Saturday 17 March 2012

छोटा कंफ्यूजन, लंबी कसरत

कभी-कभी सुनने में, तो कभी किसी बात को समझने में कंफ्यूजन हो जाता है। यह हर किसी के साथ होता है। इसी कंफ्यूजन के चलते कई बार करना कुछ होता है और व्यक्ति कर कुछ और जाता है। इसी कंफ्यूजन में एक कहानी है कि एक व्यक्ति अपनी धुन में हमेशा खोये रहते थे। जब कहीं जाते तो इतनी जल्दी कि कहीं ट्रेन न छूट जाए। वह अपनी ही बात सुनाया करते थे। दूसरों की सुनने को तैयार नहीं रहते। एक बार एक व्यक्ति उन्हें रास्ते में मिला। उसने महाशय से पूछा क्या हाल हैं। कंफ्यूज रहने वाले महाशय ने जवाब दिया कि बैंगन ले जा रहा हूं। इस पर व्यक्ति ने पूछा बच्चे ठीकठाक हैं। महाशय ने जवाब दिया शाम को भर्ता बना कर खाउंगा। यानि जल्दबाजी में सुनने पर कंफ्यूजन।
 कई साल पहले की बात है। उन दिनों मेरे मित्र नवीन थलेड़ी मेरठ से निकलने वाले एक समाचार पत्र में थे। उनका तबादला देहरादून से मेरठ के लिए किया गया। वहां कुछ माह रहने के बाद फिर से उनका तबादला सहारनपुर कर दिया गया। मेरठ में पैकिंग कर उनके सामान को समाचार पत्र सप्लाई करने वाली गाड़ी में रखवा दिया गया। चालक को समझा दिया गया कि यह सामान थलेड़ी का है, इसे सहारनपुर में उतारना है। सहारनपुर में थलेड़ी अपने सामान का इंतजार करते रहे, लेकिन सामान नहीं पहुंचा। इस पर उन्होंने मेरठ कार्यालय में संपर्क साधकर वस्तुस्थिति जाननी चाही। पता चला कि सामान गाड़ी से भेज दिया गया था। इसके बाद चालक को तलाशा गया। चालक ने बताया कि उसने तलहेड़ी में अखबार के बंडलों के साथ सामान उतार दिया। तब अखबार के बंडल सड़क किनारे ही उतार दिया करते थे। तलहेड़ी सहारनपुर जिले के अंतर्गत ही आता है, लेकिन जिला मुख्यालय से उस स्थान की दूरी करीब 25 किलोमीटर है। ऐसे में सड़क पर लावारिस हालत में चालक सामान छोड़कर चला गया। खैर उसे नाम व स्थान का कंफ्यूजन था। उसने थलेड़ी के नाम को स्थान का नाम तलहेड़ी समझा। गनीमत रही कि सामान किसी दूसरे ने सड़क से नहीं उठाया और सही सलामत मिल गया।
                                                                                                            भानु बंगवाल

1 comment:

  1. कंफ़यूजन नहीं सर जल्‍दबाजी और जल्‍दबाजी में तो हमेशा ही बनता काम बिगडा है।

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