Saturday 5 May 2012

मां... हौसलो का पहाड़, ममता का सागर

हे मां। तुझ पर जितना लिखा जाए उतना कम है। तेरे लिए मेरे दिमाग में शब्द तक नहीं सूझते हैं। जब से होश संभाला, तभी से देख रहा हूं कि तेरा हौसला तो पहाड़ जैसा है। बच्चों के दुखः दर्द तू अपने सिर पर ले लेती है और हम पर ममता का सागर उड़ेलती रही है। मैं तो भगवान से यही दुआ करता हूं कि हर जन्म में तू मेरी मां ही बने। क्योंकि तूने ही मुझे हर कठिन परिस्थितियों में आसानी से दो चार होना सिखाया।
कैसा विकट जीवन रहा मेरी मां का। जब खेलने कूदने की उम्र थी, तब गांव में घर के  काम-काज में जुटा दिया गया। काम क्या था। खेतों में गुड़ाई, जंगल से पशुओं का चारा लाना, घर का खाना बनाना। जब स्कूल जाने की उम्र हुई तो महज तेरह साल की उम्र में तेरी शादी कर दी गई। सच में तूने तो यह तक नहीं जाना कि मां का प्यार क्या होता है। बचपन में ही ससुराल में पहुंचकर सास को ही तूने अपनी मां समझा। भले ही तू अपनी माता की छत्रछाया में ज्यादा साल नहीं रही, लेकिन तूने ममत्व का सारे गुण स्वतः ही सीख लिए।
विवाह के बाद मेरे पिताजी देहरादून आ गए। तब उनकी धामावाला में दुकान थी। मां को गढ़वाल ही छोड़ दिया। सच कहो तो उस समय घर का काम कराने के लिए ही शादी की जाती थी। फिर कुछ साल के बाद पिताजी मां को देहरादून ले आए। दो बेटी के बाद एक बेटा, फिर दो बेटी और सबसे आखिर में मेरा जन्म हुआ। इस तरह हम छह भाई, बहन थे। मेरी माता गांव की सीधीसाधी महिला थी, जिसने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। पिताजी ने ही घर में मां को अक्षर ज्ञान कराया। जितना उनसे सीखा, उसे मां ने बच्चों पर अजमाया। जमीन पर मिट्टी फैलाकर मेरी मां ने उस पर अंगुलियों से क-ख-ग लिखना हम सभी भाई-बहनों को सिखाया। साथ ही वह सच्चाई व ईमानदारी का पाठ भी पढ़ाती थी। मां के पास कहानी का भी पिटारा था। जब मैं पैदा हुआ, तब पिताजी दुकान बेचकर सरकारी नौकरी में लग गए। बच्चे बड़े होने लगे और घर के खर्च में तंगी आने लगी। ऐसे में मेरी मां ने भी खर्च के लिए कुछ पैसे जुटाने को चरखा चलाना शुरू किया। तब राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में दृष्टिहीनों को कपड़ा बुनना सिखाया जाता था। मां ताने-बाने में इस्तेमाल होने वाले धागे को चरखे से नलियों में लपेटा करती थी।
मां कब सोती थी यह मैने कभी नहीं देखा। रात को मेरे सोने के बाद ही शायद वह सो जाती थी। सुबह मां के उठने के बाद ही घर में सभी की नींद खुलती।  नहा-धोकर पूजा पाठ जब मां कर लेती, उसके बाद ही हमें उठाती। चूल्हे में लकड़ियां लगाकर जब मां खाना बनाती तो हम सभी भाई-बहन चूल्हे के इर्द-गिर्द बैठ जाते। मां के पास बैठने को लेकर सभी में झगड़ा भी होता था। ये मां की मेहनत और संस्कारों का ही प्रभाव था कि बड़ी बहन बीए करने के बाद दिल्ली में सरकारी नौकरी में लग गई। जो अब रिटायर्ड  भी हो चुकी है।  जब घर के खर्च और बढ़ने लगे तो मां ने बकरी व गाय भी पाली। गाय का कुछ  दूध हमें पीने को मिलता और कुछ बेचकर घर के खर्च चलते।
खुद के खाने-पीने की बजाय बच्चों पर ध्यान देने में मां की उम्र गुजर रही थी। उसने बच्चों का ख्याल तो रखा, लेकिन अपना ख्याल नहीं रख सकी । चूल्हे के धुएं से उसकी आंख की रोशनी धूमिल पड़ने लगी। तीन बार आप्रेशन हुए उसकी आंखों के। जीवन में कई झटके भी झेले मेरी मां ने। एक बार गाय के रस्से में हाथ फंस गया। गाय खूंटे से खुलने के बाद घोड़े की तरह दौड़ती थी। मां को भी वह घसीटती हुई काफी दूर तक ले गई। एक बार दूध निकालते समय जब गाय ने पांव उठाया, तो दूध की बाल्टी बचाने के फेर में वह एक अंगुली तुड़वा बैठी।  एक बार सरकारी डिस्पेंसरी में दवा लेने जा रही थी। रास्ते में हाई टेंशन की बिजली की तार झूल रही थी। मां का छाता तार से टकरा गया। तब वह बुरी तरह से घायल हो गई थी। शरीर में खून कम होने से करंट भी ज्यादा नहीं लगा।
पिताजी ने भी जब देखा कि मां के हाथ में बरकत है, तो उन्होंने भी घर खर्च के हिसाब-किताब की जिम्मेदारी मां को ही सौंप दी। इस जिम्मेदारी को उसने बखूबी निभाया भी। अपना मन मारकर बच्चों का ख्याल रखने की आदत ने मेरी मां को जल्द ही बूढ़ी कर दिया। मां के हाथों के बने खाने में गजब का स्वाद रहता था। क्योंकि वह पूरे मन से खाना बनाती थी और उसमें मां का प्यार होता था। अब तो घर की दाल भी स्वाद नहीं लगती। आज मां की उम्र करीब 85 साल हो गई है। अब जब खाने पीने की उसे कमी नहीं है, तो उसका शरीर ही इसे झेलने लायक नहीं रहा कि वह पसंद का कुछ ज्यादा खा सके। हाथ-पैर कांपते हैं। चलने में धक्के भी लगते हैं।  हां दो बहुएं हैं, जिसकी कोशिश रहती है कि मां को कोई दिक्कत न हो। बिस्तर में ही दूध-नाश्ता दे दिया जाता है। पर अब उसे तो जैसे भोजन से नफरत हो गई है। याददाश्त भी कमजोर पड़ गई। बार-बार वह हर बात को भूल जाती है या फिर दोहराती है। हां एक बात वह नहीं भूलती। वह है सुबह उठकर सबसे पहले नहाना और पूजा करना।
                                                        भानु बंगवाल

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