Saturday 23 June 2012

वाह रे सानंदः खूब कट रहा केक

वाह रे स्वामी सानंद।उत्तराखंड को आपने श़ॉप्ट केक बना िदया।जब मर्जी आई और रुख कर दिया उत्तराखंड की ओर।कभी गंगा की पवित्रता के नाम पर, तो कभी अविरलता के नाम पर बैठ गए धरने पर। पूरी जिंदगी भर गंगा की याद नहीं आई।रिटायर्डमेंट के बाद अचानक गंगा के प्रति आपका प्रेम जागा।यह प्रेम कितना सच्चा है, यह आप जाने, लेकिन यह तो सच ही है कि आपने खुद को व्यस्त रखने का एक अच्छा मनोरंजन का साधन तलाश लिया। यदि मन में कभी गंभीरता होती तो पूरे जीवन जिस कानपुर में गंगा को मैली होते देखते आए, वहां से ही गंगा की पवित्रता के लिए आंदोलन तो करते।ऐसा नहीं कर स्वामी का चोला पहनकर हर बार आप उत्तराखंड की तरफ रुख करते हो और इससे वहां का माहौल भी खराब होने लगता है।
जल विद्युत परियोजनाओं का िवरोध कर रहे स्वामी सानंद के खिलाफ आखिरकार 22 मई को श्रीनगर में परियोजना समर्थकों का गुस्सा फूट ही गया।विरोध को देखते हुए उन्हें पुलिस ने उत्तराखंड की सीमा से बाहर कर दिया।इस बीच रास्ते में कई बार उन्हें रोकने व उन पर स्याही डालने के प्रयास भी हुए।यही नहीं उनके साथी भारत झुनझुनवाला के घर में भी परियोजना समर्थक धमक गए।उनके चेहरे में स्याही तक लगा दी गई।यह घटना स्वामी सानंद के लिए नई नहीं है।मई 2009 में स्वामी सानंद (तब प्रोफेसर जीडी अग्रवाल) ने उत्तरकाशी में लोहारीनागपाला, पाला मनेरी व प्रस्तावित भैरव घाटी परियोजना के खिलाफ धरना दिया था।इनमें दो योजनाओँ पर काफी काम भी हो चुका था।वहां भी श्रीनगर की तरह उत्तरकाशी की जनता का विरोध उन्हें झेलना पड़ा और जान बचाकर भागना पड़ा।आखिरकार तीनों परियोजनाएं बंद कर दी गई।क्षेत्र के लोग जमीन से भी गए और परियोजना पर स्थानीय युवकों की नौकरी पाने की उम्मीद भी धराशायी हो गई।
उत्तराखंड के संबंध में स्पष्ट है कि यहां गंगा मैली नहीं हो रही है और न ही छोटे प्रोजेक्ट से गंगा की अविरलता को कोई खतरा है।यहां के 63 फीसदी जंगल, जल व जमीन देश व दुनियां को प्राणवायु दे रहे हैं।हरिद्वार के बाद ही गंगा नाले के पानी के रूप में तब्दील हो रही है।गंगासागर तक कमोवेश यही स्थिति है।जिस कानपुर में जीवन भर प्रो. जीडी अग्रवाल रहे, वहां तो गंगा की हालत काफी खराब है।इसके बावजूद गंगा की स्वच्छता की उन्हें अब जब भी याद आती है, तो वह उत्तराखंड की धरती पर धमक जाते हैं।गंगा आंदोलन चलाने वाले स्वामी सानंद के आंदोलन का केंद्र बिंदु दिल्ली न होकर उत्तराखंड ही रहता है, जबकि सत्ता का केंद्र बिंदु दिल्ली है। वहीं से गंगा को लेकर निर्णय़ होना है, लेिकन ऐसा न कर वह उत्तराखंड के लोगों की जनभावनाओं को बार-बार चुनौती देने पहुंच जाते है।वो भी ऐसे स्थान पर जहां से गंगा पतित नहीं होती।यानी सारा जनपद झुलस रहा है और राजधानियां ठंडी हैं।
 श्रीनगर में स्वामी सानंद के साथ जनता का व्यवहार गलत रहा या ठीक।यह अलग बहस का मुद्दा है।हो सकता है कि स्वामी सानंद अपनी जगह ठीक हों और वह गंगा की पवित्रता के लिए सच्चे मन से आंदोलन कर रहे हों।इसके बावजूद यह भी है कि जब गंगा के मुद्दे पर दिल्ली से ही निर्णय होना है, तो वहीं क्यों नहीं आंदोलन किया जाता।फिर आंदोलन तब ही क्यों किया जाता है, जब परियोजना केै नाम पर जंगल कट जाते हैं और आधे से ज्यादा काम हो चुका होता है।कई लोग अपनी जमीन तक परियोजना के नाम पर भेंट चढ़ा देते हैं।इससे पहले परियोजना की शुरूआत में पर्यावरण प्रेमी क्यों चुप रहते हैं और आधा काम होने का इंतजार क्यों करते हैं।गंगा की निर्मलता व अविरलता की बात करें तो सबसे बड़ा खतरा टिहरी बांध से था।जब उसका निर्माण हो रहा था तब स्वामी सानंद जैसे लोग कहां थे।सच तो यह है कि उत्तराखंड को स्वामी सानंद ने शॉफ्ट केक बना दिया।रिटायरमेंट के बाद से उनका जब मन आता है वह चर्चाओं में रहने के लिए उत्तराखंड धमक जाते हैं और धरने रूपी केक को काटकर अपना जन्मदिन मनाते हैं।
भानु बंगवाल  

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