Wednesday 26 September 2012

यही है टोपी शास्त्र

इसकी टोपी उसके सर, वाली कहावत कहीं न कहीं चरितार्थ हो जाती है। इन दिनों उत्तराखंड में टिहरी लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हो रहे हैं। ऐसे में टोपी शास्त्र भी हावी है। कहावत है- खादी पहनकर कोई गांधी नहीं बन सकता। अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान हरएक नेहरू टोपी पहनकर खुद को मैं अन्ना हूं कहने में शान महसूस कर रहा था, लेकिन क्या वास्तव में टोपी व्यक्ति का चरित्र बदल देती है। टोपी भले ही किसी का चरित्र नहीं बदले, लेकिन टोपी शास्त्र को देख लोग असमंजस में पड़ जाते हैं। टिहरी लोकसभा सीट के अंतर्गत देहरादून के कुछ हिस्से के साथ ही विकासनगर, कालसी, चकराता, उत्तरकाशी व टिहरी जनपद शामिल हैं। यहां टोपी शास्त्र भी चरम पर है। चुनाव से पहले हर जगह टोपीशास्त्र नेताओं की नींद उड़ा देता है। यह क्रम चुनाव के बाद भी जारी रहता है। यदि टिकट नहीं मिला, तो टोपी बदल दी और शामिल हो गए दूसरे दल में । जीतने के बाद भी यदि मंत्री पद नहीं मिला, तो फिर से टोपी बदल दी। हार गए तो तब उपेक्षा का आरोप लगाते हुए टोपी बदल दी। पूरे जीवन में भाजपा में विधायक का चुनाव लड़कर मातबर सिंह कंडारी मंत्री बनते रहे। राजनीति से रिटायरमेंट की उम्र निकट आने पर आखिर वक्त में चुनाव हार गए। पांच साल तक तो दोबारा भाजपा की सरकार बनने का इंतजार नहीं कर सकते थे। ऐसे में  टोपी बदलकर कांग्रेंस में चले गए। शायद यहीं कोई लालबत्ती मिल जाए और बुढ़ापा आसानी से कट जाए।
टोपी बदलने के ऐसे उदाहरण पूरे देश भर में हजारों मिल जाएंगे। क्या मतदाता खामोश है। वह हर बार वोट देकर कहता है कि ईमानदार को जीतना चाहिए। जब ईमानदार चुनाव लड़ता है तो यही कहता है कि उसमें नेता के गुण नहीं हैं। वह हारेगा। वैसे मतदाता भी निरंतर टोली बदल रहा है। समूचे लोकसभा क्षेत्र में चुनाव का माहोल रंगीन व गर्म बना हुआ है। कोई प्रत्याशी का प्रत्यक्ष रूप में प्रचार करता है, तो कोई मित्रो की चौकड़ी में जीत व हार को लेकर छिड़ने वाली बहस का हिस्सा बने हुए हैं। अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे लोग भी किसी न किसी की तरफ झुककर प्रचार करते हैं। इसका उन्हें पता ही नहीं चलता। इन सभी के बीच एक बहुरुपिया भी नजर आता है। यह बहुरुपिया भी लाजवाब है। वह किसी को निराश नहीं करता। नेताजी को खुश करने की तैयारी वह सुबह से कर लेता है। जो भी नेता क्षेत्र में आता है, उसे बहुरुपिया जरूर दिखाई देता है। नेताजी के सामने अपने हाथ से बनाई कागज की टोपी को वह पहनकर इठलाता हुआ उनके साथ चलता है। टोपी पर नेताजी का चुनाव चिह्न व मुद्दे छपे होते हैं। ऐसे में नेताजी गदगद। पहले नेताजी गए और दूसरे नेताजी आए। बहुरुपिया ने भी अपनी टोपी हटाई और कंधे पर डाल लिया इन नेताजी के चुनाव प्रचार का दुपट्टा। नेताजी के पिटारे में आश्वासन की गोलियां हैं। हर मर्ज का इलाज है। रसोई गैस के 12 सिलेंडरों पर सब्सीडी का आश्वासन है। सब कुछ है, पर चुनाव जीतने के बाद। इसी तरह बहुरुपिया के थैले में हर नेताजी की प्रचार सामग्री है। मुद्दे उसे टिप्स पर याद हैं। वह हर नेता को यही आश्वासन देता है कि वोट उसे ही डालेगा। कमोवेश पूरे क्षेत्र में मतदाताओं पर यही रंग चढ़ा है। वह भी नेताजी को निराश नहीं करता। सभी नेता तो अपने बीच के हैं। वह क्यों उन्हें निराश करेगा। नेताजी उस पर अपने मुद्दों, वादों व आश्वासनों के अबीर-गुलाल डाल रहे हैं। उस पर तो रंग के रंग चढ़ रहे हैं। कौन कारंग ज्यादा असर करेगा,  यह भविष्य की गर्त में छिपा है। फिर भी वह जानता है कि-
चुनाव से पहले
जो सब्जबाग
वे हमें दिखाते हैं
चुनाव के बाद उसे वे
खुद ही चट कर जाते हैं।

भानु बंगवाल

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