Saturday 30 May 2015

चल यार पत्थर मार...

पत्रकार या पत्थर मार। चाहे कुछ भी कह लो। प्रकाश अक्सर यही सोचता कि यदि  वास्तव में कोई पत्रकार है तो वह पत्थर मार भी है। व्यवस्थाओं की खामियों पर पत्थर की मानिंद हमला करना, चोट पहुंचाना तो उसका कर्तव्य है। इस कर्तव्य को निभाने की भले ही उसके पास ताकत नहीं बची है। फिर भी वह अपना  कर्तव्य जानता है, जिसे वह कभी पूरा नहीं कर सकता। इसका उसे मलाल तक नहीं है। पूरी तरह से दलदल व गंदगी के गर्त में जा रही पत्रकारिता के नए स्टूडेंट्स को देखकर उसके मन में तरह-तरह के सवाल उठते हैं। सवाल उठता है कि क्यों युवा अपना भविष्य अंधेरे के गर्त में डालने के लिए इस पेशे को चुन रहे हैं। बाहर से जो चमक-दमक का काम लगता है, वही बाद में उनके लिए आफत का काम बनने लगता है। चुनौतियों से जूझना व बाद में हारकर बैठ जाना ही इस धंधे की नियति है। एक पत्थर मारने के लिए हाथ में ताकत तक नहीं बची रहती है। साथ ही कलम में इतनी स्याही नहीं रहती है कि किसी की काली करतूत को शब्दों में ढालकर वह जनता के सम्मुख ला सके।
 पहले तो किसी डिग्री या डिप्लोमा लिए बगैर ही पत्रकारिता के पेशे से युवा जुड़ जाते थे। हर दिन के उनके कार्य व अनुभव के आधार पर ही वे इस विधा के गुर सीखते रहते थे। सीनियर उन्हें इस काम में मदद भी करते थे। हर दिन सीखने का दिन होता था, जो आज भी है। अब तो डिग्री या डिप्लोमाधारक हो ओर हल्का अनुभव हो। वाकपटु हो, भले ही काम धेले भर का ना आता हो। अपने कार्यों को बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करने की योग्यता हो, तो बन गए सफल पत्रकार। फिर भी पत्थर मारने की कला कोई मायने नहीं रखती। यह मिशन नहीं, सिर्फ रोटी व रोजी को  चलाने की कला भर बनकर रह गई है।
इसी तरह के विचारों का तानाबाना अक्सर प्रकाश बुनता रहता। इस पेशे में आने से पहले उसने कई काम किए। कभी किसी सरकारी आफिस में डेलीवेज पर कलर्क की नौकरी की तो कभी किसी बिल्डर के पास मुंशीगिरी। इन सभी काम में एक सुख यह था कि शाम को समय से घर पहुंचो। रात को चादर तान कर मीठी, गहरी व लंबी नींद लो। न ही अगले दिन की कोई चिंता रहती थी। लोगों से मिलने का समय ही समय। अब तो जिंदगी ही जैसे एक आफसेट मशीन के माफिक हो गई। जो लगातार चलती रहती है और छापती रहती है। इसके अगल-बगल झांकने की भी फुर्सत नहीं होती। घर के लिए समय नहीं। बाहर नाते, रिश्तेदारों के सुख-दुख में शामिल होने के लिए भी शायद कभी-कभार ही मौका मिलता। वहीं असल जिंदगी में हर रोज नाटक करना पड़ता। कई बार खबरों की सूंघ में झूठ का सहारा लेना पड़ता। छल, कपट, फरेब को अपनाकर पैदा की गई रिपोर्ट को प्रकाशित करने के बाद भले ही अखबार वाहवाही लूट ले, लेकिन उसकी अंतरआत्मा हमेशा कचौटती रहती।
अब तो प्रकाश के लिए यह पेशा मिशन नहीं, बल्कि परिवार चलाने का साधन है। वह तो जल्द से किसी को यह भी नहीं बताता कि वह पत्रकार है। पहले तो खुद को पत्रकार बताते हुए उसकी छाती फूलकर चौड़ी हो जाती थी। मोटरसाइकिल में प्रेस का छापा लिखवाना उसे अब पसंद नहीं। अब तो प्रिंटिंग प्रेस वालों के साथ ही मोहल्ले में कोने पर रहने वाले धोबी ने भी अपने दरवाजे के बाहर प्रेस की तख्ती टांगी हुई है। धोबी भी अब कपड़े धोने से मना करने लगे हैं। वे भी सिर्फ प्रेस करने पर ही विश्वास करते हैं। कितना भी टेढ़ा-मेढ़ा सिलवटों वाला कपड़ा हो, प्रेस के दबाव में वह सीधा हो जाता है। शायद प्रेस के जादू को ही समझकर सफेदपोश को सीधा करने का बीड़ा उठाने के प्रयास में कई बेचारे खुद ही बदल गए। दिन भर ऐसे लोगों के खिलाफ गरियाना उनकी आदत हो गई। वहीं,शाम को सभी बैर-भाव भूलकर उन्हीं लोगों की शराब के साथ ही मुर्गे उड़ाना उनकी नियति हो गई। यही तो सही मायने में समाजवाद है। शाम तक सभी एक छत के नीचे आ जाते हैं।
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पांडे जी कहिन..
पांडेजी को जब प्रकाश ने शहर में पहली बार देखा तो उसे काफी अजरज हुआ। पांडेजी एक साप्ताहिक पत्र निकालते थे। दिन में वह अधिकारियों के पास जब किसी समाचार की जानकारी लेने जाते तो उन्हें अपना परिचय देने की जरूरत नहीं पड़ती। वह मोपेड में चलते थे। मोपेड में नंबर प्लेट इतनी छोटी थी कि उस पर नंबरों के अलावा कुछ और लिखने की गुंजाइश नहीं रहती थी। नंबरों से पहले यदि प्रेस लिखते तो वह इतना छोटा होता कि चौराहे पर वाहनों के कागजात की चेकिंग कर रहा पुलिसवाला प्रेस लिखा नहीं देख पाता। ऐसे में पांडेजी ने नायब तरीका निकाला और हेलमेट पर अंग्रेजी के मोटे अक्षरों से प्रेस लिख डाला। यदि गलती से सड़क पर किसी पुलिसवाले, पार्किंग पर ठेकेदार ने टोका तो वे भुनभुना जाते। फिर चिल्लाकर बोलते अबे दिखाई नहीं देता-प्रेस। सिपाही या ठेकेदार शायद उनकी लंबी सफेद दाढ़ी का लिहाज करते और एक तरफ मुंह फेर लेते। अधिकारी के सामने कुर्सी पर बैठते हुए वह आगे मेज पर हेलमेट ऐसे रखते कि प्रेस लिखा हुआ अधिकारी को हर वक्त दिखता रहे। ताकि उसे पूरे समय यह ध्यान रहे कि वह ऐसे शख्श से बात कर रहा है, जो कभी भी व कहीं भी आग लगाने की कुव्वत रखता हो। पांडेजी का साफ फंडा था कि किसी भी अधिकारी की कमियां तलाशो। उसके घोटालों को उजागर करो। फिर जब अधिकारी गिड़गिड़ाए तो उससे समझोता करो। यह समझोता भी दीर्घकालीन हो। यानी जब तक अधिकारी उस शहर में हो तब तक हर माह अखबार चलाने में पीछे से अपना योगदान करता रहे। यह योगदान अधिकारी की क्षमता के अनुरूप ही तय होता था। इसे पांडेजी बुरा नहीं मानते थे। क्योंकि ऐसे लोग तो कुछ ही होते हैं, जिनसे समझोता करना पड़ता था। बाकी तो लिखने के लिए भीड़ है। डायन भी एक घर छोड़ देती है, तो वे भी ऐसा ही क्यों न करें। अखबार भी चल रहा था और उनकी साख भी बनी हुई थी।
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लॉटर से कमाई
उन दिनों एक नंबर की लॉटरी का चलन जोरों पर था। पुलिस ने पहले लॉटरी के खिलाफ अभियान चलाया। स्टाल उखाड़े गए, लाठियां भांजी गई, फिर अचानक पुलिस चुप होकर बैठ गई। इस लॉटरी की लत में युवा के साथ ही बुजुर्ग भी फंसने लगे। सभी एक झटके में करोड़पति होना चाहते थे। छात्रों ने पहले स्कूल की फीस ही दांव पर लगाई, फिर वे घर से छोटी-मोटी चोरी भी करने लगे। नतीजा वही हुआ जो कि महिलाएं सड़कों पर आने लगी। मुट्ठियां तनने लगी। लॉटरी के स्टाल उखाड़े जाने लगे। पांडेजी जैसे लोगों ने लॉटरी वालों से समझोता कर लिया। वे इसे व्यापार से जोड़कर देखने लगे। पुलिस को पत्थरमारों से सहयोग की जरूरत थी। बरबाद हो रहे भविष्य की चिंता प्रकाश हो होने लगी। वह लॉटरी के विरोध में लिखने लगा। समाचार में उदाहरण दिए जाने लगे कि कैसे 12 साल के बालक ने मां का हार चुराया बेच डाला। फिर सभी राशि लॉटरी के नाम पर दांव पर लगा दी। प्रकाश का यहां पत्थर मारना काम नहीं आया। उसे कोतवाल ने कोतवाली में बुलाया। अच्छा-बुरा समझाया। फिर बताया कि उसका वेतन सिर्फ 1800 रुपये है, लेकिन यदि वह सहयोग करेगा तो हर माह उसे 2500 रुपये कोतवाली से मिलेंगे। प्रकाश हकाबका कोतवाल को ताक रहा था। कोतवाल समझा रहा था कि कुछ महीने कमाने का मौका मिल रहा है, तो इसे गंवाना बेवकूफी है। मैं तुम्हें आगे बढ़ना देखना चाहता हूं। चुपचाप से हर महीने पैसे मेरे से ले लिया करो।
प्रकाश का सिर चकरा रहा था। उसे तो अब कोतवाल के शब्द भी नहीं सुनाई दे रहे थे कि वह क्या बोल रहा है। फिर कोतवाल ने कहा कि लॉटरी के खिलाफ समाचार लिखना बंद कर दो। ऐसे रहो कि शहर में कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम्हारे जैसे कई पत्रकार यही कर रहे हैं। मजे में हैं वे सभी। तुम भी ऐसा ही करो। देखो जल्द ही तुम्हारे पास चार पहिये की गाड़ी आ जाएगी। फिर कोतवाल ने प्रकाश से पूछा-क्या फैसला लिया। जवाब में प्रकाश वहां से उठकर चला गया। उसने अपने समाचार पत्र के मुख्यालय में प्रधान संपादक को फोन मिलाया। उन्हें सारी बातों से अवगत करा दिया। वहां से निर्देश आए कि तुम लॉटरी के खिलाफ लिखना जारी रखो। कुछ दिन तक खिलाफ छपता रहा। बाद में उसके ऐसे समाचार लगने बंद हो गए। कई बार जब प्रकाश का महीने का बजट गड़बड़ाता तो वह यह सोचकर पछता रहा होता कि उसने कोतवाल की बात क्यों नहीं मानी। पांडेजी के फार्मूले पर क्यों नहीं चला।
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बाबा ने बढ़ाया अत्मविश्वास
उम्र करीब 65 साल। सिर के बाल सफेद और काफी लंबे। चेहरे पर लंबी सफेद दाढ़ी। सफेद कुर्ता व पायजामा उनकी ड्रेस। कंधे पर झोला और झोले पर अखबार व अखबार की कतरने। लिखने के लिए सादे कागज। देहरादून की सड़कों पर अक्सर वह पैदल ही चलते रहते। उनका नाम भी शायद कोई जानता था। सभी उन्हें मौनी बाबा कहते थे। क्योंकि उन्होंने मौन धारण किया हुआ था। शायद किसी ने उनकी आवाज तक नहीं सुनी। उन्होंने क्यों मौन धारण किया यह कोई नहीं जानता, लेकिन जब से किया उसे तोड़ा नहीं। जब मौत भी आई तो उनके मुंह से कोई शब्द तक नहीं निकला। मौनी बाबा कहां और क्या नौकरी करते थे। इसकी जानकारी भी प्रकाश को नहीं थी और न ही उसने यह जानने की जरूरत महसूस की। वह अक्सर कलक्ट्रेट में प्रकाश को मिल जाते। जब प्रकाश दोनों हाथ जोड़कर बाबा को नमस्ते करता तो वह एक सादे कागज के टुकड़े पर लिखते कि कैसे हो। प्रकाश बोलकर जवाब देता। बाबा की पकड़ सहकारिता में कुछ ज्यादा थी। गांधीजी के सिद्धांतों पर चलने वाले बाबा को सहकारिता की दुर्दशा देखकर कुछ ज्यादा ही दुख होता था। वह प्रकाश पर काफी विश्वास करते थे। उसे लिखकर सहकारिता से जुड़े जिला सहकारी बैंक, विभिन्न सहकारी समितियों के घोटालों का क्लू देते। प्रकाश छानबीन करता और कई बार वह बाबा के प्रताप से कई बड़े घोटालों को उजागर कर चुका था।
बाबा का अपना कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था और न ही वे किसी समाचार पत्र से बंधे हुए थे। फिर भी उनकी पहचान एक पत्रकार के रूप में थी। वह पांडेजी की तरह हेलमेट की बजाय न तो झोले में प्रेस ही लिखते थे और न ही खुद को पत्रकार कहते थे। फिर भी प्रकाश की नजरों में मौनी बाबा विशुद्ध रूप से एक पत्रकार थे। वह प्रकाश को लिखकर कहते कि फलां जगह जाकर यह पता करो। फिर लेख लिखो। जैसे-जैसे मौनी बाबा जीवन के आखरी पड़ाव की तरफ सरक रहे थे, उनके भीतर भी एक परिवर्तन होने लगा। सड़क किनारे फैले कचरे को पेड़ों की पत्तियों वाली टहनी से वह झाड़ू की तरह एक कोने में एकत्र करते। फिर उसमें आग लगा देते। उनका मौन यही कहता कि बेटे मैं तो सड़क का कचरा साफ कर रहा हूं और तुम समाज का कचरा साफ करते रहो। जब भी प्रकाश किसी मुसीबत में पड़ता या निराश होता,तो वह मौनी बाबा को याद करता। उन्हें याद करते ही उसके भीतर रक्त शिराओं में ऊर्जा भर जाती। सिर्फ उसे यही दुख हमेशा सालता रहा कि मौनी बाबा ने जब अपनी देह त्यागी, तो उन्होंने अपने बेटे से प्रकाश से मिलने की इच्छा जताई। बेटे ने प्रकाश से संपर्क भी किया, लेकिन प्रकाश के पास बाबा से मिलने का समय तक नहीं था। जब समय मिला, तब बाबा नहीं रहे।
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  भानु बंगवाल

2 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखते हैं आप
    लिखते रहिये
    ब्लॉग निरंतर रखेंगे तो अच्छा रहेगा ...

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  2. Thank you for this blog this is really nice. Apartment On Rent Find & Explore the Best Apartments. You can find 1 bhk to 4 bhk luxury
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