Sunday 6 October 2013

इक मुट्ठी भर जौ को मिट्टी...

नवरात्र शुरू हुए और पत्नी की सुबह पूजा पाठ से हुई। वैसे तो मेरी पत्नी हर रोज ही पूजा करती थी, लेकिन किसी विशेष दिनों में उसकी पूजा कुछ लंबी ही रहती है। नवरात्र में ही ऐसा ही होता है। मैं सोया हुआ था और घंटी की आवाज से नींद खुली। जब तक मैं जागा देखा कि वह पूजा-अर्चना कर घर से उस स्कूल के लिए निकल गई, जहां वह पढ़ाती है। यह सच है कि यदि दोनों काम न करें तो घर का खर्च नहीं चल सकता। मैं उठा तो देखा कि घर में बनाए गए पूजास्थल में दीप जल रहा है। धूपबत्ती भी बुझी नहीं, उसकी सुगंध से पूरा घर महक रहा है। वहीं मुझे ख्याल आया कि पहले नवरात्र में पत्नी ने जौ नहीं बोई। बोती भी कहां से। पहले तो माताजी ही इस काम का मोर्चा संभाले रहती थी। अब माताजी की इतनी उम्र हो गई कि वह बार-बार हर बात को भूलने लगती है। कभी-कभी किसी बात को दोहराने लगती है। वह तो भोजन करना भी भूल जाती है। बस उसे याद रहता है तो शायद सुबह को समय से नहाना व धूप जलाना। हाथ में इतनी ताकत नहीं रही कि किसी बर्तन में या फिर पत्तों का बड़ा सा दोना बनाकर उसमें मिट्टी भर ले और उसमें जौ बोई जाए। वैसे मैं पूजा पाठ नहीं करता, लेकिन यदि कोई घर में करता है तो उसे मना भी नहीं करता। मुझे नवरात्र  में जौ बोना इसलिए अच्छा लगता है कि उसमें जल्द ही अंकुर फूट जाते हैं। नौ दिन के भीतर छह ईंच से लेकर आठ दस ईंच तक हरियाली उग जाती है। घर के भीतर हरियाली देखना मुझे सुखद लगता है। ऐसे में मैने ही पत्नी की पूजा और विधि विधान से कराने की ठानी और जौ बोने की तैयारी में जुट गया।
सबसे पहले मैं इस उधेड़बुन में ही लगा रहा कि किस बर्तन में जौ बोई जाए। स्टील के डोंगे में बोता था, लेकिन पानी कि निकासी न होने से जौ गलने लगती थी। माताजी की तरह पत्तों का दोना बनाना मुझे आता नहीं। आफिस भी समय से पहुंचना था। इतना समय नहीं था कि किसी दुकान में जाकर जौ बोने के लिए मिट्टी का चौड़ा बर्तन खरीद कर ले आऊं। कुम्हार की चाक भी मेरे घर से करीब पांच किलोमीटर दूर थी। कुम्हार मंडी में भी दीपावली के दौरान ही रौनक रहती है। साल भर बेचारे कुम्हार अपनी किस्मत को कोसते रहते हैं। घर-घर में फ्रिज होने के कारण उन्होंने सुराई व घड़े बनाना भी बंद कर दिया। गमले बनाते हैं, लेकिन अब लोग प्लास्टिक व सीमेंट के गमले इस्तेमाल करने लगे।
प्लास्टिक का जमाना है। ऐसे में मुझे माइक्रोवेव में इस्तेमाल होने वाला एक डोंगेनुमा बर्तन ही उपयुक्त लगा, जिसकी तली में कई छेद थे। प्लास्टिक के इस बर्तन का इस्तेमाल शायद कभी घर में हुआ ही नहीं। इसलिए नया नजर आ रहा था। अब मुझे मिट्टी की आवश्यकता थी, जिसमें एक मुट्ठी जौ बोई जा सके। घर के बाहर निकला। पूरे आंगन में टाइल बिछी थी। घर में हमने कहीं कच्ची जगह ही नहीं छोड़ी। फिर मिट्टी कहां से मिलती। मेरे घर के आसपास की जमीन रेतीली या बजरी वाली है। आसपास सभी के घर की यही स्थिति थी। कंक्रीट का ढांचा खड़ा करते-करते किसी ने घर व आसपास इतनी जगह तक नहीं छोड़ी कि कहीं कच्ची जमीन हो। गली व मोहल्ले की सड़कें भी पूरी पक्की, किनारा भी कच्चा नहीं। किनारे में सीमेंट से बनी पक्की नालियां। नाली से सटी लोगों के घर की दीवार। दीवार के उस पार पक्का फर्श और फिर मकान। बारिश हो तो सारा पानी बहता हुआ देहरादून से सीधे निकलकर नालियों व बरसाती नदियों में बहता हुआ दूर सीधे हरिद्वार निकल जाए। या फिर बारिश का पानी लोगों के घरों में घुसने लगता है। धरती में समाने की जगह नहीं होती, नतीजन हर तरफ जलभराव। पानी को धरती में समाने की हमने कोई जगह नहीं छोड़ी। ऐसे में भूमिगत पानी रिचार्ज कैसे होगा। इसीलिए तो गर्मियों में हैंडपंप सूख जाते हैं और नलकूप भी हांफते हुए पानी देते हैं।
मुझे याद आया कि बचपन में मिट्टी से मेरा कितना करीब का नाता था। घर के आसपास मिट्टी ही तो नजर आती थी। आंगन में लिपाई भी मिट्टी से होती थी। जहां हम रहते थे, वहां पीली मिट्टी की एक ढांग थी। जहां से लोग खुदाई कर जरूरत के लिए मिट्टी ले लेते थे। स्कूल गया तो सरकारी स्कूल में कला के नाम पर मिट्टी के खिलौने बनाने पड़ते थे। मैं सेब, केला, मिट्टी की गोलियों से बनी माला या फिर कुछ न कुछ आटयम बनाता। उसमें सलीके से रंग भरता। मास्टरजी देखते और उसे देखकर खुश होने की बजाय कहते कि और बेहतर बनाते। यहां रंग गलत भरा। फिर बच्चों के बनाए खिलौने पटक-पटक कर तोड़ दिए जाते कि कहीं दूसरी बार स्कूल से ही लेजाकर रंग चढ़ाकर मास्टरजी को दिखाने न ले आए। न तो मेरा वो पुराना मोहल्ला मेरा रहा। क्योंकि उसे हम करीब बीस साल पहले छोड़ चुके। वहीं उस मोहल्ले में भी अब मिट्टी खोदने वाले भी नहीं रहे। सभी के घर पक्के हो गए। मिट्टी की जरूरत तो शायद अब किसी को पड़ती ही नहीं। जिसने बचपन में मिट्टी खोदी, अब वही अपने बच्चों को मिट्टी से दूर रखने का प्रयास करते हैं।
जौ बोनी थी क्योंकि बर्तन की खोज मैं कर चुका था। ऐसे में हिम्मत हारनी तो बेकार थी। मैने घर में गमलों पर नजर डाली, जिनकी मिट्टी भी खाद न पड़ने के कारण सख्त हो गई थी। इनमें से एक गमले की मुझे बलि देनी थी। एक गमला मुझे कुछ टूटा नजर आया। बस मेरा काम बन गया। मैं खुरपी लेकर एक मुट्ठी जौ बोने के लिए मिट्टी निकालकर प्लास्टिक के बर्तन में डालने में जुट गया। साथ ही यह सोचने लगा कि हम लोग जाने-अनजाने में इस मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं। भले ही हम अपनी मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं, लेकिन ये मिट्टी हमारा साथ नहीं छोड़ती। यदि ये मिट्टी न हो तो इंसान का क्या होगा। वह इस मिट्टी में भी कैसे मिलेगा।
भानु बंगवाल

2 comments:

  1. गूढ़ ..आलेख ..कदाचित यह सत्य ही है की हम अपनी जमीन से दूर आशियाना बनाने की जुगत में होते हैं..लेकिन कोई पेड़ अपनी जमीन को छोड़कर कभी सीधा खड़ा नही रह सकता !! यह भी सत्य है
    बहुत सुन्दर , बंगवाल जी

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  2. सुन्दर और भावना प्रधान लेख। अच्छा लगा।

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