Tuesday 3 July 2012

चौकीदार पर पहरेदारी.......(बचपन के दिन..अंतिम)

बचपन में एक पिक्चर देखी थी चौकीदार। पिक्चर की कहानी तो याद नहीं रही, लेकिन एक गाना जरूर याद है कि- राजा हो या रंक, यहां तो सब हैं चौकीदार। तब मुझे पिक्चर समझ नहीं आती थी और न ही पिक्चर के गाने। अब यही सोचता हूं कि पहले गानों में कितनी सार्थकता होती थी। वाकई में हर व्यक्ति को कहीं न कहीं चौकीदारी जरूर करनी पड़ती है। घर की चौकीदारी, छोटे बच्चों की चौकीदारी, जब बच्चे जवान हुए तो उन पर नजर रखने के रूप में चौकीदारी। यही नहीं घर में यदि चौकीदार रखा हो तो उसकी भी कई बार चौकीदारी करनी पड़ती है। मेरे मोहल्ले में तालाबंद मकानों में होने वाली चोरियों का एक बार पुलिस ने खुलासा किया तो पता चला कि मोहल्ले के चौकीदार का ही चोरियों में हाथ था।
घर की चौकीदारी के लिए अक्सर लोग कुत्ता पालते हैं। मेरे पास डोबरमैन प्रजाति का कुत्ता बुल्ली की उम्र जब दस साल से अधिक हो गई तो वह बूढ़ा होने लगा। किसी के पीछे-पीछे सीढ़ियों से वह घर की छत तक पहुंच जाता, लेकिन उतरते हुए उसकी हिम्मत जवाब दे जाती। पहले जिस कुत्ते को देखकर गली के आवारा कुत्ते रास्ता छोड़ देते थे, बाद में उस बुल्ली को देखकर गुर्राने लगे। जब बुल्ली बूढ़ा हो गया तो कई बार उस पर कुत्तों ने हमले भी किए। अक्सर उसे चोट लगती और वह लहूलुहान होकर घर आता। इस पर मैं उसके घाव पर दवाई लगाता। मैं दवाई लेकर घर के आंगन में बैठता और बुल्ली को पुकारता, तो वह मेरे बगल में लेट जाता। यदि पैर में चोट हो तो उसे मेरी तरफ बढ़ा देता। दर्द होता, लेकिन वह चूं तक नहीं करता। हां इतना जरूर है कि दवा लगाने व पट्टी बांधने के बाद जैसे ही मैं कहीं चला जाता, तो वह मुंह से पट्टी उतारने की कोशिश करता। ऐसे में पट्टी के ऊपर मैं बैंडेड चिपकाता, जिसे वह आसानी से उखाड़ नहीं पाता। पहले शरीर कमजोर हुआ, फिर नजर। फिर बुल्ली की भूख कम हुई और फिर एक दिन बीमार होने पर वह बाथरूम में सोने को लेट गया, फिर दोबारा वह उठ न सका। इस कुत्ते का जीवन करीब साढ़े बारह साल का रहा।
बु्ल्ली की मौत के बाद मैने जर्मन शेफर्ड प्रजाति का कुत्ता पालने की ठानी। मसूरी से कुत्ता मंगवाया गया। तब करीब सात हजार रुपये में कुत्ते का बीस दिन का बच्चा मिला। साथ ही उसकी जन्म तिथि का विवरण व डाइट चार्ट भी थमाया गया। काले रंग का कुत्ते का बच्चा एक जूते के डिब्बे में रखकर एक व्यक्ति घर लाया। उसे देखकर यह भी पता नहीं चल रहा था कि वह वाकई में जर्मन शेफर्ड है या कुछ और। अक्सर सभी कुत्तों के बच्चे एक समान ही दिखते हैं। इस कुत्ते का नाम मेरे बच्चों ने स्कूबी रखा। तुलनात्मक स्कूबी का व्यवहार बुल्ली की तरह नहीं था। उसे जल्द कोई बात समझ नहीं आती थी। जर्मन शेफर्ड की सुंदरता उसके खड़े कानों से मानी जाती है और चार माह के बाद भी उसके कान लटके हुए थे। ऐसे में उसे हर दिन कैल्शियम खिलाया जाता। करीब पंद्रह लीटर लिक्विड कैल्शियम उसे पिलाने के साथ ही हर दिन एक गोली खिलाई गई। तब जाकर उसके कान खड़े हुए। सच पूछो तो जितना खर्च मैने स्कूबी पर किया, उतना पहले किसी कुत्ते पर नहीं किया गया। घुमाने ले जाने पर स्कूबी को संभालना भी काफी कठिन था। अचानक वह चेन पर झटका मारता, ऐसे में खुद के गिरने का खतरा भी रहता था। कहना ना मानना, बुलाने पर पास न आना उसकी आदत बनती जा रही थी। साथ ही वह कई बार बच्चों पर भी दांत आजमा चुका था। ऐसे में इस कुत्ते से मुझे नफरत सी होने लगी। फिर भी मैं उसके खाने का पूरा ख्याल रखता। अक्सर कुत्ते बचपन में जूते, चप्पल कुतरते हैं, लेकिन स्कूबी की यह आदत बचपन बीतने के बाद भी नहीं गई। घर के सारे अंडर वियर व बनियान इस चौकीदार की नजर से बचाकर रखने पड़ते। उसका ऐसा  कोई भी काम नहीं याद आ रहा है कि जिसे उसकी महानता में शामिल कर सकूं।
घर का यह चौकीदार गेट खुलने पर मौका मिलते ही भाग जाता और उसे बुलाने के लिए बच्चे भी उसके पीछे दौड़ लगाते। बरसात के दिन थे। तब स्कूबी की उम्र करीब 14 महीने की थी। एक रात जब मैं आफिस से घर आया, तो पता चला कि स्कूबी गायब है। उसे काफी तलाश किया, लेकिन पता नहीं चला। कई ने कहा कि अच्छी प्रजाति के कुत्ते चोरी हो जाते हैं। स्कूबी को भी कोई चुरा ले गया होगा। कुछएक दिन मैं स्कूबी को घर के आसपास ही तलाशता रहा। बाद में उसकी तलाश बंद कर दी गई। मेरे एक मित्र गौरव ने बताया कि उसकी जर्मन शैफर्ड प्रजाति की कुतिया चोरी हो गई थी। जो करीब ढाई साल बाद अपने आप ही घर आ गई। उसके बाद से मैने कोई दूसरा कुत्ता नही पाला और इसी इंतजार में रहा कि कभी वह घर वापस जरूर आएगा। स्कूबी के गायब होने के पूरे पांच साल हो गए हैं। आज भी उसका इंतजार जारी है। (समाप्त)
भानु बंगवाल         

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