Thursday, 25 July 2013

Respect to race...

सम्मान की दौड़, अपमानित कब थे.....
इन दिनों पोपटलाल जी काफी खुश हैं। उन्होंने पहले से ज्यादा घूमना शुरू कर दिया है। साथ ही उन पत्रिका व समाचार पत्रों की कटिंग अपने झोले में रखनी शुरू कर दी है, जिसमें उनके लेख प्रकाशित हुए हैं। अपने लेखों की कटिंग को वे जगह-जगह जाकर पत्रकार विरादरी में दिखाते फिर रहे हैं। क्योंकि वह खुद को सभी पत्रकारों से बीस साबित करने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि क्या पता कब उनके भाग्य का सितारा चमक जाए और वह सरकार की तरफ से बेस्ट पत्रकार का खिताब झटक लें। वहीं उत्तराखंड की सरकार को भी क्या सूझी पत्रकारों को ही आपस में भिड़ाने की। कर दी घोषणा पत्रकारों को हर साल पुरस्कार देने की। घोषणा तो पत्रकारिता दिवस के दिन की थी, लेकिन तब सभी पत्रकार यही समझे कि ऐसी घोषणाएं तो होती रहती हैं। पर दो माह बाद फिर सरकार को याद आई कि घोषणा तो कर दी, लेकिन बेस्ट पत्रकार का चयन कौन करेगा। फिर क्या था तीन सदस्यीय कमेटी भी गठित कर दी। इस कमेटी में अनुभवी पत्रकारों को शामिल किया गया, जो कई सालों से इस पेशे से जुड़े हैं। शायद उनसे कई ने तो पत्रकारिता का क-ख-ग भी सीखा हो। इनमें से पोपटलाल जी भी एक हैं। उनके गुरु जब कमेटी में आए तो लगा कि अब तो शायद उन पर ही गुरु की नजर पड़ जाएगी।
वैसे कुछ साल पहले पोपटलाल जी ऐसे सम्मान समारोह के सख्त खिलाफ थे। वह कहते थे कि ऐसे सम्मानों से पत्रकारों में आपकी खटास बढ़ती है। एक बार मुझे पोपटलाल जी ने ही बताया कि महान अमेरिकी पत्रकार जोसेफ पुलित्जर ने जीवन में काफी संघर्ष किया था। पहले उन्होंने किसी के पत्र में काम किया, बाद में अपनी लगन व मेहनत से उन्होंने 1878 में सेंट लुई डिस्पैच नाम का अखबार निकाला। पत्रकारों को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने अपनी कमाई से एक पुरस्कार योजना शुरू की। आज भी यह योजना एक ट्रस्ट के माध्यम से चलाई जाती है। तब ही से ऐसे सम्मान समारोह आयोजित किए जाते हैं। जब भी किसी को सम्मान मिलता, तो मैं पोपटलाल जी अक्सर छेड़ दिया करता था कि आप को सम्मानित नहीं किया गया। इस पर वे तुनक कर बोलते कि ये बताओ मैं अपमानित कब था, जो मुझे सम्मान की जरूरत पड़ेगी। उनका कहना था कि ये पुरस्कार उनके लिए होते हैं, जिन्हें सम्मान की जरूरत होती है। वह तो अपमानित तो हैं ही नहीं, तो किस बात का उन्हें सम्मान चाहिए।
पोपटलाल जी का मानना था कि जब भी किसी को सम्मान मिलता है, तो पुरस्कार से वंचित लोगों के विरोध का सम्मान देने वालों को भी सामना करना पड़ता है। क्योंकि हर पत्रकार खुद को ही पत्रकार मानता है और दूसरों को फर्जी करार देता है। उसे दूसरों के गुण नजर नहीं आते और वह दोष ही तलाशता है। वह कहते हैं कि जो कुछ भी लिख रहा है, चाहे कहीं भी लिख रहा है। छोटा पत्र हो या फिर किसी बड़े मीडिया में। यदि वह व्यक्ति को सूचना पहुंचा रहा है, शिक्षित करने का प्रयास कर रहा है, साथ ही मनोरंजन व रोचक जानकारी लोगों तक पहुंचा रहा है, तो वह पत्रकार है। अब तो फेस बुक में भी लोग लिख रहे हैं, भले ही वे किसी मीडिया से नहीं जुड़े हैं, पर वे ऐसी जानकारी परोस रहे हैं, जो पत्रकार का कर्तव्य है, तो वे भी पत्रकार हैं।
पोपटलाल जी में अचानक अंतर कैसे आ गया और वे अपने सिद्धांत को क्यों भूल गए। अब वे अपने ही मुंह मियां मिट्ठू क्यों बन रहे हैं, ये बात मेरे समझ से परे थी। मैने उनके ही मुंह से पूछना ज्यादा अच्छा बेहतर समझा। एक दिन मैं उनसे मिला और मैने पूछ ही लिया कि अब पत्रकारों को सम्मानित किया जाएगा। इस दौड़ में तुम भी हो क्या। इस पर पोपटलाल जी तपाक से बोले। इतने सालों की तपस्या का फल लेने का मौका आया तो मैं क्यों पीछे रहूं। अब लगता है कि इस पेशे से रिटायर्ड हो जाना चाहिए। काफी थक गया हूं। एक कामना है कि बस एक बार मेरी तरफ भी कमेटी के सदस्य अपनी नजरें डालें। इसके लिए अब मैं जो भी लिख रहा हूं, वह दूसरों तक ज्यादा से ज्यादा पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं। मैने पूछा कि आपके उन सिद्धांतों का क्या हुआ, जिसे आप हर समय अपने से लपेटकर रखते थे। आप कहते थे कि सम्मान समारोह सिर्फ दिखावा होते हैं। व्यक्ति का कर्म ही उसका सम्मान है। सरकारी सम्मान तो चंद लोगों को खुश करने और आपनी में खाई बांटने का काम करते हैं। इस पर पोपटलालजी तपाक से बोले, भैय्या सिद्धांत रोटी नहीं दे सकते। जब तन में कपड़ा न होगा, रहने को घर नहीं होगा, पेट में रोजी नहीं होगी, तो तुम ही बताओ सिद्धांत क्या करेंगे। पोपटलाल जी की बातें सुनकर मैं दंग रह गया और मैने अपना सिर पकड़ लिया।ये भी तो सच है कि समिति के लिए समूचे उत्तराखंड से किसी योग्य पत्रकार का चयन करना टेढ़ी खीर होगा। पहले तो किसे पत्रकार माने।फिर पत्रकारोंे की इतनी लंबी फेसिहत है कि हरएक के काम का आंकलन भी मुश्किल है। ऐसे मे समिति के सामने भी एक चुनौती होगी। फिर मैं घर आकर बि्स्तर में लेट गया। जब नींद आई तो सपने में देखा कि एक राजा एक शहर में पहुंचता है। वह अपने मंत्री से कहता है कि मुझे इस स्थान पर अभी फेमस होना है। कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे मैं प्रजा के दिल में जगह बना लं। मंत्री कहता है कि भीड़ में से किसी भिखारी को पकड़कर ईनाम में अपने गले की कीमती माला दे दो। इस पर राजा खुश होता है। वह भीड़ से कहता है कि आप लोगों में कोई भिखारी है। इस पर सारी भीड़ हाथ उठाकर बोलती है कि हम सभी भिखारी हैं हुजूर। तभी नींद उचटती है और करवट बदलकर मैं दोबारा सपना देखने लगता हूं। इस बार सपने में फिर भीड़ नजर आई। इस भीड़ में राजा पत्रकारों को पुरस्कार देने को खड़ा है और पोपटलाल जी की तरह सैकड़ों पत्रकारों की भीड़ पुरस्कार पाने के लिए एकदूसरे पर धक्कामुक्की कर रही है। वहीं, राजा तय नहीं कर पाता है कि किसे वह पुरस्कार दे।
भानु बंगवाल

Saturday, 20 July 2013

Enemy became saver...

 जिसे समझा दुश्मन, वही बना संजीवनी..
कई बार तो देखा गया कि शुरुआत में जिस चीज का विरोध होता है, बाद में वही काम की निकलती है। विरोध करने वाले अच्छे व बुरे का आंकलन करने की बजाय ही सीधे विरोध में उतर जाते हैं। 90 के दशक में जब कंप्यूटर की बात चली तो लाल  झंडे वाले इसका विरोध करने लगे। कहा गया कि लोग बेरोजगार हो जाएंगे। बाद में जब कंप्यूटर आया तो अब इस पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। इसकी बद्दोलत रोजगार के रास्ते खुले और लोगों की जीवनशैली बदली। अब केदारनाथ में आपदा की ही बात लो। जून माह में मुझे परिवार के साथ केदारनाथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 10 जून को मैंने गौरीकुंड से केदारनाथ का 14 किमी का सफर तय किया। इसके अगले दिन 11 जून की सुबह जब वापस लौटने लगा तो रास्ते में घोड़ा व खच्चर नजर नहीं आए। कारण यह था कि घोड़ा, खच्चर, पालकी संचालकों ने हड़ताल कर दी थी। केदारनाथ यात्रा में खोड़ा व खच्चर का अहम योगदान रहता रहा। पहाड़ की खड़ी चढ़ाई में कई लोग चलने में सक्षम नहीं रहते और वे ही घोड़े व खच्चरों से यात्रा करते थे। हालांकि प्रशासन ने करीब चार हजार खच्चरों का रजिस्ट्रेशन कर रखा था। इसके बावजूद इस पैदल यात्रा रूट में आठ से दस हजार घोड़ा व खच्चरों का संचालन हो रहा था। ऐसे में लोगों का पैदल चलना भी दूभर हो रहा था। हर कदम संभलकर चलना पड़ता था, कहीं घोड़े की टक्कर न हो जाए। हड़ताल के कारण लौटते समय रास्ते में कुछ राहत जरूर मिली,  लेकिन जो चलने में सक्षम नहीं थे उनकी दशा देखकर भी दुख हो रहा था।
खच्चर संचालकों से पूछा तो उन्होंने बताया कि हेलीकाप्टर के विरोध में वे हड़ताल कर रहे हैं। ये हड़ताल भी लाल झंडे वालों ने ही कराई थी। हड़ताल को लेकर एक दिन पहले केदारनाथ में कुछ नेताओं की बैठक हुई थी। उस बैठक में शामिल होने वाले खुद ही निजी कंपनियों के हेलीकाप्टर से फोकट में ही केदारनाथ पहुंचे थे। यानी मुफ्त में ही उड़ान भरी और अगले दिन हड़ताल भी कर दी। तर्क दिया गया कि हेलीकाप्टर से घोड़ा व खच्चर व्यवसाय पर असर पड़ रहा है। हालांकि घोड़ा व खच्चरों में बैठने वाले व हेलीकाप्टर में बैठने वाले अलग-अलग लोग ही रहते हैं। मेरी औकात घोड़े में बैठने की हो सकती है, लेकिन मैं हेलीकाप्टर में बैठकर अपनी आधी सेलरी नहीं उड़ा सकता था। साथ ही परिवार के साथ तो यह संभव ही नहीं था।
खैर ये हड़ताल भी तीन से चार दिन चली। तभी 16 व 17 जून को भारी बारिश से ऐसा सैलाब आया कि केदारनाथ तबाह हो गया। रामबाड़ा, गौरीकुंड, सौनप्रयाग समेत यात्रा के कई पड़ावों का अस्तित्व या तो पूरी तरह मिट गया या फिर नाम मात्र के मकान व होटल ही वहां बचे। सारे रास्ते समाप्त हो गए। हजारों लोग काल का ग्रास बन गए। जो बचे उनमें हजारों लोग केदारनाथ, बदरीनाथ व हेमकुंड साहिब के रास्तों में लोग फंस गए। ऐसे समय में फिर हेलीकाप्टर ही काम आए, जिसका कुछ दिन पहले विरोध किया जा रहा था। हेलीकाप्टर से हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया गया। सड़कों से कटे सैकड़ों गांवों में राशन की किल्लत हो गई। ऐसे गांवों में हेलीकाप्टर से राशन पहुंचाया गया और अभी भी पहुंचाया जा रहा है। पहाड़ के जिस व्यक्ति ने कभी गांव से शहर की तरफ कदम तक नहीं रखा। कभी जीवन में रेल तक नहीं देखी, वह भी जब आपदाग्रस्त क्षेत्र में फंसा तो उसे भी हेलीकाप्टर में बैठने का सौभाग्य मिला। बदरीनाथ के बामणी गांव व माणा में कपाट खुलने पर लोग पहुंचते हैं और खेती आदि करते हैं। कपाट बंद होने पर ये लोग मूल गांव पांडुकेश्वर व अन्य दूसरे गांवों में शिफ्ट हो जाते हैं। अब जब खेती तबाह हो गई तो ऐसे गांवों के लोगों ने बदरीनाथ से वापस अपने मूल गांव में लौटने में ही भलाई समझी। ग्रामीणों के साथ ही छात्र व छात्राओं को भी हेलीकाप्टर से पांडुकेश्वर तक पहुंचाया गया।
करीब दो साल पहले मैं टेलीविजन में एक घटना को देख रहा था। राजस्थान में कहीं बाढ़ का दृश्य था। एक नदी के बीच कार पहुंची कि पानी बढ़ गया। धीरे-धीरे कार डूबने लगी। उसमें बैठे लोग छत पर चढ़ गए। दोनों छोर से उन्हें बचाने के प्रयास नहीं हो सके। लोग तमाशबीन बने रहे। कुछ शायद कैमरे में उनकी मौत की लाइव फोटो खींचने में मशगूल थे। पानी इतना बढ़ा कि एक-एक कर सभी लहरों में समा गए। ठीक इसके उलट उत्तराखंड में आपदा में फंसे लोगों को सुरक्षित निकालने में सेना, एनडीआरएफ, आइटीबीपी, वायु सेना के साथ ही निजी कंपनियों के पायलट लगातार जूझते रहे। बीमार व्यक्तियों के साथ ही गर्भवती महिलाओं को भी हेलीकाप्टर से अभी भी मदद पहुंचाई जा रही है। व्यक्ति ही नहीं बल्कि जानवरों के लिए भी हेलीकाप्टर देवदूत बन गए।
16 व 17 जून की बारिश के दौरान जल प्रलय में हजारों लोगों के साथ ही हजारों खच्चर के मरने की भी सूचना है। कई खच्चरों के मालिक लापता होने से खच्चर भी लावारिश अवस्था में घूम रहे हैं। ऐसे ही सोनप्रयाग में एक खच्चर मंदाकनी नदी पर बने टापू में फंस गया। यह खच्चर कई दिनों तक भूखा रहा। जब भूख सहन नहीं हुई तो नदी में बहकर आए पेड़ जब टापू में फंसे तो इन पेड़ों की छाल खाकर खच्चर ने अपने पेट की आग को शांत किया। करीब 25 दिन तक टापू में फंसे इस खच्चर पर पशु प्रेमियों की नजर पड़ी। उसे निकालने के प्रयास भी विफल हो रहे थे। फिर 16 जुलाई  को टापू में हेलीकाप्टर उतारा गया। इस खच्चर को बेहोश कर हेलीकाप्टर में लादा गया और टापू से सुरक्षित बाहर निकाला गया। जिन खच्चरों के लिए हेलीकाप्टर के खिलाफ एक माह पूर्व हड़ताल की गई थी, उन्हीं की जान भी हेलीकाप्टर से ही बची।यही नहीं, अब केदारघाटी के जंगलों में फंसे करीब 80 खच्चरों को हेलीकाप्टर से सुरक्षित स्थान तक निकालने की योजना पर भी काम शुरू हो गया है।
हालांकि मैं पहाड़ों में हेलीकाप्टर के पक्ष व विपक्ष में नहीं हूं। मेरा मानना है कि हेलीकाप्टर सेवा हो, लेकिन एक दायरे में ही यह संचालित हो। पूरे पहाड़ों को हेलीकाप्टर के शोर से न गुंजाया जाए। साथ ही अब हेलीकाप्टर पर ही हम निर्भर न रहें। जहां रास्ते क्षतिग्रस्त हैं, वहां सड़कों का पुर्नर्निमाण किया जाए। ताकि प्रभावित लोग चावल, आटा, लून व तेल के लिए प्रशासन पर निर्भर न रहें। आखिर कब तक हवाई सफर से हम राहत पहुंचा सकते हैं। जितना खर्च एक माह में हेलीकाप्टर उड़ाने में लगेगा, उससे कम राशि में तो पहाड़ों की लाइफ लाइन समझी जाने वाली सड़कें बन जाएंगी। सड़कें बनने से ही आधी समस्या खुद ही दूर हो जाएंगी। क्योंकि अभी भी उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग व चमोली जनपद के करीब दो सौ गांव ऐसे हैं, जहां सड़कें समाप्त होने से ग्रामीण घरों में कैद हैं।
भानु बंगवाल

Friday, 19 July 2013

I went Viewing corruption .....

भ्रष्टाचार देखन मैं चला.....
समाजसेवी अन्ना हजारे का आंदोलन और बड़ी संख्या में युवा वर्ग का उससे जुड़ना। शहर व गांव में युवकों ने पहनी नेहरू टोपी। लगा कि अब भ्रष्टाचार रूपी दानव जड़ से उखड़ जाएगा। इसका कारण यह भी था कि जहां मातृ शक्ति व छात्र शक्ति मिलकर आदोलन चलाए तो वह आंदोलन मुकाम तक पहुंचता है। वो भी ऐसा आंदोलन जो राजनीति से हटकर हो। फिर क्या था। धीरे-धीरे आंदोलन तेज होता, लेकिन इसमें भी राजनीतिक स्वार्थ के लोग घुस गए और आंदोलन कहां गया पता तक नहीं चला। फिर भी एक बात तो ये रही कि लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने लगे। सभी चाहने लगे कि यह जड़ से समाप्त हो जाए। बावजूद इसके हकीकत क्या है यह हम सभी जानते हैं।
सुबह मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न मौके पर जाकर ऐसे स्थानों का निरीक्षण किया जाए, जो भ्रष्टाचार के गढ़ माने जाते हैं। ये सोचकर मैं चल दिया अपने घर के निकट देहरादून के आरटीओ कार्यालय। छोटा कार्यालय छोटे स्तर का भ्रष्टाचार यहां होता रहा है। करीब 15 साल पहले यहां भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए पत्रकारों ने भी काफी हाथ आजमाए। दूसरे देशों के राष्ट्रपति की फोटो व जाली दस्तावेजों को दलालों को थामाया। दलाल को सिर्फ पैसों से मतलब था। सामने वाला कौन है इससे भी कोई लेना देना नहीं। फीस ली और बनवा दिया ड्राइविंग लाइसेंस। ऐसी घटनाएं अमूमन हर शहर मे देखने को मिली। समय-समय पर डंडा भी चला। फिर स्थिति वही ढाक के तीन पात निकली। आरटीओ कार्यालय पहुंचने पर देखा कि वहां हर जगह काउंटर में भीड़ है। साथ ही चेतावनी के पट भी लगे थे कि दलाल से सावधान। अपना काम सीधे काउंटर से कराएं। ये देखकर मुझे काफी सुकून पहुंचा कि अब विभागीय अफसर भी कितने सचेत हो गए हैं। वहां एक स्थान पर देखा कि ड्राइविंग लाइसेंस के लिए लिखित परीक्षा हो रही है। कई ऐसे थे जिनका यह कहना था कि लगातार पांच बार परीक्षा में बैठ गए और हर बार उन्हें फेल कर दिया जाता है। एक महिला ने बताया कि वह निजी स्कूल में अध्यापिका है। बार-बार छुट्टी लेने पर उसका वेतन भी कट जाता है। आरटीओ कार्यालय के चक्कर लगाने के बाद भी उसका लाइसेंस नहीं बन रहा है। वह सीधे काउंटर पर ही गई। इससे अच्छा होता दलाल को ही पकड़ लेती।
सेवाराम जी ने भी अपनी पत्नी का लाइसेंस बनवाना था। पत्नी टेस्ट के लिए बैठ गई। तभी सेवाराम जी को एक दलाल मिला और उसने कहा कि टेस्ट दिलवाओगे तो यहां फेल कर देते हैं। फिर टेस्ट देते रहना बार-बार। ऐसे में सेवाराम जी ने दवाल को पांच सौ रुपये थमाए और शाम को उन्हें लाइसेंस भी मिल गया। न कोई टेस्ट ही दिया और न ही कोई जांच ही हुई। सिर्फ कागजी घोडे फाइल में दौड़े और सेवाराम जी भी खुश थे कि बार-बार के चक्कर से बच गए।
एक सज्जन गोविंद पोखरिया भ्रष्टाचार के खिलाफ थे। उन्होंने बताया कि एक साल पहले घर से ही उनकी मोटरसाइकिल चोरी हो गई। उन्होंने सोचा कि बीमा करा रखा है। इसकी राशि मिलेगी और दूसरा वाहन खरीद लिया जाएगा। नियमानुसार वह चोरी की रिपोर्ट कराने थाने पहुंचे। वहां भी तीन दिन चक्कर कटाने के बाद रिपोर्ट लिखी गई। फिर फाइनल रिपोर्ट देने का तीन माह का समय बीत गया, लेकिन पुलिस की मुट्ठी गर्म नहीं की तो उन्हें भी चक्कर कटवाए। करीब चार माह में फाइनल रिपोर्ट लगी। इसके बाद भी मुसीबत कम नहीं हुई। बीमा कंपनी ने भी उन्हे दौड़ा रखा है। फिर कोर्ट की रिपोर्ट लगने में भी तीन माह के स्थान पर चार माह लगे। कहीं भी दलाल को नहीं पकड़ा और खुद ही ऐड़ियां घिसते रहे। अब गाड़ी के कागजात बीमा कंपनी के नाम सिरेंडर करने थे। आरटीओ कार्यालय ने उन्हें एक दिन के इस काम के लिए दस दिन तक चक्कर कटवा दिए। अभी भी यह उम्मीद नहीं कि गाड़ी की बीमा रकम कब मिलेगी। उनका कहना था कि कई बार तो चक्कर काटने से थककर उन्होंने सोचा कि किसी दलाल से ही काम करा लेता, लेकिन आत्मा ने इसकी गवाही नहीं दी। अब वह अपनी आत्मा को ही कोसते फिर रहे हैं।
मेरे एक मित्र राकेश वर्मा की टेलीविजन रिपेयरिंग की दुकान थी। इसमें ही उन्होंने पीसीओ भी खोला हुआ था। बेटे ने पढ़लिखकर शादी की। फिर विचार आया कि काम बदलकर रेडीमेड कपड़ों का शो रूम खोला जाए। इस पर राकेश ने दुकान का भूगोल बदलना शुरू किया। अब सामान लाने के लिए पहले सेल टैक्स ऑफिस में रजिस्ट्रेशन कराया। वह भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। सेल टैक्स ऑफिस में वह फार्म 16 लेने गए। उन्होंने पांच फार्म की मांग की। इस पर उन्हें कहा गया कि फार्म पांच नहीं दो मिलेंगे। इस पर राकेश भी अड़ गए। वह पांच की ही मांग कर रहे थे। एक कर्मचारी ने उन्हें बताया कि बड़े साहब से मिल लो। वही पांच फार्म दे सकते हैं। राकेश जी अधिकारी के पास गए। करीब आधे घंटे तक अधिकारी ने उन्हें बैठाया, फिर बात की। अधिकारी को उन्होंने बताया कि वह दूर-दराज से सामान लाएंगे। ऐसे में बार-बार जाने से किराया ही इतना लगेगा कि नुकसान हो जाएगा। अधिकारी ने उनका तर्क सुनकर पांच फार्म देने के आदेश कर दिए। कर्मचारी ने फार्म दिया और अपना हाथ भी फैला दिया। इस पर राकेश जी ने पूछा कि वह किस बात के पैसे मांग रहा है। कर्मचारी ने बताया कि यह हमारा बनता है। राकेश जी भी अड़ गए। वह बोले जो बनता है, उसकी रसीद दे दो, मैं पैसे दे दूंगा। काफी बहस हुई। इस बीच मौके पर मौजूद एक दो व्यापारी राकेश को समझाने लगे कि कोई हर्ज नहीं, सौ-दो सौ रुपये थमा दो। पर वह नहीं माने उन्होंने कहा कि मैं मीडिया वालों को बुला रहा हूं। उनके सामने ही पैसे दूंगा। बबाल देखते कर्मचारी उन्हें हाथ जोड़कर जाने को कहने लगे। ये तो थे राकेश जी, जो लड़कर अपना काम कराकर वापस आ गए। अब शायद वह इस विभाग की हिट लिस्ट में भी आ गए होंगे, लेकिन वह कहते हैं कि जब उन्होंने कोई गलत नहीं किया तो क्यों किसी से डरूं। भ्रष्टाचार के खिलाफ वह हमेशा ही रहेंगे। सचमुच  राकेश जी व गोविंद जी को मेरा सलाम। जो किसी ने किसी रूप में शार्टकर्ट का रास्ता न अपनाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड रहे हैं।
भानु बंगवाल

Sunday, 14 July 2013

It is the first time we saw ...

 ऐसा तो देखा पहली बार...
सब कुछ बार-बार नहीं होता। कई मर्तबा तो यह पहली बार होता है और फिर दोबारा नहीं होता। कई बार यह बार-बार होता रहता है। एक जैसी घटनाओं में हम पहली घटना से ही नई घटना की तुलना करते हैं। फिर यह भी समझने का प्रयास करते हैं कि कौन सी घटना ज्यादा बड़ी थी। अब देखो चौराहे में सिपाही का व्यवहार कई बार अच्छा होता है, तो कई बार वह ऐसा आचरण करता है, जैसे सड़क पर व्यक्ति नहीं, बल्कि जानवर हों। एक बार की बात याद है। मै एक मित्र के साथ स्कूटर पर पीछे बैठा था। एक चौराहे पर ट्रैफिक सिपाही खड़ा था। उसने अचानक रुकने का इशारा किया और मित्र ने ब्रेक लगाए। ब्रेक लगाते-लगाते जब स्कूटर रुका, तो चौराहे के निकट तक पहुंच गए। ऐसे में पहली बार ही हमारे साथ यह हुआ कि सिपाही गाली बरसाने लगा। मित्र को गुस्सा आया और उसने सिपाही को समझाने का प्रयास किया कि तमीज से नहीं बोल सकता। इस पर सिपाही चबूतरे से उतरा और हमारी तरफ आगे बढ़ा। उसने जेब से डायरी निकाली और स्कूटर का नंबर लिखने का प्रयास करने लगा। तभी उसकी नजर स्कूटर में लिखे प्रेस शब्द पर गई। इस पर वह बौखलाकर वापस चबूतरे पर चढ़कर खड़ा हो गया और वहं से जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि पत्रकार है तो मेरा क्या बिगाड़ लेगा। हमें हंसी आ गई। सिपाही को तो किसी ने यह भी नहीं बताया था कि हम पत्रकार हैं। ट्रैफिक मामले में मैं हमेशा सतर्क रहता हूं। जब बत्ती लाल हो जाती है, तो उससे पहले ही वाहन रोक देता हूं। दुख यह होता है कि मेरे रुकने के बाद भी पीछे से पांच से सात लोग बत्ती लाल होने के बावजूद आगे बढ़ जाते हैं। उनका शायद ही कभी चालान होता हो। यदि होता भी होगा तो वह यह कहकर माफी मांग लेते होंगे कि ऐसा पहली बार हुआ, माफ कर दो। यहां तो जब पहली बार मैं कार सीखने का प्रयास कर रहा था तो कार भी सड़क छोड़कर फुटपाथ में चढ़ गई। शुक्र है कि पहली बार में कोई नुकसान नहीं हुआ।
व्यक्ति रिश्वत लेता है और पकड़ा जाता है तो वह भी कहता है यह गलती पहली बार हुई। इसके विपरीत वह तो गलती पर गलती दोहराता जाता है। आपदाओं से पहाड़ का नाता हमेशा से जुडा है। कभी यहां के लोगों ने भूकंप के बड़े झटके झेले, तो गांवों ने कभी भूस्खलन का नुकसान सहा। प्राकृतिक आपदाओं के साथ ही गुलदार का आतंक भी यहां के लोग झेलते हैं। हर बार नुकसान होता है, लेकिन इस बार केदारघाटी समेत जहां कहीं भी जो नुकसान हुआ, ऐसा भी पहली बार ही देखा। आपदाएं तो देखी, लेकिन पहाड़ों में इतनी ज्यादा संख्या में हेलीकाप्टर उड़े यह भी पहली बार ही देखा गया। राहत के नाम पर बाहरी संस्थाओं से जितनी मदद मिली, वह भी पहली बार देखी। कई लोग दूर गांव तक मदद लेकर पहुंचे और कई सड़क से सटे गांव तक ही नाममात्र की राहत सामग्री के साथ पहुंचे। ऐसे लोगों ने मदद कम और अपनी फोटो ज्यादा खिंचवाई। ऐसा भी पहली बार ही देखा। राहत के नाम पर घोटाले होने लगे, वह भी पहली बार ही देखे। हरिद्वार में एक नेताजी के घर पहाड़ों में बंटने वाले खाद्यान्न की सौ बोरी बरामद हुई, ऐसा भी पहली बार ही देखा। एक प्रधान ने राहत सामग्री के ट्रक अपनी साली के गांव पहुंचा दिया और राशन बंटवा दिया, ऐसा भी पहली बार ही देखा। बाद में प्रधान गिरफ्तार हुआ और जेल गया, ऐसा भी पहली बार ही देखा। जब कहा गया कि त्रास्दी में लापता लोगों को एक माह के भीतर मृत मानकर उनके परिजनों को केंद्र व राज्य सरकार से मुआवजा मिलेगा, तो अचानक एक ही दिन में यूपी के लापता लोगों की सूची में एक हजार से ज्यादा नाम जुड़ गए। ऐसा भी पहली बार ही देखा। सिर्फ बार-बार वही दिखे, जो बात अच्छी हो। बुरी घटनाएं एक बार ही दिखने के बाद दोबारा न दिखे, यही मेरी कामना है। 
भानु बंगवाल