Wednesday 21 March 2012

लीला की चिट्ठी....

लीला की  चिट्ठी...
सच कहो तो मन की  भावनाओं को शब्दों में बयां करना मैं लीला से ही सीखा। उस लीला से जो अंगूठा छाप होने के बावजूद मुझे पढ़ना और लिखना सीखा गई। आज भी मेरे जेहन में उसकी याद ताजा है। पतली-दुबली कदकाठी, सांवली सूरत। तीखे नैन नक्श, खनकती आबाज व शालीनता की देवी थी लीला। हमारे मोहल्ले में उसका मकान था। वह धोबन थी और उसका पति मेवालाल फौज में था। साल में कुछएक दिन छुट्टी पर आने के बाद मेवालाल ड्यूटी पर चला जाता था। यह करीब पैंतीस साल पहले की बात है। तब फोन का जमाना नहीं था। चिट्ठी से ही एक-दूसरे के हालचाल का पता चलता था।
मैं जब चौथी कक्षा में था, तब से ही लीला मुझसे अपने पति के लिए चिट्ठी लिखवाती थी। जवाब आने पर मुझसे ही चिट्ठी पढ़वाया करती थी। उसे मोहल्ले के बच्चे लीला भाभी कहते थे। उसकी चिट्ठी लिखते और पढ़ते ही मुझे भी शब्द ज्ञान होने लगा और मैं भी  धारा प्रवाह पढ़ना व लिखना सीख रहा था। यानि लीला ही मेरी गुरु थी। लिखने के तीन दिन बाद ही चिट्ठी मेबालाल को मिल जाती थी। उसका जवाब आता, फिर मेवालाल को चिट्ठी लिखवाती। यानि सप्ताह में एक बार मैं लीला की चिट्ठी पढ़ता और लिखता था। उसकी देखादेखी कई अन्य महिलाएं भी मुझसे चिट्ठी लिखवाने लगी, लेकिन वह कभी-कभार ही मेरे घर आती थी।
लीला का चिट्ठी लिखाना व पढ़ाना नियमित था। उसमें दुखः- सुख, मौसम का हाल, आस- पड़ोस की घटनाएं, सभी का जिक्र रहता था। जैसे- फलां महिला की  पांचवी बार भी लड़की पैदा हुई। फलां की लड़की उसके साथ भाग गई। साथ ही बच्चों के भविष्य की चिंता। भविष्य के कार्यों को करने की साप्ताहिक, मासिक कार्ययोजना आदि। इनमें यह तक होता था कि दीवार का चूना उधड़ रहा है, अब सफेदी कराउंगी।
आर्थिक कमी व गरीबी से जूझते लीला व मेवालाल चिट्ठी में एक-दूसरे का साहस बढ़ाने का काम भी करते थे। जब मेवालाल बीमार हुआ तो उसने ठीक होने के बाद ही इसका जिक्र किया। तब उसने बताया कि वह इतना कमजोर हो गया था, कि कमर में बंधी तगड़ी तक ढीली पड़ गई थी। फिर चिंता न करना, अब पहले जैसा हूं आदि का उल्लेख कर उसने लीला की चिंता को दूर करने का प्रयास भी किया।
समय बदला। चिट्ठी का स्थान मोबाइल फोन ने ले लिया। लेटर बॉक्स का उपयोग प्रतियोगिताओं व अन्य पत्रों को के लिए होने लगा। अब वह अंगूठा छाप लीला भी  नहीं रही और न रही लीला की चिट्ठी।
                                                                                                                    भानु बंगवाल

2 comments:

  1. भाई साहब पुराने दिनों को याद करने का बढ़ीया तरीका है।

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  2. सही कहा सर आपने, मोबाइल क्‍या आए, डाकघर से अंर्तदेशीय पत्र गायब ही हो गए। लैपटाप जिस तेजी से पैर पसार रहा है, कुछ वर्षों बाद लिखने की कापियां भी गायब हो जाऐंगी।

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