Saturday 21 April 2012

एक मोहल्ला कंवारों का

देहरादून में एक मोहल्ला ऐसा भी है, जहां अपने फील्ड के माहिर लोगों की कमी नहीं है। हरएक ने समाज में अपनी एक अलग पहचान बना रखी है। सभी अपने फील्ड में इतने रमे कि कब शादी की उम्र आई और गई,  इसका उन्हें पता ही नहीं चला। नतीजन, इस मोहल्ले में ऐसे कंवारों की संख्या बढ़ती चली गई, जो अपने फील्ड में माहिर हैं।
वैसे तो जिस दृष्टि से किसी वस्तु को देखो वह वैसी ही दिखाई देने लगती है। जब कभी हम समुद्र के किनारे खड़े होते हैं तो लगता है कि सारी दुनियां में पानी ही पानी है। पहाड़ों में पहुंचते ही दुनियां भर में पहाड़ ही नजर आते हैं। दूर-दूर तक लहलहाते खेत देखने के दौरान सारी धरती खेतों से ही भरी नजर आती है। दुनियां में हर तरह की विविधता होती है, लेकिन फर्क सिर्फ हमारे देखने के नजरिये में होता है। ऐसे में मुझे पहली बार इस मोहल्ले के संबंध में नजर आया। वह यह बात नजर आई कि अपने फील्ड के माहिर लोगों से भरा यह मोहल्ला कंवारों का मोहल्ला बनता जा रहा है। 
देहरादून के दर्शनलाल चौक के समीप है यह मोहल्ला। इसके नाम का मैं यहां जिक्र नहीं कर रहा हूं, लेकिन नाम भी अजीब है। अंग्रेजों के जमाने से बसे इस मोहल्ले में ऐसे हीरों की कमी नहीं है, जो किसी न किसी रूप में समाज को अपना योगदान देकर चमक रहे हैं। इस मोहल्ले के बारे में लिखकर मेरी मंशा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की नहीं है, लेकिन यहां से जुड़ी जो सच्चाई है मैं वही  बयां कर रहा हूं। चाहे इसे इत्तेफाक कहां या फिर संयोग। चाहे पारिवारिक मजबूरी रही हो या फिर काम का जूनून। यहां रहने वाले फनकार, पत्रकार, साहित्यकार, खिलाड़ी, मूर्तिकार, छायाकार आदि सभी ने ख्याती तो अर्जित की, लेकिन वे अपने फील्ड के रमता जोगी बन गए। किसी को शादी की फुर्सत तक नहीं रही या फिर उन्होंने शादी को ज्यादा महत्व नहीं दिया। इनमें एक मूर्तिकार जो जीवन भर अविवाहित रहे और अब वह इस दुनियां से भी विदा भी हो चुके हैं।
करीब एक किलोमीटर की परिधी के इस मोहल्ले में एक मूर्तिकार ने मूर्ति बनाने में अपना जीवन ही समर्पित कर दिया। वहीं, एक छायाकार ऐसे हैं जिन्होंने करीब बीस साल पहले हर समाचार पत्र, मैग्जिन आदि के लिए काम किया। उनकी शरण में जो भी आया, वही फोटोग्राफी में माहिर हो गया। खिलाड़ी में एक क्रिकेटर, फनकार में ढोलक वादक दोनों भाई हैं। दोनों की अपने-अपने फील्ड में एक अलग पहचान है। दोनों ही जब अपने क्षेत्र में स्ट्रगल कर रहे थे, तब शायद शादी की उम्र निकल गई। पारिवारिक मजबूरी या फिर परिवार चलाने के लिए कड़ा संघर्ष। एक पत्रकार के साथ ही एक साहित्यकार की भी यही कहानी है। इस अनुभवी पत्रकार ने भी अक्सर हर नया पत्र को जमाने में अपना योगदान दिया। वहीं इस मोहल्ले के एक साहित्यकार के उपन्यासों की अपनी अलग पहचान है। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनके लिखे गीत हर आंदोलनकारी की जुंबा पर होते थे। आज भी उनकी नई रचना का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता है।
इस मोहल्ले में अपनी फील्ड में महिर लोगों में ज्यादातर के कंधों पर छोटी उम्र में ही परिवार की जिम्मेदारी आ गई। जब खेलने-कूदने की उम्र थी तो उस उम्र में उन्होंने परिवार चलाने के साथ ही खुद को स्थापित करने के लिए कड़ा संघर्ष किया। आपसी सहयोग से वे छोटी उम्र में परिवार चलाना तो सीख गए। साथ ही अपने को स्थापित करने के लिए उन्होंने कड़ी साधना की। इस साधना में वे इतने लीन हुए कि ऐसे लोगों को अपने बारे में सोचने का समय तक ही नहीं लगा और उन्होंने अपनी उम्र अविवाहित होकर गुजार दी। 
                                                                                        भानु बंगवाल

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