औलाद का हो तो व्यक्ति यही चाहता है कि उसकी औलाद होनहार हो। लड़का व लड़की में भले ही वह भेद न करने के कितने ही बखान करता है, लेकिन उसके व्यवहार में फर्क जरूर रहता है। लड़का है तो कोई डर नहीं यह सोचकर उसे कुछ ज्यादा ही आजादी दी जाती है। वहीं लड़की को बताया जाता है कि घर की चाहरदीवारी से बाहर कदम रखने के लिए उसे घर में किसी बड़े से अनुमति लेनी पड़ेगी। कुछ ऐसी ही छूट, सख्ती या लापरवाही ही व्यक्ति के परिवार को बिगाड़ने का काम करती है। जब समय निकल जाता है, तो बाद में पछताने के सिवा कुछ नहीं रहता।
बालाजी के दो बच्चे हैं। इनमें बड़ा बेटा है और उससे छोटी बेटी। करीब दो साल पहले बेटे ने दसवीं बोर्ड की परीक्षा दी थी। बेटा होनहार था। ए ग्रेड से परीक्षा पास की। आसानी से अच्छे अंक मिलने पर बालाजी का बेटा काफी लापरवाह हो गया। शाम को घर से खेलने के बहाने निकलता, तो उससे ज्यादा सवाल-जवाब नहीं होते। वहीं, बेटी का घर से बाहर निकलना भी मना था। माता या बड़े भाई के साथ ही वह स्कूल जा पाती। शाम को बेटा खेलने के नाम पर घर से गायब रहने लगा। वहीं बेटी घर में ही बैठकर माता के साथ काम में हाथ बंटाती या फिर पढ़ने बैठ जाती। लड़का व लड़की में इस फर्क के सोच की बुनियाद जो घर परिवार में पड़ी उसका असर उनकी जिदंगी में भी होने लगा। ग्याहरवीं में बालाजी का बेटा गया, लेकिन स्कूल से बंक मारने लगा। एक ही स्कूल में दोनों भाई-बहन के पढ़ने से प्रिंसिपल ने लड़की से उसके भाई की शिकायत कर माता-पिता को बताने को कहा। इस पर बालाजी जब स्कूल पहुंचे तो पता चला कि बेटा तो अक्सर गायब रहता है। स्कूल की फीस भी उसने जमा नहीं कराई। ऐसे में ग्याहरवीं में उसका स्कूल से नाम भी काटा जा चुका है। उसका पास होना भी मुश्किल है। बालाजी को बेटे की करतूत का पता चला तो उन्होंने उसकी घर में पिटाई भी की। स्कूल की फीस जमा कराई और उसे नियमित स्कूल जाने की चेतावनी भी दी। आठ- दस दिन बेटा नियमित स्कूल भी गया, लेकिन फिर उसी ढर्रे पर लौट आया।
बालाजी ने पता लगाने की कोशिश की कि उसका बेटा स्कूल से गायब होने के बाद कहां जाता है। पता चला कि वह तो गली-मोहल्लों में खुले स्नूकर खेल के नाम पर चल रहे जुआघर में जाकर अपना जीवन बर्बाद कर रहा है। स्नूकर व बिलियर्ड्स के नाम पर इन दुकानों में हारजीत का दांव लगाया जा रहा है। कई बच्चे इस खेल के बहाने अपना समय ऐसे जुआघर में बिताने लगे हैं।
शारीरिक खेल फुटबाल, बेडमिंटन, कब्बड्डी आदि से मन व शरीर स्वस्थ्य होता है, लेकिन यह कैसा खेल स्नूकर है, जिसमें बालाजी का बेटा सपनों की दुनियां में जीने की कला सीख रहा है। एक ही दांव में लाखों कमाने के इरादे से वह पढ़ाई में भी मन नहीं लगाता। नतीजा वही निकला जो तय था। बालाजी का बेटा परीक्षा में फेल हो गया। दोबारा उसी क्लास मे बैठने को वह राजी नहीं हुआ। उसे अपने पिता का डर तक नहीं रहा। काफी समझाने के बाद वह स्कूल जाने को तैयार हुआ, लेकिन स्कूल से बंक मारने का क्रम भी कम नहीं हुआ। बालाजी ने इस समस्या को अपने कुछ मित्रों को बताया। कुछ ने मुफ्त में कई सलाह दे डाली। पर सही सलाह कोई नहीं दे सका। एक मित्र ने कहा कि बेटे को संभालने के लिए पहले आपको सुधरना होगा। आप अक्सर शराब के नशे में रहते हो। ऐसे में बेटे की नजर में आपकी कोई कीमत नहीं है। नशेड़ी जानकर वह आपकी इज्जत भी नहीं करेगा। एक मित्र ने सख्ती से पेश आने की सलाह दी। इसी तरह अलग-अलग सलाह से लैस बालाजी को सख्ती की सलाह ही पंसद आई। खुद भी शराब वह छोड़ना नहीं चाहते थे। जबकि सच्चाई यह थी कि एक नशेड़ी भले ही परिवार के लिए लाख सुविधाएं जुटा ले, लेकिन उसकी नशे की लत का असर परिवार के हर सदस्यों पर ही पड़ता है। बच्चों की समुचित निगरानी न होने का असर बालाजी के बेटे पर भी पड़ गया था। एक मित्र ने बालाजी से पूछा कि बेटा स्नूकर खेलने जाता है, उसे इसके लिए पैसे कौन देता है। इस पर बालाजी ने कहा कि दोस्त देते होंगे। मित्र ने कहा कि घर में जो पैसे रखे होते हैं उसका हिसाब किताब रखा करो। कहीं ऐसा तो नहीं कि...। इस पर बालाजी को मित्र पर गुस्सा आ गया, पर वह बोले कुछ नहीं। कुछ दिनों के बाद बालाजी मित्र के पास पहुंचे और कहा कि आप ही सही थे। बेटे ने कहीं का नहीं छोड़ा। वह पहले स्कूल फीस ही उड़ाता रहा। बाद में घर से पैसे पर ही हाथ साफ करने लगा। उन्होंने मित्र को बताया कि करीब एक माह में ही बीस से पच्चीस हजार रुपये कम पाए गए। वह पैसों का हिसाब तो रखते नहीं थे, हो सकता है कि बेटा ज्यादा रकम स्नूकर में उड़ा गया।
कुछएक बार बालाजी ने स्नूकर केंद्र में पहुंचकर बेटे को वहां खेलते हुए पकड़ा। वहीं से पीटते हुए घर लाए। दुकान के संचालक को चेतावनी दी कि बच्चों को मत खेलने दिया कर। संचालक से कहा कि छोटे बच्चों को भगा दिया करे। इसके बावजूद संचालक नहीं माना। संचालक भी तो भोले भाले बच्चों के बहाने लाखों रुपये कमाने के सपने देख रहा था। वह बालाजी की बातों में आकर अपना नुकसान क्यों कराता। बालाजी की बेटी जहां माता से पास ही रहती, वहीं बेटा तो हाथ से निकल गया। बालाजी दोपहर बाद ड्यूटी को घर से जैसे ही निकलते। उनके पीछे बेटा भी जुआघर को चल देता। अब बालाजी को ऐसे जुआघर चलाने वालों पर ही क्रोध आ रहा था। उन्हें यही लगा कि पुलिस भी इस धंधे में लिप्त लोगों से मिली हुई है। तभी तो ऐसे स्थानों पर कोई कार्रवाई नहीं करती। फिर भी उन्होंने खेल के नाम पर चलने वाले ऐसे जुआघरों को बंद कराने की मुहीम छेड़ दी। पुलिस के बड़े अधिकारी से वह मिले और समस्या समझाई। अधिकारी भी ईमानदार थे। ऐसे में नतीजा भी सार्थक ही आया। उनके घर के आसपास के सभी ऐसे जुआघरों छापा पड़ा और पुलिस ने सील कर दिए। फिलहाल बालाजी इन दिनों खुश नजर आ रहे हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि जब तक बांस नहीं रहेगा, तब तक बांसुरी भी नहीं बजेगी। साथ ही वह बेटे को नैतिक शिक्षा का पाठ भी पढ़ा रहे हैं। वह जानते हैं कि किसी लत को छुड़ाने के लिए लती को उससे दूर रखना ही बेहतर उपाय है। पुलिस को मोटा चढ़ावा देने के बाद ये जुआघर जल्द शुरू हो जाएंगे। ऐसे में बेटे को ही इससे दूर रखने के लिए मानसिक रूप से तैयार करना होगा।
भानु बंगवाल

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