Wednesday 28 March 2012

कानूनी दांव पेंच, शातिराना अंदाज

कई बार झगड़े का कोई बड़ा कारण नहीं होता और न चाहते हुए विवाद हो जाता है। विवाद इतना बढ़ता है कि न्यायालय तक पहुंच जाता है। न्यायालय तक विवाद पहुंचने पर अक्सर मामले लंबे खींचते हैं, ऐसे में दोनों पक्ष ही परेशान रहते हैं। माना जाता है कि सच और झूठ की इस लड़ाई में सच की ही जीत होती है, लेकिन यह हर बार संभव नहीं है। अक्सर कानूनी दांव पेंच के खिलाड़ी साफ बच निकलते हैं और दूसरा पक्ष खुद को ठगा सा महसूस करता है। इस जंग में दांव पेंच के बीच कानून ही कराह उठता है।
बात कई साल पहले की है। मैं घर से आफिस को मोटरसाइकिल से निकला। रास्ते में एक मकान के आगे कार खड़ी थी। बगल में एक नर्सिंग होम भी था। कार से पूरा रास्ता अवरुद्ध हो रखा था। इससे सड़क के दोनों तरफ वाहनों की कतार लगने लगी। कार के भीतर बैठे लोगों से सड़क पर खड़े कुछ लोग बात कर रहे थे। मैं भी अन्य लोगों की तरह वहां पर रुका और कुछ देर इंतजार किया। फिर कार से एक व्यक्ति उतरा और बाहर खड़े लोगों ने बात करने लगा। करीब दो-तीन मिनट होने पर मैने टोका कि कार आगे करके बात कर लो। रास्ता क्यों रोका हुआ है। इस पर मौके पर खड़े उनके एक साथी को गुस्सा आ गया और वह मुझे धमकाने लगा। जब मैने पूछा कि मैने क्या गलत कहा तो कार में सवार व्यक्तियों के साथ ही सड़क पर खड़े लोगों ने मुझ पर हमला कर दिया। वे मुझ पर ऐसे लात-घूंसे बरसा रहे थे, जैसे कि मैं कोई अपराधी हूं। काफी देर मारपीट करने पर ही उन्हें चैन आया। मुझसे रहा नहीं गया। मैने मारपीट का कारण पूछा। इस  पर हमलावरों से एक ने मुझे बताया कि नर्सिंग होम में भर्ती एक बच्चे की मौत हो गई। उसे ही कार में लेकर जा रहे थे।
मैं मौके पर कुछ नहीं बोला। मुझे बच्चे की मौत की घटना पता नहीं थी। साथ ही यह दुख भी हुआ कि यदि मौत का पता होता तो मैं कार हटाने को नहीं टोकता। काफी देर तक मनन करने के बाद मैने तय किया कि गलती दूसरे पक्ष की है, जिन्होंने कानून हाथ में लिया और हमला किया। मारपीट करने वालों को मैं जानता नहीं था। इसलिए मैने कार नंबर के आधार पर थाने में रिपोर्ट लिखाई। पुलिस ने जांच में मारपीट करने वालों के नामों का खुलासा किया और यह मुकदमा न्यायालय तक पहुंचा। न्यायालय में तारिख पर तारिख लगने से मैं खुद भी परेशान हो गया। मुकदमा लिखने के करीब दो साल बाद मेरे बयान का नंबर आया। जज ने मुझे पूरा घटनाक्रम सुनाने को कहा। इसके बाद न्यायालय में ही मुझे हमला करने वालों को पहचानने को कहा गया। मैने अपने चारों तरफ गर्दन घुमाई, लेकिन मुझे कोई हमलावर नजर नहीं आया। हमला करने वालों में दो-तीन की शक्ल मैं भूला नहीं था, लेकिन न्यायालय में मैं किसी को नहीं पहचान सका। खैर संदेह के आधार पर सभी आरोपी बरी हो गए।
बाद में मुझे पता चला कि कानूनी दांव पेंच में दूसरा पक्ष काफी शातिर निकला। जब पुलिस मारपीट की विवेचना कर रही थी तो दूसरे पक्ष ने हमलावरों में उनके नाम लिखवा दिए, जो घटना वाले दिन मौके पर मौजूद ही नहीं थे। उन सभी ने न्यायालय से जमानत भी करा ली थी। जब न्यायालय में मुझे हमलावरों की शिनाख्त (पहचान) करनी थी, तो असली हमलावर वहां थे ही नहीं। उनकी जगह दूसरे खड़े थे और उन्हीं के नाम पुलिस विवेचना में हमलावरों के रूप में दर्ज थे।

                                                                                            भानु बंगवाल

1 comment:

  1. ये पुलिस है सर, सब कुछ कर सकती है।

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