Monday 28 May 2012

यहां तो बस नाम चलता है......

सच ही कहा जाए किसी भी फील्ड में कितनी भी महारथ हासिल कर लो, लेकिन आपका नाम नहीं, तो कोई फायदा नहीं।यदि नाम है तो आपके नाम से कचरा भी बाजार मंे बिक जाएगा।नाम नहीं तो कितने भी पत्थर को तराशकर हीरा बना लो, लेकिन उसकी चमक की तरफ कोई निगाह नहीं डालेगा।लेखन के क्षेत्र में यह कुछ ज्यादा ही है।नाम के साथ ही चलती है भेड़ चाल।जिसका नाम बिक रहा होता है, तो उसकी हर रचना को पढ़ने वाले की भी भीड़ होती है। भले ही उसकी कही बात कहीं से चुराई गई हो।या फिर किसी दूसरे की रचना को तोड़मरोड़कर लिखा गया हो।नाम है तो तो उसका लिखा सब कुछ बिकता है।
पिछले कुछ दिन पहले तक आइपीएल का बुखार पूरे देश भर में चल रहा था।क्रिकेट ही ऐसा खेल है, जब कभी होता है तो लोग अपना कामधाम तक छोड़ देते हैं।किक्रेट मैच के दौरान कई बार लिखते हुए मुझे भी डर लगता है।इसका कारण यह है कि मैं तो पूरी मेहनत से लिखूंगा, लेकिन पढ़ने वालों को तो क्रिकेट से फुर्सत नहीं रहेगी।ऐसे में लिखी जाने वाली बात तो बेकार हो जाएगी।फिर भी लिखने की आदत छुटती नहीं है और किक्रेट मैच के दौरान ना चाहकर भी लिखने को मजबूर होता रहा हूं।
लिखने वाले भी कमाल के हैं। एक नामी व्यक्ति के अलग-अलग लेख, रचनाएं अलग-अलग पत्रिका में एक ही दिन छप जाते हैं।वे कितना मनन करते हैं। कितना सोचते हैं और सोच को कितना शब्दों मंे उतार देते हैं।पहले तक यह रहस्य मैं नहीं जान सका था।क्या एक व्यक्ति की इतनी क्षमता हो सकती है कि वह एक ही दिन में कई सारी बातों पर लिखता चला जाता है।ऐसे लोग लिख भी रहे हैं और पढ़े भी जा रहे हैं।जो जितना बढ़ा नामी होता है, जिसका लिखा जितना महंगा बिकता है, वह उतना ही ज्यादा लिखता है।कई साल पहले मैने कई मुद्दों पर फीचर लिखे।वे कितने पढ़े गए, मुझे पता नहीं। हां इतना जरूर है कि उनकी नकल करके कई वाहवाही लूट चुके हैं।नकल करने वालो की िहम्मत भी लाजवाब है।वे तो एक-एक अक्षर तक की नकल कर देते हैं।इसमें न उन्हें शर्म आती है और न ही कोई संकोच होता है।उल्टा यह कहते हैं फिरते हैं िक उसने इतना बेहतर लिखा, जो पहले किसी ने नहीं लिखा।
रही बात लिखने की।यह शौक किसे कब आता है, यह भी पता नहीं चलता।धीरे-धीरे शौक आदत बन जाती है।मेरे एक मित्र का विवाह कुछ माह पूर्व ही हुआ।मित्र किसी कंपनी में नौकरी करते हैं।सोशल साइट फेसबुक में वह हमेशा अफडेट रहते हैं।उनकी पत्नी सीधी-साधी घरेलू महिला है।मित्र की पत्नी को बचपन से ही लिखने का शौक था।वह शेर, नज्म, गजल, बंदिश आदि डायरी में लिखती थी।उसके पिता पुराने विचारों के थे।वह बेटी के लिखने से चिढ़ते थे।उसे लिखते देखकर वह डायरी फाड़ देते थे।उनके डर से बेटी पिता की नजर बचाकर ही लिखा करती।शादी हुई, तो ससुराल में ऐसा माहौल मिला कि किसी ने उसे लिखने पर टोका नहीं।उल्टे सभी ने प्रोत्साहन किया।फिर क्या था, मित्र की पत्नी ने कई डायरियां कविता, शेर, नज्म आदि से भर दी।एक दिन उनके किसी परिचित को उसके लिखने का पता चला।इस पर उसने सलाह दी कि वह अपनी रचनाओं को उसे बेच दे।उसने मित्र की पत्नी की लिखी एक डायरी की कीमत पांच हजार रुपये लगाई।मित्र की पत्नी ने पूछा कि उसका लिखा उसके नाम से प्रकाशित होगा, तो परिचित ने कहा कि यह वह भूल जाए कि रचना किसके नाम से छपेगी।उसके नाम से छपेगी तो कोई पढ़ेगा नहीं।क्योंकि उसका नाम कोई नहीं जानता। बाजार में तो सिर्फ नाम चलता है और बिकता है।तुम सिर्फ लिखो और बेचते जाओ।मित्र की पत्नी को फिर भी यह सौदा अच्छा लगा।जिससे परिवार का खर्च आसान हो रहा था।घर बैठे ही वह लिखती है और महीने में दो डायरी आसानी से भर देती है।साथ ही घर के चूल्हे, चोका-बर्तन आदि सभी काम भी संभाल रही है।वह लिख रही है और कीमत अदा हो रही है।साथ ही उसके लेखन पर नाम किसी नामी का छप रहा है और बिक रहा है।नामी को पढ़ने को दुनियां पागल हो रही है।उसकी एक साथ कई रचनाएं अलग-अलग पत्रिकाओं में छप रही हैं।अब तो मुझे भी ऐसे ही किसी फाइनेंसर की तलाश है, जो मुझसे कहे कि तुम अपना लिखा हमें बेचते रहो.........  ।
भानु बंगवाल

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