Monday 30 July 2012

कसक आम की, क्यों बनाया खास....

मैं एक आम आदमी हूं। नहीं-नहीं गलत कह गया। आम आदमी से भी ज्यादा बदतर। क्योंकि आम आदमी तो शायद सभ्य होता है। सभ्य इसलिए कि वह पढ़ा लिखा होता है, लेकिन मैं तो कभी स्कूल तक नहीं गया। इसलिए आम की श्रेणी में भी नही आता। माता-पिता मजदूरी करते थे। हम सभी छह भाई बहनों को स्कूल भेजने की बजाय घर पर ही रखा गया। जब बड़े होने लगे तो बहनों ने घर का काम संभाला और मेरे साथ तीन भाई मजदूरी करने लगे। कितना प्यार था उस समय में। किसी मुसीबत में सभी रिश्ते व नाते के लोग मदद को खड़े हो जाते थे। जब बड़ा हुआ तो यही महसूस किया कि यदि मुझे स्कूल भेजा जाता तो शायद मैं भी आम आदमी से ऊपर की श्रेणी तक तो पहुंच सकता था। जहां ठाटबाट की जिंदगी लोग गुजर बसर करते हैं। कुछ साल तक किताब को पढ़ने में वाकई जादू है। जो जितनी पढ़ता है, उतना ही बड़ा हो जाता है। मेरी शादी हुई और बच्चे। नहीं-नहीं, बच्चे नहीं, एक बेटा। दूसरी औलाद इसलिए नहीं चाही कि फिर मेरी तरह बच्चे भी आम आदमी से बदतर हो जाएंगे। एक बेटे को अच्छे स्कूल में डालकर उसे सभ्य व्यक्ति बनाना मेरा लक्ष्य बन गया। मैने बेटे को अच्छे स्कूल में डाला। मजदूरी करके किसी तरह फीस का जुगाड़ करता रहा। तब मुझे पता चला कि स्कूल भी दिखावे के होते हैं। सारी पढ़ाई तो बच्चों को घर में ही करनी पड़ती है। मैडम तो कापी चेक करती है या फिर टैस्ट लेती है। पढ़ना, लिखना व नए पाठ को समझाने वाला घर में कोई नहीं था। मैं अनपढ़, जाहिल, गंवार बेटे को घर में कैसे पढ़ाऊं। फिर बेटे को ट्यूशन लगाई गई। खुद की जरूरत की चीजों में कटौती कर बच्चे की शिक्षा पर खर्च करता रहा। कड़ी मेहनत व मजदूरी करने व भरपेट खाना न खाने से मैं जल्द ही बूढ़ा दिखने लगा।
बेटे ने पढ़ाई पूरी की और शहर के बाहर निजी कंपनी में नौकरी करने लगा। पहले हर सप्ताह मिलने को घर आता, फिर एक माह के अंतराल में आने लगा। एक बार तो छह माह के अंतराल में आया। मुझे लगा कि वह तो आम आदमी की श्रेणी से ऊपर उठ चुका है। अब उसके पास समय नहीं बचा। गाड़ी, बंगला सभी कुछ है उसके पास। मेरी तरह गांव में कच्चे मकान में नहीं रहता। काफी ज्ञानी है। भला-बुरा समझता है। वह तो मुझे और पत्नी को अपने साथ ही ले जाना चाहता है। क्योंकि वह हर बार घर पहुंचने पर साथ चलने को कहता था, लेकिन जब भी वापस जाता तो तब साथ चलने की जिद नहीं करता और... चलता हूं कहकर चुपचाप चला जाता। हम ही इसलिए नहीं जाते कि सारी जिंदगी गांव में बिताई। बुढ़ापे में शहर में जाकर क्या करेंगे। हां एक बार जरूर दुख हुआ जब उसने शादी की और बताया तक नहीं। शादी के बाद जब उसके बच्चे हो गए, तभी वह एक दिन कुछ घंटों के लिए घर आया। घर में बिजली, पंखा नहीं था। ऐसे में वह होटल में रहा और फिर चला गया। हां बेटा हर बार यह जरूर पूछता रहा कि कोई जरूरत तो नहीं है, लेकिन कभी उसने कोई मदद नहीं की। मकान की दीवारें जर्जर हो चुकी हैं। मरम्मत के लिए कभी उसने पैसा तक नहीं दिया और न ही मैने मांगा। जब तक शरीर में ताकत थी कि तब तक घर की गाड़ी खींच रही थी। अब तो मैं और पत्नी दोनों में कोई न कोई बीमार भी रहने लगा है। कई बार तो घर में चूल्हा तक नहीं जलता। कई बार आस-पडो़स के लोग ही मदद करते हैं। अब बेटे की जरूरत महसूस होने लगी है, लेकिन वह तो पिछले सात साल से बच्चों संग अमेरिका में रह रहा है। न कोई चिट्ठी पत्री और न ही कोई फोन तक आता है। अब मन में यही कसक उठती है कि मैने बेटे को आम आदमी से हटकर अलग क्यों बनाया।....
भानु बंगवाल
 

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