Saturday 15 June 2013

step by step , the changing culture ...

 कदम-कदम पर बदलती संस्कृति...
पहाड़ के लोगों का पहाड़ सा जीवन। इस कठिन जीवन के बारे में मैदानी क्षेत्र के लोग तब जानते हैं, जब वे पहाड़ की यात्रा करते हैं और कहीं भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र में घंटों तक फंस जाते हैं। मानसून की पहली बरसात में तो पहाड़ की सड़कें जख्मी हो गई। ऐसे में चारधाम यात्रा पर तो लगभग ब्रेक ही लग गया। विभिन्न स्थानों पर पहाड़ी दरकने से यात्री फंस रहे हैं। कई बार तो एक ही स्थान पर चार व पांच घंटे तक लोगों को रास्ता खुलने का इतंजार करना पड़ रहा है। एक बाधा पार की तो दूसरी बाधा कुछ ही आगे मिल जाती है। फिर वही इंतजार और आगे का सफर। ऐसे में एक दिन का सफर कई बार दो या तीन दिन का हो जाता है।
पहाड़ की संस्कृति भी कदम-कदम पर बदलती रहती है। लोगों के लिए बरसात जो आफत लेकर आती है, वही कई के लिए कमाई का जरिया भी बन जाती है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो परेशान लोगों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं। उनकी व्यापारिक सोच जाग्रत हो जाती है और वे सुविधा के नाम पर फंसे यात्रियों की जेब ढीली करने से भी गुरेज नहीं करते। वहीं, इसके विपरीत ऐसे भी लोग हैं, जो यात्रियों की सेवा को ही परम धर्म समझते हैं।
ऋषिकेश बदरीनाथ हाईवे पर चमोली जनपद में ऐसे कई स्थान हैं, जहां इन दिनों रास्ते अवरुद्ध हो रहे हैं। चमोली से लेकर जोशीमठ तक के सफर में करीब 15 से 20 स्थानों पर चट्टान दरक रही है। लोग जगह-जगह फंस रहे हैं। यहां एक बात यही नजर आई कि इस रास्ते पर कुछ-कुछ दूरी मे विपरीत सोच वाले लोग रहते हैं। चमोली से पीपलकोटी तक सड़क किनारे बसे गांव व स्थानीय लोग व्यापारिक सोच के हैं। वहां ज्यादातर लोगों ने अपने घरों को ही लॉज का रूप दे रखा है। एक-दो कमरों मे बिस्तर लगाए हुए हैं। रास्ता बंद होने पर ग्रामीण यात्रियों को रहने की जगह किराये पर देते हैं। इससे यात्रियों की परेशानी भी कम होती है और ग्रामीणों की आमदनी भी हो जाती है। वहीं, पीपलकोटी से बदरीनाथ की तरफ जाने वाली सडक में हेलंग तक करीब 15 से 20 किलोमीटर तक बसे गांव के लोगें की सोच व्यावसायिक नहीं है। अतिथि सत्कार करना तो कोई यहां के लोगों से सीखे। पागलनाला, टंगणी स्लाइड, गुलाबकोटी आदि ऐसे करीब सात स्थान हैं, जहां सड़क अक्सर बाधित हो जाती है। इन स्थानों पर यदि यात्री रात को फंसते हैं, तो ग्रामीण पंचायत घरों को उनकी सेवा के लिए खोल देते हैं। यही नहीं कई लोग तो अपने मेहमान की तरह ही अपने घर में यात्रियों को शरण देते हैं। इसकी एवज में वे किसी से कुछ लेते तक नहीं। एक ही सड़क किनारे बसे गांवों में करीब 15 किलोमीटर की दूरी मे ही लोगों की सोच व संस्कृति में कितना अंतर है। ऐसे गांवों में फंसने वाले यात्रियों में भी आपसी तालमेल देखा जाता है। मुसीबत के समय यात्री भी एक-दूसरे की मदद को तत्पर रहते हैं। यदि कोई यात्री भोजन जुटाने को कहीं दूर तक जाता है, तो वह दूसरों के लिए भी कुछ न कुछ खानपान की सामग्री साथ लेकर लौटता है। इसे आपस में बांटकर ही लोग किसी तरह काम चलाते हैं। काश दूसरे की मदद करने वाले गांवों के लोग अपना दायरा और बढ़ाएं और ऐसे लोग समूचे उत्तराखंड में फैल जाएं। तभी देवभूमि उत्तराखंड की महत्ता और अधिक बढ़ेगी।
भानु बंगवाल

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