Friday 10 February 2012

डूबते को लाश का सहारा....

कई बार जीवन से ऐसी घटनाएं होती हैं, जब व्यक्ति का मौत से साक्षात्कार हो जाता है। ऐसी घटनाएं कई बार होती हैं। फिर व्यक्ति यह अवलोकन करने लगता है कि कौन सी घटना बड़ी थी या ज्यादा खतरनाक थी। खैर घटना तो घटित होती है। इससे जो बचकर निकल गया वही सौभाग्यशाली होता है।
तब में सहारनपुर में था। देहरादन से वहां के लिए तबादला होने पर  मैं परिचितों की सूची भी साथ ले गया। नए शहर में कब कौन काम आ जाए। मेरी एक मौसी के बेटा नीलकंठ भाई साहब भी सहारनपुर रहते थे। मौसी को तो मैने जीवन में कभी नहीं देखा। भाई साहब को बचपन में देखा था, उनकी शक्ल भी मुझे याद नहीं थी। भाई साहब के चार बच्चे थे। बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ अलग रहता था। दो बेटी और फिर एक छोटा बेटा उनके साथ थे।
सहारनपुर में रहने के दौरान मैं भाई साहब के घर अक्सर जाया करता था। भाई साहब की सबसे बड़ी बेटी संगीता करीब सत्रह साल की थी। वह मुझे चाचा कहती और मैरे खाने का विशेष ख्याल रखती। छुट्टी के दिन में उनके घर जाता, वह पहाड़ी व्यंजन कभी काफली (पालक का साग), कभी चौसाणी (कूटने के बाद पकाई गई उड़द की दाल) आदि बनाती थी। होटल में खाना खाकर मैं ऊब जाया करता था। इसलिए उनके घर जाकर खाने का मोह मुझे हमेशा रहता था।
खूब बातूनी, हंसी मजाक के स्वभाव वाली थी संगीता। एक दिन दोपहर के समय मुझे किसी परिचित का फोन आया कि संगीता की मौत हो गई। इस सूचना ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया। खैर ईश्वर की यही मर्जी थी। मैं भाई साहब के घर गया। अगले दिन अंतिम संस्कार के लिए शव को हरिद्वार ले गए। पहले ही तय हो चुका था कि शव को गंगा में जल समाधी दी जाएगी। हरिद्वार चंडीघाट पर शव को ले गए। कल तक उछलती कूदती संगीता जो चिर निंद्रा में सोई थी, के शव को लेकर हम कुछ  लोग गंगा के प्रवाह में उतरे। कमर से ज्यादा गहराई तक उतरने के बाद शव को रस्सी व पत्थरों से बांध दिया गया। ताकि प्रवाह में बह न जाए। जल समाधी देने के बाद सभी किनारे जाने लगे। पीछे मैं रह गया। तभी मुझे अहसास हुआ कि मेरे पैर से जमीन खिसक रही है। पानी का बहाव अचानक बढ़ा और मैं बहने लगा। तभी मैंने अपने को बचाने के लिए संगीता का हाथ पकड़ लिया। उसका हाथ पानी से बाहर को निकल रहा था। शव का सहारा लेकर मैं कम पानी की तरफ बढ़ने लगा। तब जाकर मैं खुद को संभाल पाया और कूदकर पानी से बाहर की तरफ को भागा। किनारे पहुंचने पर मैंने नदी की तरफ देखा। वहां पानी की लहर के साथ हिलता हुआ मुझे संगीता का हाथ नजर आ रहा था। मानो जो मुझे कह रही थी अलविदा चाचा जी  । वो संगीता जो मेरी भतीजी थी। जो  हमे छोड़कर चली गई थी और पानी में डूबते हुए उसकी लाश ही मेरा सहारा बनी।
                                                                                                                          भानु बंगवाल

3 comments:

  1. मेरी मां की मौत 2008 में हुई। मां की मौत मेरे लिए किसी बडे सदमे से कम न थी। लेकिन, दुर्भाग्‍य इस बात की कि मांग की मौत पर फूटकर रो भी नहीं सकता था। खुद रोने लगता तो मानसिक रूप से कमजोर पिता को कौन संभालता। शव को जौलीग्रांट से घर लाए, तमाम लोग एकत्र हुए और घर पर अन्‍य संस्‍कार किए गए। मैं किसी तरह दिल पर पत्‍थर रख आंसूओं की धार को बहने से रोके रहा। हरिद्वार पहुंचे और चिता सजा मैंने चिता को आग दे दी। मैं एकटक खडा चिता को देख रहा था। आंखों से अश्रुधार निकल रही और दिल सोच रहा कि मेरे जन्‍म के वक्‍त शायद मेरी मां ने यह न सोचा होगा कि एक दिन मैं उन्‍हें आग की लपटों के बीच अकेला छोड दूंगा। मां भले ही दुनिया में न हो, लेकिन आज भी वो मेरे साथ है। कई बार मुझे अनुभव होता है मां के स्‍पर्श का।

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  2. मेरी जिंदगी में भी दो बार ऐसा पल आया जब मुझे मौत सामने नजर आने लगी थी या यूं कहें कि यह मौत से साक्षात्‍कार से कम न था। हालांकि इसमें पहला वाकया के समय मैं काफी छोटा था हुआ यह जब रूद्रपयाग से हम लोग गर्मी के दिनों में छुटटी होने पर अपने गांव जा रहे थे तो तब हमारे यहां सडक नहीं पहुंची थी और सिल्‍काखाल वाली सडक से आवाजाही होती थी उस दिन शाम को चार बजे श्रीनगर से बस सिल्‍काखाल के लिए रवाना हुई तो करीब एक घंटे बाद सिल्‍काखाल से करीब पांच किमी पहले बस का पिछला टायर सडक से नीचे पहुंच गया पूरी गाडी में अफरा तफरी मच गई कुछ लोग छत पर भी बैठे थे वह भी नीचे कूद गए तब कुछ देर के लिए लगा कि मौत से अब सामना होना ही है। लेकिन कुछ देर बाद चालक ने बडी सूझबूझ के साथ बस को आगे निकाल लिया तब सबने राहत की सांस ली। दूसरा वाकया कीर्तिनगर का है हमारा घर अलकनंदा नदी के पास है। करीब 14 साल पहले की बात है मेरा बीच वाला भाई व मैं अक्‍सर तैरने के लिए गर्मी के समय में नदी पहुंच जाते थे। दोनों हम तैराक भी हैं एक दिन ऐसा हुआ कि अचानक तैरते-तैरते मेरे हाथ पैर चलने बंद हो गए और धीरे-धीरे मैं नदी में डूबने लगा तब मुझे लगा कि अब अंतिम बार भगवान को याद कर लिया जाए और मौत बिल्‍कुल सामने दिखी, पल भर में ही मेरे हाथ पैर फिर से चलने लगे और मैं तैरकर किनारे आ गया, तब से अब तक मैने कभी नदी में तैरने का साहस अब तक नहीं किया।

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  3. Very well written! :)
    Keep up the good work, some day it can get published.

    Abhishek

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