Sunday 22 April 2012

पिंजरे में सुरक्षा का अहसास

पिंजरे में कैद होकर शायद ही कोई रहना चाहता है। किसी तोते को पिंजरे में बंद कर दिया जाए तो वह पिंजरे का दरवाजा खुलते ही फुर्र होने में देरी नहीं लगाता। वह जब तक पिंजरे में रहता है, तब तक अपनी नटखट बोली से सबको आकर्षित करता रहता है। ऐसा लगता है कि मानो वह पिंजरे को छोड़कर कहीं नहीं भागेगा, लेकिन मौका मिलते ही वह अपनी अलग दुनियां में, खुली हवा में भाग खड़ा हो जाता है। फिर पेट की आग बुझाने के लिए उसे संघर्ष करना पड़ता है।
मैने सुना है कि पिंजरे से आजाद होने के बाद तोता ज्यादा दिन नहीं जी पाता। इसका कारण यह है कि उसे पिंजरे में ही दाना-पानी मिल जाता है। यानी वह दाना- पानी के लिए व्यक्ति पर निर्भर हो जाता है। पिंजरे से बाहरी दुनियां में निकलकर उसे भोजन तलाशना नहीं आता है। कई बार उसे अन्य पक्षी भी हमला कर मार डालते हैं। क्योंकि उसे इसका ज्ञान ही नहीं रह पाता है कि कौन उसका दुश्मन है और कौन दोस्त।
मैं यह बात सुनी सुनाई बातों पर नहीं कह रहा हूं। मैंने इसे तब अनुभव किया जब मैने एक तोता पाला। एक बार मैं देहरादून में राजपुर रोड पर सेंट्रल ब्रेल प्रेस के निकट खड़ा सिटी बस का इंतजार कर रहा था। तभी सपीप ही लैंटाना की झाड़ियों से मुझे तोते की आवाज सुनाई दी। मैने उस ओर देखा तो एक टहनी पर तोता बैठा हुआ था। वह कुछ घायल भी था और उसकी टांग व अन्य स्थानों पर खून के धब्बे भी थे। मैने तोते को पकड़ने का प्रयास किया। बगैर किसी परेशानी के वह मेरी पकड़ में आ गया। उसने मुझे काटने का प्रयास भी नहीं किया। इससे मुझे अंदाजा हुआ कि उक्त तोता शायद किसी का पाला हुआ था, जो पिंजरा खुलते ही उड़ गया होगा और अन्य पक्षियों के हमले में वह घायल हो गया।
मैं तोते को लेकर घर पहुंच गया। मैने उसके घाव पर कुछ दिन दवा लगाई तो वह ठीक हो गया। तोते को एक पिंजरे में रख दिया गया। तोता भी काफी चंचल था। धीरे-धीरे वह मिट्ठू, रोटी आदि कुछ शब्द बोलना भी सीख गया। एक दिन मैने देखा कि पिंजरे का दरवाजा खुला है और तोता चोंच से उसे बंद करने का प्रयास कर रहा है। वह काफी डरा हुआ भी लग रहा था। वह चोंच से टिन के दरवाजे का पल्ला खींचता, लेकिन बंद होने से पहले वह उसकी चोंच से छूटकर फिर खुल जाता। मैने दरवाजा बंद कर दिया, तो तोते ने राहत महसूस की और चुपचाप बैठ गया। उस दिन के बाद से मेरा यह खेल बन गया। मैं पिंजरे का दरवाजा खोलता और तोता उसे बंद करने की कोशिश करता। साथ ही डर के मारे चिल्लाता भी, जैसे कोई उस पर झपट्टा न मार ले। यह तोता मेरे पास कई साल तक रहा। बाद में मेरा भांजा उसे अपने घर ले गया। एक दिन वह भी पिंजरा खोलने का खेल किसी को दिखा रहा था। तोता पहले दरवाजा बंद करता रहा, फिर बाहर आया और उड़ गया।
अब महसूस करता हूं कि तोते ने बाहर की जो दुनियां देखी, वह उसे पिंजरे से भयानक  लगी। पिंजरे से बाहर तो उस पर हर किसी ने हमला किया। उसे दोस्त व दुश्मन की पहचान तक नहीं थी। वह बाहरी दुनियां में खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा। ऐसे में उसने तो पिंजरे में ही अपनी सुरक्षा समझी। तभी वह उसका दरवाजा बंद करने का प्रयास करता रहता। धीरे-धीरे वह पहले वाली बात को भूल गया और उसने फिर पिंजरे से बाहर जाने का साहस दिखाया। उस तोते और इंसान में भी मुझे ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। कई बार एक जगह रहकर, एक जैसा  काम करते-करते इंसान भी पिंजरे वाले तोते की तरह बन जाते हैं। उनमें पिंजरे वाले तोते के समान छटपटाहट तो होती है, लेकिन वे चाहकर भी दूसरे स्थान पर जाने, कुछ नया करने का रिस्क नहीं उठा पाते हैं। जो इस पिंजरे से बाहर निकलता है,  उसे नए सिरे से संघर्ष करना पड़ता है। इसमें कई सफल हो जाते हैं और कई वापस अपने पिंजरे में लौट जाते हैं।
                                                                                              भानु बंगवाल

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