Thursday 8 March 2012

आई और गई होली, पर बोतल नहीं खोली

होली के त्योहार का बच्चों के साथ हर उम्र के लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता है। बच्चों को मौज मस्ती का। युवाओं को अपने मित्र को रंगने का। प्रेमी व प्रेमिका को एक दूसरे के गुलाल रगड़ने का। बूढ़ों को बच्चों की मस्ती को देखने का। अब तो होली का त्योहार जो रूप लेने लगा, उसमें शराब का चलन तो प्रमुख हो गया। कई लोगों की तो शराब हलक से उतारने की शुरूआत होली से ही होती है। होली बीतने के बाद वह दूसरी होली का इंतजार करने लगते हैं।
शराब है ही ऐसी चीज, जो इंतजार कराती है। किसी मित्र की शादी हो तो कई को इसलिए इंतजार रहता है कि उस दिन जमकर पिएंगे और नाचेंगे। हर शाम को पीने के आदी रहने वालों का तो दिन भर किसी काम में मन तक नहीं लगता। उन्हें तो सिर्फ दिन ढलने का इंतजार इसलिए रहता है। रात कब हो और वे दोस्तों की मंडली में बैठकर पैग दर पैग उडा़एं। ऐसा ही इंतजार अक्सर युवाओं को रहने लगा है। होली में शराब के नशे में हुड़दंग भी ज्यादा होते हैं। हांलाकि हर नशा बुरा है। चाहे वह भांग व तंबाकू का क्यों न हो, लेकिन समाज में सबसे ज्यादा बुरा नशा शराब को ही करार दिया गया। क्योंकि यह किसी ने नहीं सुना होगा कि भांग व तंबाकू के नशे में व्यक्ति ने झगड़ा किया या किसी की बहू व बेटी को छेड़ा। शराब के नशे के बाद हुड़दंग की खबरें ही ज्यादा रहती हैं।
होली का मुझे भी इंतजार रहता था। दोस्तों के साथ मौज मस्ती का। इस दिन मैं घर पर नहीं रहता था। मेरी शराब की शुरूआत ही युवावस्था में होली के दिन से ही हुई थी। यह लत बढ़ती गई। बाद में हर शाम ढलने का इंतजार रहने लगा। शुरूआत में फ्री की पिलाने वाले खूब मिले। बाद में जब लत पड़ी तो जेब ढीली करने में भी संकोच नहीं होने लगा।
शराब छोड़ना चाहता था, पर छुटती नहीं थी। यार दोस्त समझाते तो बुरा लगता। मन में सोचता कि मुझे तो सीख दे रहे हैं, खुद अमल क्यों नहीं करते। एक समय ऐसा आया कि शराब पीने पर नशा होना भी बंद हो गया। या यूं कहिए कि मैं शराब की गिरफ्त में आ गया। करीब तीन साल पहले की होली थी। उस दिन सुबह शराब की बोतल निकालकर मैने खुद के लिए पैग बनाए। एक पैग पिया कि मन ने कहा कि इस होली से ही क्यों न शराब छोड़ दी जाए। बस बोतल उठाई और शराब को नाली में उड़ेल दिया। किसी के घर होली खेलने नहीं गया। खुद को कमरे में बंद कर लिया। कई बार बैचेनी बढ़ी, लेकिन खुद पर काबू पाने की कोशिश करता रहा। होली गई। एक-एक दिन शराब के बगैर काटने का अभ्यास करने लगा। शुरूआत में दिक्कत आई, लेकिन कब महीना, बीता और साल। बाद में इसका पता तक नहीं चला। इस दौरान कई शादियां आई। त्योहार मनाए। शराब से दूर रहा। होली आई, तो पता चला कि नशा छोड़ने का मजा ही कुछ और है। नशे के कारण समाज में प्रतिष्ठा खराब होने में एक पल नहीं लगता, लेकिन इसी प्रतिष्ठा को बनाने में कई साल लग जाते हैं। शराबी के साथ तो सिर्फ शराबी ही होली खेलना पसंद करता है। नशा न करने वाले के साथ तो हर एक मौजमस्ती करते हैं। इस बार भी होली आई। कई मित्रों के घर गया, कई बोतल खोलने को तैयार दिखे। मैने मना किया तो यही कहा गया कि शराब नहीं तो बीयर ही पी लो। मेरा तर्क था कि नशा तो नशा है चाहे वह भांग का क्यों न हो। कई ने आश्चर्य भी किया। कुछ ने थोड़ी जोर जबरदस्ती भी की, लेकिन सिर्फ मेरी चली। अब मैं गर्व से कह सकता हूं-होली आई और गई होली, पर बोतल नहीं खोली।

                                                                                                    भानु बंगवाल

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