Sunday 30 September 2012

लिंगवास या एक पौध का रोपण (श्राद्ध पर विशेष)

पिताजी की मौत के बाद जब क्रिया में बैठने की बारी आई तो तभी मुझे पता चला कि या तो सबसे बड़ा बेटा ही क्रिया में बैठता है या फिर छोटा। हम दो भाई हैं, ऐसे में मुझे ही क्रिया में बैठने का मौका मिला। जीवन व मरण के मौकों से लेकर अन्य तीज त्योहोर के लिए जो रसम व रिवाज मनुष्य ने बनाए हैं, उनका कहीं न कहीं वैज्ञानिक आधार भी है। जैसे दीवापली आती है, तो उससे पहले घर सजाने की तैयारी करते हैं। घर में रंग रोगन आदि करने के बहाने घर की सफाई हो जाती है। इस दिन का संबंध भी से होता है। दीपक जलाए जाते हैं और आतिशबाजी होती है। साथ ही सर्दी भी दस्तक दे चुकी होती है। दूसरे त्योहार होली का संबंध भी आग से ही होता है। इस दिन होली जलाई जाती है, रंग खेला जाता है। सर्दी चली जाती है और गर्मी शुरू हो जाती है। होली जलाने के बहाने घर का कूड़ा कचरा भी आग के हवाले कर दिया जाता है। इस बहाने भी घर की सफाई होती है। साथ ही सर्द कपड़े पहनने बंद हो जाते हैं। हरएक पर रंग मला जाता है। सर्दी में जो कई दिन से नहाने से बचता होगा, उसे भी रंगने के बाद मजबूरन नहाना पड़ता है। इस बहाने शरीर की सफाई भी हो जाती है। यानी आग से संबंधित एक त्योहार गरमी लेकर आता है तो दूसरा सर्दी।
किसी के मरने के बाद जो परंपराएं हमने बनाई हैं, इसमें मुझे पहली नजर में यही लगा कि इसे निभाने से व्यक्ति खुद को तन व मन से शुद्ध व मजबूत करते हैं। विपरीत परिस्थितियों में खुद को ढालने के लिए ही ऐसी परंपराएं बनी हैं। साथ ही इस दुनियां से विदा हुए व्यक्ति को लंबे समय तक याद रखने का भी तरीका यह हो सकता है। पिता या माता कि मृत्यु के बाद क्रिया में बैठना भी आसान नहीं है। सबसे कठिन तो पिता की मौत पर है। तेरहवीं तक क्रिया में बैठा व्यक्ति जमीन पर सोता है। अपने लिए स्वयं भोजन तैयार करता है। माता की मौत पर मीठा व दूध का सेवन नहीं करता और पिता की मौत पर तेरहवीं तक नमक का त्याग करना पड़ता है। आप तेरह दिन तक मीठा न खाओ तो चल जाएगा, लेकिन बगैर नमक के बनाई गई दाल या सब्जी की कल्पना ही काफी पीड़ादायक होती है। उस पर यह तोड़ भी नहीं कि नमक की जगह मक्खन का ही सेवन कर लो। यदि मक्खन भी खाना है तो वह भी ऐसा होगा, जिसमें नमक न हो। यानी हर चीज मीठी तो खा सकते हो, लेकिन नमक भूलकर भी नहीं खाना है। शुरूआत में मैं मीठा भोजन बनाता रहा, दो ही दिन में मीठे से मुझे नफरत हो गई, फिर फीका ही खाया। 
मौत पर सिर मुंडवाया, तो किसी से मुलाकात के दौरान पहले मुझे किसी को यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी कि मेरे घर में किसी की मौत हो रखी है। देखने वाले ने ही पहले पूछा क्या और कैसे हुआ। तब मौत के दिन की घटना की पूरी कहानी दोहरानी पड़ती थी। तेहरवीं से तीन या चार दिन पहले तक पीपल पूजा की जाती है। सही तो है कि जो पीपल का वृक्ष 24 घंटे प्राणवायु आक्सीजन छोड़ता है, उसकी पूजा भी इस संस्कार से जुड़ी है।
बात तेहरवीं तक ही सीमित नहीं रही। वार्षिक श्राद्ध होने तक हर महीने या तीन महीने के अंतराल में कुंभदान करना पड़ा। कुंभदान के दिन ही दाढ़ी पर घोटा लगाता था। जब तीन  महीने के अंतराल में मैने कुंभदान किए तो तब तक दाढ़ी भी इतनी बड़ी हो जाती थी, जैसे बाबा रामदेव की दाढ़ी हो। एक परंपरा और है, जो गढ़वाल में हर व्यक्ति को निभानी पड़ती है। यह परंपरा है लिंगवास की। यदि कोई गढ़वाल में ही क्रियाक्रम संस्कार कर रहा है तो वह तेहरवीं के दिन यह परंपरा निभाता है। अमूमन शहर में बसे लोग मौते के एक माह बाद इस परंपरा को निभाते हैं। इसके तहत अंतिंम संस्कार के वक्त गंगा या घाट पर अस्थी विसर्जन के दौरान एक छोटा सा गोल पत्थर क्रिया में बैठने वाला उठाता है। इस पत्थर को मूल गांव में पित्रों के नाम से बनाए गए छोटे से मंदिर में स्थापित किया जाता है। यह मंदिर कहने को मंदिर होता है। यह गांव से बाहर एक वीरान स्थान पर छोटे-छोटे पत्थर की स्लेट का एक छोटा सा बाक्सनुमा घर सा होता है। इसमें हर मरने वालों के नाम पर पत्थर रखे होते हैं। इस स्थान को पितृ लिंगवास कहते हैं। मान्यता है कि भगवान को पत्थरों के रूप में देखा और पूजा जाता है। इसलिए इंसान को भी मरने के बाद पत्थर के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। उन्हें भी पत्थरों के रूप में ही देखते हैं। या यूं कहें कि मरने वाले को ज्यादा समय तक याद रखने की यह परंपरा है।
हमारे गांव से बाहर दूसरे गांव में जिस स्थान पर पितृ लिंगवास बनाया गया है, वह स्थान काफी वीरान है। वहां तक पहुंचने में खड़ी चढ़ाई चढ़ते फेफड़े भी जवाब देने लगते हैं। उसी स्थान पर कन्याएं भी जिमाई जाती हैं। यह सारा काम पुरुष ही करते हैं। वर्ष 2000 में जब मैं पिता की मौत के बाद लिंगवास की परंपरा निभाने उस वीराने में गया तो मेरे मन में यही विचार आया कि पत्थर रखने की परंपरा क्यों बनाई गई है। यदि किसी को याद करना है तो इस वीराने में कोई दूसरा ऐसा काम क्यों नहीं किया जाता, जो समाज के लिए फायदेमंद हो। पर परंपरा है, जो एक बार शुरू होती है तो लंबे समय तक होती चली आती है। इसे तोड़ने के मतलब परिवार व समाज से बगावत। अब मुझे इस विचार का जवाब मिलने लगा है। पर्वतीय क्षेत्रों में विभिन्न संगठन जल, जंगल व जमीन के मुद्दे पर जागरूक हो रहे हैं। मैती संगठन की पहल पर विवाह के खुशी के मौके पर वर-वधू से यादगार के लिए पौधारोपण कराया जा रहा है। बात अब विवाह तक ही नहीं रही। हैस्को संस्था के संस्थापक एवं पदमश्री डॉ अनिल जोशी ने देहरादून के शुक्लापुर गांव में मृत्यु के बाद जीवन को सहेजने की अनूठी पंरपरा की शुरूआत की है। क्षेत्रवासी अपने प्रियजन की मौत पर छोटी आसन नदी के किनारे बने शमशान घाट में अंतिम संस्कार के बाद पौधे रोपते हैं। साथ ही चिता की राख खाद के रूप में इन पौध पर डाली जाती है। यह तो एक शुरूआत है। वह दिन दूर नहीं, जब पितृवास में लिंगवास (पत्थर रखने) की परंपपरा में बदलाव आएगा और पत्थर स्थापित करने के साथ ही वीराने में पौधे रोपे जाने लगेंगे। फिर चारों ओर हरे भरे जंगल होंगे।    
भानु बंगवाल

Saturday 29 September 2012

लड़ना है भाई, ये तो लंबी लड़ाई है......

विकास के नाम पर जिस पहाड़ की जनता हमेशा से ही छली जाती रही, अलग राज्य उत्तराखंड बनने के बाद भी इस पर अंकुश नहीं लग सका। लगता भी कैसे। वर्तमान में तो यह राज्य उन लोगों के लिए रानीतिक अखाड़ा बन गया है, जिनका राज्य बनने से पहले राज्य आंदोलन में कोई योगदान तक नहीं रहा। राज्य बनने के बाद सब कुछ तो वही है, जो पहले था। यानी पहा़ड़ों से पलायन, जर्जर भवनों में चल रहे स्कूल, स्कूल हैं तो मास्टर नहीं, बिजली नहीं पहुंचने से अंधेरे में डूबे गांव, पेयजल को तरसते ग्रामीण। गांवों को सड़कों का इंतजार, अस्पतालों में डॉक्टर का इंतजार। राज्य बनने के बाद एक चीज यहां ज्यादा बढ़ी है, वो है बंदरबांट। खुशी का मौका हो या गम का, बंदरबांट करने वाले पीछे नहीं हैं। वे तो हर जगह अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर ही लेते हैं और ठगी रह जाती है भोली भाली जनता।
उत्तराखंड राज्य के गठन को समझने के लिए सबसे पहले हमें राज्य आंदोलन की लड़ाई को समझना पड़ेगा। अलग राज्य उत्तराखंड की मांग पहले तक सीपीआइ और क्षेत्रीय दल में उत्तराखंड क्रांति दल उठाते रहे। वर्ष 94 में उत्तराखंड आंदोलन के प्रणेता व उत्तराखंड क्रांति दल के नेता इंद्रमणि बडौनी पौड़ी मंडल मुख्यालय में आमरण अनसन पर बैठे। उसी दौरान ओबीसी को आरंक्षण के खिलाफ राज्य में छात्रों ने आंदोलन शुरू कर दिया। दोनों ही आंदोलन गरमा रहे थे। तभी बडौनी को जबरन धरने से पुलिस ने उठा लिया और परिणामस्वरूप सभी जनपदों में आमरण अनशन पर बैठने वालों का तांता लग गया। तब आरक्षण के खिलाफ लड़ाई यूपी की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार और राज्य आंदोलन की लड़ाई केंद्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ चल रही थी। तब यह महसूस किया जाने लगा कि यदि अपने राज्य का गठन होगा तभी क्षेत्र की समस्याएं निपटेंगी। ऐसे में राज्य आंदोलन को लेकर ही सभी को मिलकर संघर्ष करना चाहिए। इस पर  अलग-अलग आंदोलन को एक झंडे के नीचे लाने के प्रयास हुए और उत्तराखंड सर्वदलीय संघर्ष समिति का गठन किया गया। विभिन्न समाजिक संगठन, कर्मचारी संगठन आदि ने समिति के नाम पर ऐतराज किया। उनका कहना था कि दल से लगता है कि यह समिति राजनीतिक दलों तक ही सीमित है। तब उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष सिमिति का गठन किया गया। इसमें कुछ समय तक भाजपा से जुड़े लोग जरूर शामिल हुए, लेकिन बाद में वे अलग से ही आंदोलन चलाते रहे। संघर्ष समिति में छात्र व मातृ शक्ति, अधिवक्ता, कर्मचारी संगठन, पूर्व सैनिक संगठन व राजनीतिक दलों से जुड़े लोग शामिल हो गए। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद अलग राज्य के निर्माण में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह्मा राव की चुप्पी से गुस्साए कई कांग्रेसी भी इस समिति में शामिल हो गए।
आंदोलन गांधीवादी तरीके से चल रहा था, कि एक सितंबर 94 को खटीमा में पुलिस की गोली से तीन आंदोलनकारी शहीद हो गए। यह घाव भरे ही नहीं थे कि अगले ही दिन दो सितंबर 94 को मसूरी में धरना दे रहे लोगों पर फिर पुलिस की गोली चली। इस गोलीकांड में छह आंदोलनकारी व एक पुलिस उपाधीक्षक शहीद हुए। बस फिर क्या था देहरादून व मसूरी में कर्फ्यू लगा दिया गया। इससे पहले देहरादून की जनता ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के दौरान व अस्सी के दशक में छात्र राजनीति के दौरान ही कर्फ्यू देखे थे। ऋषिकेश से ऊपर पहाड़ की जनता को तब तक यह पता ही नहीं था कि कर्फ्यू किस चिड़िया का नाम है। आंदोलन कभी केंद्र सरकार के खिलाफ तो कभी यूपी की सरकार के खिलाफ डोल रहा था। आंदोलन को हवा देने से बौखलाकर तत्कालीन यूपी के मुख्यमंत्री ने दो क्षेत्रीय समाचार पत्रों के खिलाफ हल्ला बोल की घोषणा कर दी। आंदोलन से रंगकर्मी, लेखक, या कहें कि संस्कृति कर्मी भी जुड़ गए। उत्तेजक नारे शालीनता में बदल गए। पहले नारे लगते थे-, चार चव्वनी थाली में,----नाली में। बाद में नारों में इस तरह बदलाव आया कि -मौनी बाबा कुछ तो बोल, संसद में मुंह तो खोल। संस्कृति कर्मियों ने सांस्कृतिक मोर्चा का गठन किया। राज्य आंदोलन के गीत लीखे जाने लगे। इनमें- लड़ना है भाई ये तो लंबी लड़ाई है। या फिर-लड़के लेंगे, भिड़के लेंगे, छीन लेंगे उत्तराखंड। ये गीत गांव, गली, शहर व नुक्कड़ों में आंलोदनकारियों की जुबां में थे। राज्य का जूनून लोगों के दिमाग में इस कदर हावी था कि पहाड़ की हर पगडंडियों में महिलाओं की भीड़ नारे लगाती नजर आने लगी थी।
दो अक्टूबर 1994 को उत्तराखंड संयुक्त समिति ने दिल्ली में रैली का आयोजन किया था। मकसद केंद्र को ताकत दिखाना था। समूचे उत्तराखंड से एक अक्टूबर की रात को बसों में भरकर लोग दिल्ली को रवाना हो रहे थे। ऐसे आंदोलनकारियों को उत्तराखंड व यूपी की सीमा पर मुजफ्फरनगर में रोक दिया गया। सुबह होते-होते वहां गोलीकांड में चार आंदोलनकारी शहीद हो गए और कई लापता। हिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती की सुबह खून से रंग गई। दिल्ली में भी रैली में व्यवधान हो गया। मंच को कब्जाने को लेकर आंदोलनकारी भिड़ गए। या फिर असामाजिक तत्व अपनी चाल में कामयाब हो गए। इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप तीन अक्टूबर को समूचे उत्तराखंड में बवाल मच गया। आंदोलन भटकता नजर आने लगा। हिंसा व कर्फ्यू का दौर शुरू हो गया। बाद में माना गया कि करीब 44 लोग समूचे आंदोलन के दौरान शहीद हुए थे। पहाड़ के लोगों में कई ऐसे थे, जिन्होंने पहली बार कर्फ्यू शब्द सुना था। कई कर्फ्यू देखने गांव से शहर को निकल पड़े। ऐसी ही एक वृद्धा-कख च कर्फ्यू मि तैं भी दिखावा (कहां है कर्फ्यू, मुझे भी दिखाओ) कहती हुई जब घर से बाहर आई तो उस पर पुलिस का डंडा पड़ा। बेचारी हाथ तुड़वाकर घर बैठ गई। इससे पहले ग्रामीण बाघ के आतंक से डरते थे, लेकिन  उन्हें कर्फ्यू के आतंक का भी अहसास हो गया। हाथ से निकलते आंदोलन को वरिष्ठ लोगों ने किसी तरह काबू किया और फिर लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन तब तक चलता रहा, जब तक राज्य का गठन नहीं हो गया।
यहां यह भी बताना चाहूंगा कि वर्ष, 94 में जब हिंसा का दौर चला तो उस समय दशहरा की तैयारी चल रही थी। रामलीला मंचन के पंडाल लग चुके थे। रामलीलाओं का मंचन रोक दिया गया। रावण के पुतले बनाने का काम भी बीच में रोक दिया गया। अधूरे पुतलों को जलाने की बजाय उन्हें जल समाधी दी गई। दीपावली में अधिकांश लोगों ने न तो घरों में सजावट की और न ही आतिशबाजी की गई। हर घर में मातम था। तब हर उत्तराखंडी यही सवाल एक दूसरे से पूछने लगा कि- क्या रावण फिर से जिंदा हो गया है।  
 यहां की जनता का दुर्भाग्य यही रहा कि जो अलग राज्य के विरोधी थे, या फिर आंदोलन में जिनका योगदान नहीं था, राज्य गठन के बाद वे ही सत्ता की धुरी बन गए। उन्होंने ही सत्ता सुख भोगा। मेरी लाश पर बनेगा उत्तराखंड कहने वाले अलग राज्य के विरोधी रहे एनडी तिवारी भी इस राज्य के मुख्यमंत्री बने। वहीं राज्य आंदोलन में जरा सा भी योगदान न करने और जीवन भर राज्य से बाहर रहने के बाद विजय बहुगुणा वर्तमान में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन बैठे। उत्तराखंड में परिवारवाद को बढ़ावा देते हुए उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपने बेटे को उतारा। यूपी में कांग्रेस की राजनिति करने वाली उनकी बहन रीता बहुगुणा भी अपने लिए उत्तराखंड में राजनीति की जमीन तैयार कर रही है।
उधर, आंदोलन के दौरान केंद्र व राज्य से लड़ते-लड़ते क्षेत्रीय दल राज्य गठन के बाद भी लड़ना नहीं भूले। अब वे आपस में ही लड़कर अपनी ताकत खो चुके हैं। रानीतिक महत्वकांक्षा के चलते उनकी मुट्ठी खुल गई और कई संगठनों में बिखर गए। राज्य बना बंदरबांट का खेल भी चला। कोई आंदोलनकारी के नाम पर सरकारी मदद खा गया, तो कोई किसी अन्य तरीके से मलाई खा रहा है। इसके विपरीत पहाड़ में समस्याओं का पहाड़ पहले जैसा ही है। हाल ही में उत्तरकाशी व रुद्रप्रयाग जनपद में आपदा आई। बेघर हुए पीड़ितों की मदद तो नहीं हुई, लेकिन सरकारी तंत्र ने आपदा के नुकसान की ऐसी लिस्ट तैयार कर दी, जिसमें बंदरबांट निश्चित है। मसलन जहां नुकसान नहीं हुआ, वहां का भी बजट बना दिया गया। हालात बंदरबांट तक ही सीमित नहीं हैं। खटीमा, मसूरी, मुजफ्फनगर गोलीकांड के दोषियों को सजा दिलाने में भी आज तक कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए। आज तक किसी दोषी को सजा तो नहीं हुई, लेकिन इसके उलट एक आंदोलनकारी को सजा जरूर हुई। इन हालातों के  चलते कई वर्षों तक राज्य आंदोलन की लड़ाई लड़ने वाले अब फिर से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का मन बना रहे हैं। फिर उनकी जुबां पर यही निकल रहा है कि-लड़ना है भाई ये तो लंबी लड़ाई है।
भानु बंगवाल   

Wednesday 26 September 2012

यही है टोपी शास्त्र

इसकी टोपी उसके सर, वाली कहावत कहीं न कहीं चरितार्थ हो जाती है। इन दिनों उत्तराखंड में टिहरी लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हो रहे हैं। ऐसे में टोपी शास्त्र भी हावी है। कहावत है- खादी पहनकर कोई गांधी नहीं बन सकता। अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान हरएक नेहरू टोपी पहनकर खुद को मैं अन्ना हूं कहने में शान महसूस कर रहा था, लेकिन क्या वास्तव में टोपी व्यक्ति का चरित्र बदल देती है। टोपी भले ही किसी का चरित्र नहीं बदले, लेकिन टोपी शास्त्र को देख लोग असमंजस में पड़ जाते हैं। टिहरी लोकसभा सीट के अंतर्गत देहरादून के कुछ हिस्से के साथ ही विकासनगर, कालसी, चकराता, उत्तरकाशी व टिहरी जनपद शामिल हैं। यहां टोपी शास्त्र भी चरम पर है। चुनाव से पहले हर जगह टोपीशास्त्र नेताओं की नींद उड़ा देता है। यह क्रम चुनाव के बाद भी जारी रहता है। यदि टिकट नहीं मिला, तो टोपी बदल दी और शामिल हो गए दूसरे दल में । जीतने के बाद भी यदि मंत्री पद नहीं मिला, तो फिर से टोपी बदल दी। हार गए तो तब उपेक्षा का आरोप लगाते हुए टोपी बदल दी। पूरे जीवन में भाजपा में विधायक का चुनाव लड़कर मातबर सिंह कंडारी मंत्री बनते रहे। राजनीति से रिटायरमेंट की उम्र निकट आने पर आखिर वक्त में चुनाव हार गए। पांच साल तक तो दोबारा भाजपा की सरकार बनने का इंतजार नहीं कर सकते थे। ऐसे में  टोपी बदलकर कांग्रेंस में चले गए। शायद यहीं कोई लालबत्ती मिल जाए और बुढ़ापा आसानी से कट जाए।
टोपी बदलने के ऐसे उदाहरण पूरे देश भर में हजारों मिल जाएंगे। क्या मतदाता खामोश है। वह हर बार वोट देकर कहता है कि ईमानदार को जीतना चाहिए। जब ईमानदार चुनाव लड़ता है तो यही कहता है कि उसमें नेता के गुण नहीं हैं। वह हारेगा। वैसे मतदाता भी निरंतर टोली बदल रहा है। समूचे लोकसभा क्षेत्र में चुनाव का माहोल रंगीन व गर्म बना हुआ है। कोई प्रत्याशी का प्रत्यक्ष रूप में प्रचार करता है, तो कोई मित्रो की चौकड़ी में जीत व हार को लेकर छिड़ने वाली बहस का हिस्सा बने हुए हैं। अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे लोग भी किसी न किसी की तरफ झुककर प्रचार करते हैं। इसका उन्हें पता ही नहीं चलता। इन सभी के बीच एक बहुरुपिया भी नजर आता है। यह बहुरुपिया भी लाजवाब है। वह किसी को निराश नहीं करता। नेताजी को खुश करने की तैयारी वह सुबह से कर लेता है। जो भी नेता क्षेत्र में आता है, उसे बहुरुपिया जरूर दिखाई देता है। नेताजी के सामने अपने हाथ से बनाई कागज की टोपी को वह पहनकर इठलाता हुआ उनके साथ चलता है। टोपी पर नेताजी का चुनाव चिह्न व मुद्दे छपे होते हैं। ऐसे में नेताजी गदगद। पहले नेताजी गए और दूसरे नेताजी आए। बहुरुपिया ने भी अपनी टोपी हटाई और कंधे पर डाल लिया इन नेताजी के चुनाव प्रचार का दुपट्टा। नेताजी के पिटारे में आश्वासन की गोलियां हैं। हर मर्ज का इलाज है। रसोई गैस के 12 सिलेंडरों पर सब्सीडी का आश्वासन है। सब कुछ है, पर चुनाव जीतने के बाद। इसी तरह बहुरुपिया के थैले में हर नेताजी की प्रचार सामग्री है। मुद्दे उसे टिप्स पर याद हैं। वह हर नेता को यही आश्वासन देता है कि वोट उसे ही डालेगा। कमोवेश पूरे क्षेत्र में मतदाताओं पर यही रंग चढ़ा है। वह भी नेताजी को निराश नहीं करता। सभी नेता तो अपने बीच के हैं। वह क्यों उन्हें निराश करेगा। नेताजी उस पर अपने मुद्दों, वादों व आश्वासनों के अबीर-गुलाल डाल रहे हैं। उस पर तो रंग के रंग चढ़ रहे हैं। कौन कारंग ज्यादा असर करेगा,  यह भविष्य की गर्त में छिपा है। फिर भी वह जानता है कि-
चुनाव से पहले
जो सब्जबाग
वे हमें दिखाते हैं
चुनाव के बाद उसे वे
खुद ही चट कर जाते हैं।

भानु बंगवाल

Monday 24 September 2012

बहस जारी है........

अमूमन हर शहर में कुछ काफी हाउस ऐसे होते हैं, जहां लोग समय बीताने के  लिए पहुंचते हैं। इनमें कई ऐसे लोग पहंचते हैं, जो या तो नौकरी, या फिर नेतागिरी से रिटायर्ड हो जाते हैं। ऐसे स्थान पर कवि, साहित्यकार से लेकर वे लोग भी पहुंचते हैं, जो किसी न किसी दल के नेता तो नहीं होते, लेकिन एक विचारधारा रखने वाले सच्चे कार्यकर्ता होते हैं। ऐसा ही एक काफी हाऊस देहरादून के चकराता रोड पर टिपटाप के नाम से था। समय बीतने के साथ उसका अस्तित्व सामाप्त हो गया। दूसरा काफी हाउस शहर के मुख्य चौराहे दर्शनलाल चौक पर है। जो वर्षों से अभी भी चल रहा है। वर्ष 91 से पहले तक मैं भी नियमित रूप से टिपटाप में जाता था। समय की व्यस्तता के चलते मेरा वहां जाना बंद हो गया। एक साल पहले टिपटाप भी सड़क चौड़ीकण की योजना की जद में आया और लगभग बंद हो गया। मैं पुरानी यादों को ताजा करने के लिए पुराने लोगों से मिलना चाहता था। ऐसे में मैने एक मित्र को फोन मिलाया और पूछा कि आजकल नेता, साहित्यकार आदि कहां बैठ रहे हैं। इस पर मित्र ने बताया कि ऐसे लोग डिलाइट में नियमित रूप से पहुंचते हैं। साथ ही मित्र ने सलाह दी कि डिसप्रिन की गोली जरूर खा कर जाना। नहीं तो शोरगुल व बहस को सुनकर सिर दर्द होने लगेगा। मैने कहा कि मैं तो अपने दिमाग की कसरत के लिए जा रहा हूं। नए आइडिए ऐसे ही स्थानों में हर तरह के लोगों के बीच बैठकर मिलते हैं। मुझे कोई गोली खाने की जरूरत नहीं है।
छुट्टी के दिन शाम के करीब चार बजे मैं डिलाइट में पहुंच गया। इस छोटे से रेस्टोरेंट में टेबिलों के दोनों तरफ बैठने के लिए बैंच रखी हैं। एक वक्त में पच्चीस से तीस लोग वहां आसानी से बैठ सकते हैं। वहां पहुंचते ही मुझे एक कम्युनिष्ट पार्टी के प्रदेश सचिव मिले। मुझे देखकर ही वह आत्मीयता से गले मिले। वही पतली काठी,ठोढी पर लेनिन मार्का दाढ़ी कुछ बड़ी हुई और पूरे गाल पर हल्की दाढ़ी। ये थे भंडारी जी, जो कभी श्रम विभाग में लेबर इंस्पैक्टर थे। बाद में नौकरी छोड़कर मजदूरों के नेता बन गए और उनके हक की आवाज उठाने लगे। उसकी हालत भी मजदूरों की तरह हो गई। भंडारी जी के साथ मैं एक बैंच पर बैठ गया और उत्तराखंड में चल रहे उपचुनाव को लेकर चर्चा करने लगा। मौके पर हर टेबल के आगे की बैंच लगभग भरी हुई थी। कही किसी की सरकार बन रही थी और कहीं केंद्र सरकार के गिरने की संभावनाओं पर बहस छिड़ी हुई थी। खूब शोरगुल का ऐसा माहौल था, जैसे बिन अध्यापक के किसी क्लास का होता है। यदि कोई किसी हटकर विषय में बोलता तो सभी चुप होकर उसे सुनने लगते, फिर आपस में बातचीत में मशगूल हो जाते। इसी बीच एक सेवानिवृत आंखों के डॉक्टर ने शिगूफा छोड़ा कि एक बड़े नेता ने हाल ही में चुनाव के मद्देनजर कुछ पत्रकारों को भोज दिया। इस दौरान उसने चुनिंदा लोगों को पांच-पांच लाख बांटे हैं। अब राशि कम थी या ज्यादा, बांटी या नहीं बांटी, इसे लेकर फिर बहस छिड़ गई। मेरे सामने एक कहानीकार भारतीजी बैठे थे। उन्होंने बताया कि वह चांद पर मानव के पहले कदम को लेकर कहानी लिख रहे हैं। कहानी में यह बताना चाहते हैं कि चांद तो देवता स्वरूप पूजे जाते हैं। जब वहां मानव पहुंचे तो देवता चांद ने विरोध क्यों नहीं किया। ऐसे में वह चांद के बारे में आर्यजी से जानकारी चाह रहे थे। वहीं आर्यसमाजी विचारधारा वाले आर्य चांद की शीतलता, चपलता, शांति, क्रोध के गुणों का वर्णन कर रहे थे। कहानीकार भारती जी को तो चांद के किसी गुण की लोककथा चाहिए थी। ऐसे में वह परेशान हो रहे थे। मैने उन्हें चांद की धृष्टता की एक कहानी सुना दी। ऐसी काल्पनिक कहानी देहरादून के चंद्रबनी में गौतम मंदिर की दीवार पर लिखी हुई थी, जिसे मैं कई साल पहले पढ़ चुका था। कहानी सतयुग से जोड़ी हुई थी। जब गौतम ऋषि मुर्गे की बांग की आवाज सुनकर सुबह चार बजे गंगा में नहाने जाते थे। उनकी पत्नी अहिल्या काफी सुंदर थी। उस पर इंद्र मोहित हो गया था। ऐसे में इंद्र ने अहिल्या को पाने की लिए चाल चली। इस काम में उसने चंद्रमा को साथ लिया। षडयंत्र के तहत चंद्रमा ने रात के दो बजे ही मुर्गे की आवाज निकाली। ऋषि ने समझा कि सुबह हो गई है और वह पैदल मार्ग से देहरादून से हरिद्वार गंगा नहाने चले गए। इस बीच इंद्र गौतम ऋषि के वेश में उनकी कुटिया पहुंचा। अहिल्या ने कहा कि यदि मेरे पति हो तो कुटिया में आओ, नहीं तो तुम्हें कुष्ट रोग हो जाएगा। कहावत है कि इंद्र के कुटिया में प्रवेश करते ही उसे कुष्ट रोग हो गया। वहीं, हरिद्वार में गंगा स्थान को पहुंचे गौतम ऋषि पर गंगा को तरस आया। उसने गौतम को बताया कि इंद्र तुमसे छल कर चुका है। आज से मैं तेरी कुटिया के पास ही प्रकट हो जाऊंगी। ऋषि स्नान के बाद वापस लौटे तो देखा कि कुटिया के पास पानी की जलधारा निकल रही है। ऋषि ने अहिल्या से पूछा कि उनकी अनुपस्थिति में कोई आया था। अहिल्या के कुछ बोलने से पहले ही उनकी बेटी अंजना ने बता दिया कि आपके वेश में कोई आया था। इस पर ऋषि ने अहिल्या को पत्थर होने का श्राप दिया। वहीं चुगली करने पर अहिल्या ने अंजना को कुंवारी मां बनने का श्राप दिया। ऋषि का गुस्सा थमा नहीं और उन्होंने कंधें पर रखी गीली धोती चांद पर दे मारी। तब से चांद पर दाग पड़ गया। क्या कहानी लिखी, किसी लेखक ने। हर एक वस्तु के अस्तित्व पर ही ऐसा खाका खींचा कि इस कल्पना पर अज्ञानतावश कोई भी विश्वास कर सकता है। 
कहानीकार मित्र उछल पड़े। उन्हें अपनी कहानी के तार मिल गए। कहने लगे कि अज्ञानी व अंधविश्वासी व्यक्ति देवता चांद पर किसी के पहुंचने की कल्पना नहीं कर सकता। ऐसे में जब पहली बार वहां मानव ने कदम रखा तो अंधविश्वासी का तर्क रहेगा कि उस समय चांद गौतम ऋषि की कुटिया में इंद्र का छलावा देखने में मशगूल था। वह इतना मस्त हो गया कि उसे यह अहसास तक नहीं हुआ कि किसी ने उसकी छाती पर पैर रखा है। उन्हें कहानी आगे बड़ाने का प्लाट मिल गया, लेकिन मेरा वहां बैठने का मकसद पूरा नहीं हो रहा था।
तभी एक पहलवान व उनका बेटा वहां पहुंचे। दोनों ही कुछ राजनीतिक लोगों से बहस में मशगूल हो गए। पहलवान कभी खुफिया पुलिस (एलआइयू) में थे। जनवादी विचारधारा के होने के कारण पुलिस में भी यूनियन गठित कर दी। तब एक साथ कई पुलिसवालों की नौकरी गई। इनमें पहलवान भी शामिल थे। बच्चे पालने में उन्हें काफी पापड़ बेलने पड़े। संयोग से एक संस्थान में नौकरी मिली, लेकिन वहां से भी बर्खास्त कर दिए गए। फिर जीवन भर मुकदमा लड़ते रहे। जब जीते तो नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए। पहलवान त्यागी का बड़ा बेटा पिता की विचारों को आगे बड़ा रहा है। छोटा मुंबई में हीरो बनने गया था, पर अब सीरियल या भोजपुरी फिल्मों में आ जाता है।
पहलवान के बेटे ने बताया कि लोकसभा के चुनाव में उसने रंगकर्मी को खड़ा किया है। मैने उसे समझाया कि नौकरी से रिटायरमेंट के बाद क्यों उक्त रंगकर्मी का बुढा़पा खराब कर रहे हो। इस पर पहलवान का बेटा समझाने लगा कि रंगकर्मी बेहद ईमानदार है। हमारे पास अन्य की भांति न तो पैसा है और न ही संसाधन। हम तो पैदल ही प्रचार कर रहे हैं। सिर्फ एक गाड़ी की व्यवस्था की है। हमें पता है कि हम हार जाएंगे, लेकिन ईमानदार व्यक्ति को चुनाव लड़ाने का प्रयास तब तक जारी रहेगा, जब तक वह जीतता नहीं। उसने बताया कि मैने भी विधानसभा का चुनाव लड़ा था। प्रचार के लिए गाड़ी का किराया हजारों में बैठ रहा था। इस पर मैने पैंतीस हजार में पुरानी कार खरीदी। पेट्रोल तो मित्र भरा देते थे, लेकिन ड्राइवर सौ रुपये प्रतिदिन के हिसाब से रखा। अन्य लोग पांच सौ के साथ खाना व दारू दे रहे थे।  ऐसे में चालक भी भाग गया। फिर अपने बचपन के मित्र से कार चलवाई। चुनाव के बाद कार को उतनी ही रकम में बेच दिया, जितने में खरीदा था। सच में चुनाव लड़ने वालों के पास हर समस्या का तोड़ है। शाम होने लगी। बाहर बूंदाबांदी भी हो रही थी। इस पर मैं सबसे विदा लेकर घर की तरफ रवाना हो गया। वहीं इस काफी हाउस में बहस जारी थी, जो रात नौ बजे तक दुकान का शटर गिरने से पहले तक चलती रहनी थी।

 भानु बंगवाल

Sunday 23 September 2012

यही है कड़ुवा सच....

वर्ष 1989 में सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद पिताजी ने देहरादून के आर्यनगर में एक छोटा का मकान खरीदा। इस मोहल्ले में पिताजी की नाम राशि का एक अन्य व्यक्ति भी था, जिसका पता हमें नए मकान में रहने के कई दिनों बाद चला। गढ़वाल की बंगवाल जाति के होने के बावजूद पिताजी ने सरकारी नौकरी में अपने नाम के आगे बंगवाल की जगह शर्मा लिखवाया। साथ ही हम दोनों भाई के नाम के आगे भी स्कूल में दाखिले के वक्त शर्मा ही लिखवा दिया गया। खैर इस नाम में क्या रखा है। फिर भी पिताजी के नाम कुलानंद शर्मा के नाम वाला हमारे मोहल्ले में एक अन्य व्यक्ति भी था। इसका पता हमें तब चला, जब दूसरे कुलानंद शर्मा की चिट्ठी-पत्री हमारे घर पहुंचती। पत्र लिखने वाले को जब हम जानते ही नहीं थे तो पहले इसी उधेड़बुन में रहे कि आखिर किसने हमें पत्र लिखकर मजाक किया है। बाद में पता चलाकि एक अन्य भी व्यक्ति पिताजी के नाम वाला है। अक्सर उसकी बेटी ससुराल से अपने पिता को पत्र भेजती थी। पोस्टमैन भी गफलत में पता ठीक से नहीं देखता और पत्र बदल जाते। बाद में हम पत्र को सही स्थान तक पहुंचा देते। यह क्रम तब तक चला जब तक एक नाम वाले दोनों व्यक्तियों की मौत नहीं हो गई। मौत भी दोनों की एक ही दिन हुई। यानी छह जनवरी, 2000 को। हालांकि दोनों की मौत का समय अलग-अलग था। यहां भी शोक मनाने वाले गफलत में रहे। हमारे परिचित या जिन रिश्तेदारों ने पहले से हमारा घर नहीं देखा था, उनमें से कई दूसरे शर्माजी के घर पहुंच गए। इसी तरह उनके कई परिचित तेहरवीं में हमारे घर पहुंचकर ब्रह्मभोज तक कर गए। जब उन्हें वास्तविकता पता चली, फिर वे दूसरे शर्मा जी के घर गए। यह था महज एक संयोग।
कई बार ये संयोग भी ऐसे होते हैं कि इससे व्यक्ति अंधविश्वासी होने लगता है। वर्ष  2001 में सड़क पर बेहोश व्यक्ति को कोई उठाकर देहरादून के दून चिकित्सालय में भर्ती करा गया। उस बीमार व्यक्ति ने करीब तीन दिन बाद अस्पताल में दम तोड़ दिया। चिकित्सक ने उसे मृत घोषित कर दिया। साथ ही लावारिश होने के कारण शव को मॉर्चरी में रखवा दिया गया। अगले दिन सुबह पोस्टमार्टम के लिए पुलिस पंचनामा भरने पहुंची। जब शव को कपड़ा लपेटकर सील किया जा रहा था तो देखा कि जिसे चिकित्सक ने मरा घोषित किया था, वह तो जिंदा है। इस पर उसे दोबारा वार्ड में भर्ती करा दिया गया। हालांकि गलती पर चिकित्सक बौखलाए हुए थे। ऐसे में उन्होंने उस व्यक्ति को बचाने के कोई प्रयास नहीं किए। सर्दी में भी उसे पर्याप्त कंबल तक नहीं दिए गए। उपचार में लापरवाही के चलते वह व्यक्ति ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह सका। उसके मरने पर उक्त डॉक्टर ने जरूर राहत महसूस की होगी, जिसने पूर्व में उसे मृत घोषित कर दिया था।
इस तरह के कई उदाहरण हैं, जब चिता में आग लगाने से पहले मृत समझे जाने वाले व्यक्ति में हरकत होने लगती है और उसे स्वर्ग से लौटा हुआ मान लिया जाता है। इसके विपरीत हकीकत यह होती है कि जिसे हम मृत समझते हैं, वह मरता ही नहीं है। व्यक्ति की नब्ज इतनी धीमी होती है कि कई बार पकड़ में नहीं आती। ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति बेहोशी की दशा में होता है। कई बार वह सपने भी देखता है। यदि होश में आने के बाद उसे सपना याद रहता है तो वह पुनर्जन्म की धारणा को आगे बढ़ाते हैं। ऐसे व्यक्ति को यदि बेहोशी की दशा के सपने याद रहें तो अमूमन वे एक ही बात कहते हैं कि वह ऊपर गया। वहां एक दरबार लगा था। सिंहासन पर यमराज बैठे थे। जब मुझे दूत दरबार में ले गया तो यमराज के कहा कि गलत व्यक्ति को ले आए। इसे वापस ले जाओ, अभी इसका वक्त नहीं आया है। ऐसी कहानी कुछ और भी हो सकती हैं, लेकिन सभी में देवता या दूत की गलती के बाद व्यक्ति को वापस भेजा जाता है। अब सवाल यह उठता है कि कहानी सुनाने वाला यदि हिंदू था, तो उसे यमराज या हिंदू देवता ही दिखाई दिए। यदि वह मुसलमान या फिर ईसाई होता तो उसे भगवान किस रूप में दिखाई देता। क्योंकि हमने भगवान की जो काल्पनिक छवि अपने दिमाग में बना रखी है, या फिर हमारे दिमाग में बचपन से भर दी गई है, हमें उसी रूप में वह नजर आते है। ऐसे में हिंदू को हिंदू, मुसलमान को मुस्लिम, ईसाई को उनके धर्म के अनुरूप ही स्वर्ग का माहौल नजर आएगा। फिर सवाल उठता है कि क्या भगवान भी जाति के आधार पर बंटे हैं। हकीकत यह है कि ना तो व्यक्ति कहीं बाहर से आता है और न ही मरने के बाद कहीं बाहर जाता है। व्यक्ति यहीं पैदा होता है और यहीं मर भी जाता है। उसने ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बनाए हैं और उसने ही व्यक्ति को जाति व धर्म में बांटा है। वही अपने भगवान की कल्पना करता है, लेकिन उस असली भगवान को भूल जाता है, जो मनुष्य के भीतर है।
इसे कुछ इस तरह से समझा जा सकता है कि एक बीज से नई पौध उगती है। पौध पेड़ का रूप लेती है। पेड़ में फल लगते हैं। फल में बीज होते हैं। उन बीजों से नई पौध पैदा होती है। यही सिद्धांत मानव व अन्य प्राणी में भी लागू होता है। व्यक्ति पैदा हुआ, बड़ा हुआ, उसके बच्चे हुए, वह बूढ़ा हुआ और एक दिन मर गया। यानी यदि पेड़ को काटा नहीं गया, हवा आंधी या फिर किसी बीमारी से वह नष्ट नहीं हुआ तो एक दिन बूढ़ा होकर जमीन से जड़ छोड़ देगा।
मेरा यह स्पष्ट मानना है कि जो पैदा हुआ उसका नष्ट होना निश्चित है। फिर पुनर्जमन्म कहां से आ गया। पुनर्जन्म की बात करने वाले तर्क देते हैं कि आत्मा अजर, अमर है। वह तो शरीर रूपी चोला बदलती है। यदि चोला ही बदलना है तो नए शरीर की आत्मा को क्या आवश्यकता है। किसी मृत शरीर में क्यों नहीं जाती। फिर हम यह भी देख सकते हैं कि यदि आत्मा शरीर रूपी चोला बदलती है तो इस संसार में पैदा होने व मरने वालों की संख्या बराबर होनी चाहिए। यहां चोला बदलने के सिद्धांत वाले तर्क देंगे कि मानव का शरीर लाखों चोला बदलने के बाद मिलता है। यहां मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि जब सृष्टि की रचना हुई। इस धरती पर जीवन आया तो उस समय प्राणी की संख्या गिनती भर की रही होगी। तब मनुष्य, कीड़े- मकोड़े, पशु व अन्य जीव जितने रहे होंगे आज उनकी संख्या में हजारों से लाखों गुना की वृद्धि हो चुकी है। यानी तब जितनी आत्मा थी, आज उनकी संख्या भी ज्यादा हैं।  क्योंकि आत्मा तो चोला बदलती है। ऐसे मे निरंतर बढ़ रही प्राणियों की संख्या के लिए अलग से आत्मा कहां से आ रही हैं। स्पष्ट है कि नए शरीर बनने के साथ ही नई आत्मा भी वन रही है। शरीर के नष्ट होने के बाद आत्मा रूपी चेतना भी नष्ट हो जाती है। चोला बदल जैसी चीज कुछ भी नहीं।
जब मनुष्य ने इस धरती पर जन्म लिया और यहीं पर हमेशा के लिए मिट जाना है, तो हम अगले जन्म को सुधारने की बात को लेकर क्यों कर्म करते हैं। इसी जन्म को हमें बेहतर बनाना चाहिए। भगवान कहीं बाहर नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति में समाया हुआ है। उसमें भगवन भी है और राक्षस भी। हम जिस गुण को विकसित करेंगे हमारी प्रवृति वैसी ही हो जाएगी। सदकर्म करेंगे तो जीवन आनंदित होगा। और यदि रोते रहे, दूसरों को दुख देते रहे, तो हम हमेशा दुखी रहेंगे। व्यक्ति अच्छे या बुरे कर्म से याद किया जाता है। अच्छों की अच्छाई अमर हो जाती है और बुरों की बुराई। अच्छाई को अपनाने के लिए सभी प्रेरित करते हैं, और बुराई से नसीहत ली जाती है। यदि यह शरीर नष्ट हुआ तो दोबारा नहीं आता। यही इस जीवन की कड़वी सच्चाई है। 
भानु बंगवाल

Friday 21 September 2012

आखिर कहां है भगवान......

कहावत है कि जैसे कर्म करोगे वैसा ही फल पाओगे। यह फल हमें कहां से मिलता है। क्या इस फल को भगवान देता है। या फिर हमारे कर्म ही फल को तैयार करते हैं। ये भगवान कौन है। कहां रहता है। ये किसी-किसी को ही क्यों दिखाई देता है। वह हमें दिखाई क्यों नहीं देता। इस तरह के कई सवाल मेरे जेहन में उठते हैं। फिर शुरू होती है इन सवालों के जवाब की खोज। मैंने न तो ज्यादा किसी संत के प्रवचन सुने हैं और न ही वेद, गीता आदि का मुझे ज्यादा ज्ञान है। हां कभी कभार बड़े बुजुर्गों के मुख से इन गूढ़ विचारों को जरूर सुना है। भगवान के बारे में मुझे बचपन से ही रटा दिया गया है कि एक शक्ति है, जो इस सृष्टि को चलाती है। वह शक्ति दिखने में कैसी है, कहां रहती है, दिन भर क्या करती है, इसकी मात्र इंसान कल्पना ही करता है।
मेरी नजर में मेरे सवालों के हर रहस्य का जबाब मात्र इंसान में ही छिपा है। उसके कर्म ही उसे इंसान व भगवान की श्रेणी में रखते हैं। यानी इंसान के भीतर ही यदि कोई बीमारी है तो इलाज भी वहीं है। फिर सवाल उठता है कि क्या भगवान ही अमर है। इंसान अमर नहीं होता। ये अमर क्या है। अब इन सवालों के जवाब को खोजें तो हम पाएंगे कि सृष्टि की रचना के बाद ही दुनियां में तीन तरह के इंसान हुए। इनमें से एक वे थे, जो दुनियां में साधारण जीवन जीते रहे। दूसरी तरह के इंसान वह थे जो आम व्यक्ति को लूटते रहे। उन पर अत्याचार करते रहे। उनके अत्याचार से आम आदमी का जीवन नर्क होता चला गया। फिर ऐसे व्यक्तियों को राक्षसी प्रवृति का मान लिया गया और उन्हें राक्षस कहा जाने लगा। तीसरी तरह के वे इंसान थे, जो अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए जीवन जीते रहे। ऐसे व्यक्तियों ने समाज को राक्षसों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए उनसे युद्ध तक किए। समाज को संगठित किया, जागरूक किया और राक्षसों के अत्याचारों से मुक्ति भी दिलाई। ऐसे लोगों को दैवीय प्रवृति का मानकर भगवान के रूप में पूजा जाने लगा। ऐसे लोगों में हम राम का उदाहरण ले सकते हैं। उन्होंने बचपन में महर्षि विश्वमित्र के साथ जंगल में जाकर ऋषियों को ताड़का व अन्य राक्षसों के अत्याचार से मुक्ति दिलाई। बाद में 14 साल तक वनवास की अवधी में भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण कर लोगों को संगठित कर, जागरूक कर लुटेरों (राक्षसों) के अत्याचार से मुक्ति दिलाई।
अब सवाल उठता है कि राम तो एक राजा थे, फिर वह भगवान कैसे हुए। आज उनकी पूजा क्यों की जाती है। यहां मेरा जवाब है कि राम भी आम इंसान की तरह ही एक व्यक्ति थे, लेकिन अत्याचार के खिलाफ उन्होंने जो लड़ाई लड़ी, उससे वह साधाराण से असाधारण व्यक्तित्व वाले बन गए। उन्होंने जाति का भेद तक नहीं किया और शबरी के बेर खाने से भी परहेज नहीं किया। गरीब, आदिवासी व्यक्तियों को अपने साथ जोड़कर एक संगठन की रचना की। अत्यधिक पिछड़े होने के कारण इन आदिवासियों को तब बंदर कहा जाता रहा होगा। यानी अपने गुणों से ही राम भगवान बन गए और हमेशा के लिए अमर हो गए। अमर से तात्पर्य यह नहीं कि व्यक्ति का यह शरीर सलामत रहे। अमर वह है जो इस दुनियां से विदा होने के बाद भी हमेशा याद किया जाता रहे। ऐसे में दैवीय प्रवृति के इंसान के साथ ही राक्षसी प्रवृति के इंसान भी अमर हुए। फर्क इतना रहा कि दैवीय प्रवृति वालों की अच्छाई को सभी पूजते हैं और राक्षसी प्रवृति वालों की बुराई से सबक लेने की नसीहत दी जाती है।
फिर यह सवाल उठता है कि क्या इंसान ही भगवान है। यदि इंसान ही भगवान है तो मंदिरों में इंसान की पूजा क्यों नहीं होती। फिर कई बार यही जवाब मिलता है कि जिसकी हम पूजा करते हैं वह दैवीय प्रवृति वाले इंसान ही तो थे, जो इस धरती में जीवन जीने के बाद विदा हो गए। सच तो यह है कि मंदिर भी इंसान ने ही बनाए और अन्य धार्मिक स्थल भी। हजारों साल पहले जब छोटे-छोटे कबीले होते थे, तो वहां का शक्तिशाली व्यक्ति कबीले का सरदार या राजा होता था। वह खुद को भगवान का दूत बताकर कबीले के हर व्यक्ति को डराकर रखता था। ताकि यदि व्यक्ति दूसरे इंसान से न डरे तो भगवान का नाम से जरूर डरेगा। भगवान का डर बैठाकर अच्छे कर्म करने की नसीहत दी जाती थी, जिससे दुनियां में अराजकता न फैले और व्यक्ति भगवान के नाम से डर कर रहे। सब ऊपर वाला देख रहा है। सबका हिसाब-किताब उसके हाथों है। तुम जो करोगे उसका फल वही देगा। इस तरह के सिद्धांत जो इंसान के दिमाग पर भरे गए वे आज भी कायम हैं। ऐसे में हम भगवान को ऊपरवाला मानकर कर्म करते हैं और फल की इच्छा उस पर ही छोड़ देते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इंसान में ही भगवान है और उसमें ही राक्षस है। ऐसे में इंसान के भीतर के भगवान को पहचानो। वही अपने कर्म से साधारण है, वही असाधारण, वही भगवान है और वही राक्षस। इंसान इस धरती पर जो भी करता है उसका नफा नुकसान उसके सामने यहीं पर आता है। हम धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों में हजारों, लाखों रुपये चढ़ा देते हैं, लेकिन हमें उसका फल नहीं मिलता। फल तो हमें इंसान में बस रहे भगवान को पहचानकर ही मिलेगा। यदि हम लाखों चढ़ावा देने की बजाय पांच भूखे व्यक्ति को भोजन करा दें तो भीतर से हमें सच्चे सुख की अनुभूति होगी।  हम आम का पेड़ लगाते हैं तो उस पर फल भी आम ही लगेगा। जीते जी ही व्यक्ति अपने कर्म से सुख भोगता है और दुख भी। दूसरा जन्म होगा या नहीं ये न तो किसी ने देखा है और शायद न ही संभव है। क्योंकि चाहे कोई तारा हो, गृह हो, पृथ्वी हो, इंसान हो, पेड़ हों, घर हों, नदी हो, पहाड़ हों, कोई शहर हो या फिर कोई गांव या वस्तु सभी का अस्तित्व हमेशा के लिए नहीं है। जो बना है उसे खत्म होना भी है। यही जीवन की सच्चाई है।............... (बहस जारी )

अगला ब्लॉग-पुर्नजन्म पर उठते सवाल व मेरे जवाब
भानु बंगवाल

Thursday 20 September 2012

बलि का बकरा....

सुबह-सुबह मुझे एक परिचित का फोन आया। पहले में फोन करने वाले की आवाज पहचान नहीं सका। कारण कि उक्त व्यक्ति से मिले हुए मुझे करीब बीस साल हो चुके हैं। बीस साल पहले हम हर दिन मिलते थे। तब एक नाट्य संस्था से दोनों जुड़े थे। तब में युवा था और वह मुझसे करीब बीस साल ज्यादा की उम्र के थे और वह रंगकर्मी होने के साथ ही ऊर्जा निगम में नौकरी कर रहे थे। साथ ही वह काफी ईमानदार व मृदुभाषी व्यक्तित्व के थे। पत्रकारिता में आने के बाद मैं नुक्कड़ नाटकों के लिए समय नहीं निकाल पाया। कारण कि समाचार पत्रों में लिखने का समय शाम को होता है और रंगकर्मी भी नौकरी आदि से छुट्टी मिलकर शाम छह बजे से ही नाटकों की रिहर्लसल करते हैं। फोन पर परिचय देने के बाद रंगकर्मी मित्र पहले नाराज हुए कि मैं उन्हें पहचान क्यों नहीं पाया। फिर वह बड़े उत्साह के बोले कि मैं चुनाव लड़ रहा हूं, मेरा ख्याल रखना। मैने पूछा कौन सा चुनाव। इस पर उन्होंने कहा कि कैसे पत्रकार हो। कुछ पता ही नहीं कि उत्तराखंड में लोकसभा की टिहरी सीट के लिए उपचुनाव हो रहे हैं। एमपी के लिए मैं खड़ा हूं। उनके इस जवाब को सुनकर मेरे मुंह से अचानक ये शब्द निकले-बना दिया बलि का बकरा।
शायद ये शब्द रंगकर्मी मित्र नहीं सुन पाए। या फिर सुनकर उन्होंने अनसुना कर दिया। वह तो उत्साह से भरे हुए थे। वह बता रहे थे कि एक दल ने कई दिग्गजों को चुनाव लड़ने का न्योता दिया। परिवर्तन के नाम से जुड़े नामी रंगकर्मी, साहित्यकार और एक अलग सोच रखने वाले सभी तो उनके साथ हैं। बस मुझे अपने मित्रों से प्रचार में सहयोग करा देना। फोन पर मित्र क्या कह रहे हैं, यह मुझे सुनाई देना बंद हो गया। क्योंकि मैं उनकी दशा पर मनन कर रहा था। ऐसे में मुझे उनके शब्द बकरे के मिमयाने की तरह ही सुनाई दे रहे थे। सच ही तो है कि जब भी कोई किसी प्रतियोगिता में भाग्य आजमाता है तो उसे अपनी सफलता की पूरी उम्मीद होती है। दौ़ड़ में भाग लेने से पहले हर खिलाड़ी खुद को पहले नंबर में देखता है। जागरण जंगशन में ब्लॉग लिखने वाला हर ब्लॉगर शायद यही सोच कर लिखता हो कि उसका ब्लॉग सप्ताह का सर्वश्रेष्ठ ब्लॉग होगा। किसी नए बिजनेस में हाथ आजमाने वाला सफलता की पूरी उम्मीद रखता है। इनमें से कुछ चीजें ऐसी हैं कि यदि हार गए तो कोई नुकसन नहीं होता,लेकिन बिजनेस व राजनीति दोनों की हार तो व्यक्ति को बर्बाद कर देती है। व्यक्ति अपनी जमापूंजी भी बिजनेस बन चुकी राजनीति में गंवा देता है। भले ही मेरे रंगकर्मी मित्र को अपनी जीत की पूरी उम्मीद हो। उनके पास जीत का फार्मूला भी हो, लेकिन मेरे मन में यही सवाल उठ रहा था कि नौकरी से रिटायरमेंट के बाद उन्होंने समय काटने का जो फार्मूला चुनाव में लड़ने के रूप में अपनाया, वह उनके लिए क्या ठीक रहेगा।
अब मुझे मित्र पर तरस आ रहा था और उस व्यक्ति पर गुस्सा, जिसने मित्र को चुनाव लड़ने के लिए उकसाया। क्योंकि वंशवाद की बेल समूचे देश में फैल रही है। उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड हो या फिर कोई अन्य प्रदेश। नेता का बेटा नेता बन रहा है। बहू, बहन, पत्नी को नेता राजनीति में उतार रहे हैं। ये वंशवाद भी वाकई कमाल की  चीज है। सिर्फ पत्रकार ही अपने बेटे को पत्रकार बनाना नहीं चाहता। कारण है कि पत्रकार न तो समय पर खा व सो सकता है और न ही घर परिवार को समय दे सकता है। यदि ईमानदार हो तो सीमित वेतन में परिवार का खर्च चलाना भी मुश्किल होता है। इसके उलट डॉक्टर, ईंजीनियर, बिजनेसमैन, दुकानदार आदि सभी अपने बेटे को अपना काम सौंपना चाहते हैं। इन सबसे आगे राजनीति के बिजनेसमैन बुढ़ापे की दहलीज में पैर रखते ही अपने परिवार के सदस्यों को राजनीति में उतार रहे हैं। तभी तो उत्तराखंड के उपचुनाव में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने जो अपनी सीट लोकसभा की खाली की, उसमें अपने बेटे को ही कांग्रेस का टिकट दिला दिया। इस राजनीति में मेरे रंगकर्मी मित्र की स्थिति तो एक लाचार आम आदमी के समान है। वंशवाद की फैलती बेल के मक्कड़जाल में आम आदमी की कोई ओकात नहीं है। फिर भी यह उनका अपना निर्णय है, इस पर उन्हें समझाने का समय भी निकल चुका है।
अब रही बलि का बकरा बनाने वालों की। ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है। वे खुद चुनाव तो नहीं लड़ते, लेकिन किसी न किसी को हर चुनाव में खड़ा करके उन्हें बलि का बकरा बना देते हैं। ऐसी ही एक घटना मुझे याद आ रही है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान मेरे एक परिचित नेवी की नौकरी छोड़ आंदोलन कूद गए। ये मित्र भी पूर्व सैनिकों को एकजुट करने में माहिर हैं। हर चुनाव में वह कोई न कोई तिगड़म भिड़ाकर दो विपरीत धाराओं के लोगों को एक मंच पर लाने का प्रयास भी करते हैं। इन मित्र को सैनिकों के सलाहकार के नाम से जाना जाता है। वर्ष 96 में पौड़ी लोकसभा के चुनाव में पूर्व सैनिक संगठन से उन्होंने प्रत्याशी मैदान पर उताने की ,सलाह संगठन में दी। उनके प्रस्ताव पर एक सेवानिवृत्त कर्नल चुनाव लड़ने को तैयार हो गए। चुनाव के लिए पैसा कैसे आएगा, इसका भी कर्नल ने उपाय खोज लिया। उन्होंने अपना मकान, पत्नी के जेवराहत आदि गिरवी रख दिए। फिर चल दिए पौड़ी में नामांकन पत्र भरने। सलाहकार फौजी मित्र ने कर्नल के जुलूस में फौजियों को शामिल करने की तिगड़म भिड़ाई और सेना की कैंटीन में पहुंच गए। वहां दूर दराज से सामान खरीदने आए सैनिकों से उन्होंने कहा कि आपके बीच का व्यक्ति चुनाव लड़ रहा है, ऐसे में सैनिक का स्वाभिमान बचाने में उनका सहयोग करें। फिर क्या था, कैंटीन बंद कर दी गई। सारे पूर्व सैनिक कर्नल के जुलूस में शामिल हो गए। जुलूस में कुछ पूर्व सैनिक फौजी बैंड बजा रहे थे। प्रत्याशी कर्नल को बरांडी कोट (लंबा कोट) व जंगली हेट पहनाया गया। इससे पहले वहां से मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी (बाद में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री) का जुलूस भी गुजर चुका था। साथ ही इसी दिन तिवारी कांग्रेस से सतपाल महाराज (वर्तमानमें कांग्रेस सांसद), बसपा से हरक सिंह रावत (वर्तमान में उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार के कबीना मंत्री), कांग्रेस से विजय बहुगुणा (उत्तराखंड के मुख्यमंत्री) भी नामांकन पर्चे भर रहे थे। ऐसे में सड़कों के किनारे तमाशबीनों की काफी भीड़ थी। सैनिक संगठन के प्रत्याशी कर्नल का जुलूस जब गुजरा तो भीड़ देखकर कर्नल साहब को अपनी जीत सुनिश्चित होती दिखाई देने लगी। तभी एक महिला कर्नल के निकट पहुंचकर जोर से गढ़वाली बोली में बोली-बणैयाल बलि कु बकरा (बना दिया बलि का बकरा)। कर्नल गढ़वाली नहीं समझते थे। ऐसे  में उन्होंने सलाहकार से पूछा ये क्या कह रही है। सलाहकार ने उनसे झूठ बोल दिया और कहा कि कह रही है कि आप इस ड्रेस में नेपोलियन दिख रहे हो। गदगद होकर कर्नल की छाती और चौड़ी हो गई। वहीं, सलाहकार को महिला के शब्द तीर की तरह चुभ गए। वह इसी सोच में पड़ गए कि कर्नल साहब चुनाव के बाद बर्बाद हो जाएंगे। ऐसे में अब उन्हें कैसे बचाया जा सकता है। नामांकन हुआ और बाद में जब नामांकन पत्रों की जांच हुई तो कर्नल का नामांकन पर्चा निरस्त हो गया। इन दिनों की तरह तब नामांकन पर्चे में सुधार का मौका नहीं मिलता था। सलाहकार ने जानबूझकर कर्नल के प्रस्तावक व अनुमोदक ऐसे रख दिए कि जिनका नाम उक्त लोकसभा की मतदाता सूची में नहीं था। नामांकन निरस्त होने के बाद कर्नल सलाहकार से खफा हो गए। बाद में जब चुनाव परिणाम आया, तब उन्हें अहसास हुआ कि उनका चुनाव लड़ने का फैसला वाकई आत्मघाती था। इसके बाद से वह जब भी सलाहकार से मिलते हैं, तो यही कहते हैं कि आपने मुझे बर्बाद होने से बचा लिया।
भानु बंगवाल

Saturday 15 September 2012

ऐसे रंगे सियारों से भगवान हमें बचाए रे....

भई इन नेताओं से तो भगवान ही बचाए। जनता से इन्हें कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन जनता के बीच हर बार वे यह जताने का प्रयास करते हैं कि वही उनके सच्चे हितेशी हैं। कई बार तो वे यह भी नहीं देखते कि मौका कौन सा है और उन्हें क्या करना चाहिए। बस उन्हें तो अपने से ही मतलब रहता है। यह मतलब है-अक्श, छवि यानी की तस्वीर। जिसे बनाए व चमकाए रखना उनका उद्देश्य है। इस उद्देश्य के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। अब इन नेताओं को देखो कहीं कोई आपदा आती है या फिर दुर्घटना होती है, तो वे भी मुंह उठाकर मौके पर पहुंच जाते हैं। ऐसे में प्रभावितों को जो राहत समय से मिलनी चाहिए, उसमें भी बाधा उत्पन्न होने लगती है। प्रेस फोटोग्राफर के कैमरे के सामने खड़े होने की इन नेताओं में होड़ रहती है। वहीं, कई छायाकारों को असली समस्या नजर नहीं आती। उन्हें भी नेता ही दिखाई देते हैं।
ऐसे नेताओं पर मुझे एक नाटक के गीत की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं, जो इस प्रकार हैं-
बड़ा मानुष उसको कहिए, जो खीर पराई खाए रे
रावण जैसे करम करे और रघुपति राघव गाए रे
छुरी बगल में, राम भजन में, उपकारी लगने वाला ये
सज्जनता का चढ़ा मुखौटा, सबको ठगने वाला ये
ऐसे रंगे सियार से, भगवान हमें बचाए रे....
बड़ा मानुष उसको कहिये..........
दुर्घटना में कोई मरा, कौन मरा, कितने मरे, कैसे दुर्घटना हुई, इन सब बातों से नेताओं को कोई लेना देना नहीं है। वे तो यह देखते हैं कि दुर्घटना के समाचार में शोक जताने वालों में उनका नाम प्रकाशित है या नहीं।
अब उत्तरकाशी का हम उदाहरण देखें तो तीन अगस्त को असीगंगा व भागीरथी नदी में बाढ़ आने से नदी के कई तटवर्ती इलाके डूब गए। आपदा से करीब डेढ़ सौ गांवों के रास्ते ध्वस्त हो गए। 53 परिवार बेघर हो गए। तीन लोगों के शव बरामद हुए और करीब 29 लोग लापता हैं। यही नहीं प्रभावित गांवों में बिजली, पानी, संचार व सड़क सुविधाएं तहस-नहस हो गई। प्रदेश के मुखिया होने के नाते मुख्यमंत्री के साथ ही आपदा मंत्री का प्रभावित क्षेत्रों में दौरा तो समझ आता है, लेकिन सत्ताधारी दलों के साथ ही अन्य दलों के नेताओं में क्षेत्र में भ्रमण की होड़ सी लग गई। ऐसे में प्रशासनिक अमला नेताओं की आवाभगत में जुट जाता है और राहत कार्य भी प्रभावित होने लगते हैं।
उत्तरकाशी के बाद अब गुरुवार की रात से रुद्रप्रयाग जनपद में आपदा का पहाड़ टूट रहा है। बादल फटने से ऊखीमठ ब्लॉक के अंतर्गत पांच गांव में चालीस मकान जमींदोज हो गए। 15 सितंबर तक मलबे से करीब 39 शव निकाले गए। 21 व्यक्ति अभी भी लापता बताए गए। हादसे-दर-हादसे यहीं तक सीमित नहीं हैं। 16 सितंबर की सुबह पता चला कि ऊखीमठ के एक अन्य गांव में भी एक मकान ध्वस्त होने से दो लोग मलबे में जिंदा दफन हो गए। वहीं अगस्त्यमुनि ब्लॉक के जखोली क्षेत्र के किरोडा माला गांव में भी बादल फटने से एक मकान ध्वस्त हुआ और एक ही परिवार के पांच सदस्य मलबे में जिंदा दफन हो गए। सात ही गदेरे (बरसाती नदी)  में आए उफान में एक मंदिर बहने से साधु व साधवी की भी जलसमाधी बन गई।  ऐसे मौके पर भारत तिब्बत सीमा पुलिस बल (आइटीबीपी) के साथ ही सेना के जवान व प्रशासनिक अमला मलबे से शव को तलाशने में जुटा गए। वहीं स्थानीय लोग भी जी जान से राहत कार्यों में जुटे हैं। अब तक रुद्रप्रयाग जनपद में आपदा से कुल 53 लोगों के मरने की पुष्टि हो चुकी है। इनमें 48 ऊखीमठ ब्लॉक के हैं। साथ ही 17 लोग लापता हैं। इन सबके बावजूद लाशों के ढेर पर फोटो खिंचवाने की चाह नेता भी नहीं छोड़ पा रहे हैं। जहां पीड़ित मलबे में दफन अपनों की तलाश कर रहे हैं, वहीं ऐसे नेता बिखरी लाशों पर अपने वोट तराश रहे हैं। हकीकत यह है कि नेताओं का दौरा भी सिर्फ वहीं तक सीमित है, जहां आसानी से उनकी कार पहुंच सकती है। यानी सड़क से लगे गांव। सिर्फ एक दो नेता ही अपवाद स्वरूप पैदल चलकर दूर दराज के गांव तक पहुंच सके। गांव तक जाकर लोगों के हालचाल पूछना भी समझ में आता है, लेकिन जिस मौके पर सभी को एकजुट होना चाहिए, वहां भी आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। सत्ताधारी दल के नेता अपनी तारीफ कर रहे हैं, वहीं विपक्षी सरकार की कार्यप्रणाली को कोस रहे हैं। यह कोई देखने की कोशिश नहीं कर रहा है कि घर, खेत के साथ ही अपनों को गवां चुके लोगों के पास पहनने को कपड़े तक नहीं बचे हैं। ऐसे नेताओं को मेरी सलाह है कि वे मौके पर जाने की बजाय राहत कार्यों में जुटे लोगों को अपना काम करने दें। यदि उन्हें सचमुच प्रभावितों के दुख-दर्द की चिंता है तो मदद के लिए सरकार की तारीफ या कोसने की बजाय अपनी जेब ढीली करें। तभी वे जनता के सच्चे हितैशी कहलाएंगे और पीड़ितों की दिल से उन्हें सच्ची दुआ भी लगेगी।
भानु बंगवाल     

Thursday 13 September 2012

मांगने से मरना भला....

बचपन में एक कविता पढ़ी थी, जिसका भाव यही था कि व्यक्ति के जीवन में सबसे उत्तम काम खेती है। बीच का काम व्यापार है और तीसरी श्रेणी का काम नौकरी है। सबसे घटिया काम जो है, वह भीख मांगना है। तभी से यह पढ़ाया व सिखाया गया कि पहले के तीन काम तो कर लो, लेकिन कभी भीख मत मांगो और सम्मान से जिओ। सिटी बस में बिकने वाले लतीफे व कविताओं के फोल्डर में भी ऐसी ही एक कविता मैने बीड़ी पीने वालों पर पढ़ी। जिसकी कुछ लाइन यह थी कि...
मांगने से मरना भला, यही सच्चा लेखा है,
बीड़ी पीने वालों का अजब यह धंधा देखा है,
कितने ही लखपतियों को बीड़ी माचिस मांगते देखा है।
यानी आज से करीब पैंतीस साल पहले तक मांगने वालों को घृणा की दृष्टि से देखते थे, जो आज भी देखते हैं। ऐसे में मांगने वालों ने मांगने का अंदाज बदल दिया और मांगने वालों की दो श्रेणी हो गई। इनमें एक श्रेणी तो वही है, जो बचपन से मैं देखता आ रहा हूं। यानी लोगों के घर जाकर, मंदिर, गुरुद्वारे, गिरजाघर के बाहर खड़े होकर, सड़क किनारे बैठकर या फिर किसी चौक पर खड़े होकर सड़क चलते लोगो से भीख मांगना। दूसरी श्रेणी के लोग भी वही हैं, जो कभी बीड़ी माचिस मांगते फिरते थे। ऐसे लोग दिखने में तो पैसे वाले कहलाते हैं, लेकिन उनकी मांगने की आदत नहीं गई। वैसे तो कहीं न कहीं मांगने वाले दिख जाएंगे। नेता जनता से वोट मांगता है, जीतने के बाद वह बाद में उसका खून चूसने लगता है। पुलिस अपराधी से रिश्वत मांगती है। घूसखोर बाबू या अफसर आम व्यक्ति से छोटे-छोटे काम की एवज में घूस मांगता है। ईमानदार व लाचार व्यक्ति सच्चाई का साथ मांगता है।
ये मांगने वाले भी कलाकार होते हैं। झूठ को ऐसे बोलते हैं कि हर कोई उनकी बात पर यकीं कर लेता है। मेरे एक परिचित तो जब भी मुझे मिलते, तो उनके स्कूटर में पेट्रोल खत्म हो जाता। फिर वह पेट्रोल मांगते फिरते हैं। बाद में मुझे पता चला कि वह तो पेट्रोल मांगने के लिए स्कूटर की डिग्गी में खाली बोतल व पाइप भी रखते हैं। इसी तरह कई लोगों के पडो़सी ऐसे होते हैं, जो कभी चीनी, चायपत्ती, दूध, प्याज, टमाटर आदि मांगने घर में धमक जाते हैं। इस तरह का मांगना भी एक चलन में है, लेकिन कई तो अब हाईटेक अंदाज में मांगने लगे हैं।
हाल ही मे मेरे एक परिचित को ई मेल आया। ई मेल एक प्रतिष्ठित मेडिकल इंस्टीस्टूयट के ट्रस्टी की ओर से भेजा गया था। इसमें मित्र से कहा गया कि वह विदेश में कहीं फंस गए हैं। ऐसे में वह उनके एकाउंट में पचास हजार रुपये डाल दें। साथ ही एकाउंट नंबर भी दिया गया था। ऐसी मेल देखकर कोई भी व्यक्ति लालच में फंस सकता है। वह सोचेगा कि यदि उसने इस बड़े आदमी की मदद की तो वह वापस लौटने पर काम ही आएगा। साथ ही उसे दी गई राशि भी वसूल हो जाएगी।  मित्र बड़े समझदार थे। मेल को पढ़कर उन्होंने सहज ही अंदाजा लगा लिया कि उक्त मेल फर्जी आइडी बनाकर भेजी गई है। सो रकम देने का सवाल ही नहीं उठा। साथ ही ट्रस्टी को उसे मदद की क्या जरूरत है। वह तो कहीं भी अपने चेलों को फोन करके रकम मंगवा सकता है।
दो दिन पहले की बात है। मैं फेस बुक में आनलाइन था। तभी फ्रेंड लिस्ट में शामिल पटना की एक युवती चेट पर आई। हकीकत में वह लड़की है या फिर किसी ने फर्जी आईडी बनाकर लड़की के नाम से एकाउंट खोला है,यह मैं नहीं जानता। दो ही दिन पहले उक्त युवती की ओर से फ्रेंड रिक्वेस्ट आई थी। चेट पर उसने पहले देहरादून के मौसम की जानकारी ली। फिर सीधे मुझसे मदद मांगने लगी। मदद भी यह थी कि मैं उसका नेट रिचार्ज करा दूं। जान ना पहचान और पहली बार संक्षिप्त परिचय में ही मांगने लगी नेट चार्ज के लिए राशि। कहा गया है कि जब व्यक्ति बिलकुल नीचे गिर जाता है, तब वह या तो चोरी करता है और या फिर मांगने के लिए हाथ फैलाने लगता है। ऐसा ज्यादातर उन लोगों के साथ ही होता है, जो या तो नशा करते हैं या फिर जुआ व अन्य ऐब पाले होते हैं। आजकल युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में पड़ती जा रही है। ऐसे में रकम जुटाने के लिए वह कोई न कोई हथकंडे अपना रही है। यदि उक्त लड़की का मैं नेट चार्ज करा देता तो मुझे पता है कि अगली बार वह दूसरी मजबूरी बताकर अपने बैंक एकाउंट का नंबर देती।
भानु बंगवाल                 

Tuesday 11 September 2012

उनकी लड़ाई में भी एक भलाई.....

आज जब भी कहीं महिला व उनके अधिकारों की बात होती है, तो स्वयंसेवी संस्थाएं चिल्लपौं मचाने लगती है। हर तरफ एक ही बात होती है कि नारी का शोषण हो रहा है। पति अपनी पत्नी का, सास बहू का, बहू सास का, समाज महिला का, दफ्तर में अफसर महिला कर्मचारी का या फिर कहें कि कहीं न कहीं महिला का शोषण हो रहा है। कई बार तो इस शोषण को करने वाली भी महिला है और शोषित होने वाली भी महिला होती है। इन सबके बावजूद भले ही महिला उत्पीड़न के खिलाफ कई कानून सरकार ने बनाए हैं, लेकिन धरातल पर आज भी महिलाओं की स्थिति में को ज्यादा बेहतर नहीं कहा जा सकता। ऐसा नहीं है कि महिलाओं की स्थिति में सुधार लागने के प्रयास नहीं हो रहे हैं, ऐसे काम में कई लोग लगे हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति को मैने देखा कि जो लड़ाई के माध्यम से महिलाओं के विवाद निपटाने का गुर सिखाता है। सरकार के कानूनों को उसके सामने हकीकत के तराजू में तौले तो सब बौने नजर आएंगे। यही तो है एक छोटे से चूड़ी वाले का छोटा सा प्रयास।
अक्सर महिलाएं अपना दुख-दर्द महिलाओं को ही बताती हैं, लेकिन घनश्याम ऐसा व्यक्ति है, जिसके सामने बेझिझक होकर महिलाएं अपनी आपबीती सुना देती थीं। ऐसे में घनश्याम उन्हें सिर्फ सांत्वना ही दे पाता। वह गंभीरता से महिलाओं की आपबीती सुनता। साथ ही परेशानी को कम करने के सुझाव भी देता। वह ऐसी महिलाओं के लिए कुछ करना चाहता, लेकिन उसे समझ नहीं आता कि क्या करे। वह इसी उधेड़बुन में लगा रहता है कि लाचार महिलाओ के लिए वह ऐसा क्या कर सकता है कि जिससे महिलाएं मजबूत हो सके। फिर उसने इसका उपाय तलाश  लिया और शुरू कर दिया महिलाओं को सबल बनाने का प्रयास।
देहरादून के एक तंग मोहल्ले में चूड़ी की दुकान चलाता है घनश्याम। काफी साल पुरानी उसकी दुकान में महिलाओं की भीड़ भी रहती है। महिलाएं उससे इस कदर घुल मिलकर बात करती हैं, जैसे वह उनके दुख हर लेगा। अपने घर परिवार की परेशानी को महिलाएं घनश्याम को विस्तार से सुनाने लगती हैं। चूड़ी पहनाते-पहनाते घनश्याम भी महिलाओं के दुख-दर्द में इस कदर शरीक हो गया कि उसने नाजुक कलाइयों को मजबूत करने की ठान ली। अक्सर दुकान में आने वाली महिलाओं की परेशानी के पीछे घनश्याम ने यही पाया कि परेशानी की मूल जड़ आर्थिक समस्या से जुड़ी है। जब तक महिलाएं खुद आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होंगी, तब तक उनकी समस्याएं दूर नहीं होगी। सबसे पहले महिलाओं को अपने को आर्थिक रूप से मजबूत करना होगा। यदि महिलाएं व्यस्त रहेंगी तो उन्हें पारिवारिक विवाद में पड़ने की भी फुर्सत नहीं होगी।
यहीं से घनश्याम ने महिलाओं को सबल बनाने के लिए अपनी छोटी सी दुकान में चूड़ी के कारोबार के साथ ही महिलाओं के लिए ब्यूटीशियन, मेहंदी, कूकिंग, पेंटिंग, हस्तकला, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई के साथ ही नृत्य, संगीत व कंप्यूटर प्रशिक्षण के निशुल्क कोर्स शुरू किए। इससे महिलाएं जुड़ती चली गई और वह उनके रोजगार की व्यवस्था भी करता चला गया। ऐसे में कई महिलाएं आर्थिक रूप से मजबूत होती चली गई। अब ऐसी महिलाओं के ज्यादातर दिन भर काम में व्यस्त रहने से उनके घरों में पारिवारिक विवाद कुछ कम हुए, लेकिन समाप्त नहीं हो सके। ऐसे में घनश्याम ने प्रशिक्षण के दौरान एक अन्य कोर्स लड़ाई के नाम से शुरू किया। इस कोर्स का मकसद था महिलाओं को लड़ाई झगड़े से दूर रहने व बचने के उपाय सुझाना। इस कोर्स के माध्यम से सास-बहु, ननद-भाभी, देवरानी-जेठानी आदि के झगड़ों पर अंकुश लगाने की कला महिलाओं को सिखाई जाने लगी। इसके तहत महिला प्रशिक्षणार्थी आपस में एक दूसरे की कमजोरी का खुलासा करके दूसरे को उकसाती। वहीं, विवाद बढ़ाने की बजाय परिस्थितियों को कैसे संभाला जाए इसका अभ्यास किया जाता। समझाया जाता है कि विवाद बढ़ाने की बजाय झुकना सीखो। सचमुच एक छोटे से चूड़ीवाले का प्रयास रंग ला रहा है। उसकी दुकान में ही बनाए गए प्रशिक्षण केंद्र में चलने वाली लड़ाई तो महिलाओ की भलाई के लिए है।
भानु बंगवाल

Sunday 9 September 2012

लो आ गया हिंदी का वार्षिक श्राद्ध ..

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाए कि जिस देश को हिंदुस्तान कहते हैं, वहां हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता पड़ रही है। कोई भी दिवस या दिन विशेष की आवश्यकता उस विषय या कार्य के लिए पड़ती है, जिसे बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता होती है। अपने ही देश में अपनी राष्ट्रभाषा को बढ़ावा देने की बात समझ से परे है। यदि अंग्रेजी भाषा या फिर अन्य किसी भाषा के लिए दिवस मनाया जाए तो समझ में आता है। इसके उलट हिंदी भाषी देश में हिंदी दिवस को मनाकर ठीक उसी प्रकार औपचारिकता की इतिश्री कर दी जाती है, जैसे पितृ पक्ष में पित्रों का श्राद्ध मानकर की जाती है। हो सकता है कि 14 सितंबर को पूरे देश भर में मनाए जाने वाले हिंदी दिवस की तुलना श्राद्ध से करने से किसी को मेरी बात पर आपत्ति हो, लेकिन मैं कई साल से यही महसूस कर रहा हूं। ऐसा महसूस करने के कारण मैं आपके समक्ष रख रहा हूं। यदि किसी को मेरी भावनाओं से ठेस पहुंचे या फिर आपत्ति हो तो मैं उससे क्षमा प्रार्थी हूं। क्योंकि हिंदी दिवस साल में एक बार आता है और पितृ पक्ष भी साल में एक बार ही आते हैं। हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में उन सरकारी दफ्तरों में भी हिंदी का ढोल पीटा जाना लगता है, जहां अंग्रेजी में ही काम किया जाता है। सरकारी संस्थान तो हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में हिंदी दिवस पखवाड़ा आयोजित करते हैं। यह पखवाड़ा एक से 14 सितंबर या फिर 14 से 30 सितंबर तक आयोजित होता है। अब पितृ पक्ष को देखिए। यदि अधिमास न हो तो पितृ पक्ष भी 14 से 30 सितंबर के बीच पढ़ता है। करीब दो या तीन साल के अंतराल में ही अधिमास आता है, जो इस साल भी है। ऐसे में पितृ पक्ष थोड़ा लेट 30 सितंबर से शुरू हो रहा है।
हिंदी दिवस पखवाड़े व पितृ पक्ष के बीच समानता देखो दोनों लगभग एक ही दौरान साल भर में एक बार मनाए जाते हैं। पितृ पक्ष में ब्राह्माणों की पूछ होती है। पित्रों की तृप्ति के लिए उन्हें तर्पण दिया जाता है। तर्पण के बाद कौवे,कुत्ते व गाय को भोजन देने के साथ ही ब्राह्माण को भोजन कराया जाता है। साथ ही पंडितों को दक्षिणा भी देने की परंपरा है। अब हिंदी पखवाडा़ देखिए। साल भर कौवे की तरह अंग्रेजी की रट लगाने वाले सरकारी व निजी संस्थान इन दिनों हिंदी का ढोल पीटने लगते हैं। इस संस्थानों में हिंदी पखवाड़े के नाम पर बाकायदा बजट ठिकाने लगाया जाता है। हिंदी के रचनाकारों व कवियों के रूप में हिंदी के पंडितों को आमंत्रित किया जाता है। पितृ पक्ष मे किए गए श्राद्ध में पंडितों की भांति हिंदी के पंडित भी रचनाओं व गोष्ठी के माध्यम से हिंदी की महानता के मंत्र पढ़ते हैं। फिर चायपानी या ब्रह्मभोज भी होता है। साथ ही रचनाकारों को शाल आदि से सम्मानित किया जाता है और उन्हें सम्मान के नाम पर लिफाफे में दक्षिणा भी दी जाती है। हिंदी पखवाड़े का आयोजन संपन्न हुआ और संस्थान के अधिकारी भी तृप्त और रचनाकारों को कमाई का मौका मिलने से वे भी तृप्त।
अब सवाल उठता है कि हिंदी को लेकर इतना शोरगुल साल में एक बार ही क्यों। इस देश का असली नाम भारत है, हिंदुस्तान है या फिर इंडिया। शायद इस पर भी आम नागरिक के बीच भ्रम की स्थिति हो सकती है। अपने देश में हम भारतवासी हो जाते हैं,वहीं विदेशों में हमारी पहचान इंडियन के रूप में होती है। इंडिया यानी ईष्ट इंडिया कंपनी के पूर्व में गुलाम रहे और शायद आज भी उसकी भाषा अंग्रेजी के गुलाम हैं। जब इस देश का प्रधानमंत्री भी गलती से हिंदी बोलता हो तो राष्ट्रभाषा को बढ़ावा देने की बात बेमानी होगी। यही नहीं विदेश मंत्री रहते हुए अटल बिहारी बाजपेई ने यूएनओ में हिंदी में संबोधन कर देश भी धाक जमा दी थी। बाद में जब वह प्रधानमंत्री बने तो वह भी अंग्रेजी में संबोधन की परंपरा से अछूते नहीं रहे। हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़े के दौरान मीडिया भी हिंदी का ढोल पीटने लगता है। हकीकत यह है कि हिंदी मीडिया के भी सारे गैर संपादकीय कार्य अंग्रेजी में ही होते हैं। संपादकीय में भी अंग्रेजी के ज्ञाता को ही तव्वजो दी जाती है। भले ही हिंदी में  कितनी भी मजबूत पकड़ वाला यदि अंग्रेजी नहीं जानता तो उसके लिए हिंदी मीडिया में भी जगह नहीं है।
हिंदी को मजबूत बनाने के दावे भले ही कितने किए जाए, लेकिन तब तक यह दावे हकीकत में नहीं बदल सकते, जब तक हिंदी को रोजगार की भाषा नहीं बनाया जाएगा। जब तक सभी स्कूलों में हिंदी को अंग्रेजी व अन्य विषयों से ज्यादा तव्वजो नहीं दी जाती, सरकार हिंदी में कामकाज नहीं करती, रोजगार में हिंदी को अनिवार्यता नहीं दी जाती और हिंदी रोजगार की भाषा नहीं बनती तब तक हम हिंदी की बजाय अंग्रेजी के ही गुलाम रहेंगे। फिर हर साल हिंदी का श्राद्ध मनाते रहेंगे पर कुछ होने वाला नहीं है।
भानु बंगवाल         

Friday 7 September 2012

वे डरते हैं क्योंकि...

ये डर ही ऐसी चीज है कि इससे कोई अछूता नहीं रहता। डर का कई बार वाजिब कारण होता है और कई बार तो इसका कारण भी नहीं होता, लेकिन यह भीतर ही भीतर व्यक्ति को कचौटता रहता है। हर व्यक्ति को कहीं न कहीं दूसरे से डर रहता है। यानी की असुरक्षा की भावना। नेता डरता है प्रतिद्वंद्वी से। सेठ डरता है चोर और डकैत से। मालिक डरता है कर्मचारी से कि कहीं वेतन बढ़ाने की डिमांड न कर दें। ऐसे में वह कर्मचारी को हमेशा डराने का प्रयास करता है। इसके विपरीत कर्मचारी डरते हैं मालिक से कि कहीं किसी बहाने से नौकरी से बाहर का रास्ता न दिखा दें। इसी डर को लेकर देश की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था, सामंतशाही व भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हुए गौरख पांडे ने लिखा था कि-
-वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे,
तमाम पुलिस, फौज, गोला बारुद
के बावजूद वे डरते हैं,
क्योंकि एक दिन,
उनसे डरने वाले
डरना बंद कर देंगे
ये डर तो राजा भोज को भी है और गंगू तेली को भी। दून में लगातार बारिश हो रही है। नदी किनारे बसे लोगों को हर समय बाढ़ का डर सताया रहता है, वहीं पहाड़ों में लोगों को भूस्खलन का डर रहता है। गांवों में किसान को खेत में जाने के दौरान सांप का डर रहता है। ऐसे में वह भी सतर्क रहता है। यह डर ही तो है कि अहिंसक प्रवृति का व्यक्ति भी घर में घुस आए सांप व बिच्छू को इसलिए मारने का प्रयास करता है कि कहीं वे उसे डस या काट न ले। यानी खुद को सुरक्षित रखने के लिए व्यक्ति साम, दाम, दंड, भेद सभी हथकंडों का इस्तेमाल करता है। मेरा तो मानना है कि भविष्य से प्रति बेवजह डरने की बजाय व्यक्ति को परिस्थितियों से सामना करने को तैयार रहना चाहिए। तभी वह सुखी रह सकता है। डर का भ्रम पालने से कोई खुश नहीं रह सकता। डर तो वहम है। कई बार तो इसका कोई कारण ही नहीं होता और व्यक्ति बेवजह मन में वहन पालकर डलने लगता है। 
हाल ही की बात है। देहरादून के नथुवावाला गांव में मेरे एक मित्र की पत्नी ने कपड़े धोए और छत पर सुखाने को डाल दिए। इस बीच बारिश हुई और तेज हवा भी चली। इन कपड़ों में मित्र की लाल रंग की कमीज हवा से उड़कर कहीं चली गई। आसपास तलाशने के बाद भी कमीज नहीं मिली। दो-चार दिन में वे कमीज को भी भुला बैठे। मित्र के पड़ोसी व्यक्ति के घर के आंगन पर एक बड़ा सा लीची का पेड़ है। एक दिन पड़ोसी की नजर पेड़ की डाल पर पड़ी, जहां भिरड़ (डंक मारने वाली मक्खियां) का छत्ता नजर आया। ऐसे में पड़ोसी डर गया कि मक्खियों ने यदि घर के किसी सदस्य को काट लिया तो परेशानी हो जाएगी। चार-पांच भिरड़ के एकसाथ काटने पर व्यक्ति की मौत तक हो जाती है। इस पर पड़ोसी ने छत्ता हटाने की जुगत लगाई। एक लंबा बांस लेकर उसने उसके सिरे पर कपड़ा बांधा। कपड़े पर मिट्टी तेल डालकर आग लगाई और छत्ते के समीप ले गया। घुआं लगने पर भी छत्ते पर हलचल नहीं हुई। इस पर पड़ौसी ने गौर से छत्ते पर देखा तो पता चला कि वहां छत्ता था ही नहीं। उसे तो छत्ते का भ्रम हो रहा था। वह पेड़ पर चढ़ा और पास जाकर देखा कि छत्ता जैसी नजर आने वाली वस्तु तो कपड़ा थी। वह वही कमीज थी, जो मित्र की छत से उड़ गई थी और पेड़ की डाल में फंसी हुई थी। बारिश व हवा के चलते कमीज की गठरी से बन गई थी, जो छत्ता नजर आ रही थी।
भानु बंगवाल     

Wednesday 5 September 2012

आखिर बेईमान कौन.....

शरारत भरा जो मौसम दून में अगस्त माह में होना चाहिए था, वह अब सितंबर माह में दिखने को मिल रहा है। हर साल जून के माह में बीस तारिख के बाद से बारिश होती थी, लेकिन इस बार पूरा जून का महिना सूखा चला गया। जुलाई में भी महीने के आखिर में बारिश होनी शुरू हुई। अगस्त माह में कहीं-धूप, कहीं बारिश होती रहती थी, लेकिन इस बार यह महीना पिछले सालों की जुलाई माह की तरह बीता। यानी अगस्त माह में देहरादून में लगातार बारिश होती रही। अब सितंबर आया तो मौसम की जो शरारत अगस्त माह में देखने को मिलती थी, वह सितंबर में देखने को मिली। कभी चमकता आसमान, फिर अचानक बादल की टुकड़ी आसमान में नजर आती है और बारिश होने लगती है। कभी घर से निकलो कि मौसम साफ है, लेकिन कुछ दूर चलने के बाद बारिश मिल जाएगी। आम व्यक्ति की तरह प्रकृति को भी देरी की आदत पड़ गई। यानी हम तो कई बार काम में देरी कर देते हैं, इस बार मौसम भी देरी की प्रवृति दोहरा रहा है। इस देरी की वजह से बीमारियां भी घर कर रही हैं। लोग वायरल की चपेट में आ रहे हैं। ऐसे में मैं भी इसके असर से नहीं बच पाया। तबीयत खराब होने पर दवा खाकर दो दिन से घर पर ही पसीना निकालकर बुखार को उतारने का प्रयास करने लगा।
सुबह मौसम साफ था। मुझे घर पर देखकर मेरी 85 वर्षीय माताजी मेरे कमरे में आई और कहने लगी कि घर पर है, तो मुझे बैंक ले चल। पिताजी की मृत्यु के बाद उनकी पेंशन माताजी को मिलती है। करीबन हर माह में एक बार मैं उसे पेंशन लेने के लिए बैंक ले जाता हूं। वहां से पेंशन की मामूली राशि निकालने के बाद वह कुछ राशि परिवार के बच्चों को बांटती है। बाकी राशि से अपने लिए बच्चों से समय-समय पर बिस्कुट, दवा आदि जो भी उसका खाने का मन करता है मंगवाती रहती है। मुझे कुछ हो गया तो मेरे बेटे कहां से अंतिम संस्कार का खर्च उठाएंगे, ना जाने क्यों उसे यह चिंता भी सताती रहती है। इसी के मद्देनजर वह मेरी बहनों के पास अपनी बचत में से कुछ रकम ऐसे समय के लिए भी जमा करती रहती है। कई बार मैं उसे समझा चुका हूं कि भविष्य किसने देखा। तू  चिंता मत किया कर। जब पिताजी का स्वर्गवास हुआ तो उनके पास फूटी कौड़ी तक नहीं थी। फिर भी बेटों ने वह सारा धर्म, कर्म निभाया, जो निभाना चाहिए था। पर मां कहती है कि इस महंगाई में तुम यह सब कहां से करोगे।
साफ मौसम को देखकर मैंने सोचा कि मां को जितनी देरी में बैंक ले जाकर वापस लाउंगा, उतनी देरी के लिए गद्दों को छत में धूप लगाने के लिए रख देता हूं। तब तक बारिश होने की उम्मीद नहीं थी। लगातार बारिश व नमी से बिस्तर भी सीलने लगे थे। सो मैंने गद्दे व तकिये छत पर सुखाने के लिए रख दिए और माताजी को लेकर घर स् करीब दो किलोमीटर दूर स्थित राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर स्थित पंजाब नेशनल बैंक की शाखा में चला गया।
देरी की आदत जब प्रकृति ने भी पकड़ ली तो इंसान क्यों पीछे रहेगा। इसका अहसास मुझे बैंक पहुंचने पर हुआ। पता चला कि इस बार पेंशन भी लेट हो गई। कुछ देर बार एकाउंट पर चढ़ेगी। कुछ इंतजार के बाद पेंशन खातों में चढ़ गई। विदड्रॉल फार्म भरने के लिए भी लंबी लाइन लगी थी। उनमें कई पेंशनर भी शामिल थे। जो एक दूसरे से मिलकर पुरानी यादों को ताजा करने का प्रयास कर रहे थे। माताजी की स्थिति लाइन में खड़े होने की नहीं है, ऐसे में मैने उसे बैंच पर बिठा दिया और खुद लाइन पर खड़ा हो गया। बैंक में दो काउंटर थे। इनमें एक पर ही विदड्रॉल फार्म व चेक जमा हो रहे थे। दूसरे काउंटर पर एक महिला खाली बैठी थी। उक्त महिला को माताजी की उम्र पर भी दया नहीं आई और दूसरे काउंटर पर फार्म देने को कहा, जहां भीड़ थी। खैर बैंक का नियम था। माताजी को बैंच पर बैठाकर मैं उनकी जगह लाइन पर खड़ा हो गया। तभी उक्त महिला की परिचित एक युवती आई और उसने खुद ही उसका फार्म जमा कर लिया और टोकन दे दिया। यानी लाइन में खड़े होने में भी बेईमानी। टोकन मिलने पर पता चला कि बैंक में कैश खत्म हो चुका है। दो घंटे बाद ही लोगों को नकद भुगतान होगा। दो घंटे तक क्या करें। मौसम तो करवट बदल चुका था। लग रहा था कि कुछ ही देर में बारिश हो जाएगी। दस बजे से बैंक में सवा 11 बज चुके थे। तभी एक बैंक कर्मी ने बताया कि कई बार कैश आने में काफी देर हो जाती है। आज भी करीब तीन बजे से पहले पहुंचने की उम्मीद नहीं है। इस पर मैं माताजी को निकट ही बहन के घर ले गया। मैने कहा कि वह वहीं कुछ देर आराम करे, मैं तब तक घर की छत से कपड़े, गद्दे व तकिये उतारकर आता हूं। जल्दी, जल्दी कितनी करो, लेकिन देरी पर देरी हो रही थी। रास्ते में मेरे ऊपर कई बार हल्की बूंद गिरती तो मुझे यही डर सताता कि कहीं बारिश तेज हो गई तो बिस्तर का कबाड़ हो जाएगा। घर पहुंचा तो यह देखकर राहत मिली की मेरी भाभी छत से गद्दे उतार रही है।
भानु बंगवाल

Monday 3 September 2012

स्वभाव की चुगली करते हैं नाखून.....

वाकई नाखून कमाल की चीज है। जिसमें खून ही नहीं है, वही तो नाखून है, जो हर व्यक्ति के पास होते हैं। यही नाखून व्यक्ति के स्वभाव को भी बताते हैं। कोई इसे आकर्षक दिखने के लिए बढ़ाता है, तो कोई आलसी व्यक्ति इसे काटने में भी देरी कर देता है। वहीं, अनुभवी चिकित्सक नाखून को देखकर मरीज की स्थिति का पता लगाते हैं। नाखून के रूप में जो चीज हमें अपने शरीर में बेकार सी नजर आती है, कई बार वही नाखून बड़े काम की चीज साबित होते हैं। ऐसे मे हम कह सकते हैं कि ये नाखून बड़े काम की चीज है।
हम माह करीब एक मिलीमीटर की रफ्तार से बढ़ने वाले नाखून का महत्व तो कई महिलाओं के श्रृंगार से भी जुड़ा हुआ है। इस पर रंग लगाकर महिलाएं अंगुलियों को आकर्षक बनाने का प्रयास करती आई हैं। वहीं, कई मुसीबत व झगड़े के दौरान इसे हथियार के रूप में भी इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करते। भारतीय हस्त सामुद्रिक शास्त्र में नाखूनों को भी महत्व दिया गया है। नाखूनो को देख व्यक्ति के स्वभाव, आचरण व पेशे का आसानी का अंदाजा लगाया जा सकता है। मेरे एक चिकित्सक मित्र डॉ. जीसी मैठाणी तो यहां तक दावा करते रहे हैं कि नाखूनों को देख कर जहां व्यक्ति की विभिन्न बीमारियों का पता लगाया जा सकता है, वहीं मुर्दे की अंगुलियों के नाखून देखकर मौत के कारणों का भी पता चल सकता है।
देखने में यह आया है कि स्वभाव से नाजुक व्यक्ति के नाखून नाजुक और सख्त व्यक्ति के नाखून सख्त होते हैं। आदिकाल में व्यक्ति नाखून का इस्तेमाल हथियार के रूप में करता था, जो आज भी कई बार करता है। नाखूनों के नीचे का आधार (नेल बेड) पर रक्त कोशिकाओं का अधिक संचार होने से नाखून का रंग सुर्ख लाल या गुलाबी होता है। इसे देखकर ही व्यक्ति के भीतर रक्त की मात्रा का अंदाजा लगाया जा सकता है। नेल बेड के सफेद होने पर रक्त की अल्पता व सुर्ख लाल होने से रक्त की अधिकता का पता चलता है। दांतों से नाखून कुतरने वाले व्यक्तियों के नाखून सही तरीके से कटे नहीं होते हैं। ऐसे व्यक्ति के नाखूनों की किनारी छितरी होती है। ऐसे व्यक्ति ज्यादा सोचने वाले होते हैं, जो अक्सर तनाव में रहते हैं। तनाव की स्थिति में आते ही वे नाखून कुतरने लगते हैं। मौत के कई साल बाद भी नाखून देखर मृत्यु का कारण जाना जा सकता है। आरसेनिक जहर (सांख्य) से व्यक्ति की मौत होने पर उसके नाखून के नीचे का रंग काला पड़ जाता है। नाखून की जड़ के पास सफेद रंग के चंद्राकार निशान को चांद या मून कहते हैं। इसे देखकर हृदय संबंधी रोग का पता लगाया जा  सकता है। यदि चांद अधिक बड़ा होगा तो व्यक्ति श्वास या हृदय रोग से ग्रसित हो सकता है। काले या नीले नाखून वाले व्यक्ति को सांस लेने में दिक्कत आती है। ऐसे व्यक्ति के भीतर ऑक्सीजन की कमी होती है। पुराने श्वास रोगी के नाखून गोलाई में घुमकर ढोल का आकार लेते हैं। आगे से तोते की चोंच की तरह नाखूनों का मुड़ना पुराने हृदय रोगियों में अक्सर पाया जाता है।  दाद जैसे सफेद निशान, काले धब्बों वाले नाखून वाले व्यक्ति भी कई रोगों से ग्रसित होते हैं। नाखूनों की परत निकलने की स्थिति में खून के जमने व रक्त संबंधी रोगों की आशंका रहती है। फंगस इंफेक्शन के चलते व्यक्ति के नाखून में लाल चकतों जैसे रंग होते हैं। साथ ही नाखून उखड़ने लगते हैं। विटामिन की कमी व कुपोषण का शिकार होने की स्थिति में भी नाखून के छिलके उतरने लगते हैं।
छोटे नाखून कठोर स्वभाव के व्यक्ति के होते हैं। चौड़े व वर्गाकार नाखून व्यावहारिक प्रकृति के व्यक्तियों में पाए जाते हैं। लंबे व संकरे नाखून कलाकार, दार्शनिक व्यक्तित्व की पहचान कराते हैं। किसी व्यक्ति का व्यवसाय का अंदाजा भी उसके नाखून को देखकर लगाया जा सकता है। पेंटर, कलाकार के नाखून की जड़ पर कहीं न कहीं रंग लगा हो सकता है। मोटर मैकेनिक के नाखून ग्रीस से काले नजर आते हैं। आलसी व्यक्ति नाखून को समय से काटने से परहेज करते हैं।
भानु बंगवाल

Saturday 1 September 2012

गुरु आपके कितने रूप....

जब गुरु की चर्चा आती है, तो मेरे जेहन में बचपन से लेकर बड़े होने तक स्कूलों में पाठ पढ़ाने वाले गुरुजी की तस्वीर उभरने लगती है। फिर मैं एक-एक के व्यक्तित्व पर गौर करने लगता हूं कि कौन से गुरुजी बेहतर थे। किस गुरु ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। कौन से गुरुजी ही मेरे सच्चे गुरु थे। तब मैं तय कर नहीं पाता कि किस गुरु को यह दर्जा दिया जाए, जो मेरा सच्चा गुरु कहलाने के काबिल हो।। क्योंकि मुझे तो एक गुरु नहीं मिला। मुझे तो पग-पग में गुरु मिले और अपना ज्ञान बांटते चले गए, जो आज भी बांट रहे हैं। सिर्फ देखने का नजरिया है। हम जब गुरु को परिभाषित करते हैं। उसके बारे में चर्चा करते हैं तो हमें स्कूली शिक्षा के गुरु ही नजर आते हैं। अन्य गुरु को हम भूल जाते हैं, जो हमें जीवन के हर मोढ़ पर मिलते हैं।
गुरु तो सिर्फ ज्ञान बांटता है, उसे जो तेजी से ग्रहण करता है, वही गुरु का लाडला शिष्य हो जाता है। बचपन में मुझे गुरु शब्द से ही भय लगता था। जब सरकारी स्कूल में पढ़ने पहली जमात में गया तो वहां गुरु मुझे किसी दैत्य से कम नहीं लगे। बात-बात पर बच्चों की पिटाई। गुरु ने किताब खोली हुई थी। उनके बगल में खड़ा होकर मैं हिंदी की कविता- (लाठी लेकर भालू आया, छम-छम) सुना रहा था। गुरु ने एक कागज लिया और सारे अक्षर छिपा दिए। फिर एक अक्षर को पहचानने को कहा। अक्षर ज्ञान तो मुझे था ही नहीं, मै तो कविता को रटे हुए था। मैने तुक्का मारा लाठी। तभी गुरू के हाथ में रखी डेढ़ फुटी लाठी मेरी हथेली में पड़ी। फिर एक-एक शब्द को पहचानकर उसे जोड़ना मुझे गुरु ने बताया। मैं रो रहा था और कविता को गा कर भी सुना रहा था। उस दिन से मुझे गुरु से डर लगने लगा। तब मुझे यह ज्ञान नहीं था कि गुरु का डंडा मेरी भलाई के लिए ही है। आठवीं जमात में पहुंचा तो मुझे गणित में दिक्कत आने लगी। ट्यूशन पढ़ाने के लिए पिताजी के पास पैसे नहीं थे। मेरे घर के निकट दृष्टिहीनों की कार्यशाला थी। वहां दृष्टिहीन व्यक्ति कु्र्सी, कंबल व शाल बुनते थे। इस कार्यशाला में राजेंद्र नाम का युवक जो एमए पास था, चपरासी के पद पर भर्ती हुआ। सर्दियों में कार्यशाला के बगल में मैदान पर बैठकर मैं सवाल सुलझाने का अभ्यास करता। जहां अटकता वहां राजेंद्र से पूछ लेता। मैं सीख रहा था और राजेंद्र को सिखाने में मजा आने लगा। वह नियमित रूप से मुझे पढ़ाने लगा। बगैर किसी ट्यूशन फीस व लालच के। दसवीं में अंग्रेजी में दिक्कत आई। मेरी माताजी ने कहा कि परीक्षा के दौरान एक-दो माह की ट्यूशन पढ़ ले। वह घर के खर्च से कटौती कर बीस-तीस रुपये ट्यूशन फीस का जुगाड़ कर देगी। ट्यूशन के लिए मैं एक कोचिंग सेंटर गया। वहां गुरु की फीस करीब सौ रुपये थी। फीस सुनकर मैं मायूस हो गया, लेकिन गुरु को मुझ पर न जाने कैसे तरस आया और उन्होंने फ्री में पढ़ाने की बात कही। इस गुरु की कृपा से मैं दसवीं में अंग्रेजी में फेल होने से बच गया।
दसवीं में ही मेरा एक विषय औद्योगिक रसायन था। इसे पढ़ाने वाले गुरु को न जाने क्यों बच्चे चूहा कहते थे। इसके बावजूद यह गुरु वाकई कमाल के थे। बच्चों को डरा धमका कर वेह एक-एक पाठ याद करा देते थे। साथ ही प्रेक्टिकल भी वह बारिकी से सिखाते थे। बोर्ड परीक्षा का परिणाम जब आया तो पता चला कि प्रेक्टिकल में मुझे इस गुरु ने अपने बेटे से भी ज्यादा अंक दिलाए। ये तो थे मेरे स्कूली गुरु। बाहरवीं के बाद में पढ़ाई के साथ छोटे-मोटा रोजगार भी करने लगा। मेरा संपर्क एक ऐसे सफल ठेकेदार से हुआ, जो पहले मजदूर था। कड़ी मेहनत व लगन की प्रेरणा मुझे सुखराम नामक इस गुरु से मिली। साथ ही पितांबर नाम के दृष्टिहीन व्यक्ति ने मुझे दृढ़ इच्छा शक्ति व बुलंद हौंसले का पाठ पढ़ाया। बचपन से आंखों की रोशनी खो चुके पितांबर चौहान को दृष्टिहीन होने के कारण टिहरी में एक विद्यालय ने प्रवेश देने से मना कर दिया था। बाद में हर क्लास प्रथम श्रेणी से पास कर वह उसी विद्यालय का गौरव बने। दृष्टिहीन होने के बावजूद ऊंचे पेड़ों पर चढ़ने में भी पितांबर माहिर थे। उन्हें देखकर ही मेरे मन में धारणा बनी कि दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है।
दब्बू व झेंपू स्वभाव मेरा बचपन से ही था। यह प्रवृति टूट नहीं पा रही थी। जब पत्रकारिता की लाइन में आया तो मेरे भीतर की इस आदत को भगाने में मेरे मित्र तोपवाल ने मदद  की। किसी भी व्यक्ति से बेधड़क मिलना और उससे बातें करना आदि की सीख मैने अपने इस मित्र से ली। साथ ही लिखने की कला को मैने उस गुरु से सीखा, जिसका नाम जयसिंह रावत है। वही, समाचार की एक-एक लाइन को पढ़कर उसमें और क्या बेहतर गुंजाइश हो सकती है, इसका मंत्र बताते थे। कई बार तो हमारे गुरु वे भी होते हैं, जो हमसे सीखने के लिए आते हैं। ऐसा ही एक युवा मुझे ऋषिकेश में मिला। वह पत्रकारिता सीख रहा था। हर रोज मेरे साथ घूमता था। वर्ष 94 की बात है। तब उत्तराखंड आंदोलन चल रहा था। दो अक्टूबर को मुजफ्फरनगर में गोलीकांड हो गया। उसकी प्रतिक्रया के चलते आंदोलनकारी तीन अक्टूबर को सड़कों पर आ गए। ऋषिकेश के नटराज चौक के पास पुलिस व आंदोलनकारियों के बीच जमकर संघर्ष होने लगा। मैं अपने इस चेले को साथ लेकर मोटर साइकिल से चौक की तरफ आगे बढ़ रहा था। तभी गोली चलने की आवाज आने लगी। युवक ने मुझसे कहा कि आगे मत जाओ, खतरा है। मैंने उसे कहा कि नकली गोली चल रही होगी। मौके पर जाकर ही देखेंगे क्या माजरा है। तभी मुझसे कुछ दूर एक युवक सड़क पर गिरा और उसके कपड़े खून से रंग गए। उसे गोली लगी थी। तब हम सुरक्षित स्थान को भागे और तभी कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई। यहां मुझे अपने अनुभव की बजाय उक्त युवक की समझदारी काम आई। सच ही तो है, जो देता है, जिससे हम ग्रहण करते हैं, वही हामरा गुरु है। ऐसे गुरु किसी न किसी रूप में हमें मिलते रहते हैं। वह घर में माता के रूप मे होता है, बाहर मित्र के रूप में, कहीं गुरु एक बच्चे के रूप में हो सकता है तो कहीं वह एक भिखारी के रूप भी मिल सकता है। सिर्फ उन्हें पहचानने का नजरिया चाहिए। जिनसे मैने जीवन के हर पग पर ज्ञान अर्जित किया, ऐसे गुरुओं को मेरा शत-शत नमन।                           
भानु बंगवाल