Saturday 12 May 2012

जब चिड़िया चुग गई खेत ..(मदर्स डे पर विशेष)

मां शब्द में वाकई जादू है, ताकत है,  हिम्मत है और हर समस्या का समाधान है। एक  मां ही तो है जो अपनी औलाद को जिस सांचे में ढालना चाहे, ढाल सकती है। बच्चों की गलतियों को हमेशा वह  क्षमा कर देती है। वही बच्चे की पहली गुरु होती है। उस मां का दर्जा सबसे बड़ा है। हो सकता है कि मदर्स डे के दिन कई ने अपनी मां को उपहार दिए हों। मां की उम्मीद के अनुरूप कार्य करने की कसमें खाई हों, लेकिन यह कसम दिन विशेष को ही क्यों खाने की परिपाटी बन रही है। इसके विपरीत मां तो बच्चे की खुशी के लिए कोई दिन नहीं देखती है और न ही समय। फिर हमें ही क्यों मां के सम्मान में मदर्स डे मनाने की आवश्यकता पड़ी। क्यों न हम भी हर दिन ही मदर्स डे की तरह मनाएं। क्योंकि मां के दर्द को जिसने नहीं समझा। उसके पास बाद में पछतावे के सिवाय कुछ नहीं बचता।
यह चिंतन भी जरूरी है कि हम अपनी मां को हर दिन कितना सम्मान देते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि साल भर उसकी बातों को तव्वजो तक नहीं देते। फिर एक दिन मां को खुश करने का दिखावा करने लगते हैं। अपने बचपन से लेकर बड़े होने तक मां की भूमिका और अपने व्यवहार में नजर डालें तो इसमें समय के साथ बदलाव नजर आएंगे। बचपन में बच्चा किसी दूसरे की बजाय अपनी मां की बातों पर ही ज्यादा विश्वास करता है। इसके बाद जब वह स्कूल जाने लगता है, तो वह गरु की बातों पर उसी तरह विश्वास करता है, जैसा मां की बातों पर करता था। बाद में यह स्थान मित्र का हो जाता है। फिर मां से बातें छिपाने की आदत औलाद पर पड़ने लगती है। तब औलाद अज्ञानवश मां को हर बात में यह कहने से नहीं चूकती कि- मां तू कुछ भी नहीं जानती। वे यह नहीं जानते कि मां ही पहली गुरु के साथ मित्र भी होती है। जो पहले हर अच्छी बुरी बात जानती थी, वह बच्चों के जवान होने पर कैसे अज्ञानी हो सकती है।
बात काफी पुरानी है। हमारे मोहल्ले में तीन भाइयों का संयुक्त परिवार रहता था। इन भाइयों की मां काफी वृद्धा थी। वृद्धा का करीब 18 साल का सबसे छोटा बेटा बीमार रहता था। इस गरीब परिवार के घर पानी का कनेक्शन तक नहीं था। ऐसे में वृद्धा हर सुबह हमारे घर पानी भरने आती थी। मां को हमेशा बेटों की ही चिंता सताती रहती थी, लेकिन  बेटों को मैने कभी मां की चिंता करते नहीं देखा। पानी भरने के लिए उसके कई फेरे लगते थे। कभी-कभार उसका बीमार बेटा ही मां की पानी ढोने में मदद किया करता था। बाकि दो बेटों को शायद मां की उम्र की भी चिंता नहीं थी। मां बेटों से कहती कि सत्तर साल की उम्र में अब पानी ढोना मुश्किल हो रहा है। घर मैं ही नल लगवा दो। बेटे पैसा न होने का तर्क देते। एक दिन लाचार मां का बीमार बेटा भी मर गया। अब इस मां का सहारा भी छिन गया। बेचारी मां भी टूट गई और एक साल बाद दुनिया से चल बसी। बेटों के सिर पर घर की जिम्मेदारी आने पर ही उन्हें अपनी मां के उस दर्द का अहसास हुआ, जो वह वर्षों से झेलती आ रही थी। चार दिन पानी ढोना पड़ा तो बेटों ने घर में पानी का कनेक्शन लगवा दिया। जिस मां के दर्द को वे महसूस नहीं करते थे, अपनी बारी आने पर वे  बिलबिला उठे। अब मोहल्ले के लोग कहते हैं कि मां के मरने के बाद दोनों भाई सुधर गए हैं। सुबह उठकर वे जब पूजा पाठ करते हैं तो मां की फोटो के आगे नतमस्तक होकर घंटी बजाते हैं। वहीं, लोग कहते हैं कि मां के मरने के बाद ऐसी पूजा किस काम की। जब चिड़िया खेत चुग गई, तो पछतावे से क्या होगा....
                                                                    भानु बंगवाल

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