करियर नहीं, जुनून है ग्रामीण पत्रकारिता...
वैसे तो पत्रकारिता का क्रेज युवाओं में इस कदर सिर चढ़कर बोल रहा है कि वे इसे करियर के रूप में अपनाना चाहते हैं। पिछले कई साल से फिल्मों में भी पत्रकारों को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया, उसे देखकर युवाओं का पत्रकारिता का तरफ रुझान स्वाभाविक भी है। कुछ नया करना, आम बात को खास में बदलकर प्रस्तुत करना, भला किसे अच्छा नहीं लगता है। भले ही बाहर से ये चमक-दमक की जिंदगी नजर आती है, लेकिन ये सच है कि यदि वास्तव में कोई पत्रकारिता के मिशन से जुड़ा है, तो समझो उसके पास सोने, खाने व परिवार के लोगों के साथ समय बिताने के लिए समय ही नहीं रहता। कब और किस वक्त कहां दौड़ना पड़ जाए यह कहा नहीं जा सकता।
फिर भी शहरों में पत्रकारों के पास तमाम सुविधाएं हैं और वे समय से हर काम पूरा भी कर लेते हैं। साथ ही हल्की-फुल्की मस्ती में भी उनका दिन निकल जाता है, लेकिन इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्र में पत्रकारिता तो मात्र जुनून है, करियर नहीं।
ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों के लिए पत्रकारिता के माध्यम से रोजी-रोटी चलाना संभव नहीं है।क्योंकि कस्बाई पत्रकारों को शायद ही कोई समाचार पत्र इतना मानदेय देता हो कि उससे उसका परिवार का
खर्च चल सके। फिर भी पत्रकारिता का जुनून ऐसा है कि वे अपना समय लगाने के साथ ही इस मिशन के लिए अपनी जेब तक ढीली कर देते हैं। छोटे कस्बे व गांव में पत्रकारिता करना चुनौती से भरा काम है। कारण कि सभी लोग पहचान वाले होते हैं। ऐसे में हरएक की यही चाहत होती है कि पत्रकार उनके पक्ष की ही खबर लिखे। यदि इसके विपरीत कोई लिखता है तो उसे अपने ही लोगो का विरोध झेलना पड़ता है। उत्तराखंड में ऐसे पत्रकारों की लंबी फेसिहत है, जो किसी न किसी समाचार पत्र से जुड़कर छोटे कस्बों की रिपोर्टिंग कर रहे हैं। इनके आगे नेटवर्किंग की समस्या रहती है। साथ ही बड़ी चुनौती घटनास्थल तक पहुंचने की होती है। उदाहरण के तौर पर देखें कि उत्तरकाशी के मौरी ब्लाक के ओपला क्षेत्र में आग लगी है, तो पुरोला से जब कोई पत्रकार मौके पर पहुंचता है तो वाहन से सफर तय करने के बाद उसे करीब 18 किलोमीटर की दूरी पैदल भी नापनी पड़ी। इसी तरह यदि कहीं भूस्खलन हो या फिर भारी बर्फबारी हो तो मौके पर पहुंचा भी पत्रकार के लिए मुश्किल होता है और समय पर वापस लौटना भी। कई बार तो बर्फबारी प्रभावित क्षेत्र की रिपोर्टिंग करने पहुंचे पत्रकार दोबारा बर्फ गिरने पर मौके पर ही फंस जाते हैं। फिर उनकी वापसी भी एक दो दिन बाद होती है।
कंधे पर थैला, थैले में डायरी, शर्ट की जेब पर कलम आदि का फैशन भले ही अब शहरों से गायब हो गया हो, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकार के पास वह समाचार पत्र जरूर मिलेगा, जिससे वह जुड़ा होता है। कहीं किसी दुर्गम क्षेत्र में वह जाता है, वहां के लोग उससे उम्मीद रखते हैं कि वह ताजा समाचारों से उन्हें भी अवगत कराए। ऐसे में पत्रकार नारद की भूमिका निभाते हैं।
पुरोला के एक बुजुर्ग पत्रकार बताते हैं कि कुछ जनजातीय वाहुल्य क्षेत्र ऐसे हैं, जहां समाचार ही पलट जाते हैं। मौरी के एक गांव में हत्या होती है। हत्या का समाचार वह लिखते हैं। जो समाचार पत्र में प्रकाशित भी हो जाता है। अगले दिन वह समाचार का फालोअप करने के लिए तथ्य जुटाने का प्रयास करते हैं। ऐन मौके पर पता चलता है कि दोनों पक्षों का समझौता हो गया। ग्रामीणों ने आपसी बैठक करके ही पूरे केस का निपटारा कर दिया। न कोई अदालत का झंझट और न कोई मुकदमेबाजी। इन सबके बावजूद आज भी कई लोग ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में पत्रकारिता के मिशन से जुड़े हैं। जिनके आगे बस चुनौती है चुनौती है।
भानु बंगवाल
वैसे तो पत्रकारिता का क्रेज युवाओं में इस कदर सिर चढ़कर बोल रहा है कि वे इसे करियर के रूप में अपनाना चाहते हैं। पिछले कई साल से फिल्मों में भी पत्रकारों को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया, उसे देखकर युवाओं का पत्रकारिता का तरफ रुझान स्वाभाविक भी है। कुछ नया करना, आम बात को खास में बदलकर प्रस्तुत करना, भला किसे अच्छा नहीं लगता है। भले ही बाहर से ये चमक-दमक की जिंदगी नजर आती है, लेकिन ये सच है कि यदि वास्तव में कोई पत्रकारिता के मिशन से जुड़ा है, तो समझो उसके पास सोने, खाने व परिवार के लोगों के साथ समय बिताने के लिए समय ही नहीं रहता। कब और किस वक्त कहां दौड़ना पड़ जाए यह कहा नहीं जा सकता।
फिर भी शहरों में पत्रकारों के पास तमाम सुविधाएं हैं और वे समय से हर काम पूरा भी कर लेते हैं। साथ ही हल्की-फुल्की मस्ती में भी उनका दिन निकल जाता है, लेकिन इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्र में पत्रकारिता तो मात्र जुनून है, करियर नहीं।
ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों के लिए पत्रकारिता के माध्यम से रोजी-रोटी चलाना संभव नहीं है।क्योंकि कस्बाई पत्रकारों को शायद ही कोई समाचार पत्र इतना मानदेय देता हो कि उससे उसका परिवार का
खर्च चल सके। फिर भी पत्रकारिता का जुनून ऐसा है कि वे अपना समय लगाने के साथ ही इस मिशन के लिए अपनी जेब तक ढीली कर देते हैं। छोटे कस्बे व गांव में पत्रकारिता करना चुनौती से भरा काम है। कारण कि सभी लोग पहचान वाले होते हैं। ऐसे में हरएक की यही चाहत होती है कि पत्रकार उनके पक्ष की ही खबर लिखे। यदि इसके विपरीत कोई लिखता है तो उसे अपने ही लोगो का विरोध झेलना पड़ता है। उत्तराखंड में ऐसे पत्रकारों की लंबी फेसिहत है, जो किसी न किसी समाचार पत्र से जुड़कर छोटे कस्बों की रिपोर्टिंग कर रहे हैं। इनके आगे नेटवर्किंग की समस्या रहती है। साथ ही बड़ी चुनौती घटनास्थल तक पहुंचने की होती है। उदाहरण के तौर पर देखें कि उत्तरकाशी के मौरी ब्लाक के ओपला क्षेत्र में आग लगी है, तो पुरोला से जब कोई पत्रकार मौके पर पहुंचता है तो वाहन से सफर तय करने के बाद उसे करीब 18 किलोमीटर की दूरी पैदल भी नापनी पड़ी। इसी तरह यदि कहीं भूस्खलन हो या फिर भारी बर्फबारी हो तो मौके पर पहुंचा भी पत्रकार के लिए मुश्किल होता है और समय पर वापस लौटना भी। कई बार तो बर्फबारी प्रभावित क्षेत्र की रिपोर्टिंग करने पहुंचे पत्रकार दोबारा बर्फ गिरने पर मौके पर ही फंस जाते हैं। फिर उनकी वापसी भी एक दो दिन बाद होती है।
कंधे पर थैला, थैले में डायरी, शर्ट की जेब पर कलम आदि का फैशन भले ही अब शहरों से गायब हो गया हो, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकार के पास वह समाचार पत्र जरूर मिलेगा, जिससे वह जुड़ा होता है। कहीं किसी दुर्गम क्षेत्र में वह जाता है, वहां के लोग उससे उम्मीद रखते हैं कि वह ताजा समाचारों से उन्हें भी अवगत कराए। ऐसे में पत्रकार नारद की भूमिका निभाते हैं।
पुरोला के एक बुजुर्ग पत्रकार बताते हैं कि कुछ जनजातीय वाहुल्य क्षेत्र ऐसे हैं, जहां समाचार ही पलट जाते हैं। मौरी के एक गांव में हत्या होती है। हत्या का समाचार वह लिखते हैं। जो समाचार पत्र में प्रकाशित भी हो जाता है। अगले दिन वह समाचार का फालोअप करने के लिए तथ्य जुटाने का प्रयास करते हैं। ऐन मौके पर पता चलता है कि दोनों पक्षों का समझौता हो गया। ग्रामीणों ने आपसी बैठक करके ही पूरे केस का निपटारा कर दिया। न कोई अदालत का झंझट और न कोई मुकदमेबाजी। इन सबके बावजूद आज भी कई लोग ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में पत्रकारिता के मिशन से जुड़े हैं। जिनके आगे बस चुनौती है चुनौती है।
भानु बंगवाल
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