Monday 9 December 2013

हमदर्द की परीक्षा....

उन दिनों गजेंद्र बुरे दौर से गुजर रहा था। वह जो भी काम करता उसमें उसे घाटा होता। कड़ी मेहनत के बावजूद भी असफलता मिलने को वह अपनी किस्मत को ही दोष दे रहा था। फिर भी वह निरंतर मेहनत कर आने वाले दिनों को बेहतर देखने के सपने बुन रहा था। गजेंद्र को यह पता है कि हर दिन हर व्यक्ति किसी न किसी परीक्षा के दौर से गुजरता है। वह इसमें सफल होने का प्रयास करता है। इस कार्य में मेहनत ही सबसे ज्यादा रंग लाती है। फिर भी कई बार किस्मत भी धोखा देती है। इससे उसे विचलित नहीं होना चाहिए।
वह यह भी जानता है कि अच्छे दिनों में उसकी मदद को सभी आगे आने को तत्पर रहते हैं, लेकिन यदि किसी को पता चल जाए कि वह संकट में है तो सभी मददगार भी पैर पीछे खींच लेते हैं। सचमुच कितनी स्वार्थी है ये दुनियां। ऐसे वक्त में तो अपने सगे भाई ने भी साथ नहीं दिया। फिर दूसरों से क्या उम्मीद वह कर सकता है। उस भाई ने जिसे पांव में खड़ा करने का बीड़ा गजेंद्र ने उठाया था। आज वह अच्छी आमदानी कर रहा है। वह बच्चों के साथ सुखी है, लेकिन गजेंद्र के सामने वह मदद की बजाय अपना दुखड़ा सुनाने लग जाता है।
करीब 17 साल हो गए जब गजेंद्र सहारनपुर के एक गांव से देहरादून में काम की तलाश में आया था। तब उसकी पत्नी, दो साल की बेटी व करीब छह माह का बेटा भी साथ थे। किराए का मकान लिया और सुबह-सुबह उठकर घर-घर जाकर दूध की सप्लाई करने लगा। दूध का काम में उसे फायदा मिला। काम बढ़ता गया और उसने एक छोटी सी डेयरी भी खोल दी। गजेंद्र की किस्मत साथ दे रही थी। उसने अपने छोटे भाई प्रमोद को भी अपने पास बुला लिया। प्रमोद तब 12 वीं कर चुका था। उसने कॉलेज में एडमिशन लिया। कॉलेज जाने से पहले वह भी गजेंद्र की तरह सुबह उठकर साइकिल से दूध बेचने जाता। कॉलेज से लौटने के बाद दुकान में भी नियमित रूप से बैठता। काम लगातार बढ़ रहा था। गजेंद्र ने अपने लिए मकान खरीद लिया। कारोबार को देखने के लिए परिवार व नातेदार के युवाओं को अपने पास गांव से बुला लिया। इन युवाओं को वह दूध के कारोबार से जोड़ता गया। साथ ही उन्हें कॉलेज भी भेजा। युवा पढ़ाई के साथ ही गजेंद्र का कारोबार बढ़ा रहे थे, साथ ही वे अपना जेब खर्च भी निकाल रहे थे। फिर गजेंद्र ने अपने भाई प्रमोद की शादी कराई और उसे एक नई दुकान खोलकर दे दी। प्रमोद ने भी एक पाश कालोनी में दूध व पनीर की डेयरी खोली, जो खूब चल पड़ी। गजेंद्र ने अपने भाई प्रमोद के बाद अपने चचेरे भाइयों, पत्नी के भाई (साले) को भी अलग-अलग दुकानें खोलकर दी। साथ ही सभी की शादी कराकर उनका परिवार भी बसा दिया। उसका अपना काम भी ठीकठाक चल रहा था। जो भी युवा उसके साथ बिजनेस में जुड़ता वह बाद में एक दुकान का मालिक हो जाता। हां इतना जरूर है कि गजेंद्र ने पहली दुकान अपनी बेटी रूपा के नाम से खोली थी। उसके साथ जुड़ने वाले हर युवा को जब भी वह दुकान खोलता, उसका नाम बेटी रूपा के नाम से रूपा डेयरी जरूर रखता।
गजेंद्र का भाई हर महीने में एक लाख से ज्यादा का मुनाफा कमा रहा है। भाई ने एक करोड़ से अधिक राशि खर्च कर आलीशान कोठी बनाई। नया मकान बनाने पर बिजेंद्र की जमा पूंजी खत्म हो गई। एक दिन उसे किसी काम के लिए दस हजार रुपये की जरूरत पड़ी तो भाई ने आर्थिक तंगी बताकर उससे पल्ला झाड़ दिया। यहीं गजेंद्र का दिल टूट गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने तो अपने भाई के साथ ही दूसरों को भी अपने पांव में खड़ा होना सिखाया। जरूरत पड़ने पर उसके भाई ने मामूली रकम देने से उसे मना क्यों कर दिया। इस परीक्षा में उसका भाई तो फेल हो गया, लेकिन बिजेंद्र को लगा कि परीक्षा में वह स्वयं फेल हुआ है। वह अपने भाई को दूसरों की मदद का सिद्धांत व्यवहारिक रूप से नहीं सिखा सका। उसकी मदद को उसके पास पहले काम कर चुके युवा् आगे आए। पत्नी ने भी ही दुकान में बैठने का बीड़ा उठाया। युवा हो चुके बेटा भी पिता का कारोबार संभालने में जुट गया। गजेंद्र जानता है कि मुसीबत का यह दौर क्षणिक है। जल्द ही उसके दिन फिर से बहुरने वाले हैं। हां मुसीबत में उसे यह ज्ञान जरूर हो गया कि कौन उसका सच्चा हमदर्द है।
भानु बंगवाल  

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