Saturday 14 April 2012

प्रधान जी को मेरा सलाम....

पहनावे में अधिकतर कुर्ता पायजमा। चेहरे पर सफेद व काली मिक्स दाड़ी। चौड़े माथे पर लकीरें। साथ ही पतला लंबा टीका। रौबदार आवाज। सोचने की मुद्रा में भृकुटी का धनुष की भांति तन जाना।स्पष्टवादिता। दूसरों के सुख-दुख में हमेशा खड़े रहना। यही तो था प्रधान जी का व्यक्तित्व। पत्रकारों के प्रधान जी यानि राकेश चंदोला। आज 14 अप्रैल की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी मौत पर की सूचना पर कई पत्रकार चौंके तो कई को उनकी तबीयत देख कर शायद मौत का अंदाजा पहले से था।
करीब बीस साल पहले जब मैं पत्रकारिता में नया-नया आया। तब से ही प्रधान जी को जानता हूं। सभी पत्रकारों को उन्होंने संगठित करने का प्रयास किया। श्रमजीवी पत्रकार संगठन से सभी को जोड़ा और सभी को दुखसुख में साथ खड़े रहने का पाठ पढ़ाया। उस समय की बात मुझे याद है कि बरेली से एक पत्रकार देहरादून आए हुए थे। वह प्रधान जी के परिचित थे। रात के 12 बजे मुझे प्रधानजी (राकेश चंदाला) घंटाघर के पास मिले। उन्होंने मुझे हुकुम दिया कि मैं उसे घर छोड़ूंगा। मजाल है कि मैं मना करता या फिर कोई बहाना बनाता। प्रधानजी की बात तब कोई नहीं टालता था।
देहरादून में प्रैस क्लब का गठन होने पर वह पहले महामंत्री निर्वाचित हुए। फिर कई बार अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज हुए। साप्ताहिक समाचार पत्र निकालते थे। पत्नी स्कूल में टीचर थी। एक बेटी व बेटा दो बच्चों से भरापूरा परिवार। प्रधानजी ने दूसरों को लिए भले ही कुछ  न कुछ किया हो, लेकिन अपने परिवार के किसी सदस्य को अपनी पहुंच का फायदा उठाकर लाभ नहीं दिला पाए। पत्नी नौकरी से रिटायर्ड हो गई। बेटी का विवाह कर दिया। पर इस कर्मयोगी पत्रकार को बेटे की वजह से ज्यादा परेशानी रहने लगी थी। करीब तीन साल पहले दीपावली के दिन उनका बेटा पटाखे छुड़ा रहा था। बम की आवाज को तेज करने के फेर में उसने पटाखे को एक टीन के डिब्बे से ढक दिया। जब धमाका हुआ तो डब्बा परखच्चे में बदला और उसका एक टुकड़ा प्रधान जी के बेटे के गाल में जा घुसा। बेटे को अस्पताल ले गए। इलाज कराया, लेकिन इस घटना के कुछ दिन बाद बेटे को लकवा मार गया। एक हाथ व एक पैर ने काम करना बंद कर दिया।
अमूमन हर पत्रकार के साथ यही होता है कि वह समाज के लिए तो लड़ता रहता है, लेकिन अपने परिवार के भविष्य का जुगाड़ नहीं कर पाता। प्रधानजी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। दूसरों के लिए वह कभी भी खड़े हो जाते थे, लेकिन उनकी मौत  का समाचार सुनकर कई के पास तो उनके अंतिम दर्शन के लिए भी वक्त नहीं था। खैर जो होना है, उसे कोई टाल नहीं सकता। फिर भी मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि दुखः की इस घड़ी में उनके परिवार को इसे सहने की शक्ति दे।
                                                                                     भानु बंगवाल
      

No comments:

Post a Comment