Saturday 29 March 2014

कीमत लहू की..

क्या व्यक्ति-व्यक्ति के खून में फर्क हो सकता है। सबके खून का रंग तो एक सा होता है। हां फिर फर्क यही हो सकता है कि व्यक्ति-व्यक्ति का ब्लड का ग्रुप बदल जाता है। फिर क्यों कहा जाता है कि इसका खून ठंडा है, उसका खून गर्म है। यह अंदाजा तो हम व्यक्ति की आदत से ही लगाते हैं। ऐसी आदत खून से नहीं बल्कि व्यक्ति के संस्कार व कर्म से पड़ती है। वैसे देखा जाए, जब तक हमारी शिराओं में बगैर किसी व्यवधान के रक्त दौड़ता रहता है, तब तक जीवन की डोर सुरक्षित रहती है। किसी के शरीर में एक बूंद खून बनने में जितना वक्त लगता है, उससे कम वक्त तो देश को जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर बांटने वाले लोग दूसरों का खून बहाने मे भी नहीं लगाते हैं। ऐसे लोग किसी के जीवन को बचाने में भले ही अपना खून न दे सकें, लेकिन दूसरों के खून से होली खेलने में जरा भी गुरेज नहीं करते।
फिर भी समाज में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है, जो दूसरों का जीवन बचाने में रक्तदान करना अपना सोभाग्य समझते हैं। एक दिन एक मित्र मिले बोले रक्तदान करके आ रहा हूं। सार्टीफिकेट भी मिला है। अब तक उनके पास ऐसे दो प्रमाणपत्र हो गए हैं। मैने मन में सोचा कि मैने भी तो रक्तदान किया, लेकिन कभी प्रमाणपत्र लिया ही नहीं। सच यह है कि रक्तदान करना आसान नहीं। यदि शरीर में एक छोटा कांटा चुभ जाए और एक बूंद खून निकल जाए तो व्यक्ति विचलित हो उठता है। फिर किसी को रक्तदान के लिए एक बोतल खून शरीर से निकालना क्या आसान काम है। फिर भी रक्तदान से व्यक्ति को जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। रक्तदान के नाम पर शुरूआत में हर व्यक्ति डरता है, लेकिन यदि एक बार कोई रक्तदान कर दे तो फिर उसे बार-बार इस पुनीत कार्य के लिए जरा भी भय नहीं लगता।
वैसे देखा जाए तो अक्सर पहली बार रक्तदान का मौका घर परिवार के किसी व्यक्ति की जान बचाने में ही आता है। मेरे साथ भी पहली बार ऐसा ही वाक्या हुआ। सरकारी नौकरी से रिटायर्डमेंट के बाद पिताजी को एक साथ कई बीमारी ने जकड़ लिया। फेफड़ों में इनफेक्शन, सांस की बीमारी ना जाने क्या-क्या। एक दिन तो ऐसा आया कि उन्हें बेहोशी छाने लगी। वर्ष 1991 की बात है। तब मैं स्थानीय समाचार पत्र में क्राइम रिपोर्टिंग करता था। बड़ा भाई और मैं पिताजी को सरकारी अस्पताल ले गए। पिताजी को दून अस्पताल में विश्वास नहीं था। अस्पताल पहुंचने पर जब उन्हें होश आया तो वह प्राइवेट वार्ड के एक कमरे में बैड पर लेटे थे। उनसे हमने झूठ बोला कि उन्हें प्राइवेट अस्पताल में लाया गया है। ताकि वह उपचार कर रहे डॉक्टरों पर विश्वास कर सकें।
पिताजी की हालत नाजूक थी। डॉक्टरों ने कहा कि तुरंत खून चाहिए। कम से कम दो बोतल। एक यूनिट (बोतल) खून तो किसी समाजसेवी संस्था से मिल गया। दूसरी की इंतजाम नहीं हो सका। इस पर मैने अपना रक्त परीक्षण कराया तो वह मैच कर गया। तब मैं काफी कमजोर था। मोटा होने के लिए मैं खानपान में तरह-तरह के टोटके करता, लेकिन मेरा वजन 45 किलो से ज्यादा नहीं बढ़ रहा था। हालांकि मुझे कोई तकलीफ नहीं थी। मैं फुर्तीला भी था, लेकिन शरीर से दिखने में दुर्बल ही नजर आता। मेरे खून देने की बात आई तो कई ने कहा कि मत दो। कहीं से इंतजाम करा लो। कहीं खून देने से ऐसा न हो कि कोई दूसरी मुसीबत खड़ी हो जाए। कहीं उलटे मुझे ही खून चढ़ाने की नौबत न आ जाए। पर मुझे तो बेटे का धर्म निभाना था। सो मैंने खून दे दिया। हां पिताजी को यह नहीं बताया गया कि मैने खून दिया। क्योंकि यह जानकर वह परेशान हो उठते।
उस दौरान पंजाब के आतंकवाद ने पांव पसारकर देहरादून में भी अपनी पैंठ बना ली थी। अक्सर पुलिस व आतंकियों की मुठभेड़ देहरादून में भी होती रहती। जिस दिन सुबह मैने खून दिया, उससे पहली रात को डोईवाला क्षेत्र में आतंकवादी खून की होली खेल चुके थे। सड़क पर बम लगाकर उन्होंने बीएसएफ का ट्रक उड़ा दिया था। जैसे ही मैने खून दिया। तभी पता चला कि दून अस्पताल में बीएसएफ के शहीद कमांडर व कुछ जवानों के शव पोस्टमार्टम के लिए दून अस्पताल लाए गए हैं। खून देने में दर्द का क्या अहसास होता है या फिर खुशी का क्या अहसास होता है। इसका मुझे अंदाजा तक नहीं हुआ। क्योंकि मैं रक्तदान के तुरंत बाद आतंकियों से संबंधित घटना की रिपोर्टिंग में जुट गया। मेरे सामने शहीदों के खून से सने शव पड़े हुए थे। वहीं अस्पताल में मेरे पिताजी समेत न जाने कितनों की जान बचाने के लिए मरीजों पर खून चढ़ रहा था।
पिताजी अस्पताल से ठीक होकर घर पहुंच गए। उनकी तबीयत पूछने लोग आते, वह अपना हाल सुनाते। बाद में उन्हें यह तो पता चल गया कि उन्हें दून अस्पताल में रखा गया है, लेकिन यह पता नहीं चला कि खून किसने दिया। अक्सर वह यही कहते कि सरकारी अस्पताल था। इसलिए अब मुझमें पहले जैसी ताकत नहीं रही। ठीक से इलाज नहीं किया। लगता है कि खून भी नकली चढ़ाया गया। असली होता तो हाथों में कंपकपाहट नहीं होती। हालांकि अस्पताल से घर आने के बाद वह नौ साल और जिए।
वर्ष 96 में मेरा तबादला सहारनपुर हो गया। वहां जब भी मैं होटल में खाना खाता तो मेरे पास सुहागा का चूर्ण जेब में रहता। किसी ने बताया था कि सुहागा गर्म कर उसका चूर्ण बना लो। खाने में इसे मिलाया जाए तो व्यक्ति मोटा हो जाता है। मैं भी वही करता था, पर मोटा नहीं हो सका। एक दिन सूचना मिली कि चंडीगढ़ से दून समाचार पत्रों को ले जा रहा वाहन रास्ते में पलट गया। इस दुर्घटना में एक पत्रकार महाशय घायल हो गए। घायल को सहारनपुर के जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया। ये पत्रकार महाशय तब ठीक-ठाक पैग चढ़ाने के मामले में बदनाम थे। यदि वह वाहन में नहीं बैठे होते और अपने वाहन में होते तो सही समझा जाता कि नशे में उन्होंने गाड़ी सड़क से उतार दी। अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि पत्रकार महाशय की हालत काफी गंभीर है। यदि तुरंत खून नहीं मिला तो बचना मुश्किल है। मैं उन महाशय को सिर्फ नाम से जानता था। व्यक्तिगत मेरी उनसे कोई मुलाकात तक नहीं थी। हम कुछ पत्रकारों से अस्पताल में चिकित्सकों ने पूछा कि किसी का ब्लड ग्रुप ए पॉजीविट है। तो मुझसे मोटे-मोटे, लंबी चौड़ी कदकाठी वाले सभी बगलें झांकने लगे। तब मुझे ही आगे आना पड़ा, सबसे कमजोर था। खून से पत्रकार महाशय बच गए, लेकिन न तो मैं कभी उनसे मिल पाया और न ही कभी वह मुझसे मिले। शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम हो कि, उन्हें जिसने खून दिया है वह देहरादून में उनके घर के पास मश्किल से दो सौ मीटर की दूरी पर रहता है। खैर ये महाशय भी स्वस्थ्य रहें ऐसी मेरी कामना है।  
तीसरी बार मुझे खून अपनी बड़ी बहन के लिए देना पड़ा। बहन का आपरेशन था। दो यूनिट खून की जरूरत थी। मेरा ग्रुप मैच करने पर मैं रक्तदान को तैयार हो गया। साथ ही दो और बहने भी खून देने को तैयार थी। तभी मेरे मित्र नवीन थलेड़ी ने कहा कि वह खून दे देगा बहनों को परेशान नहीं करते। हम दोनों से रक्त दिया। बहन को खून की एक यूनिट ही चढ़ी। एक यूनिट बच गई। जो अस्पताल के ब्लड बैंक में रख दी गई। कुछ दिन बाद मुझे एक फोन आया कि एक महिला 80 फीसदी जली हुई है। उसे तुरंत खून चाहिए। यदि आप अनुमति दें तो ब्लड बैंक में बची आपकी यूनिट का इस्तेमाल उसकी जान बचाने में कर सकते हैं। न तो मैने मरीज महिला को देखा ना ही रक्त मांगने वाले को। रक्त मांगने वाला शायद दलाल भी हो सकता था। पर मैने यह सोचकर अनुमति दे दी कि हो सकता है कि मेरे खून से महिला की जान बच जाए। इस बार मुझे यह भी पता नहीं चल सका कि जिसे मैने खून दिया उसका क्या हुआ।   
भानु बंगवाल

1 comment:

  1. kahte hain raktdan mahadaan hota hai.lekin chamoli jile main yuvaon ka ek group ghayalon ke madad ke lie pichle 10 salon se raktdan kar raha hai. pahle gopeshwar ke ek votia yava ne raktdan ke suruwat kee the. halanki aaj wah yuvak jinda nahi hai. lekin usne jin 50 se adhik logon ko apna rakt diya unme se adhiktar log swasth jeevan gujar rahe hain. is samay is group se takriban 30 se adhik yava jud chuke hain. ye yuva samay samay par logon ko rakt dekar unki madad kar rahe hain.

    ReplyDelete