Thursday 20 June 2013

Adulteration was not , so temple was saved ...

 मिलावट नहीं थी, तो बच गया मंदिर...
इस मिलावट ने किसी को कहीं का नहीं छोड़ा। भ्रष्टाचार चरम पर है। मिलावट का जमाना है। हर काम में कमीशनखोरी है। सो ऐसे में किसी भी काम की गुणवत्ता पर सवाल उठने लाजमी हैं। हाल ही में नौ जून को मैं सपरिवार केदारनाथ धाम के लिए देहरादून के लिए चला था। इसी शाम को मैं गौरीकुंड पहुंचा और अगले दिन दस जून की दोपहर बाद केदारनाथ धाम पहुंच गया। धाम में बड़ी रौनक थी। अगले दिन में 11 जून को गौरीकुंड वापस लौटा। रास्ते में तेज बारिश होने लगी। यानी उसी दिन से मौसम बिगड़ने लगा। गौरीकुंड पहुंचने के बाद पता चला कि हम जिस स्थान से होकर गौरीकुंड पहुंचे, वहां घोड़ा प्रीपेड काउंटर के पास फ्लड आया है। सोनप्रयाग से आगे गुप्तकाशी की तरफ वापस जाने के रास्ते कई जगह से बंद हो गए हैं। किसी तरह हम गौरीकुंड से निकले और मंगलवार की रात गोपेश्वर पहुंचे। यहां रात्रि विश्राम कर अगले दिन हम बदरीनाथ धाम पहुंचे और गुरुवारकी सुबह वापसी का सफर शुरू कर देर रात देहरादून घर पहुंच गए। ठीक दो दिन बाद मौसम और बिगड़ा और समूचे उत्तराखंड में  तबाही मचने लगी। मंगलवार 18 जून को जब केदारनाथ धाम में आपदा की तस्वीरें सामने आई तो देखा कि एक सप्ताह पूर्व पहले केदारनाथ में मंदिर के पास मैं  जिस होटल में ठहरा था, उसका तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया। इसी तरह आसपास की दुकानें तस्वीर से गायब थी।
आपदा आई और इसके साथ ही आपदा के कारणों पर बहस भी शुरू हो गई। कोई इसे मानव की प्रकृति में जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी बता रहा है, कोई जल विद्युत परियोजनाओं का निमार्ण, कोई पहाड़ों में विस्फोट, तो कोई कुछ अन्य कारण गिना रहा है। खैर कारण जो भी हो, लेकिन केदारनाथ में जिस रास्ते से होकर आपदा आई, वहां तो शायद किसी की दखलअंदाजी हो ही नहीं सकती। जिन पहाड़ों से पानी, मलबा व पत्थर बरसे, वे तो इतनी ऊंचाई पर थे कि मानव ने वहां शायद ही कोई निर्माण किया हो। फिर भी वहीं से आपदा आई। पत्थरों की बारिश हुई और केदारनगरी तबाह हो गई। इस तबाही के बीच अडिग खड़ा रहा केदारनाथ मंदिर। जिसमें करोड़ों हिंदुओं की  आस्था टिकी हुई है। इस मंदिर में जान बचाकर शरण लेने वाले भी कई लोग मौत के आगोश में समाने से बच गए।
पूरी केदारनगरी में जो भी भवन पत्थरों की चपेट में आए, वे सभी जमींदोज हो गए। फिर ऐसा क्या था मंदिर में कि पत्थरों की मार सहने के बाद भी वहीं अडिग खड़ा रहा। सच तो यह है कि जब इस मंदिर का निर्माण करीब 1200 साल पहले आदि शंकराचार्य ने कराया, तब शायद मिलावट का जमाना नहीं था। न तो किसी निर्माण कार्य में कमीशनखोरी ही थी और न ही नकली सामान बेचने का चलन था। तब नकली व अधपकी ईंटों का जमाना नहीं था। मजबूत पत्थरों की चिनाई जिस मसाले के साथ ही जाती थी, उसकी गुणवत्ता से भी कोई समझोता नहीं किया जाता रहा होगा। अब आजकल के निर्माण को ही ले लो। नेता, विभागीय अधिकारी, ठेकेदार से लेकर उसमें सभी तो कमाना चाहते हैं। वहीं, यदि कोई खुद ही अपने लिए निर्माण कराता है तो भले ही वह कमीशन नहीं दे रहा होता, लेकिन क्या गारंटी है कि सीमेंट या सरिया असली है। मिलावट से सीमेंट भी अछूता नहीं है। कहां गई वे कंपनियां जो अपने सीमेंट का वर्षों चलने का दावा करती हैं। पत्थरों की बरसात में उनके सीमेंट से बनी इमारतें केदारनाथ में जमींदोज हो गई। मंदिर को छोड़कर करीब 20 से 25 साल के भीतर बने होटल, पुल, सड़कें व अन्य निर्माण  इस बरसात की मार नहीं झेल पाए। वहीं इसके विपरीत 1200 साल पुराना मंदिर मजबूती से खड़ा रहा। पत्थरों की मार तो  केदारनाथ मंदिर में भी पड़ी होगी। फिर भी वह क्यों खड़ा रहा। यह इसलिए हुआ कि उसके निर्माण में किसी नेता, अधिकारी ने दलाली नहीं खाई। उसके निर्माण में गुणवत्ता से समझोता नहीं किया गया। उसके निर्माण में घटिया सामान का इस्तेमाल नहीं किया गया।
भानु बंगवाल 

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