Saturday 20 April 2013

Who eats and growls too .....

जो खाता भी है और गुर्राता भी.....
देश भी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और नेताओं की करतूत हर दिन उजागर हो रही है। कैसे हो गए ये नेता, जो देश सेवा कम और अपना भला ज्यादा कर रहे  हैं। जनता के सुख, दुख को लेकर आंसू बहाने का भले ही वे नाटक करते फिरते हौं, लेकिन उनका चरित्र तो एक बंदर के समान है। जो काफी चालाक है। जो मौका देखने पर भीखारी बन जाता है, वहीं मौका मिला तो लूटेरा भी। जब मौका मिलता है तो चोरी भी करता है। जब पोल खुल जाती है तो वह ठीक उसी तरह गुर्राने लगता है, जैसे चोरी व झपट्टा मारने वाले बंदर को भगाने का प्रयास करो तो वह गुर्राने लगता है। देश में बढ़ रही ऐसे बंदरों की फोज ने ही समय-समय पर बड़े घोटाले किए हैं। धर्म के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाया है। उनकी लपलपाती जुंवा कब कहां फिसल जाए इसका भी पता नहीं चलता है। तभी तो ऐसी बयानबाजी कर बैठते हैं कि पड़ोसी मुल्क भी इसका मजा लेने लगता है और उसे टांगखिंचाई का मौका मिल जाता है। 
अमीरी-गरीबी, ऊंच-नीच, भेद-भाव, छोटा-बड़ा, शिक्षित-अशिक्षित, सच्चाई-झूठ, गुण-अवगुण। इस तरह न जाने कितने रंग व रूप हैं इस इंसान के, जो इंसान ने अपने कर्म से ही बनाए हैं। यही इस देश की समस्या भी है। इन समस्याओं का समाधान नेताओं के हाथ में आश्वासन की गोली के रूप में है। उनके पास हर मर्ज की दवा है, लेकिन इलाज नहीं है। वहीं कोई व्यक्ति सवभाव में आलसी है, तो कोई मेहनती और कोई कामचोर। कोई चोरी करता है, तो कोई लूटमार को ही अपने जीवन का सुलभ साधन बना लेता है। नेताओं में भी अधिकांश का चरित्र ठीक ऐसा ही है। वहीं इसके उलट कोई सत्य की राह पर चलने का संकल्प लेता है। ये तो है इंसान की आदत व स्वभाव, लेकिन क्या हो गया इस दुनिया को। यहां इंसान तो इंसान, जानवर की भी आदत बिगड़ती जा रही है। इंसान की तरह भी जानवर भी अब आलसी, चोर, या लुटेरे होते जा रहे हैं। जानवरों की इस प्रवृति में बदलाव भी काफी समय से देखने को मिल रहा है। ऐसे जानवरों में हम बात करेंगे बंदरों की।
इन दिनों उत्तराखंड के हर शहर व गांव में बंदर भी एक समस्या बनते जा रहे हैं। चाहे मुख्य मार्ग हों, फिर कोई मंदिर या फिर खेत खलिहान। हर जगह बंदरों के उत्पात के नजारे देखने को मिल जाएंगे। पहले बंदर जंगलों में ही अपना डेरा जमाए रहते थे। जंगली फल, पेड़ों के फूलों व नई पत्तियों की मुलायम कोंपले, किसी छोटे पौधे की मुलायम जड़ खोदकर इसमें ही बंदर अपना भोजन तलाशते थे। दिन भर वे पेट की खातिर जंगलों में ही भटकते रहते और वहीं भोजन के साथ ही प्राकृतिक जल स्रोत पर निर्भर रहते। अब जंगलों में शायद बंदर नजर नहीं आते, वे तो कामचोर हो गए। उन्हें कामचोर बनाया इंसान ने। तभी तो मुख्य सड़कों के किनारे बंदरों के झुंड के झुंड नजर आते हैं। सड़कों के गुजरते लोग अपने वाहनों से खानपान की सामग्री इन बंदरों के झुंड की तरफ उछालते हैं। ऐसे में ये बंदर हर वाहन को देखते ही दौड़ लगा देते हैं कि शायद कोई उससे उनके भोजन के लिए खानपान की वस्तु उनकी तरफ उछालेगा। ऐसे में कई बार बंदर वाहनों की चपेट में आकर अपनी जान तक गंवा बैठते हैं। देहरादन-सहारनपुर, देहरादून-हरिद्वार व देहरादून- पांवटा मार्ग पर जहां कहीं जंगल पड़ते हैं, वहां सड़क किनारे बंदर इंसान की ओर से फेंके जाने वाले भोजन के इंतजार में बैठे रहते हैं।
वहीं देहरादून-हरिद्वार मार्ग पर कई लक्ष्मण सिद्ध समेत कई मंदिर पड़ते हैं। इन क्षेत्र के बंदरों का ठिकाना ये मंदिर ही होते हैं। कब किस मंदिर में भंडारा चल रहा है, इसकी भनक भी उन्हें लग जाती है। जंगलों से लंबा सफर तय कर वे एक मंदिर से दूसरे मंदिर तक पहुंच जाते हैं। भंडारे का बचा-खुचा खाना ही इन बंदरों का भोजन होता है। जब उन्हें सुलभता से भोजन मिल रहा है तो वे क्यों जंगल में जाकर भोजन की तलाश करेंगे। यही नहीं जब बंदरो को कच्चा अनाज व कच्चे फल की बजाय पका भोजन मिल जाता है तो उनकी कच्चे अनाज व जंगलों से फल खाने
की आदत भी खत्म होती जा रही है। एक दिन मेरी बहन ने बताया कि उनके यहां भागवत कथा चल रही थी। कथा के समापन पर वे हरिद्वार गए। कथा के दौरान वेदी में प्रयुक्त होने वाले कच्चे केले कथा समापन के दौरान बच गए थे। उन्होंने केले अपने साथ रख लिए कि रास्ते में बंदरों को दे देंगे। रास्ते में बंदरों का झुंड दिखा,तो उन्होंने उन्हें केले दिए। केले कच्चे थे, ऐसे में बंदरों ने इन केलों को खाया ही नहीं। कुछएक बंदरो ने केले को छिला और फेंक दिया। यानी उन्हें भी अब पक्के फल की दरकार थी।
इसी तरह की एक घटना मुझे याद है। ऋषिकेश में मुनि की रेती क्षेत्र में मैं सड़क किनारे किसी का इंतजार कर रहा था। तभी मेरी नजर करीब चार मंजिले मकान पर पड़ी। शाम का समय था। मकान की खिड़की के छज्जे पर एक बंदर खड़ा था और ऊपर वाली खिड़की से मकान के भीतर झांक रहा था। इस बंदर के पेट से एक छोटा बंदर यानी उसका बच्चा चिपका हुआ था। खिड़की में लोहे की सरिया लगी थी। ऐसे में बड़ा बंदर भीतर नहीं घुस सकता था। कुछ देर भीतर की टोह लेने के बाद बंदर के पेट से चिपका बच्चा फुदका और वह सरियों के गैप के रास्ते से भीतर चला गया। अचानक वह फुदक कर बाहर आया और फिर अपनी मां के पेट में चिपक गया। बड़ा बंदर भी नीचे को झुक गया मानो भीतर वाला व्यक्ति उन्हें न देख सके। भीतर कमरे की बत्ती जली और कुछ देर बाद फिर बुझ गई। बत्ती बुझने के बाद फिर से बच्चा फुदका और मकान के भीतर घुस गया। अबकी बार वह वापस आया तो उसके हाथ में दो केले थे। उसने बड़े बंदर को केले थमाए और फिर से भीतर घुसा। इस तरह वह कभी सेब लाता कभी रोटी। बड़ा बंदर छज्जे में ही सारा सामान एकत्र कर रहा था। कुछ देर बाद दोनो ने कुछ केले व सेब खाए, कुछ फेंके और कुछ साथ लेकर फुर्र हो गए। यानी जरूरत पढ़ने पर ये जानवर अब चोरी से भी बाज  नहीं आते हैं। वहीं मंदिरों व धार्मिक स्थलों पर तो ये बंदर सीधे लोगों के सामान पर झपट्टा मार देते हैं। ठीक उस डाकू की तरह जिसकी लूटमार की कहानी मैं बचपन में अपनी मां से सुना करता था।
इसी तरह खेतों में भी इन बंदरों का आतंक रहता है। खड़ी फसल व फलों के बाग में इनका आतंक हमेशा रहता है। कई धार्मिक स्थलों में तो बंदर व्यक्ति से थैला, पर्स, चश्मा या अन्य सामान छीनकर पेड़ में चढ़ जाते हैं। तब ही वे सामान को वापस फेंकते हैं, जब व्यक्ति उनके पास कोई खाद्य सामग्री फेंकते हैं। कई बार तो ऐसे बंदर व्यक्ति की जेब तक तलाश लेते हैं। कई बार सामने व्यक्ति के पड़ने की स्थिति में वे हिंसक भी हो जाते हैं। उत्तराखंड ही क्या, यूपी समेत शायद देश के हर हिस्से में इन बंदरों की आदत बिगड़ती जा रही है। मैं करीब पंद्रह साल पहले सहारनपुर था तो वहां भी बंदरों का उत्पात अक्सर देखता रहता था। सिर्फ साल में एक दिन मुझे बंदर वहां गायब नजर आते थे। वो दिन था वसंत पंचमी का। इस दिन वहां घर-घर में पतंगबाजी होती थी। लोग मकानों की छतों में होते और दिन भर वो काटी का शोर फिजाओं में गूंजता रहता। ऐसे में बंदर दिन भर डर के मारे कहां गायब होते इसका मुझे पता नहीं। ऐसे में मैं यही सोचता कि काश हर दिन वसंत पंचमी होती और छतों में बच्चे, बूढ़े और जवानों का शोर गूंजता तो शायद बंदर शहर से पलायन कर जंगलों में पनाह ले लेते। वही, उनके और इंसान दोनों के लिए ठीक रहता। जिस तरह बंदर कुछ सामग्री मिलने पर अपनी मुंह में बनी थैली में भरना शुरू कर देता है। जितना मुंह में ठूंस सकता है वह ठूंसता है। उसी तरह नेता भी पूरे पांच साल लोगों को चूसता रहता है। नेता है तो वह लेता ही लेता है। देता कुछ नहीं। उसकी थैली कभी नहीं भरती। सिर्फ एक बार जब कभी चुनाव आते हैं तब ही उसकी गांठ खुलती है। अब देखना यह है कि नेता ज्यादा खतरनाक है या फिर ये बंदर। क्योंकि दोनों ही प्रवृति एक सी होती जा रही है। इसी से मुझे एक पत्रकार स्वर्गीय कुलवंत कुकरेती की कविता की कुछ पंक्तियां याद आती है। जो इस प्रकार है---
एक बंदर
आदमी बनाम बंदर
और बंदर बनाम आदमी
कितना चतुर है ये बंदर
जो खाता भी है और गुर्राता भी.....

भानु बंगवाल

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