Monday 27 August 2012

जब डोल जाता है ईमान...

सड़क चलते यदि हमें यदि पचास, सौ या फिर पांच सौ का नोट मिल जाए, तो हम खुद को किस्मत का धनी मानकर खुशी से फूले नहीं समाते। फिर मन में लालच उठता है कि यह रकम और ज्यादा होती तो ही अच्छा होता। कुछ काम तो आती। पचास, सौ रुपये में क्या होगा। व्यक्ति का स्वभाव ही ऐसा है कि उसकी इच्छा नहीं भरती। वहीं, जिस भी व्यक्ति की यह रकम खोती है, ऐसे व्यक्ति पर क्या बीत रही होती है, इसका हमें अंदाजा नहीं होता। अमूमन मुझे राह चलते दस, बीस, पचास व सौ रुपये कई बार मिले हैं। ऐसी राशि को मैं किसी जरूरतमंद को दे देता हूं। अभी तक मुझे बड़ी राशि नहीं मिली। यदि राशि बड़ी मिलती तो उसे खोने वाले व्यक्ति को तलाशने का प्रयास जरूर करता। ऐसा नहीं है कि जमीन पर पड़ी चाहे छोटी राशि ही क्यों न मिले, हमारा ईमान नहीं डोलता। हमें भी लगता है कि काश बड़ी राशि मिलती, तो मजा आ जाता। फिर मेरे दिमाग में गोविंद का चेहरा नाचने लगता। ऐसे में मैं यही सोचता कि ऐसी राशि को उसी व्यक्ति तक पहुंचाना चाहिए, जो उसे अपनी लापरवाही से खो चुका है।
बात करीब 1977 की है। तब मैं पांचवीं जमात में था। शाम को मोहल्ले के बच्चों के साथ मैं पास के मैदान से खेल कर मैं घर की तरफ आ रहा था। हम करीब पांच बच्चे थे। सबसे बड़ा बच्चा मुझसे करीब दो साल बड़ा था। घर के पास एक गली में एक गीठ लगा रूमाल पैदल मार्ग पर पड़ा देखकर एक बच्चे ने उस पर लात मारी। तभी दूसरे बच्चे से उसे उठाकर उस पर और गांठ बांध दी। उसे छोटी सी गेंद का रूप देकर हम पैर से फुटबाल की तरह खेलने लगे। रूमाल भी किसी महिला की धोती से फाड़े गए कपड़े का था। इसी दौरान हमारे बीच सबसे बड़ी उम्र के बच्चे ने कहा कि इस रुमाल में क्या बंधा है। खोलकर देखते हैं। हो सकता है कि पैसे हों। इस पर ऐसे स्थान पर झाड़ियों की ओंट में रूमाल खोला गया, जहां कोई हमें न देख सके।
रूमाल खोलते ही हमारी आंखे फटी की फटी रह गई। उसके भीतर पचास-पचास के तीन नोट थे। पांच बच्चे और डेढ़ सौ रुपये। दो दिन बाद दीपावली थी। तय हुआ कि दीपावली के दिन सभी साथ बाजार जाएंगे और खूब ऐश करेंगे। यह रकम सबसे बड़े बच्चे को रखने को दी गई। उस समय के हिसाब से डेढ़ सौ रुपये की रकम काफी थी। साठ-सत्तर रुपये में एक परिवार का महीने का राशन पानी आ जाता था। घर के पास पहुंचे तो वहां का नजारा देख मैं घबरा गया। एक मकान के बाहर गोविंद नाम का व्यक्ति दीपक नाम के युवक की पिटाई कर रहा था। दीपक गोविंद के घर अक्सर जाया करता था। डेढ़ सौ रुपये गोविंद के ही खोए थे। चोरी के संदेह में वह दीपक को पीट रहा था। गोविंद को दीपावली का बोनस डेढ़ सौ रुपये मिला था। उसे उसने पत्नी को दिए, लेकिन रकम गायब होने पर वह दीपक पर शक कर रहा था। मौके पर तमाशबीनों की भीड़ लगी थी। काफी पीटने के बाद भी जब दीपक से कुछ नहीं मिला तो गोविंद ने उसे छोड़ दिया। वह रोते-रोते यही कह रहा था कि इस बार बच्चे दीपवली कैसे मनाएंगे। मेरे साथियों ने मुझे समझाया कि अब बात आगे निकल चुकी है। किसी को यह मत बताना कि पैसे हमें मिले।
मोहल्ले के हर घर में गोविंद व दीपक की ही चर्चा थी। मेरे घर के आंगन में भी एक दृष्टिहीन व्यक्ति बिशन सिंह थापा मेरे पिताजी व अन्य लोगों के साथ बतिया रहा था। कोई दीपक को चोर बता रहा था तो कोई गोविंद को ही गलत ठहरा रहा था। गोविंद के घर चूल्हा तक नहीं जला, वहीं मोहल्ले के लोगों के घर भी रात के भोजन का स्वाद बिगड़ चुका था। हर व्यक्ति गोविंद की दशा देख व्यथित था। मेरा मन नहीं माना और मैने अपनी मां को डेढ़ सौ रुपये मिलने की बात बता दी। मेरी मां ने बिशन सिंह को मेरे मुंह से सुनी कहानी सुना दी। फिर क्या था। मोहल्ले के लोग एकत्र होकर अन्य बच्चों के घर गए, बच्चों से पूछताछ हुई और गोविंद की खोई रकम मिल गई। चर्चाओं में पता चला कि गोविंद की पत्नी ने रूमाल साड़ी में खोसा हुआ था, जो शायद रास्ते में गिर गया। रकम मिलने के कुछ देर बाद गोविंद के बच्चे पटाखे छुड़ाने लगे। उसने मुझे बुलाया और दस रुपये देने का प्रयास भी किया, लेकिन मैने नहीं लिए। अब मोहल्ले के लोगों की सहानुभूति दीपक से हो गई। लोग उसके घर जाकर हालचाल पूछ रहे थे। सभी यही कहते कि दीपक के साथ बुरा हुआ। वह ऐसा नहीं है। उस पर गलत शक किया गया। पिटाई से दीपक की हालत भी खराब थी। फिर भी यह मामला थमा नहीं। दीपक के घरवाले गोविंद के घर आ धमके। गोविंद घर पर नहीं था। ऐसे में दीपक के घर के लोगों ने गोविंद के विकलांग भाई मेत्रू की जमकर पिटाई कर दी। काफी देर भड़ास निकालने के बाद ही वे वापस लौटे।
भानु बंगवाल
   

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