Friday 19 July 2013

I went Viewing corruption .....

भ्रष्टाचार देखन मैं चला.....
समाजसेवी अन्ना हजारे का आंदोलन और बड़ी संख्या में युवा वर्ग का उससे जुड़ना। शहर व गांव में युवकों ने पहनी नेहरू टोपी। लगा कि अब भ्रष्टाचार रूपी दानव जड़ से उखड़ जाएगा। इसका कारण यह भी था कि जहां मातृ शक्ति व छात्र शक्ति मिलकर आदोलन चलाए तो वह आंदोलन मुकाम तक पहुंचता है। वो भी ऐसा आंदोलन जो राजनीति से हटकर हो। फिर क्या था। धीरे-धीरे आंदोलन तेज होता, लेकिन इसमें भी राजनीतिक स्वार्थ के लोग घुस गए और आंदोलन कहां गया पता तक नहीं चला। फिर भी एक बात तो ये रही कि लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने लगे। सभी चाहने लगे कि यह जड़ से समाप्त हो जाए। बावजूद इसके हकीकत क्या है यह हम सभी जानते हैं।
सुबह मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न मौके पर जाकर ऐसे स्थानों का निरीक्षण किया जाए, जो भ्रष्टाचार के गढ़ माने जाते हैं। ये सोचकर मैं चल दिया अपने घर के निकट देहरादून के आरटीओ कार्यालय। छोटा कार्यालय छोटे स्तर का भ्रष्टाचार यहां होता रहा है। करीब 15 साल पहले यहां भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए पत्रकारों ने भी काफी हाथ आजमाए। दूसरे देशों के राष्ट्रपति की फोटो व जाली दस्तावेजों को दलालों को थामाया। दलाल को सिर्फ पैसों से मतलब था। सामने वाला कौन है इससे भी कोई लेना देना नहीं। फीस ली और बनवा दिया ड्राइविंग लाइसेंस। ऐसी घटनाएं अमूमन हर शहर मे देखने को मिली। समय-समय पर डंडा भी चला। फिर स्थिति वही ढाक के तीन पात निकली। आरटीओ कार्यालय पहुंचने पर देखा कि वहां हर जगह काउंटर में भीड़ है। साथ ही चेतावनी के पट भी लगे थे कि दलाल से सावधान। अपना काम सीधे काउंटर से कराएं। ये देखकर मुझे काफी सुकून पहुंचा कि अब विभागीय अफसर भी कितने सचेत हो गए हैं। वहां एक स्थान पर देखा कि ड्राइविंग लाइसेंस के लिए लिखित परीक्षा हो रही है। कई ऐसे थे जिनका यह कहना था कि लगातार पांच बार परीक्षा में बैठ गए और हर बार उन्हें फेल कर दिया जाता है। एक महिला ने बताया कि वह निजी स्कूल में अध्यापिका है। बार-बार छुट्टी लेने पर उसका वेतन भी कट जाता है। आरटीओ कार्यालय के चक्कर लगाने के बाद भी उसका लाइसेंस नहीं बन रहा है। वह सीधे काउंटर पर ही गई। इससे अच्छा होता दलाल को ही पकड़ लेती।
सेवाराम जी ने भी अपनी पत्नी का लाइसेंस बनवाना था। पत्नी टेस्ट के लिए बैठ गई। तभी सेवाराम जी को एक दलाल मिला और उसने कहा कि टेस्ट दिलवाओगे तो यहां फेल कर देते हैं। फिर टेस्ट देते रहना बार-बार। ऐसे में सेवाराम जी ने दवाल को पांच सौ रुपये थमाए और शाम को उन्हें लाइसेंस भी मिल गया। न कोई टेस्ट ही दिया और न ही कोई जांच ही हुई। सिर्फ कागजी घोडे फाइल में दौड़े और सेवाराम जी भी खुश थे कि बार-बार के चक्कर से बच गए।
एक सज्जन गोविंद पोखरिया भ्रष्टाचार के खिलाफ थे। उन्होंने बताया कि एक साल पहले घर से ही उनकी मोटरसाइकिल चोरी हो गई। उन्होंने सोचा कि बीमा करा रखा है। इसकी राशि मिलेगी और दूसरा वाहन खरीद लिया जाएगा। नियमानुसार वह चोरी की रिपोर्ट कराने थाने पहुंचे। वहां भी तीन दिन चक्कर कटाने के बाद रिपोर्ट लिखी गई। फिर फाइनल रिपोर्ट देने का तीन माह का समय बीत गया, लेकिन पुलिस की मुट्ठी गर्म नहीं की तो उन्हें भी चक्कर कटवाए। करीब चार माह में फाइनल रिपोर्ट लगी। इसके बाद भी मुसीबत कम नहीं हुई। बीमा कंपनी ने भी उन्हे दौड़ा रखा है। फिर कोर्ट की रिपोर्ट लगने में भी तीन माह के स्थान पर चार माह लगे। कहीं भी दलाल को नहीं पकड़ा और खुद ही ऐड़ियां घिसते रहे। अब गाड़ी के कागजात बीमा कंपनी के नाम सिरेंडर करने थे। आरटीओ कार्यालय ने उन्हें एक दिन के इस काम के लिए दस दिन तक चक्कर कटवा दिए। अभी भी यह उम्मीद नहीं कि गाड़ी की बीमा रकम कब मिलेगी। उनका कहना था कि कई बार तो चक्कर काटने से थककर उन्होंने सोचा कि किसी दलाल से ही काम करा लेता, लेकिन आत्मा ने इसकी गवाही नहीं दी। अब वह अपनी आत्मा को ही कोसते फिर रहे हैं।
मेरे एक मित्र राकेश वर्मा की टेलीविजन रिपेयरिंग की दुकान थी। इसमें ही उन्होंने पीसीओ भी खोला हुआ था। बेटे ने पढ़लिखकर शादी की। फिर विचार आया कि काम बदलकर रेडीमेड कपड़ों का शो रूम खोला जाए। इस पर राकेश ने दुकान का भूगोल बदलना शुरू किया। अब सामान लाने के लिए पहले सेल टैक्स ऑफिस में रजिस्ट्रेशन कराया। वह भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। सेल टैक्स ऑफिस में वह फार्म 16 लेने गए। उन्होंने पांच फार्म की मांग की। इस पर उन्हें कहा गया कि फार्म पांच नहीं दो मिलेंगे। इस पर राकेश भी अड़ गए। वह पांच की ही मांग कर रहे थे। एक कर्मचारी ने उन्हें बताया कि बड़े साहब से मिल लो। वही पांच फार्म दे सकते हैं। राकेश जी अधिकारी के पास गए। करीब आधे घंटे तक अधिकारी ने उन्हें बैठाया, फिर बात की। अधिकारी को उन्होंने बताया कि वह दूर-दराज से सामान लाएंगे। ऐसे में बार-बार जाने से किराया ही इतना लगेगा कि नुकसान हो जाएगा। अधिकारी ने उनका तर्क सुनकर पांच फार्म देने के आदेश कर दिए। कर्मचारी ने फार्म दिया और अपना हाथ भी फैला दिया। इस पर राकेश जी ने पूछा कि वह किस बात के पैसे मांग रहा है। कर्मचारी ने बताया कि यह हमारा बनता है। राकेश जी भी अड़ गए। वह बोले जो बनता है, उसकी रसीद दे दो, मैं पैसे दे दूंगा। काफी बहस हुई। इस बीच मौके पर मौजूद एक दो व्यापारी राकेश को समझाने लगे कि कोई हर्ज नहीं, सौ-दो सौ रुपये थमा दो। पर वह नहीं माने उन्होंने कहा कि मैं मीडिया वालों को बुला रहा हूं। उनके सामने ही पैसे दूंगा। बबाल देखते कर्मचारी उन्हें हाथ जोड़कर जाने को कहने लगे। ये तो थे राकेश जी, जो लड़कर अपना काम कराकर वापस आ गए। अब शायद वह इस विभाग की हिट लिस्ट में भी आ गए होंगे, लेकिन वह कहते हैं कि जब उन्होंने कोई गलत नहीं किया तो क्यों किसी से डरूं। भ्रष्टाचार के खिलाफ वह हमेशा ही रहेंगे। सचमुच  राकेश जी व गोविंद जी को मेरा सलाम। जो किसी ने किसी रूप में शार्टकर्ट का रास्ता न अपनाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड रहे हैं।
भानु बंगवाल

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