Wednesday 28 November 2012

कुलटा-5 (अंतिम ) .. बच्चों का बंटवारा (सच्ची घटना पर आधारित) (जारी से आगे)

रेलगाड़ी के डब्बे की तरह मकानों की लाइन। सभी घर एक दूसरे से जुड़े हुए। करीब चालीस साल पहले किसी कालोनी में मकान कुछ इसी तरह के होते थे। यही नहीं तब यदि कोई जमीन का टुकड़ा खरीदकर मकान भी बनाता था तो कमरे भी लाइन के रूप में ही खड़े करता था। जैसे अब सड़क किनारे दुकानों की पंक्ति होती है। शुरूआत में अलग-बगल दो कमरे खड़े किए। जैसे-जैसे पैसा आता गया, तो कमरों की संख्या बढ़ने लगती। इस तरह जब कई कमरों का वाला मकान हो जाता था तो वह रेलगाड़ी की तरह ही नजर आता। तब सलीके से जो मकान होते, उसे कोठी कहा जाता। ऐसी कोठियां शहर में प्रतिष्ठित व नामी सेठों की होती थी।
दूहरादून में एक सरकारी कालोनी में रह रहे बट्टू के उसकी पड़ोस की महिला विदूषी  से अवैध संबंध रहे, जो कई साल तक चले। विदूषी और बट्टू के घर के कमरे रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह एक दूसरे से जुड़े हुए थे। बट्टू के कमरा शिफ्ट करने के बाद उसके पुराने कमरे में एक कलाकार का परिवार आया। इस कमरे का ही दोष था कि कलाकार की पत्नी भी कुलटा हो गई। यदि दाएं से मकान में नंबर डाले जाएं तो पहले नंबर पर बट्टू का कमरा था। दूसरे पर विदूषी का। तीसरे नंबर के मकान में एक पंडितजी रहते थे। पंडितजी के दो कमरे के मकान में एक कमरे की खिड़की पर लगी लोहे की एक सलाख (सरिया) गायब थी। इस सरिया के गायब होने के पीछे भी एक कहानी थी। यानी एक नंबर से लेकर तीन नंबर के मकान में रहने वालों में कोई न कोई कभी न कभी रासलीला का पात्र रहा। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि कुलटा की कहानी लगातार के तीन मकानों के इर्दगिर्द ही घूमती रही। इस कहानी की नींव करीब पैंतालिस साल पहले पड़ गई थी। इस कहानी से न तो बट्टू ने ही सबक लिया, न ही विदूषी ने और न ही कलाकार की पत्नी रामी ने। सभी जाने-अनजाने में कुलटा के पात्र बनते चले गए।
जब मैं छोटा था तो पंडितजी वाले मकान की गायब एक सरिया को देखकर मेरे मन में यही सवाल उठता कि इस सरिया को किसने तोड़ा। मजबूत खिड़की की मजबूत सरिया का गायब होना भी आसान नहीं था। मेरे पिताजी काफी मुंहफट इंसान थे। जब मैं करीब आठ साल का था तो एक बार मैने उनसे ही यह सवाल किया कि पंडितजी के घर की सरिया क्यों गायब है। इस पर उन्होंने मुझे टाल दिया। कहा अभी तू छोटा है। अच्छा ब बुरा नहीं समझता है। यह रहस्य तब का है, जब तू पैदा भी नहीं हुआ था। जब कुछ और बड़ा हो जाएगा, तब तूझे बता दूंगा। करीब दो साल बाद फिर मैने अपना सवाल पिताजी से दोहराया। इस पर उन्होंने मुझे जो कहानी सुनाई वह इस प्रकार थी।
पंडितजी से पहले उस मकान में जंगी नाम का एक व्यक्ति रहता था। जब उस मकान में जंगी आया तो उसके दो बेटे थे। तब संस्थान में संस्थान का अपना धोबी, नाई, टेलर व मोची होता था। जंगी मोची का काम करता था। जंगी की पत्नी शोभिनी बड़ी खूबसूरत थी। जंगीं के घर उसके एक मित्र गज्जू का आना जाना था। गज्जू कुंवारा था। वह भी काफी सुंदर व बलिष्ठ युवक था और वह किसी दूसरे संस्थान में टैक्निकल कर्मचारी था। जंगी व गज्जू की घनिष्ठता लगातार बढ़ रही थी। सरकारी क्वार्टर में आने के बाद जंगी की पत्नी के दो बच्चे और हुए। जंगी जैसे ही ऑफिस को जाता तो पीछे से गज्जू उसके घर पहुंचे जाता। संदेह होने पर एक दिन जंगी अचानक ऐसे समय घर पहुंचे गया, जिसकी उम्मीद न तो गज्जू को थी और न ही शोभिनी को। घर के दरवाजे बंद थे। जंगी ने द्वार खटखटाया। भीतर गज्जू था। यह पता चलते ही जंगी ने बाहर से कुंडा लगाकर गज्जू को बंद कर दिया। जंगी ने होहल्ला मचाकर मोहल्ले के लोगों को एकत्र किया। भीतर गज्जू के साथ जंगी की पत्नी बंद थी। जब काफी लोग एकत्र हो गए, तो सभी ने दरवाजे को खोलने के लिए आवाज दी। काफी देर बाद जंगी की पत्नी ने दरवाजा खोला। वह ऐसी सूरत बनाकर बाहर आई, जैसे गहरी नींद से उठी हो। जंगी के हाथ में डंडा था। उसने कमरे के भीतर जाकर गज्जू को खोजने के लिए कोना-कोना छान मारा, लेकिन गज्जू नहीं मिला। मिलता भी कैसे। वह तो मकान के पीछे की तरफ बनी खिड़की की एक सरिया तोड़कर भाग गया था।
इस घटना के बाद जंगी अपनी पत्नी शोभनी को साथ रखने को तैयार नहीं हुआ। उसने कुछ परिचित और मोहल्ले के लोगों को एकत्र कर पंचायत बुलाई। साथ ही गज्जू को भी बुलाया गया। फैसले के अनुरूप गज्जू पत्नी के तौर पर शोभिनी को अपने पास रखने को राजी हो गया। वह तो पहले से ही यही चाह रहा था। शोभिनी भी गज्जू के साथ रहने पर खुश थी, लेकिन उसने गज्जू के घर जाने से पहले एक बंटवारे की शर्त रख दी। यह बंटवारा था बच्चों का। शोभिनी का कहना था कि दो बड़े बेटों का बाप जंगी है और उनके बाद के बेटे गज्जू के हैं। ये बंटवारा भी हो गया। दोनों ही अपने-अपने परिवार के साथ खुश थे। नए पति के यहां शोभिनी के तीन बच्चे और हुए। आज इस दुनियां में न तो जंगी है और न ही शोभिनी। हां दोनों के नाती-पोते जरूर हैं, जो वर्षों पूर्व के हुए इस बंटवारे से शायद अनजान हैं। वहीं रेलगाड़ी के डिब्बे जैसे मकानों के कमरा नंबर एक में प्रकाश का परिवार रह रहा है। उसकी मौत के बाद बेटे को सरकारी नौकरी मिल गई थी। कमरा नंबर दो में रहने वाले लालजी ने भी सेवानिवृत्ति के बाद अपना मकान बना लिया था। उसकी भी मौत हो गई है। हां उसकी पत्नी विदूषी जरूर जिंदा है, जो बुढ़ापे में बीमार रहती है। उनके सरकारी मकान में भी रेल के मुसाफिर की तरह दूसरे कर्मचारी का परिवार रह रहा है। बट्टू भी सेवानिवृत हो गया और उसने भी अपना मकान बना लिया। सैंटी के पुत्र के साथ वह खुश है, जो अब युवा हो चुका है। जंगी वाले मकान में रहने वाले पंडितजी भी सेवानिवृत हो चुके हैं। वह भी नया मकान बनाकर कहीं दूसरे स्थान पर बस गए थे। वह भी इस दुनियां में नहीं रहे। सिर्फ दिखाई देती है पंडितजी के मकान की वो खिड़की, जिसकी सरिया आज भी गायब है। (समाप्त)
भानु बंगवाल  

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