Saturday 17 March 2012

इत्तेफाक, संयोग या कुछ और....4

कई बार जीवन में ऐसी घटनाएं घटती हैं और मुसीबत आ जाती है। लगता है कि यह मुसीबत बड़ी बनेगी, लेकिन  जल्द ही दूर भी हो जाती है। इसे इत्तेफाक, संयोग माना जाए, या फिर कुछ और। खैर मुसीबत में कई बार दिमाग को भी कुछ नहीं सूझता है। इससे बाहर निकलना भी टेढ़ी खीर के समान होता है।
 कुछ साल पहले मेरी पत्नी ने वैष्णो देवी की यात्रा का प्लान बनाया। देहरादून से हमारा परिवार व सहारनपुर से उसके मायके के लोगों में मेरी सास, सास की बहन का परिवार व बच्चे आदि साथ थे। सहारनपुर से जब ट्रेन पर बैठे तो छोटे बच्चे सोने के बजाय उधम मचा रहे थे। उन्हें मैं समझा रहा था कि यात्रा में थकोगे। इसलिए पहले नींद पूरी कर लोग। बच्चे नहीं माने। देरी से सोये और उन्हें जल्दी उठना पड़ा। जम्बू पहुंचने के बाद कटड़ा तक बस का सफर। इस बीच रास्ते में एक स्थान पर बस रोकी। कुछ लोग खाने-पीने को उतरे और कुछ बैठ रह गए। हैडब्रेक न लगाने के कारण बस खाई की तरफ लुढ़कने लगी। हमारे साथ  के कई बस में ही थे। तभी एक ने फुर्ती से बस का स्टेरिंग सभांलकर उसे रोका। कटड़ा से आगे 14 किलोमीटर की पैदल दूरी। इस लंबे सफर में बच्चों की रफ्तार तेज थी। साथ ही पचास से ज्यादा उम्र के लोगों के कारण जब कुछ बच्चे आगे निकल जाते, तो सड़क किनारे बैठकर सभी का इंतजार करना पड़ रहा था।
सुबह दस बजे से चलना शुरू हुए और अंधेरा होने पर सांजी छत तक पहुंचे। वहां सभी की हिम्मत जवाब दे रही थी। कुछ ने सुझाव दिया कि यहां कुछ घंटे के आराम के बाद आगे बढ़ना चाहिए। मुझे आगे की यात्रा का अनुमान नहीं था। मैंने लगातार चलने की जिद्द की। मेरा तर्क था कि रुकने के बाद पांव जाम हो जाएंगे ऐसे में बच्चों का पैदल चलना मुश्किल हो जाएगा। तब मेरा बड़ा बेटा साढ़े दस साल व छोटा साढ़े छह साल का था। छोटे बेटे को नींद आ रही थी। उसे खाने की चीजें देकर मैं पैदल चलने को प्रेरित भी कर रहा था। आराम किए बगैर ही हम आगे चलते गए। मैने सभी बच्चों को बड़ों के मोबाइल नंबर भी याद कराए थे। बिछुड़ने की स्थिति में वह किसी से मदद लेकर हमें फोन कर सकते थे।
रात करीब नौ बजे वैष्णो देवी मंदिर भवन परिसर पहुंच गए। वहां सड़क पर तिल धरने की जगह नहीं थी। जिसे जहां स्थान मिला वह वहीं पसरा हुआ था। दुकानों, होटलों व धर्मशालाओं के बरामदे पर छत पर लोग आराम कर दर्शन का नंबर आने का इंतजार कर रहे थे। इस स्थान पर मोबाइल के सिग्नल भी गायब थे। ऐसे में किसी के बिछड़ने पर उसे तलाश करना भी मुश्किल भरा था। एक दुकान के बरामदे को हमने भी अपना अडडा बना लिया। बच्चे जमीन पर ही पसर गए। रात करीब ढाई बजे दर्शन करने के लिए लाइन में लगने का नंबर आया। छोटा बेटा गहरी नींद में था। उसे परिचय की एक महिला के पास छोड़ दिया गया। सभी बड़े बच्चों को नींद से उठाकर दर्शन के लिए गए। सुबह सूरज की किरणें जब निकली, तभी दर्शन हो सके। दर्शन के बाद तय हुआ कि वापसी के लिए तीन-चार किलोमीटर दूर चलकर सांजी छत पर आराम किया जाएगा। थकान के चलते बच्चे फिर से जमीन पर ही पसरे हुए थे। उन्हें नींद से उठाया गया और चलने को कहा गया। छोटा बेटा मेरी गोद में था, जो नींद में था। बड़ा बेटा नींद में ही मेरा हाथ पकड़कर चल रहा था। जहां से लाइन लगती है, वहां बेटे का हाथ मुझसे छूट गया। भीड़ काफी थी। धक्कामुक्की भी हो रही थी। मैं खुले स्थान पर गया और छोटे बेटे को वहां खड़ा किया। साथ ही लाउडस्पीकर से एनांउस कराया कि वह जहां हो, पूछताछ केंद्र पर आ जाए। एनाउंस करने वाले का उच्चारण ऐसा था कि मेरे ही समझ नहीं आ रहा था। तो बेटे को शायद ही समझ आता। मोबाइल ठप थे। पत्नी व साथ के अन्य लोग पीछे रह गए थे । तभी पत्नी के मौसाजी दिखे। उन्हें मैने बेटे के बिछड़ने के बारे बताया। बेटा समझदार था। घर का पता जानता था, लेकिन परेशानी लंबी खींचती। यही चिंता मुझे सता रही थी। इसी बीच सूचना मिली कि बेटा मिल गया। मेरी पत्नी को बेटे के बिछड़ने के बारे में नहीं बताया गया था। लंबी लाइन में लगने के बाद वह टायलेट को गई। वहीं एक खिड़की से उसे बड़ा बेटा दिखाई दिया। जो एक खाई की तरफ जा रहा था। शायद वह नींद में था। उसे देख पत्नी डर गई और बाहर निकलकर उस दिशा की तरफ भागी। तब तक खाई से पहले रैंलिंग का सहारा लेकर बेटा खड़ा हो गया। उसे पत्नी ने पकड़ा और अपने साथ खींच कर ले गई। बेटे से पूछा तो उसने बताया कि नींद में कुछ देर चलने के बाद जब वह खाई के पास पहुंचा, तभी उसे बिछड़ने का एहसास हुआ। तेजी से घटी इस घटना को इत्तेफाक कहा जाए या संयोग, या फिर खोना और अचानक मिलने को आस्था का चमत्कार कहा जाए। या फिर कुछ और...... 
                                                                                                                    भानु बंगवाल

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