Tuesday 24 September 2013

मानवता बिसराई....

इंजीनियर साहब जब भी दो पैग चढ़ाते थे, तो वे इसी कविता को दोहराने लगते थे। जोर की आवाज में वह बार में ही गीत के लहजे मे कविता सुनाने लगते-मानवता बिसराई। कविता का भाव यह था कि समाज का पतन हो रहा है। इंसान दूसरे की कीमत नहीं समझता। किसी के मन में अब मानवता नहीं बची। सब स्वार्थ पूर्ति के लिए एक दूसरे के करीब आते हैं। जब कभी भी वे मूढ़ में होते तो उनके परिचित कविता सुनाने को कहते और वे सुनाने लगते। वैसे इंजीनियर साहब कवि नहीं थे। कविता भी उन्होंने तब से गुनगुनानी शुरू की, जब से वे ज्यादा दुखी रहने लगे थे। एक सरकारी विभाग में अधिशासी अभियंता थे इंजीनियर साहब। पैसों की कमी नहीं थी। ऊपरी आमदानी भी खूब थी। जितना कमाते थे, उसमें से दारू में भी खूब बहाने लगे थे। उनके साथ यारों की चौकड़ी होती, जो होटल या बार में साथ रहती। जब वेटर बिल थमाता तो संगी साथी जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने का उपक्रम करते, इससे पहले ही इंजीनियर साहब बिल अदा कर चुकते थे।
इंजीनियर साहब का स्टाइल भी कुछ अलग ही था। उनकी कमर में बेल्ट के साथ लाइसेंसी रिवालवर लटकी रहती। सिर के बाल जवानी के अमिताभ बच्चन की स्टाइल में थे, जो सफेद हो चुके थे, लेकिन वे उस पर काला रंग चढ़ा लेते थे। पतले व लंबे इंजीनियर साहब हल्के-हल्के किसी बात को कहते और कोई यदि पहली बार उनसे बात करे तो यही धारणा बनती थी कि वे मन के काफी साफ हैं। साहब के अधिनस्थ अन्य सहायक इंजीनियर व जूनियर इंजीनियर दिन भर आफिस में उनकी लीपापोती तो करते थे, साथ ही शाम को उन्हें बार में भी घेरे रहते। इंजीनियर साहब बीमार पड़े तो चेकअप कराने को सरकारी अस्पताल में गए। वहां डॉक्टर ने उन्हें देखा और कुछ दवाएं लिख दी। डॉक्टर भी दारूबाज था। वह ड्यूटी में ही दो पैग चढ़ाकर मरीज को देखता। दारू पीने वालों की दोस्ती भी जल्द हो जाती है। ऐसे में इंजीनियर साहब से उनकी दोस्ती हो गई। बार में बैठने वाली चौकड़ी में डॉक्टर साहब भी साथ ही नजर आते। डॉक्टर साहब भी कम नहीं थे। एक दिन रास्ते में उनकी कार से एक व्यक्ति टकरा गया। उक्त व्यक्ति से उनका विवाद हुआ। डॉक्टर साहब फटाफट अपनी ड्यूटी पर पहुंच गए। कार से टकराने वाला व्यक्ति भी पुलिस रिपोर्ट कराने से पहले मेडिकल के लिए सरकारी अस्पताल पहुंचा। वहां पहुंचते ही उसका माथा ठनका, क्योंकि जिस डॉक्टर ने मेडिकल रिपोर्ट बनानी थी, उसी ने उसे टक्कर मारी थी। ऐसे में वह व्यक्ति हताश होकर बगैर मेडिकल कराए ही चला गया।
इंजीनियर साहब का लीवर कमजोर पड़ने लगा, लेकिन डॉक्टर ने दवा तो दी साथ ही दारू छोड़ने की सलाह नहीं दी। उल्टी सलाह यह दी कि छोड़ो मत लिमिट में पिया करो। साथ ही पीने के दौरान खुद ही साथ बैठने लगे। इंनीनियर पहले  अपने लीवर के उपचार की दवा लेते और कुछ देर बाद दारू पीने बैठ जाते। जब इंनीनियर की आत्मा की आवाज बाहर निकलती तो तभी उनके मुंह से बोल निकलते-मानवता बिसराई।
एक बार अधिनस्थ कर्मचारियों ने घोटाले कर दिए और इंजीनियर साहब फंस गए। नौकरी से निलंबन हो गया। जब समाचार पत्रों के संवाददाताओं ने संपर्क कर उनसे जानना चाहा तो उन्होंने खुद ही बता दिया कि किस योजना में क्या घोटाला होने के आरोप उन पर लगे हैं। ऐसी ही सादगी भरा जीवन था उनका। निलंबन के बाद वह ज्यादा समय बार में ही बिताने लगे। उसी दौरान उनके मुंह से कविता भी फूटने लगी। वह दोस्तों को भले ही अपने खर्च से दारू पिलाते, लेकिन यह उन्हें बखूबी पता था कि उनके यार सिर्फ दारू के हैं।निलंबन के दौरान भी साथियों ने इंजीनियर साहब के ही पैसों से दारू पीनी नहीं छोड़ी। कोई उन्हें केस लड़ने के लिए अच्छा वकील तलाशने का सुझाव देता, तो कोई अधिकारियों पर दबाव डालने के लिए नेताओं से बात कराने का दावा करता। ऐसी सलाह बार दारू पीते ही दी जाती। इंजीनियर साहब को निलंबन में आधे वेतन से ही गुजारा करना पड़ रहा था। साथ ही दारू का खर्च भी कम नहीं हो रहा था। ऊपरी कमाई भी बंद हो गई थी। माली हालत बिगड़ रही थी, लेकिन मानवता बिसराई हुई थी।
अचानक इंजीनियर साहब ने बार में जाना बंद कर दिया। डॉक्टर मित्र घर गए तो पता चला कि उन्हें पीलिया हो गया। परीक्षण किया तो पता चला कि लीवर सिकुड़ गया है। डॉक्टर ने फुसफुसाते हुए अन्य मित्रों को बताया कि अब इंजीनियर साहब कुछ ही दिन के मेहमान हैं। उनके घरवालों को सलाह दी गई कि उन्हें कहीं बाहर दिखाया जाए। कुछ माह दिल्ली में उपचार चला और एक दिन वह चल बसे। मानवता तो सच में इंजीनियर साहब के संगी साथियों ने बिसरा दी थी। बीमार होने पर भी उन्हें दारू पीने नहीं रोकते थे। वे तो उनके नशे में होने का लाभ उठाते। वैसे तो देखा जाए आजकल हर कहीं मानवता को इंसान बिसरा रहा है। संत कहलाने वालों के कुकर्म सामने आ रहे हैं। शिक्षकों पर छात्रा से छेड़छाड़ के आरोप लग रहे हैं। भाई-भाई का दुश्मन हो रहा है। गरीब की मदद के पैसे को नेताजी उड़ा रहे हैं। हर तरफ बंदरबांट हो रही है। समाज में कौन अपना है या पराया, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो गया है। मौका मिलने पर कोई भी टांग खिंचने के पीछे नहीं रहता। ऐसे में आम आदमी तो यही कहेगा ना कि-मानवता बिसराई.......
भानु बंगवाल

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