Saturday 19 May 2012

आतंक....(सच्ची घटना पर आधारित कहानी)

वर्ष 96 में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की पुण्य तिथि को आतंकवादी विरोधी दिवस व सदभावना दिवस के रूप में मनाने का सरकारी कार्यालयों में एक आदेश आया।देहरादून के सभी केंद्र सरकार के संस्थानों में भी इस आदेश के अनुरूप तैयारी की जाने लगी।राजपुर रोड स्थित एक संस्थान के निदेशक ने टीके को इस कार्यक्रम के आयोजित करने की जिम्मेदारी सौंपते हुए उन्हें इसका संयोजक बना दिया।संस्थान के एक अनुभाग के फोरमैन टीके ने सहर्ष जिम्मेदारी लेते हुए निदेशक से यह वादा भी किया कि वह ऐसे अंदाज मे इस दिवस को मनाएंगे कि देखने वाले देखते रह जाएंगे।
कद पांच फुट।पहनावे में सूट-कोट।मोटी आवाज।ज्यादा बोलने की आदत।कुछ इस तरह के गुण थे टीके के।टीके ने तय किया कि आतंकवादी विरोधी दिवस के दिन संस्थान परिसर में जुलूस निकाला जाएगा।इसके लिए वह पूरी मेहनत से तैयारी में जुट गए।संस्थान के हर अनुभाग में जाते और नारे से लिखी पर्ची कर्मचारियों को थमाते।उनसे कहते कि नारे ठीक से याद कर लेना।दृष्टिहीन कर्मचारियों को ब्रेल लिपी में नारे लिखकर दिए गए।नारों से लिखे बैनर व तख्तियां खुद टीके ने अपने घर में ही तैयार किए।इस काम में उनकी मदद पत्नी व बच्चों ने भी की।
टीके जिस संस्थान में काम करते थे, वहां कोई मजदूर यूनियन कभी गठित नहीं हो पाई।मैनेजमैंट का कर्मियों पर हमेशा खौफ रहता था।हरएक ही लोकतांत्रिक तरीके से उठाई गई आवाज को दबा दिया जाता।इस काम में टीके जैसे लोग भी खुफिया तंत्र की भूमिका निभाते थे।हर कर्मचारी की रिपोर्ट ऊपर तक भेजते थे।ऐसे में कर्मचारियों के बीच टीके का आतंक बना रहता था।नारे कैसे लगते हैं।जुलूस कैसे निकलता है।इन सब बातों से संस्थान के कर्मचारी अनभिज्ञ थे। टीके को भी यह भय था कि कहीं जुलूस में कर्मचारी कुछ गड़बड़ न कर दें।फिर भी वह दस दिन पहले से ही जुलूस की तैयारी में जुटे थे।
आखिरकार वह दिन आ ही गया।21 मई की भरी दुपहरी को संस्थान परिसर मंे जुलूस निकाला गया।सबसे आगे महिलाओं को रखा गया।साथ ही टीके ने व्यवस्था की कि जुलूस में शामिल लोग दो की पंक्ति मंे रहेंगे।इससे जुलूस लंबा नजर आएगा।कर्मचारियों ने पहले कभी नारे नहीं लगाए थे।ऐसे मे वे नारे लगाते झेंप रहे थे।टीके उन्हें जोश में नारे लगाने की हिदायत दे रहे थे।कर्मचारियों के गले कम्युनिष्टों की भांति साफ नहीं लग रहे थे।ऐसे में कार्मिकों की आवाज में जोश की बजाय खानापूर्ति नजर आ रही थी।संस्थान परिसर का चक्कर काटने के बाद टीके की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।इसका कारण यह था कि निमंत्रण के बावजूद प्रेस रिपोर्टर व छायाकार समय पर नहीं आए।उनके आने से पहले वह जुलूस समाप्त करना नहीं चाहते थे।ऐसे में जुलूस को संस्थान परिसर से आगे बढ़ाकर मुख्य मार्ग राजपुर रोड पर ले गए।कर्मचारी गर्मी से बेहाल थे।वे जुलूस को समाप्त करने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन टीके तो जुलूस को आगे ही बढ़ाए जा रहे थे।कभी वह जुलूस में शामिल महिलाओं को निर्दश देते हुए सबसे आगे पहुंचते, तो कभी पीछे के लोगों में उत्साह भरने उनके पास पहुंच जाते।
मुख्य मार्ग पर ट्रैफिक भी था।ऐसे में कर्मचारी संभलकर चल रहे थे।टीके सबसे पीछे चल रहे कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाने के लिए उनके पास पहुंचे।तभी उनकी नजर सामने एक पेड़ पर पड़ती है।पेड की डाल पर चढ़कर एक प्रेस छायाकार जुलूस की फोटो खींच रहा था।टीके सबसे पीछे थे, ऐसे में वह फोटो में खुद को शामिल करने के लिए जल्द ही सबसे आगे पहुंचना चाहते थे।वह फोटोग्राफर की तरफ इशारा करते हुए जोर से चिल्लाए--ठहरो।इसके साथ ही उन्होंने आगे पहुंचने के लिए सड़क पर दौड़ लगा दी और तभी......
सड़क के बीच गोल दायरे में कर्मचारियों की भीड़ लगी थी।बीच में टीके बेहोश पड़े थे।अब नारों से लिखी तख्तियों से महिलाएं टीके साहब को हवा कर रही थीं।पानी की छींटे टीके के मुंह पर डाले जा रहे थे।राह चलते लोगों की भी मौके पर भीड़ जमा होने लगी।एक व्यक्ति ने एक कर्मचारी से पूछा कि क्या हुआ।इस पर कर्मचारी ने बताया कि टीके को एक मोटर साइकिल सवार ने सामने से टक्कर मार दी और वह बेहोश हो गए।राहगीर ने पूछा कि मोटर साइकिल सवार का क्या हुआ।जवाब मिला उसके भी चोट लगी है।पैर की हड्डी टूट गई है।टीके के होश में आने के बाद उससे भी निपटा जाएगा।सभी टीके को होश में लाने में जुटे थे।बेचारा मोटर साइकिल सवार को पूछने वाला कोई नहीं था।वह सड़क के किनारे जमीन पर बैठा दर्द से कराह रहा था।साथ ही आतंक विरोधी दिवस मनाने वालों के आतंक से थर-थर कांप रहा था।

भानु बंगवाल  
  

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