Friday 21 September 2012

आखिर कहां है भगवान......

कहावत है कि जैसे कर्म करोगे वैसा ही फल पाओगे। यह फल हमें कहां से मिलता है। क्या इस फल को भगवान देता है। या फिर हमारे कर्म ही फल को तैयार करते हैं। ये भगवान कौन है। कहां रहता है। ये किसी-किसी को ही क्यों दिखाई देता है। वह हमें दिखाई क्यों नहीं देता। इस तरह के कई सवाल मेरे जेहन में उठते हैं। फिर शुरू होती है इन सवालों के जवाब की खोज। मैंने न तो ज्यादा किसी संत के प्रवचन सुने हैं और न ही वेद, गीता आदि का मुझे ज्यादा ज्ञान है। हां कभी कभार बड़े बुजुर्गों के मुख से इन गूढ़ विचारों को जरूर सुना है। भगवान के बारे में मुझे बचपन से ही रटा दिया गया है कि एक शक्ति है, जो इस सृष्टि को चलाती है। वह शक्ति दिखने में कैसी है, कहां रहती है, दिन भर क्या करती है, इसकी मात्र इंसान कल्पना ही करता है।
मेरी नजर में मेरे सवालों के हर रहस्य का जबाब मात्र इंसान में ही छिपा है। उसके कर्म ही उसे इंसान व भगवान की श्रेणी में रखते हैं। यानी इंसान के भीतर ही यदि कोई बीमारी है तो इलाज भी वहीं है। फिर सवाल उठता है कि क्या भगवान ही अमर है। इंसान अमर नहीं होता। ये अमर क्या है। अब इन सवालों के जवाब को खोजें तो हम पाएंगे कि सृष्टि की रचना के बाद ही दुनियां में तीन तरह के इंसान हुए। इनमें से एक वे थे, जो दुनियां में साधारण जीवन जीते रहे। दूसरी तरह के इंसान वह थे जो आम व्यक्ति को लूटते रहे। उन पर अत्याचार करते रहे। उनके अत्याचार से आम आदमी का जीवन नर्क होता चला गया। फिर ऐसे व्यक्तियों को राक्षसी प्रवृति का मान लिया गया और उन्हें राक्षस कहा जाने लगा। तीसरी तरह के वे इंसान थे, जो अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए जीवन जीते रहे। ऐसे व्यक्तियों ने समाज को राक्षसों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए उनसे युद्ध तक किए। समाज को संगठित किया, जागरूक किया और राक्षसों के अत्याचारों से मुक्ति भी दिलाई। ऐसे लोगों को दैवीय प्रवृति का मानकर भगवान के रूप में पूजा जाने लगा। ऐसे लोगों में हम राम का उदाहरण ले सकते हैं। उन्होंने बचपन में महर्षि विश्वमित्र के साथ जंगल में जाकर ऋषियों को ताड़का व अन्य राक्षसों के अत्याचार से मुक्ति दिलाई। बाद में 14 साल तक वनवास की अवधी में भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण कर लोगों को संगठित कर, जागरूक कर लुटेरों (राक्षसों) के अत्याचार से मुक्ति दिलाई।
अब सवाल उठता है कि राम तो एक राजा थे, फिर वह भगवान कैसे हुए। आज उनकी पूजा क्यों की जाती है। यहां मेरा जवाब है कि राम भी आम इंसान की तरह ही एक व्यक्ति थे, लेकिन अत्याचार के खिलाफ उन्होंने जो लड़ाई लड़ी, उससे वह साधाराण से असाधारण व्यक्तित्व वाले बन गए। उन्होंने जाति का भेद तक नहीं किया और शबरी के बेर खाने से भी परहेज नहीं किया। गरीब, आदिवासी व्यक्तियों को अपने साथ जोड़कर एक संगठन की रचना की। अत्यधिक पिछड़े होने के कारण इन आदिवासियों को तब बंदर कहा जाता रहा होगा। यानी अपने गुणों से ही राम भगवान बन गए और हमेशा के लिए अमर हो गए। अमर से तात्पर्य यह नहीं कि व्यक्ति का यह शरीर सलामत रहे। अमर वह है जो इस दुनियां से विदा होने के बाद भी हमेशा याद किया जाता रहे। ऐसे में दैवीय प्रवृति के इंसान के साथ ही राक्षसी प्रवृति के इंसान भी अमर हुए। फर्क इतना रहा कि दैवीय प्रवृति वालों की अच्छाई को सभी पूजते हैं और राक्षसी प्रवृति वालों की बुराई से सबक लेने की नसीहत दी जाती है।
फिर यह सवाल उठता है कि क्या इंसान ही भगवान है। यदि इंसान ही भगवान है तो मंदिरों में इंसान की पूजा क्यों नहीं होती। फिर कई बार यही जवाब मिलता है कि जिसकी हम पूजा करते हैं वह दैवीय प्रवृति वाले इंसान ही तो थे, जो इस धरती में जीवन जीने के बाद विदा हो गए। सच तो यह है कि मंदिर भी इंसान ने ही बनाए और अन्य धार्मिक स्थल भी। हजारों साल पहले जब छोटे-छोटे कबीले होते थे, तो वहां का शक्तिशाली व्यक्ति कबीले का सरदार या राजा होता था। वह खुद को भगवान का दूत बताकर कबीले के हर व्यक्ति को डराकर रखता था। ताकि यदि व्यक्ति दूसरे इंसान से न डरे तो भगवान का नाम से जरूर डरेगा। भगवान का डर बैठाकर अच्छे कर्म करने की नसीहत दी जाती थी, जिससे दुनियां में अराजकता न फैले और व्यक्ति भगवान के नाम से डर कर रहे। सब ऊपर वाला देख रहा है। सबका हिसाब-किताब उसके हाथों है। तुम जो करोगे उसका फल वही देगा। इस तरह के सिद्धांत जो इंसान के दिमाग पर भरे गए वे आज भी कायम हैं। ऐसे में हम भगवान को ऊपरवाला मानकर कर्म करते हैं और फल की इच्छा उस पर ही छोड़ देते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इंसान में ही भगवान है और उसमें ही राक्षस है। ऐसे में इंसान के भीतर के भगवान को पहचानो। वही अपने कर्म से साधारण है, वही असाधारण, वही भगवान है और वही राक्षस। इंसान इस धरती पर जो भी करता है उसका नफा नुकसान उसके सामने यहीं पर आता है। हम धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों में हजारों, लाखों रुपये चढ़ा देते हैं, लेकिन हमें उसका फल नहीं मिलता। फल तो हमें इंसान में बस रहे भगवान को पहचानकर ही मिलेगा। यदि हम लाखों चढ़ावा देने की बजाय पांच भूखे व्यक्ति को भोजन करा दें तो भीतर से हमें सच्चे सुख की अनुभूति होगी।  हम आम का पेड़ लगाते हैं तो उस पर फल भी आम ही लगेगा। जीते जी ही व्यक्ति अपने कर्म से सुख भोगता है और दुख भी। दूसरा जन्म होगा या नहीं ये न तो किसी ने देखा है और शायद न ही संभव है। क्योंकि चाहे कोई तारा हो, गृह हो, पृथ्वी हो, इंसान हो, पेड़ हों, घर हों, नदी हो, पहाड़ हों, कोई शहर हो या फिर कोई गांव या वस्तु सभी का अस्तित्व हमेशा के लिए नहीं है। जो बना है उसे खत्म होना भी है। यही जीवन की सच्चाई है।............... (बहस जारी )

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भानु बंगवाल

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