Sunday 15 April 2012

45 चाय और लंबी बहस

पांच व्यक्ति और 45 चाय का आर्डर। इसके बाद पांच प्यालों में चाय आती है। हर प्याले पौन ही भरे हुए। चाय की चुस्कियों के साथ शुरू होती है लंबी बहस। बहस के मुद्दे राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या फिर किसी की नई रचना आदि कुछ भी होते हैं। कई बार बहस एक घंटे से दो घंटे तक भी खींच जाती है। कभी माहौल गरम हो जाता है, लगता है कि आपस में झगड़ा हो रहा है। बहस करने वाले व्यक्ति आते -जाते रहते हैं व नए-नए मुद्दों पर बहस जारी रहती है। साथ ही चाय के दौर भी चलते रहते हैं। कुछ ऐसा ही नजारा रहता था टिपटॉप रेस्टोरेंट में।
देहरादून के चकराता रोड पर वर्ष 1955 में इस रेस्टोरेंट की स्थापना हुई थी। नंदकिशोर गुप्ता व उनके भाई इस रेस्टोरेंट को चला रहे थे। नंदकिशोर के बाद उनके बेटे प्रदीप गुप्ता ने रेस्टोरेंट की कमान संभाली। प्रदीप गुप्ता का रुझान साहित्य की तरफ था। वर्ष 1975 से इस कॉफी हाउस में  रंगकर्मी, साहित्यकार और पत्रकार सभी बैठने लगे। वर्ष 85 के दौरान मैं भी दृष्टि संस्था से जुड़ा, जो नुक्कड़ नाटक करती थी। इसके संस्थापक अशोक चक्रवर्ती, अरुण विक्रम राणा, कुलदीप मधवाल, विजय शर्मा आदि हर दिन नियमित रूप से टिपटॉप पर बैठते। साथियों के इंतजार में बहस का दौर चलता। फिर समीप ही स्कूल में जाकर नाटक की रिर्हलसल करते। टिपटॉप में चाय का आर्डर देना भी कोड में चलता था। तीन चाय चार कप में लाने के लिए कहा जाता कि चौंतीस चाय बना दो।
रंगकर्मियों के अलावा इस रेस्टोरेंट में कवि अरविंद शर्मा, गजल लेखक सरदार हरजीत, साहित्याकार नवेंदु, डॉ. अतुल शर्मा, चित्रकार अवधेष, कर्मचारी नेता जगजीत कुकरेती, राजनीतिक दल से जुड़े सुरेंद्र आर्य व कृष्ण गोपाल शर्मा आदि सभी को बैठते मैं वहां देखता था। तब टिपटॉप में बैठने के लिए करीब 50 व्यक्तियों की जगह होती थी। किसी मुद्दे पर बहस के दौरान ही यहां नए शब्दों का इजाद होता था। मंडल का कमंडल, बौद्धिक आतंकवादी, टंटा समिति आदि शब्द टिपटॉप की बहस के दौरान ही इजाद हुए और इनका प्रयोग कई ने अपनी लेखनी में भी किया। दून में ऐसे ही करीब तीन काफी हाउस थे, लेकिन इनमें डिलाइट में सिर्फ राजनीतिक लोग व अन्य में संस्कृति कर्मी बैठते थे। टिपटॉप में तो असल समाजवाद था। यहां हर क्षेत्र के व्यक्ति की दाल गल ही जाया करती थी।
समय बदला। परिवार में बंटवारा हुआ और वर्ष 88 के दौरान टिपटॉप दो हिस्सों में बंट गया। इसके बाद भी प्रदीप की अगुवाई वाले टिपटॉप में ही संस्कृतिकर्मियों का जमावड़ा रहता था। हां बैठने की जगह कम हो गई। वहां पच्सीस लोग ही एकसाथ बैठक पाते थे। संस्कृतिकर्मियों के बीच बैठकर रेस्टोरेंट मालिक प्रदीप भी अच्छी कविताएं गढ़ने लगा। एक जनवरी 1989 को साहिबाबाद में रंगकर्मी सफ्दर हाश्मी की हत्या की सूचना पर प्रदीप ने कविता गढ़ी कि-मत कहो किसी को रंगकर्मी, साहित्यकार या पत्रकार। वर्ना मारा जाएगा, बेचारा नुक्कड़ पर।
वर्ष 93 के बाद ज्यादा व्यस्त रहने के कारण मेरा टिपटॉप में जाना काफी कम हो गया। साथ ही कई पुराने चेहेरे इस दुनियां से चल बसे। तो कई शाम को दूसरे काम में व्यस्त होने के कारण वहां कम जाने लगे। फिर भी बहस जारी रही और बहस करने वाले चेहरे बदलते रहे। वक्त ने फिर करवट बदली और रेस्टोरेंट स्वामी प्रदीप बीमार पड़ गया। भले ही नाम रेस्टोरेंट था, लेकिन प्रदीप के बेटे ने 2008 से चाय का धंधा बंद कर दिया और दुकान में अन्य काम शुरू कर दिया। फिर भी दुकान में संस्कृतिकर्मी पहुंचते और सोफे पर बैठकर बहस का हिस्सा बनते। हाल ही में सड़क चौड़ीकरण का काम चला। इसकी जद में टिपटॉप भी आ गया। सारी दुकान हथौड़ों की भेंट चढ़ गई। अब वहां मात्र तीन कुर्सी की जगह बच गई। इसमें प्रदीप का बेटा बैठकर मोबाइल की दुकान चला रहा है। टिपटॉप में नियमित आने वाले संस्कृतिकर्मी अब कभी-कभार दुकान तक पहुंचते हैं और कुछ देर बाहर खड़े होकर वापस चले जाते हैं। सब कुछ बदल गया। दुकान लगभग खत्म होकर एक दड़बा रह गई। उसमें बैठने की जगह भी नहीं बची। चाय की प्याली गायब होने के साथ ही गरमागरम बहस भी अतीत का हिस्सा बन चुकी है। नहीं बदला तो सिर्फ दुकान का नाम-टिपटॉप।
                                                                              भानु बंगवाल      

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