Friday 12 April 2013

A passion for cricket, thieves nailed

क्रिकेट का जुनून, चोरों की शामत
पहले क्रिकेट कभी कभार ही टेलीविजन में देखने व रेडियो में सुनने को मिलता था। इन दिनों तो आइपीएल का दौर चल रहा है। जहां कहीं भी शाम को जाओ तो लोग टेलीविजन से चिपके नजर आते हैं। वैसे अब तो क्रिकेट का बुखार कभी भी चढ़ जाता है। पर यह भी सच है कि करीब तीस साल पहले भी क्रिकेट के प्रति युवाओं में इसी तरह से रुचि थी, जो आज के दौर में दिखाई देती है। हालांकि जब कभी मैं छोटा था तो क्रिकेट का बल्ला खरीदने की भी मेरी औकात नहीं थी। तब कपड़े धोने की थपकी से ही क्रिकेट खेला करता था। तब मैदान की समस्या नहीं होती थी। अब तो मैदान की जगह भवनों के जंगलों ने ले ली है। ऐसे में बच्चों को क्रिकेट खेलने के लिए तंग गलियां या फिर मकानों की छत ही मिलती है। इसमें भी वे मात्र बल्ला सरकाते हैं, शॉट नहीं मारते हैं।
वर्ष 1996 में देहरादून से सहारनपुर के लिए मेरा तबादला हो गया था। तब सहारनपुर में भी क्रिकेट का ऐसा ही जुनून मुझे देखने को मिला, जैसा मैं देहरादन में बचपन से देखता आ रहा था। वहां दोपहर के समय जिन सड़कों, गलियों व चौराहों में हर वक्त जाम लगा रहता था। वहीं रात करीब दस बजे के बाद युवाओं का शोर गूंजता। रात को बिजली के बल्बों के तेज प्रकाश में प्लास्टिक की बाल से मोहल्लों में क्रिकेट टूर्नामेंट होते। यानी रात को चौकों व छक्कों की बौछार काफी लोकप्रिय थी। आसपास के लोग ऐसे टूर्नामेंट को देखने के लिए वहां जमे रहते। एक तरह से ये क्रिकेट टी-20 की तर्ज पर ही होता था। हांलाकि अब टी-20 क्रिकेट काफी लोकप्रिय हो गया है, लेकिन इसकी शुरूआत भारत की गलियों, चौराहों व मौहल्लों से ही हुई होगी, ऐसा मेरा मानना है।
सहारनपुर में मैं एक समाचार पत्र में संवाददाता था। वहां कुछ समाचार पत्रों के कार्यालय एक-दूसरे के निकट थे। एक पत्रकार को देर तक काम करने व घूमने की आदत होती है। वह समय से घर नहीं जाता। क्योंकि यदि देर रात को कोई घटना हो जाए तो उसे वापस कार्यालय को दौड़ना पड़ता है। ऐसे में रात को काम निपटाने के बाद कुछ पत्रों से जुड़े संवाददाता एक स्थान पर क्रिकेट खेलने को एकत्र हो जाते थे। वह स्थान था एक सिनेमा हाल का आहता। इस स्थान पर हर खिलाड़ी को हिदायत थी कि वह ऊंचे शॉट नहीं मारेगा। क्योंकि सिनेमा हाल की दीवार से सटे हुए लोगों के मकान थे। ऐसे में यदि किसी मकान में बाल गिरेगी तो वहां से वापस लाना टेढ़ी खीर था। फिर भी यदि कोई खिलाड़ी तेज और ऊंचा शाट मारता तो उसे आउट मान लिया जाता, साथ ही उसे ही बाल वापस लानी पड़ती थी। बाल लाने के लिए खिलाड़ी सिनेमा के पोस्टर लगाने के लिए इस्तेमाल होने वाली बांस की लंबी सीड़ी का सहारा लेता और दीवार से सटी मकान की छत तक पहुंचता। फिर जिस छत में बाल गिरी वहां दबे पांव चुपके से जाता और बाल वापस लाता। कई बार छत में ढम-ढम या धप-धप होने पर भवन स्वामी भी लड़ने को आ जाता। ऐसे में बाल लाने वाले को चोरों की तरह अपना काम करना पड़ता था।
एक रात की मुझे याद है कि ऐसा ही क्रिकेट खेला जा रहा था। एक साथी ने ऊंची शॉट मारी और गेंद दीवार से सटे कई भवनों को पार करती हुई चौथे भवन की छत पर गिरी। इस पर शॉट मारने वाले साथी हो बाल लानी थी। वह दबे पांच सीड़ी से दीवार पर चढ़ा और एक भवन की छत पर कूद गया। कुछ आगे दूसरे भवन पर जाने पर वह दवे पांव वापस आ गया। उसने सभी को बताया कि एक भवन की छत पर तीन संदिग्ध युवक अंधेरे की आड़ लेकर बैठे हैं। शायद चोरी की वारदात के लिए वे वहां छिपे हों। उन दिनों सहारनपुर में चोरी की घटनाएं भी काफी हो रही थी। ज्यादातर वारदातों में चोर देर रात को छत के रास्ते से ही भीतर घुसते थे। साथी के बताने पर कुछ और साथी सीड़ी से चढ़कर उस छत तक पहुंचे, जहां संदिग्ध युवक बैठे थे। उन्हें दबोच लिया गया। अंदेशा सही निकला कि वे चोरी के इरादे से ही छत पर बैठकर आधी रात होने का इंतजार कर रहे थे। शोर मचा तो आसपड़ोस के लोग जमा हो गए। उस भवन का मालिक भी छत पर पहुंचा, जिसकी छत पर चोर छिपे थे। तीनों युवकों को पुलिस के हवाले कर दिया गया। इस दिन के बाद से आसपड़ोस में रहने वालों में एक अंतर जरूर आ गया था। जो हमारे क्रिकेट खेलने से चिढ़ते थे, वे हमें हर रात क्रिकेट खेलने की सलाह देने लगे। साथ ही यह भी कहते कि खूब क्रिकेट खेलो, लेकिन छत में जब जाओ तो धप-धप मत करना। उन्हें हमारे क्रिकेट खेलने से खुद की सुरक्षा का अहसास होने लगा था।
भानु बंगवाल

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