Wednesday 30 May 2012

शिक्षा के मंदिर या फिल्म के सेट.....

सभी माता-पिता का सपना होता है कि बच्चों को बेहतर शिक्षा देकर किसी लायक बनाया जाए, लेकिन शिक्षा के मंदिर के नाम पर यहां तो दुकानें खुली हैं।कौन सी दुकान ज्यादा अच्छी है इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।शिक्षा के ठेकेदारों ने शिक्षा के मंदिर को तो किसी फिल्म की शूटिंग के सेट के समान बना दिया है।लोगों को आकर्षित करने के लिए वे हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं।शिक्षा की दुकानों में फिल्म सेट की तरह मंच सजता है।लाइट होती है।एक्शन होता है और फिर लोगों को फांसने का ड्रामा होता है।फर्क सिर्फ इतना होता है कि इस सेट में ड्रामे के साथ कैमरा नहीं होता।
जब बच्चा बोलने व कुछ समझने की स्थिति में होता है तो माता पिता चाहते हैं कि स्कूल जाने की आदत डालने के लिए उसे किसी अच्छे प्ले स्कूल में उसे भेजा जाए।प्ले स्कूलों को भी फिल्म सेट की तरह सजाया जा रहा है।लोगों को आकर्षित करने के लिए उसमें तरह-तरह के खिलौनों की प्रदर्शनी की जाती है।एडमिशन के नाम पर भारी भरकम फीस अदा करने के बाद जब बच्चा स्कूल जाता है तो उसे किताबों के बोझ में दबा दिया जाता है।खिलौने कम होते जाते हैं और किताबें बढ़ती जाती हैं।यानी एक दो माह तक ही बच्चों को कुछ देर खिलौने से खेलने दिया जाता है।बाद मंे बच्चा होशियार है कहकर उसे प्रमोट कर दिया जाता है।साथ ही नई क्लास का खर्च भी अभिभावकों से वसूला जाता है।बच्चा होशियर है समझकर अभिभावक भी खुश हो जाते हैं, वहीं ठगी मंे सफलता मिलने पर शिक्षा के दुकानदार भी खुश हो जाते हैं। 
किसी तरह इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर जब युवा अपने करियर के लिए किसी अच्छे शिक्षण संस्थान की तलाश करते हैं तो वहां भी फिल्म सेट की तरह पूरा आडंबर रचा जाता है।देहरादून में ऐसे शिक्षण संस्थानों की भरमार है, जो युवाओं के सपने बेचते हैं।कोई एयर होस्टेज बनाने का सपना बेच रहा है, तो कोई हवाई जहाज उड़ाने का।कोई हवाई कंपनी में इंजीनियर बनाने का सपना बेच रहा है, तो कोई पैरामेडिकल संस्थान के नाम पर सपने बेच रहा है। ऐसे संस्थानों में दिखाने के लिए हवाई जहाज का मॉडल तक रखे जाते हैं।जब एडमिशन का दौर चलता है तो संस्थानों को विशेष रूप से सजाया जाता है।बड़े-बड़े स्क्रीन किराए पर लिए जाते हैं। उसमें फिल्म दिखाई जाती है।फिल्म देखकर हरकोई समझेगा कि संस्थान में जाकर उसके बच्चे का भविष्य निश्चत रूप से संवरेगा, लेकिन हकीकत कुछ और होती है।
ऐसे संस्थान जब मान्यता के लिए किसी विश्वविद्यालय में अप्लाई करते हैं तो वहां भी ड्रामा रचा जाता है।जिस विषय की मान्यता के लिए निरीक्षण होता है, उस विषय की लैब, फैकल्टी आदि सभी कुछ फर्जी तरीके से तैयार की जाती है।यानी फैकल्टी में पूरी संख्या दिखाई जाती है।लैब का सामान किराए पर लेकर एक हॉल को लैब के रूप में  सजाया जाता है।निरीक्षण पूरा होने और मान्यता मिलने के बाद वही लैब दूसरे कोर्स की मान्यता के लिए सजा दी जाती है। फैकल्टी भी वही होती है।
फैकल्टी भी शोषण का ही शिकार होती है।कागजों में यदि किसी को बीस हजार रुपये दिए जाते हैं तो हकीकत में उसे भुगतान दस हजार का ही होता है।इतनी सफाई से यह काम होता है कि कोई इसे पकड़ नहीं पाता है।भुगतान के रूप में फैकल्टी के बैंक एकाउंट में बीस हजार रूपये जाते हैं।बाद मंे फैकल्टी को दस हजार रुपये संस्थान में वापस करने पड़ते हैं।यदि वापस नहीं किए तो उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
हवाई कंपनियों में एयर होस्टेज व स्टूअर्ड आिद के लिए सपने दिखाने वाली शिक्षण संस्थाओं की भी दून में भरमार है।यहां ऐसे चेहरोंे को भी एडमिशन दे दिया जाता है, जो शायद ही किसी हवाई कंपनी में सलेक्ट हों।क्योंकि हवाई कंपनियों में सलेक्शन का सीधा फंडा चेहरा, मोहरा, शारीरिक बनावट आदि है।वहां न तो पहले से किसी प्रशिक्षण को वरियता दी जाती है और न ही किसी प्रशिक्षण संस्थान को। कंपनी तो अपना प्रशिक्षण देती है।इसके बावजूद पांच फीट पांच ईंच तक के युवाओं को भी शिक्षा की दुकान में एडिशन दे दिया जाता है।चेहरे में आकर्षण न हो, लेकिन इन दुकानों में उसे भी सपने दिखाए जाते हैं।
यह बॉत मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं।मेरा बड़ा भांजा हवाई कंपनी के लिए लगातार ट्राई कर रहा था।उसने पहले कहीं से कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था।भांजे को हर बार कंपनी के लोग शुरूआती इंटरव्यू में चेहरे को ठीक करने को कह देते।उसके चेहरे में अक्सर दाने हो जाते हैं।ऐसे में वह हर बार इंटरव्यू में रह जाता था।उसकी देखादेखी छोटे भांजे ने भी अप्लाई किया।कद काठी उसकी भी ठीक थी। चेहरे से वह चॉकलेटी था।काफी चिकना।बस क्या था पहली बार में ही वह सलेक्ट हो गया और एक साल से हवाई कंपनी में  नौकरी कर रहा है।वह तो किसी दुकान में प्रशिक्षण लेने भी नहीं गया था। सिर्फ सामान्य ज्ञान, कद-काठी व चेहरे के बल पर वह इंटरव्यू में सलेक्ट हो गया।
भानु बंगवाल

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