Saturday 7 July 2012

बारिश का वो दिन, भरोसा......

एक कहावत है कि देहरादून की बरसात का कोई भरोसा नहीं है। देहरादून में कब बारिश हो जाए, यह कहा नहीं जा सकता। आसमान में धूप होगी और लगेगा कि अभी गर्मी और सताएगी। फिर अचानक हवा चलने लगेगी। मौसम करवट बदलेगा और बारिश होने लगेगी। बारिश भी ऐसी नहीं होती कि पूरा दून ही भीग रहा हो। कई बार तो शहर के एक हिस्से में बारिश होती है, तो दूसरे  कोने में धूप चमक रही होती है।
बारिश यदि न हो तो इंसान परेशान और यदि ज्यादा हो तो तब भी व्यक्ति परेशान हो जाता है। ज्यादा बारिश अपने साथ आफत लेकर आती है। फिर भी बारिश इंसान के लिए जरूरी है। तभी तो बारिश को लेकर कई रचनाकारों में काफी कुछ लिखा है और प्रसिद्ध हो गए। बरसात में सूखी धरती हरी भरी हो जाती है। किसानों के चेहरे खिल उठते हैं। प्रकृति भी मनोरम छटा बिखेरने लगती है।  
बचपन में देखता था कि बरसात शुरू होते ही जगह-जगह पेड़ की डाल पर लोग बड़े-बड़े झूले डालते थे। मोहल्ले के बच्चे व युवा इन झूलों पर खूब मौज-मस्ती किया करते थे। यही नहीं घर की देहरी में भी छत की बल्लियों में रस्सी डालकर छोटे बच्चों के लिए झूला टांगा जाता था। अब मेरे पुराने मोहल्ले से लगभग सारे पेड़ गायब हो चुके हैं। उन पर आरी चलाकर भवनों का निर्माण हो गया। पुराने कड़ियों व टिन की छत के मकान की जगह पक्के निर्माण हो गए। ना ही लोगों में आपसी भाईचारा रहा और ना ही नजर आते हैं सावन के झूले। हां इतना जरूर है कि डाल पर झूले की बजाय लोगों के बरामदे में अब परमानेंट झूले लटके होते हैं। बेंत की कुर्सी पर रस्सी डालकर लटकाए गए ये झूले पेड़ की डाल में लटके झूले की तरह मदहोश करने वाले नहीं होते।
दून में बारिश कब हो जाए। इसका पहले से अंदाजा नहीं रहता। इसलिए मैं हमेशा अपनी मोटर साइकिल की डिक्की में बरसाती रखता हूं। देहरादून में इतनी बारिश होती है कि आज तक कोई बरसाती ऐसी नहीं बनी कि इस बारिश से बचा सके। हां हल्की बारिश में बरसाती भीगने से बचा लेती है और ज्यादा में इज्जत से भीगाती है।
बात करीब पच्सीस साल पहले की है। तब छोटी-छोटी आवश्यकता के सामान के लिए मुझे घर से करीब पांच किलोमीटर दूर देहरादून के पल्टन बाजार की तरफ का रुख करना पड़ता था। मोहल्ले में एक दो छोटी-छोटी दुकानें होती थी। वहां भी सारा सामान नहीं मिलता था। कई बार एक दिन में मेरे दो से तीन चक्कर तक बाजार के लग जाते थे। तब हमारे घर में पोर्टेबल टेलीविजन था। जो हम बारह वोल्ट की बैटरी से चलाते थे। हर पंद्रह से बीस दिन में बैटरी चार्ज कराने के लिए घर से करीब छह किलोमीटर दूर प्रिंस चौक के पास ले जाना पड़ता था। एक दिन सुबह बैटरी को चार्ज कराने मैं दुकान पर देकर घर लौट आया। तब बैटरी चार्ज करने के मात्र पांच रुपये लिए जाते थे। दुकानदार ने दोपहर को बैटरी ले जाने को कहा। दोपहर को जब बैटरी लेने को घर से बाजार जाने की मैं तैयारी करने लगा, तो एकाएक तेज बारिश होने लगी। घर में मैने गंदा सा पायजामा व बनियान पहनी थी। कपड़े बदलने लगा ही था कि फिर मैने सोचा कि बारिश में भीगकर कपड़े खराब हो जाएंगे। ऐसे में मैने घर के ही कपड़ों पायजामा व बनियान के ऊपर बरसाती ओढ़ ली। कौन देखेगा कि भीतर क्या पहना है। बारिश हो रही है। जब तक वापस आऊंगा तब तक तो बारिश रहेगी ही। यही सोचकर मैं साइकिल उठाकर बजार की तरफ रवाना हुआ। करीब डेढ़ किलोमीटर आगे चलने पर आरटीओ के निकट बारिश और तेज हो गई। रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में चार पहिया वाहन भी लोगों ने सड़क किनारे रोक दिए। खैर मैं गाना गुनगुनाते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा। बाजार पहुंचने पर बैटरी उठाई और साइकिल के कैरियर पर रखी। फिर घर की तरफ चलने लगा। तभी बारिश एकाएक कम हुई और फिर थम गई। इसके बाद चमकदार धूप निकल गई। अब मैं मुसीबत में फंस गया। मुझे सुझ नही  रहा था कि क्या करूं। बरसाती उतारूं तो बनियान व गंदा पायजामा पहना हुआ था। ऐसे में मैं बरसाती को उतार नहीं सका और घर की तरफ साइकिल चलाता रहा। अब सड़क में मेरी स्थिति विचित्र प्राणी की तरह थी। जो खिलखिलाती धूप में बरसाती पहनकर राजपुर रोड की चढ़ाई में साइकिल चला रहा था। सभी राहगीर मेरी तरफ देखते। कईएक टोक भी चुके थे कि बारिश नहीं है, बरसाती तो उतार लो। घर पहुंचा तो पहले बाहर से जितनी बरसाती बारिश से भीगी थी, उससे कहीं ज्यादा भीतर से पसीने से भीग चुकी थी। गरमी से पूरे बदन में दाने उभर आए, जो कई दिन के बाद ही दबे। इस दिन से मैने यही तय किया कि दून की बारिश का कभी भरोसा मत करो।
भानु बंगवाल              

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