Sunday 9 September 2012

लो आ गया हिंदी का वार्षिक श्राद्ध ..

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाए कि जिस देश को हिंदुस्तान कहते हैं, वहां हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता पड़ रही है। कोई भी दिवस या दिन विशेष की आवश्यकता उस विषय या कार्य के लिए पड़ती है, जिसे बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता होती है। अपने ही देश में अपनी राष्ट्रभाषा को बढ़ावा देने की बात समझ से परे है। यदि अंग्रेजी भाषा या फिर अन्य किसी भाषा के लिए दिवस मनाया जाए तो समझ में आता है। इसके उलट हिंदी भाषी देश में हिंदी दिवस को मनाकर ठीक उसी प्रकार औपचारिकता की इतिश्री कर दी जाती है, जैसे पितृ पक्ष में पित्रों का श्राद्ध मानकर की जाती है। हो सकता है कि 14 सितंबर को पूरे देश भर में मनाए जाने वाले हिंदी दिवस की तुलना श्राद्ध से करने से किसी को मेरी बात पर आपत्ति हो, लेकिन मैं कई साल से यही महसूस कर रहा हूं। ऐसा महसूस करने के कारण मैं आपके समक्ष रख रहा हूं। यदि किसी को मेरी भावनाओं से ठेस पहुंचे या फिर आपत्ति हो तो मैं उससे क्षमा प्रार्थी हूं। क्योंकि हिंदी दिवस साल में एक बार आता है और पितृ पक्ष भी साल में एक बार ही आते हैं। हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में उन सरकारी दफ्तरों में भी हिंदी का ढोल पीटा जाना लगता है, जहां अंग्रेजी में ही काम किया जाता है। सरकारी संस्थान तो हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में हिंदी दिवस पखवाड़ा आयोजित करते हैं। यह पखवाड़ा एक से 14 सितंबर या फिर 14 से 30 सितंबर तक आयोजित होता है। अब पितृ पक्ष को देखिए। यदि अधिमास न हो तो पितृ पक्ष भी 14 से 30 सितंबर के बीच पढ़ता है। करीब दो या तीन साल के अंतराल में ही अधिमास आता है, जो इस साल भी है। ऐसे में पितृ पक्ष थोड़ा लेट 30 सितंबर से शुरू हो रहा है।
हिंदी दिवस पखवाड़े व पितृ पक्ष के बीच समानता देखो दोनों लगभग एक ही दौरान साल भर में एक बार मनाए जाते हैं। पितृ पक्ष में ब्राह्माणों की पूछ होती है। पित्रों की तृप्ति के लिए उन्हें तर्पण दिया जाता है। तर्पण के बाद कौवे,कुत्ते व गाय को भोजन देने के साथ ही ब्राह्माण को भोजन कराया जाता है। साथ ही पंडितों को दक्षिणा भी देने की परंपरा है। अब हिंदी पखवाडा़ देखिए। साल भर कौवे की तरह अंग्रेजी की रट लगाने वाले सरकारी व निजी संस्थान इन दिनों हिंदी का ढोल पीटने लगते हैं। इस संस्थानों में हिंदी पखवाड़े के नाम पर बाकायदा बजट ठिकाने लगाया जाता है। हिंदी के रचनाकारों व कवियों के रूप में हिंदी के पंडितों को आमंत्रित किया जाता है। पितृ पक्ष मे किए गए श्राद्ध में पंडितों की भांति हिंदी के पंडित भी रचनाओं व गोष्ठी के माध्यम से हिंदी की महानता के मंत्र पढ़ते हैं। फिर चायपानी या ब्रह्मभोज भी होता है। साथ ही रचनाकारों को शाल आदि से सम्मानित किया जाता है और उन्हें सम्मान के नाम पर लिफाफे में दक्षिणा भी दी जाती है। हिंदी पखवाड़े का आयोजन संपन्न हुआ और संस्थान के अधिकारी भी तृप्त और रचनाकारों को कमाई का मौका मिलने से वे भी तृप्त।
अब सवाल उठता है कि हिंदी को लेकर इतना शोरगुल साल में एक बार ही क्यों। इस देश का असली नाम भारत है, हिंदुस्तान है या फिर इंडिया। शायद इस पर भी आम नागरिक के बीच भ्रम की स्थिति हो सकती है। अपने देश में हम भारतवासी हो जाते हैं,वहीं विदेशों में हमारी पहचान इंडियन के रूप में होती है। इंडिया यानी ईष्ट इंडिया कंपनी के पूर्व में गुलाम रहे और शायद आज भी उसकी भाषा अंग्रेजी के गुलाम हैं। जब इस देश का प्रधानमंत्री भी गलती से हिंदी बोलता हो तो राष्ट्रभाषा को बढ़ावा देने की बात बेमानी होगी। यही नहीं विदेश मंत्री रहते हुए अटल बिहारी बाजपेई ने यूएनओ में हिंदी में संबोधन कर देश भी धाक जमा दी थी। बाद में जब वह प्रधानमंत्री बने तो वह भी अंग्रेजी में संबोधन की परंपरा से अछूते नहीं रहे। हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़े के दौरान मीडिया भी हिंदी का ढोल पीटने लगता है। हकीकत यह है कि हिंदी मीडिया के भी सारे गैर संपादकीय कार्य अंग्रेजी में ही होते हैं। संपादकीय में भी अंग्रेजी के ज्ञाता को ही तव्वजो दी जाती है। भले ही हिंदी में  कितनी भी मजबूत पकड़ वाला यदि अंग्रेजी नहीं जानता तो उसके लिए हिंदी मीडिया में भी जगह नहीं है।
हिंदी को मजबूत बनाने के दावे भले ही कितने किए जाए, लेकिन तब तक यह दावे हकीकत में नहीं बदल सकते, जब तक हिंदी को रोजगार की भाषा नहीं बनाया जाएगा। जब तक सभी स्कूलों में हिंदी को अंग्रेजी व अन्य विषयों से ज्यादा तव्वजो नहीं दी जाती, सरकार हिंदी में कामकाज नहीं करती, रोजगार में हिंदी को अनिवार्यता नहीं दी जाती और हिंदी रोजगार की भाषा नहीं बनती तब तक हम हिंदी की बजाय अंग्रेजी के ही गुलाम रहेंगे। फिर हर साल हिंदी का श्राद्ध मनाते रहेंगे पर कुछ होने वाला नहीं है।
भानु बंगवाल         

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