Friday, 31 May 2013

Donkey: diligent or foolish or vicious ...

गधाः मेहनती या भोला या शातिर...
सुबह के समय पड़ोस में रहने वाले बुजुर्ग अपने बेटे पर किसी बात को लेकर नाराज हो रखे थे। वह उसे गुस्से में गधा कह रहे थे। बेरोजगार बेटे से कहे बुजुर्ग के शब्द मेरे कानों में पड़ रहे थे-  नालायक, गधा, कुछ काम का नहीं है। कुछ कर, कब तक घर बैठा रहेगा। मैं कभी ऐसी गालियों में गौर नहीं करता था। क्योंकि पहले कभी आमतौर पर ऐसी ही गालियां हर नौजवान को मिलती थी, जो घर में बेरोजगार बैठा हो। पर मैं पड़ोस के बजुर्ग की बात पर गौर करने लगा। दो हाथ, दो पैर वाला अच्छा खासा युवक गधा कैसे हो सकता है। क्या उनका बेटा वास्तव में गधा है। यह गधा कौन है। क्यों कोई अपने बेटे या फिर किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति को गधा कहता है, जो नालायक होता है। इसके विपरीत मैरे मन में गधे की छवि दूसरी बनी हुई है। आखिर गधा क्या है। क्या गधा नालायक हो सकता है। गधा तो इतना काम करता है, जितना शायद कोई और नहीं करता। हां ये जरूर है कि गधे कुछ जरूरत से ज्यादा सोचता है, करता है। शायद इसीलिए उसके भोलेपन के कारण उसे बेवकूफ समझा जाता है।
बचपन में धोबी के गधे की कहानी सुनी व पढ़ी थी। जो रात को चोर के घर आने पर धोबी के कुत्ते से भौंकने को कहता है। कुत्ता भौंकता नहीं। गधे को बुरा लगता है। कुत्ता मालिक की मार से त्रस्त था। वह चाहता है कि चोर सब कुछ ले जाएं, तभी मालिक को सबक मिलेगा। गधे को कुत्ते का व्यवहार गलत लगता है। मेहनती गधा खुद ही ढेंचू-ढेंचू करने लगता है। चोर भाग जाते हैं। धोबी की नींद खुलती है। उसे गधे के रात के समय चिल्लाने पर क्रोध आता है। वह डंडे से उसकी पिटाई कर देता है।
शायद ऐसा होता है गधा। या फिर भोलापन होता है उसके व्यवहार में। ऋषिकेश में एक स्कूल के गेट के पास एक ठेली की बंद टिक्की काफी फेमस थी। दो साल मैं भी ऋषिकेश में रहा। एक दिन मैं भी इस फेमस ठेली वाले के पास बंद टिक्की खाने पहुंच गया। सामने मैदान में कई गधे चर रहे थे। मैने जैसे ही एक बंद टिक्की ली और खाने लगा तो सामने एक गधा खड़ा हो गया। मुझे लगा कि यह मुझसे बंद टिक्की चाह रहा है। मैने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया। गधे ने बंद टिक्की खाने की बजाय उछल-कूद शुरू कर दी। वह चिल्लाने लगा। दुलत्ती को जोर-जोर से झाड़ने लगा। फिर उसने मैदान के चक्कर लगाने शुरू कर दिए। उसने बंद टिक्की खाई नहीं और उसकी ये हरकत देख मुझे ताजुब हुआ। मैने टिक्की बेचने वाले बाबा से पूछा कि बाबा ये गधा ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। इस पर उसने बताया कि बेटा ये सब शरारती छात्रों की वजह से है। स्कूल के बच्चों ने यहां के गधों को परेशान कर रखा था। उसका नतीजा है कि यहां के गधे बंद टिक्की को देखकर घबराने लगते हैं। मुझे बाबा की बातें रोचक लगी। मैने एक बंद टिक्की और ली और बातों का क्रम आगे बढ़ाया कि आखिर परेशान कैसे किया गया इन गधों को। तब बाबा ने बताया कि एक बच्चा गधे को बंद टिक्की खाने को देता। इसी दौरान दूसरा आसपास खड़े स्कूटर से पेट्रोल निकालकर उससे भीगा कपड़ा गधे की दुम के नीचे लगा देता। या फिर कई बार उसके पीछे पटाखे फोड़े जाते। जैसे ही गधा बंद टिक्की खाता, उसी दौरान शरारत हो जाती। गधा परेशान होता। चिल्लाता और दुलत्ती झाड़ता।  मैदान के चारों ओर चक्कर मारता। जब ऐसा क्रम हर दिन होने लगा तो गधों ने समझा कि हो न हो ये बंद टिक्की खाने से ही ऐसा होता है। ऐसे में वे बंद टिक्की देखकर वैसा व्यवहार करने लगते हैं, जो छात्रों की शरारत के बाद उन्हें परेशानी में डाल देता है। वाकई गधा तो कितने आगे की सोचता है। उसे यह भी पता है कि इस बंद टिक्की से उसकी शामत आने वाली है। ऐसे में वह उसे खाने की बजाय उछलकूद मचाने लगता है।
ऐसे सीधे प्राणी से किसी मानव की संज्ञा करना कितना गलत है। वो भी उस मानव से जो निकम्मा है और इसके विपरीत गधा काम करता है। यहां तो ऐसे गधे चाहिए जो गधे तो दिखते है, लेकिन हों शातिर। तभी वे इस जीवन में सफल हो सकते हैं। ऐसा ही एक धोबी का गधा था। घाट पर धोबी कपड़ों की बड़ी गठरी गधे की फीट पर लादता और उसे डंडा मारता। इसके बाद गधा चुपचाप चलता और धोबी के घर जाकर ही रुकता। घर पहुंचकर धोबी उसकी पीठ से कपडे उतारता और फिर एक डंडा मारने के बाद उसे खूंटे से बांध देता। गधे को धोबी की हर हरकत की आदत पड़ गई। गधा मेहनती था और धोबी आलसी। धीरे-धीरे धोबी ने गधे को घर आने के बाद डंडा तो मारा, लेकिन खूंटी में उसे बांधना छोड़ दिया। गधा तो भोला था। डंडा खाने के बाद वह यही महसूस करता कि उसे खूंटे से बांध दिया गया है। वह खूंटे से कहीं नहीं हिलता। एक दिन गधा गायब हो गया। धोबी को याद था कि उसने उसे डंडा मारा और खूंटे के पास छोड़ दिया। फिर गधा कहां गायब हो गया। वह खुद को बंधा महसूस क्यों नहीं कर पाया। धोबी ने गधे को काफी तलाशा। एक जगह वह मिल भी गया। देखा कि गधा कचरे के ढेर में पड़ी एक किताब को खा रहा है। किताब में लिखा था- मनुष्य का मनोविज्ञान। शायद ऐसे ही गधे हर किसी को पसंद आते हैं।   
भानु बंगवाल    

Wednesday, 22 May 2013

The Trend Of Simple Mariage ...

बैंड ना बाजा, सीधे फेरे, बस सादगी ही सादगी...
शादी हुई पर हुल्लड़ नहीं। दूल्हा सजा पर बैंड नहीं बजा। ना बाराती नाचे और न ही सड़कों पर जाम लगा। फिर भी शादी हुई। एक नहीं एक साथ दो अलग-अलग शादियां। दोनों ही शादी के मेहमान एक दूसरे को नहीं जानते। फिर भी एक ही छत के नीचे विवाह संस्कार पूरे कराए गए। एक बड़े से हाल में दो शादियों के मेहमान बैठे हैं। आगे दो जोड़े। हर जोड़े के इर्दगिर्द उसके परिचित मेहमान। दोनों जोड़ों के आगे हवन कुंड में आग धधक रही है। सामने मंच पर बैठा पुरोहित मंत्र पढ़ते हैं। जैसा वह कहते हैं, वर वधु वैसी की क्रियाएं करते हैं। जब फेरे होते हैं, तो मेहमान अपने-अपने परिचित जोड़े के ऊपर फूलों की वर्षा करते हैं। ना तमाशा न कोई हुल्लड़, न ही कोई शराब के नशे में। ऐसा ही नजारा देखने को मिला शांतिकुंज हरिद्वार में। अपने आफिस के सहयोगी की शादी में शामिल होने मैं वहां गया था। साथ में चार अन्य साथी भी थे। पता चला कि कई बार तो एक साथ आठ से दस जोड़ों या इससे भी अधिक की शादी कराई जाती है।
वैदिक रीति से कराई जाने वाली इस शादी में जहां सादगी देखने को मिलती है, वहीं आडंबर से दूर ऐसी शादी में खर्च भी काफी कम आता है। यदि किसी की जेब में शादी कराने  के लिए पैसा नहीं है तो उसे सिर्फ पुरोहित को दक्षिणा के रूप में कम से कम मात्र एक रुपये ही देना पड़ता है। वैसे जिसकी जितनी श्रृद्धा हो उतना चलेगा। फेरे हुए शादी भी हो गई। अब बारी थी भोजन की। वर व बधु पक्ष के लोगों का भोजन। भोजन की व्यवस्था भी वहां की कैंटिन में ही थी। इसके लिए हाल बुक थे। हमें बताया गया कि कैंटीन के ऊपर एक हाल है, वहां पर भोजन की व्यवस्था है। सीड़ी चढ़कर पहली मंजिल में पहुंचे। वहां एक हाल के द्वार पर पर्ची में लिखा था दिल्ली वाले। वहीं खड़े एक व्यक्ति ने हमसे पूछा कि आप कहां वाले हो। हने बताया कि देहरादून वाले। इस पर उसने कहा कि शादी कहां वालों की है, जिसमें आप शामिल होने आए हो। हम तो दूल्हे का नाम महेंद्र जानते थे। अब इतना याद जरूर था कि वह चंदोसी का रहने वाला है। हमने बताया कि महेंद्र की शादी में आए हैं, वो चंदोसी का है। इस पर मौजूद व्यक्ति ने कहा कि अभी दो मंजिल और चढ़नी होगी। आप अलीगढ़ वाले हो। शायद अलीगढ़ वाले वधु पक्ष के लोग थे। दूसरी मंजिल के हाल में एक के द्वार में शिमला वाले व दूसरे हाल में कानपुर वाले लिखा था। यानी उक्त हाल शिमला व कानपुर के लोगों ने खाने के लिए बुक कराए होगें। तीसरी मंजिल में हमें अलीगढ़ वाले व नोएडा वाले के नाम से एक हाल के गेट में दो अलग-अलग तख्तियां टंगी मिली। हाल के आधे हिस्से में अलीगढ़ की पार्टी का इंतजाम था, वहीं आधे में नोएडा वालों की। तब हम अलीगढ़ वाले थे। सो अपने स्थान पर गए और सादगी से भरपूर भोजन का आनंद लिया। साथ ही शांतिकुंड से वापस लौटते हुए यह संकल्प भी लिया कि भविष्य में परिवार के किसी सदस्य की शादी होगी, तो मेरा प्रयास यही रहेगा कि शांतिकुंज में ही कराई जाए। ना हुड़दंग, न बैंड, बस सादगी ही सादगी।
भानु बंगवाल 

Thursday, 16 May 2013

Double Centuary...

काफी कुछ सिखा गया ये दोहरा शतक...
वाकई में एक दूसरे का हाल जानने व अपनी बातें शेयर करने में संचार क्रांति ने जितनी तरक्की की, शायद उसकी हमने आज से वर्षों पहले कभी कल्पना तक नहीं की थी। नेट में चाहे चेट हो या फिर, फेस बुक में कविता व लेख आदि। इस बहाने हर एक लिख रहा है। ठीक उसी तरह जैसे कभी हम घर के किसी सदस्य के बाहर रहने पर उसे लंबे-लंबे अंतरदेशीय पत्र लिखते थे। या फिर पत्र को लिफाफे मे डालकर भेजते थे। ऐसे पत्रों से लेखन क्षमता में विकास तो होता ही था, साथ ही देर सवेर हमें एक दूसरे के सामाचार भी मालूम हो जाते थे। आज तो कंप्यूटर के की बोर्ड में अंगुलियां चलाओ और एक झटके में अपनी बात दूसरे तक पहुंचा दो। कितनी छोटी हो गई है अब ये दुनियां।
करीब चार-पांच साल पहले जब ऑफिस में कहा जाता था कि आप नेट से जुड़ो। साइबर कैफे में जाओ और खुद को देश दुनियां में अपडेट रखो को मुझे बुरा लगता था। मेरा कहना होता था कि इतना समय ही कहां है। फिर घर में कंप्यूटर आया। फिर नेट कनेक्शन लिया। तब भी कंप्यूटर का इस्तेमाल सिर्फ वीडियो गेम तक ही सीमित था। फेस बुक के बारे में सुना जरूर था, लेकिन यह नहीं पता था कि क्या होती है। कैसे इसमें अकाउंट खोला जाता है। लिखना चाहता था पर मंच नहीं मिला। हालांकि समाचार पत्रों से जुड़ा होने के कारण स्टोरी तो लिखता था, लेकिन समाचार पत्रों में भी लिखने की बाध्यता है। ऐसे में लिखने की छटपटाहट कैसे पूरी हो इसका समाधान नहीं मिल पा रहा था। ऑफिस में नेहा नाम की एक लड़की थी। उसने ही फेस बुक में मेरा अकाउंट बनाया। एक मित्र गोविंद पोखरिया ने मुझे ब्लाग लिखने को प्रेरित किया। उसने ही बताया कि ब्लाग स्पाट ऐसा मंच है, जहां ब्लाक लिख सकते हो। बेटे ने मेरा ब्लाग स्पाट में अकाउंट खोला और मैने अपना पहला ब्लाग वहीं लिखा। इसके कुछ ही दिन बाद मैने जागरण जंगशन में भी ब्लाग लिखने शुरू किए। 
सुबह से शाम तक हमारे इर्दगिर्द छोटी व बड़ी घटनाएं घटती रहती है। बड़ी घटनाएं ज्यादा चर्चा में आती हैं और वह समाचार भी बन जाती हैं। इसके विपरीत  कई बार छोटी-छोटी बातों पर हम गौर नहीं करते। ऐसी घटनाएं हम अपने तक ही सिमित रखते हैं। या कभी कभार दोस्तों से उन पर चर्चा कर लेते हैं। कई बार घटनाओं को बताने का हमारा अंदाज कुछ ज्यादा रोचक  होता है, ऐसे में वे घटनाएं अक्सर हमारी चर्चा व उदाहरणों में आती है। हम ऐसी घटनाओं से कई बार नया भी सीखते हैं और इनके अच्छे बुरे परीणामों का आंकलन भी करते हैं। जो घटनाएं समाचार नहीं बन पाती, उन्हें ही मैने अपने ब्लॉग में स्थान दिया। ऐसी सच्ची घटनाओं को कभी कहानी का रूप दिया या फिर घटना के इर्दगिर्द खुद की उपस्थिति दर्शाकर मैने ब्लाग लिखे। इसमें मैरे जीवन के अनुभव शामिल रहे। इसीलिए मैने अपने ब्लॉग का नाम अनुभव दिया। बचपन की यादों को मैने ब्लाग में समेटा और व्यक्ति के अच्छे व बुरे चरित्र को कहानी का रूप देकर ब्लाग लिखे। इसमें चाहे कुलटा सीरिज की कहानी हो या फिर कोई अन्य मुद्दे। सभी में मुझे पढ़ने वाले मित्रों का अच्छा सहयोग मिला। कब सौ ब्लाग पूरे हुए और अब दो सौ पूरे हाने जा रहे हैं, इसका मुझे अंदाजा तक नहीं हो पाया।
हां इतना जरूर है कि हर व्यक्ति को किसी न किसी का नशा होता है। किसी को शराब का, किसी को खेल का, किसी को प्रेम का, लेकिन मुझे कंप्यूटर का नशा होने लगा। पहले मैं अक्सर हर दिन या एक दिन छोड़कर लिखता रहा। जब कंप्यूटर खराब हो जाता तो मेरे भीतर एक अजीब की छटपटाहट होने लगती। लगता कि मैं बीमार हो गया। खाने का भी मन नहीं करता। प्रभात हो, दोपहर हो, संध्या हो या फिर निशा। हर वक्त मुझे ब्लाग का ही नशा छाया रहता। मैं अपने बचपन से लेकर बड़े तक की घटनाओं को दिमाग में रिकेपिंग करता और यही सोचता कि किस पर ब्लाग लिखा जा सकता है। वैसे देश ही हालत, राजनीति आदि पर लिखने का मेरा मन इसलिए नहीं होता कि ऐसे लेखों से समाचार पत्र भरे रहते हैं। लोग काफी अच्छा लिखते हैं। मुझे तो वो लिखना है, जो शायद दूसरा न लिखे। यही प्रयास रहता है। इसमें मैं कभी सफल और कई बार असफल भी हुआ।
जागरण जंगशन से मैने काफी कुछ सीखा कि अपनी बात को कैसे आसानी से दूसरों तक पहुंचाया जा सकता है। फिर फेसबुक में भी मैरे अनुभव कुछ खट्टे व कुछ मिट्ठे रहे। चेहरों की इस किताब में किसका चेहरा असली है, यह अंदाजा लगाना मुश्किल है। फ्रेंड रिक्यूवेस्ट आती है तो मैं इसलिए कनफर्म करता हूं कि शायद दूसरी तरफ वाला मेरे ब्लाग जरूर पढ़ेगा। सामने से हो सकता है कि मेरी शक्ल ज्यादा अच्छी न हो, लेकिन कई बार लड़कियों के दोस्ती या कहें साथ जीने व मरने के प्रस्ताव भी आए। हो सकता है कि उन्हें मेरी फोटो ने आकर्षित किया हो। ऐसी ही एक लड़की जब ज्यादा पीछे पड़ी तो उसे मैने समझाया कि मैं कुंवारा नहीं हूं। मेरी पत्नी व दो बच्चे हैं। मैं अच्छा मित्र हो सकता हूं, लेकिन जो आप चाहती हो, वो नहीं हो सकता। मैने उसे अपने परिवार की फोटो भी भेजी और आज वह किसी भी नेक काम के लिए मुझसे सलाह भी लेती है।
बात रही जागरण जंक्शन की। जब तक दिमाग में विचार आते रहेंगे, तो मैं लिखता रहूंगा। क्योंकि मेरी फितरत ही लिखने की है। जब छोटा था तो बड़ी बहन को दिल्ली पत्र लिखता था। साथ ही मौहल्ले की अनपढ़ महिलाएं मुझसे अपने पति, रिश्तेदारों व अन्य परिचितों के लिए पत्र लिखवाती थी। इसका मैने लीली की चिट्ठी, ब्लाग में भी जिक्र किया है। ये ही लोग मुझे लिखना सिखाने वाले पहले गुरु थे। जिन्हें आज तक मैं नहीं भूल पाऊंगा।
भानु बंगवाल

Tuesday, 14 May 2013

We will move together...

हम चलेंगे साथ-साथ.....  
हर माता-पिता का सपना। अक्सर सपना यही होता है कि उनकी औलाद की सही परवरिश हो। बच्चे पढ़-लिखकर काबिल बने। बेटा हो तो अच्छी नौकरी लगे या फिर बिजनेस करे। बेटी हो तो उसके लिए अच्छा सा वर तलाश किया जाए और शादी कर दी जाए। यदि होनहार है तो बेटी की पहले नौकरी लगे व अपने पांव पर खड़ी हो, फिर उसकी शादी कर दी जाए। सपना आगे बढ़ता है और माता-पिता यही देखते हैं कि वे नाती व पौते वाले हो गए। बेटे की औलाद है तो वे दादा-दादी के कंधों पर हर रोज झूल रही है। बेटी जब भी मायके आएगी तो उसके बच्चे नाना व नानी के पास ही रहेंगे। नानी या दादी, पौते-पौती या नाति व नातिन को हर रोज करानी सुनाएगी। हर सुबह लाड व प्यार से गुजरेगी और हर शाम हंसी खुशी मे बीतेगी। ये तो है एक सपना। हकीकत कुछ अलग है। अलग हमने ही की। हकीकत यह है कि पहले बेटा नौकरी या पढ़ाई के लिए बाहर गया। कहा कि पैर जम जाएंगे तो माता-पिता को भी साथ बुला लूंगा। पढ़ाई पूरी हुई, नौकरी भी लगी। शादी भी हुई और बच्चे भी। मां की याद तब आती है, जब बच्चे छोटे होते हैं। आया के हाथ उन्हें सभालने में डर लगता है। तब मां को बुला लिया जाता है। जब बच्चा थोड़ा समझदार होता है, तो मां का कर्तव्य पूरा हो जाता है। वह भी वापस अपने घर या फिर उस दुनियां में वापस लौट जाती है, जहां उसका पति है और कोई नहीं।
आज कुछ इसी तरह की कहानी घर-घर की कहानी बनती जा रही है। परिवार बिखर रहे हैं। जिस बुढ़ापे में माता-पिता को औलाद के सहारे की छड़ी चाहिए थी, उनका वही बुढ़ापा अकेले में कट रहा है। तभी तो विदेशो में भी संयुक्त परिवार का महत्व समझा जाने लगा और 15 मई को विश्व परिवार दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। विदेशों में तो मां-बाप को या फिर बच्चों को एक दूसरे के लिए समय देने के लिए सप्ताह व महीने तक बीत जाते हैं। ऐसे में उनके लिए तो दिन विशेष के मायने हो सकते हैं, लेकिन भारत में क्यों परिवार टूट रहे हैं। क्यों अब व्यक्ति को अकेलापन ही ज्यादा ठीक लगने लगा है। क्यों बच्चे, चाची, ताई, दादी, दादा आदि के साथ नहीं रहते हैं। क्यों बेटा नौकरी के लिए मां-बाप का घर छोड़कर जब निकलता है, तो वापस नहीं आता है। जिस शहर में जाता है, वहीं का होकर रह जाता है। क्यों माता-पिता भी बेटे के बुलाने पर भी वहां रहना पसंद नहीं करते हैं। इस सभी के कारणों पर जाएंगे, तो लंबी बहस छिड़ सकती है। इस बहस का नतीजा भी यही निकलेगा कि मजबूरी में ही बेटा अलग हुआ। सास अपनी बहू के साथ समन्वय नहीं बैठा पाई, वहीं बहू की भी सास से नहीं बनती। फिर परिवार में खाई न बढ़ जाए, ऐसे में चूल्हे अलग करना ही उचित था।
वैसे तो यह प्रकृति का नियम है कि जब भी कोई चीज बढ़ती है तो वह चारों ओर फैलती है। पेड़ बढ़ता है तो उससे फल फूल और बीज निकलते हैं। नई पौध बनती है। यह पौध भी जगह-जगह फैलती है। इसी तरह परिवार भी बढ़ता है तो वह भी चारों दिशाओं में फैलता है। बच्चे घर से बाहर निकलते हैं और दूर-दूर जा कर बसते हैं। यही उचित भी है। हां इतना जरूर है कि चाहे औलाद माता-पिता के साथ रहे या फिर कहीं अन्यत्र। यदि दुख व सुख की हर घड़ी में वह माता पिता के साथ खड़ी है तो इसे भी संयुक्त परिवार कहा जा सकता है। पर इसके विपरीत मैने ऐसे लोग भी देखे, जो दूर तबादला होने के बाद वापस अपने घर तबादला इस आधार पर कराते हैं कि घर में माता-पिता अकेले हैं। उनकी कौन सेवा करेगा। इस आधार पर कई के तबादले हुए भी। कई ऐसे भी निकले, जिन्होंने तबादला माता-पिता के नाम से कराया, लेकिन वापस आने पर माता-पिता के साथ नहीं रहे। उन्हें घर छोटा लगा और नए मकान में रहने लगे। वहीं इसके विपरीत कई की औलाद के नाम पर एकमात्र बेटी ही रही। बेटी ने माता-पिता की आखरी छणों में ऐसे सेवा की, जो बेटा भी नहीं कर पाता है।
गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी, अच्छा करियर आदि जो कुछ भी बहाने हों, ये सब संयुक्त परिवार को तोड़ने के मुख्य कारण हैं। फिर भी मैं पहाड़ों में देखता हूं कि आज भी जहां संयुक्त परिवार है, वहां परेशानी कम ही हैं। पगडंडी वाले सर्पीले रास्तों में बेटा कंधे पर माता या पिता को उठाकर अस्पताल ले जाता है। दुखः व सुख की हर घड़ी में पूरा परिवार साथ रहता है। मजबूरी हो या फिर किसी कारणवश यदि परिवार के सदस्य अलग-अलग स्थानों पर रहते हैं और उनमें आपस में कोई कटुता नहीं है, तो इसे संयुक्त परिवार ही कहने में कोई बुराई नहीं। फिर भी यदि एक घर ऐसा हो, जहां माता-पिता अपनी औलाद व उनके बच्चों के साथ रहते हों, तो इसमें सभी को एक दूसरे से सहारा मिलता है। मेरे पिता नहीं हैं, लेकिन मेरी माता, भाई व मेरा परिवार एक ही छत के नीचे रहता है। कभी हम भी बिखर गए थे। नौकरी के चलते दोनों भाई देहरादून से बाहर रहे। फिर कुछ साल से दोनों की वापसी हुई और आज एक साथ हैं। भले ही हमारा परिवार छोटा है, लेकिन इस संयुक्त परिवार में माताजी के आर्शीवाद की छत्रछाया है। इससे हम अपने को खुश किस्मत समझते हैं। इससे आगे मैं यहीं कहूंगा कि हम चलेंगे साथ-साथ।
भानु बंगवाल

Sunday, 12 May 2013

Come late, leave early ...

देर से आना जल्दी जाना...
शादी के कार्ड में क्रार्यक्रम के अनुरूप तय समय में शायद ही कोई विवाह समारोह में शामिल होने जाता है। कार्ड में लिखा होता है, बारात प्रस्थान सांय छह बजे, तो मेहमान बराती बनने सात से आठ बजे ही पहुंचते हैं। इसी तरह प्रीतिभोज न तो तय समय से ही शुरू हो पाता है और न ही कार्ड में दर्ज समय तक मेहमान ही पहुंचते हैं। इसी तरह कोई सेमिनार हो या गोष्ठी। सभी में पहुंचने वालों में ज्यादा ऐसे ही होते हैं, जो तय समय के काफी देर बाद ही पहुंचते हैं। देरी से आने व जल्दी जाने की फितरत तो हम हिंदुस्तानी में बढ़ती जा रही है। नियत स्थान की बस लेट, ट्रेन लेट, अस्पताल में मरीजों की लाइन खड़ी, पर डॉक्टर लेट। फिर समय से क्या काम होता है, शायद यह बताना काफी मुश्किल हो गया। अब तो प्रकृति के कार्य भी लेट होने लगे हैं। जब इंसान ने हर काम में देरी की तो ये मौसम भी समय से क्यों करवट बदले, वह भी लेट लतीफ होने लगा है।
गरमी, बरसात व सर्दी समय-समय पर आते व जाते रहते हैं। मार्च माह में होली के बाद से गरमी की दस्तक शुरू हो जाती है। साथ ही अप्रैल माह में हमेशा मौसम खुशगवार रहता है। अप्रैल में पेड़ पौधों में फूल खिले होते हैं। कभी बारिश होती है तो कभी तेज गरमी भी पड़ती है। मौसम का मिजाज उस सनकी लड़की की तरह होता है, जो श्रृंगार से लदी होती है। हर तरफ खूबसूरती ही खूबसूरती। इस बार तो अप्रैल सूखा ही चला गया। श्रृंगार से लदी सनकी लड़की भी सूखने लगी। पेड़-पौधे और गमले सूखने लगे। मई की शुरूआत भी ऐसी ही रही। लोग गर्मी से तड़फने लगे। जंगलों में पशु-पक्षी सभी पानी के लिए व्याकुल होने लगे। एक ही आस बादलों से रहती कि हे मेघा तुम कब बरसोगे। हर साल करीब 13 अप्रैल बैशाखी के दिन व उसके आसपास ही बारिश होती थी, लेकिन इस बार अप्रैल माह सूखा चला गया। इसके विपरीत ठीक एक माह बाद 13 मई का दिन ऐसा आया जैसे अप्रैल का महीना हो। यानी मौसम का मिजाज भी एक महिना लेट। देहरादून में रविवार की सुबह हल्के छींटे पड़े। मौसम में ठंडक बढ़ गई। पंखा चलाने में ठंड महसूस की जाने लगी। मौसम खुशगवार हुआ और देर शाम के बाद भी यही मिजाज कायम रहा। कभी कभार छींटे पड़ते रहे। पंखे में जहां कई दिनों से पसीना टपक रहा था, वहीं रविवार को पंखे के स्विच आन तक नहीं किए गए। खिड़की खोलने पर ताजी व ठंडी हवा ही पंखों का काम कर रही थी। देहरादून की खासियत यही है कि जब भी गरमी की तपिश बढ़ती है, अचानक बारिश हो जाती है। इस बार देर से ही सही, लेकिन रविवार के मौसम ने अप्रैल माह का एहसास करा दिया। अब यह हरएक की जुंवा पर यही रही कि मौसम की रवानगी देर से आई, लेकिन जल्द न चली जाए। काश ऐसा ही मौसम कई दिनों तक बना रहे। पहाड़ों में बारिश हो और दून घाटी समेत अन्य मैदानों में मौसम खुशगवार रहे।
भानु बंगवाल
 

Wednesday, 8 May 2013

Mom, Now You Had Become A Child...

मां अब तू बच्चा हो गई.....
हे मां। अब आपको क्या हो गया है। रात को मेरे सोने के बाद ही ना जाने कब सोती थी, मुझे इसका पता तक नहीं चलता था। आप तो सुबह-सुबह मुझसे पहले बिस्तर से उठ जाती थी। जब मैं सोकर उठता तब तक आप नहा-धोकर पूजा भी कर लेती थी। आप जब पूजा के वक्त घंटी बजाती, तब ही मेरी नींद खुलती थी। अब आपको क्या होने लगा है। आपकी आदत बच्चों जैसी होने लगी है।  सुबह भी भले ही आप सोई नहीं होती, लेकिन देरी से बिस्तर से उठ रही हो। नहाने का भी आपको याद नहीं रहता है। न आपको भूख लगती है और न ही आपको कुछ याद रहने लगा है। ऐसा परिवर्तन आपके स्वभाव व आदत में क्यों आने लगा है। छोटी-छोटी बातो पर आपकी जो डांट मुझे बुरी लगती थी, वो अब मुझे सुनाई नहीं देती। मुझे अब आपके बदले व्यवहार से डर लगने लगा है। मां तुम हमेशा वैसी ही बनकर रहो, जो कुछ साल पहले तक थी। हर छोटे-बड़े काम में आपकी सलाह को अब मैं तरस गया हूं। अभी तो आपकी उम्र सिर्फ करीब 88 साल है। मैं तो आपको सौ के पार तक देखना चाहता हूं। 
एक शब्द मां। जिसके साथ हम आप की जगह यदि तू भी लगा दें, तो भी चलता है। क्योंकि मां शब्द में जादू ही ऐसा है। यह शब्द प्रेरणा देता है। जीवन की हर विपत्ति के क्षण में याद आता है। दूसरों से प्यार करना सीखाता है और अच्छाई और बुराई के बीच में फर्क का एहसास कराता है। क्योंकि हम जीवन की शुरूआत मां के आंचल से ही करते हैं। उसी की गोद में रहकर हमें यह अहसास होने लगता है कि क्या सही है या फिर क्या गलत। मां ही हमारी पहली गुरु होती है, जो जीवन पर्यंत सदाचार की सीख देती है।
कड़ी मेहनत, कठिन जीवन संघर्ष के बीच मेरी मां ने हम छह भाई-बहनों का लालन-पालन किया। गांव की सीधी-साधी महिला होने के बावजूद जब वह शहर में रही तो उसने सादगी नहीं छोड़ी। भाई बहनों में मैं सबसे छोटा था। मां ने घर का खर्च चलाने के लिए गाय भी पाली और किसी स्कूल में शिक्षा ग्रहण न करने के बावजूद हम सभी भाई बहनों को क, ख, ग, घ को पहचानना सिखाया। पिताजी ने ही माताजी को अक्षर ज्ञान कराया था और वही ज्ञान माताजी ने हमें पढ़ाने में आगे बढ़ा दिया। मां के आशीर्वाद से सभी भाई बहन की शादी भी हो गई और मां नाती-पौतों वाली हो गई। बच्चे भी अपनी इस नानी या दादी से काफी प्यार करते हैं। मां का मैने भी सदा कहना माना, लेकिन एक बात नहीं मानी, वो कहती थी बेटा शराब ना पिया कर और मैं कहता कि जल्द छोड़ दूंगा। वो जल्द कभी नहीं आ रहा था। शायद मां तब दुखी रहती होगी, लेकिन मुझे तो नशे में नजर नहीं आता था। एक बार मेरे एक मित्र ने पूछा कि तुम जीवन में सबसे ज्यादा प्यार किसे करते हो, मैने तपाक से उत्तर दिया अपनी मां से। बेटा, पत्नी का नाम ना लिया और ना जाने क्यों मेरे मुंह से मां निकला। मित्र ने कहा कि तुम झूठ बोल रहे हो। यदि मां से प्यार करते तो जो शराब छोड़ने को कह रही है, उसका कहना मानते। मां से ज्यादा तुम्हें तो शराब से प्यार है। बस इसी दिन से मैने शराब छोड़ दी। मां तेरे प्यार में कितनी ताकत है। अब चार साल हो गए, लेकिन शराब का मन तक नहीं होता।
उम्र बढ़ने के साथ ही मां के जीवन में अब बदलाव आने लगा है। मेरा बड़ा बेटा करीब 15 साल का है, जो छह माह की की उम्र से ही मेरी मां या अपनी दादी से साथ ही सोता है। दादी भी पौते का ख्याल रखती है। अब मां हर बात भूलने लगती है। साथ ही उसे सुनाई भी कम देने लगा है। मैं उसके लिए कान की मशीन भी लेकर आया, लेकिन उसने नहीं लगाई। कहा कि उसके कान ठीक हैं। बच्चों के साथ उसका कई बार ऐसे झगड़ा होता है, जैसे बच्चे लड़ते हैं। इस बहस का मुद्दा भी बच्चों वाला ही होता है। जो मां सुबह मेरे उठने से पहले ही नहा जाती थी, वह इस बार की बीती सर्दियों में नहाना भी भूलने लगी थी। तब उसे याद दिलाया जाता और नहाने को कहा जाता। अब गर्मियां आ गई तो वह कई बार नार्मल ही नजर आने लगती। पर एक बात और है कि खाने में उसे अब कुछ पसंद नहीं आता। कभी कभार मैगी की मांग करती है, तो कभी सूप की, कभी विस्कुट व जूस की। दाल, चावल व रोटी तो उसके दुश्मन हो गए हैं। न उसके मुंह में स्वाद ही रहा और न ही उसे भूख लगती है। हर सुबह बिस्तर से उठकर मैं यही देखता हूं कि मां कैसी है। बच्चे जब स्कूल चले जाते हैं तब मैं अपना मां का नाश्ता गर्म करता हूं। मां खाने को मना करती है। जबरदस्ती मैं उसे खाना देता हूं। वह चिड़ियों की भांति जरा सा खाती है और बाकी बचा चुपके से फेंक देती है। मानो मुझे पता न चले कि उसने खाया नहीं। अकेले में वह कभी रोने लगती है, कुछ ही देर बाद ऐसा लगने लगता है कि मानो वह बिलकुल ठीक है। अब कभी कभार ही वह मुझे या मेरी पत्नी को गलती पर टोकती है। भले ही मां बच्चों जैसी हो गई है, लेकिन फिर भी मैं इसी बात से खुश हूं कि मेरे पास मां है। उसे अभी मैं 100 के पार तक देखना चाहता हूं और इसी प्रयास में रहता हूं कि उसका स्वास्थ्य ठीक रहे। साथ ही यह चाहता हूं कि वह सिर्फ एक बात भूले। वह यह कि खाना खाने के बाद वह भूल जाए कि उसने खाना खा लिया है और दोबारा खाना मांगे। ताकि चिड़िया की तरह बार-बार खाने से उसका पेट भरा रहे।
भानु बंगवाल

Monday, 6 May 2013

बरात, दुल्हा और सजा ...

दोपहर कड़ी धूप में मैं देहरादून की सड़क से गुजर रहा था तो आगे सड़क पर कुछ जाम नजर आया। कारण यह था कि आगे बारात चल रही थी। बारात की साइड से ही वाहन गुजर रहे थे। मई की दोपहर में सूरज सिर के ऊपर खड़ा था। ऐसे में बारात में बैंड तो बज रहा था, लेकिन बराती नाचने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। शायद वे अपनी एनर्जी तब के लिए बचा कर चल रहे थे, जब बरात दुल्हन के द्वार पहुंचेगी।  दुल्हे ने इस गरमी में सूट कोट पहना था। वो भी काले रंग का। इसे देखते ही मेरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ने लगी साथ ही मुझे मई का वो महिना भी याद आ गया जब मेरी भी शादी हुई थी। तब भी ऐसी ही गरमी थी। माथे से पसीना टपक रहा था। हां इतना जरूर है कि मेरी शादी रात की थी, एसे में बरात के दौरान गरमी में दुल्हा बनकर मुझे कुछ कम सजा भुगतनी पड़ी। पर वहां एक सजा ऐसी थी, जो मैं कभी नहीं भूल पाउंगा।
वैसे तो हर शादी में आकर्षण का केंद्र  दुल्ला व दुल्हन ही होते हैं। सभी लोगों की नजर उन पर ही होती है। इसीलिए दुल्हा भी ऐसी ड्रेस पहनता है, जैसे कोई जादूगर अपने करतब दिखाने मंच पर उतरा हो। वहीं दुल्हन को सजा संवारकर राजकुमारी या परी का रूप दिया जाता है। काम चलाऊ वेतन में मैने शादी के बारे में विचार तक नहीं किया था। देहरादून से दो साल ऋषिकेश तबादला होने के बाद मेरा तबादला सहारनपुर हो गया था। इतना वेतन मिलता था कि मैं अपना पेट आसानी से तो भर लूं, लेकिन घर बीबी लाकर उसके साथ गृहस्थी चलाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। मुझसे बड़ी सभी बहनों व भाई की शादी हो चुकी थी। मैं परिवार में सबसे छोटा था। पिताजी लड़की बताते, लेकिन मैं अपना मामूली वेतन देखकर शादी के नाम से डर जाता। कहते हैं कि यहां संयोग होगा, वही रिश्ता भी बन जाता है। ऐसे ही मुझे सहारनपुर में एक लड़की की मां ने पसंद किया और मुझसे पूछा कि क्या मेरा रिश्ता उनके परिवार से हो सकता है। वैसे मैं विचारों से जाति-पाति को नहीं मानता, लेकिन व्यवहार में इसे उतारना कठिन होता है। मैं उत्तराखंडी ब्राह्मण था और लड़की के परिजन मैदानी क्षेत्र के ब्राह्मण। हमारे व उनमें फर्क सिर्फ बोली का था, जबकि कर्मकांड लगभग एक से थे। शादी के नाम से मैं डर गया। मैने कुछ दिन विचार किया। मुझे लड़की की मां ने पसंद किया था, लेकिन मैने लड़की से कभी बात तक नहीं की थी। ऐसे में कई तरह की दुविधा मेरे मन में थी। फिर भी मै जब माता-पिता से मिलने देहरादून आया तो मैने पिताजी से इस बारे में चर्चा की। उन्होंने यही कहा कि यदि तूझे ठीक लगता है, तो हमें क्या ऐतराज। मैने लड़की से बात की, वो ठीक लगी। फिर उसके माता-पिता को देहरादून आकर मेरे माता-पिता से मिलने के लिए कहा। मैं जल्दबाजी में शादी के पक्ष में नहीं थी। कारण कि मेरे पास शादी के नाम पर खर्च करने के लिए फूटी कौड़ी तक नहीं थी और मैं दहेज के भी सख्त खिलाफ था। पिताजी ने सरकारी नौकरी से सेवानिवृत होने के बाद मकान बना लिया था। मुझसे बड़ी बहन की शादी के बाद वे भी खाली थे और पेंशन पर निर्भर थे।
खैर जैसे-तैसे रिश्ता पक्का हुआ। यह वर्ष 1997 की बात है। शगून के तौर पर मुझे एक रुपये का टीका लगाया गया। मैने कहा कि मैं न तो बारात में भीड़ ही लाउंगा और न ही बैंड-बाजा बजाउंगा। मेरठ में अपने बॉस से संपर्क कर दस हजार रुपये का कर्ज लिया। उस राशि से मैने लड़की के लिए कुछ कपड़े लिए और कुछ अपने लिए। कुछ आभूषण मैने नगद व कुछ उदार लिए। इस खदीददारी में मेरी बड़ी बहन ने मदद की। मेरे पास बरात ले जाने का बजट तक नहीं था।
मैने कार्ड के नाम पर निमंत्रण पत्र कंप्यूटर से टाइप कर उसकी फोटोस्टेट प्रतियां निकाली। देहरादून के कुछ मित्र बारात के लिए अड़े रहे। उन्होंने ही बाराती ले जाने के लिए बस की व्यवस्था तक कर दी। वहीं, सहारनपुर में एक मित्र ने कहा कि मैं तो बारात में नाचूंगा और उसने ही अपनी अंटी से पैसे निकालकर बैंड व घोड़ी तक मंगवा ली। मैं तो साधारण विवाह करना चाह रहा था। जिसमें घर परिवार के कुछ लोग ही सहारनपुर जाएं और विवाह रस्म पूरी कराएं। मई का महिना और ऊपर से 27 तारिख। नियत समय पर हम सहारनपुर पहुंच गए। वहां देखा कि बैंड-बाजा भी है और घोड़ी भी।
गरमी में मैने भी सिल्वर ग्रे कलर का सूट पहना था। इतना पसीना टपक रहा था कि ऊपर से टपकते हुए भीतर ही भीतर मेरे जूतों में भर रहा था। खैर जब बरात चली तो मेरे छोटे दो भांजे मेरे साथ घोड़ी में बैठने की जिद करने लगे। उन्हें समझाया गया कि कुछ दूर तक एक बैठेगा और फिर दूसरा। बरात चली, लेकिन तभी मेरी मुसीबत भी शुरू हो गई। देहरादून में बरात जब चलती है तो सबसे आगे बैंड की ठेली होती है। उसके बाद बराती और पीछे घोड़ी में दुल्हा। यहां उल्टा सिस्टम था। पहले बराती व बैंड वाले। उसके बाद घोड़ी में दुल्हा और दुल्हे के ठीक पीछे लाउडस्पीकर की ठेली। ऐसे में मेरे ठीक पीछे ठेली होने से लाउडस्पीकर की आवाज सीधे मेरे कानों को घायल कर रही थी। कुछ ही देर में मेरे भांजे का सब्र जवाब दे गया। वह घोड़ी से उतर गया। उसके बाद दूसरा बैठा, लेकिन लाउडस्पीकर की आवाज ने उसे भी डरा दिया। वह भी मैदान छोड़ नीचे उतर गया। फिर मैदान में मैं अकेला ही मजबूरीवश डटा रहा। करता क्या घोड़ी से उतरकर चल नहीं सकता था। पहले से पता होता तो कानों में रुईं ठूस लेता। मुझे बरात का आधा किलोमीटर का सफर भी पांच किलोमीटर जैसा लंबा लग रहा था। मेरे कान में सीटी बजने लगी। मैं अपने दोस्तों को कोस रहा था कि उन्होंने बैंड की व्यवस्था क्यों की। मुझे लग रहा था कि या तो मैं बहरा हो जाऊंगा या फिर गश खाकर नीचे गिर जाऊंगा। खैर जब बरात गनतव्य तक पहुंची और मैं घोड़ी से उतर गया, तभी मेरी यह मुसीबत कुछ कम हुई। आज भी जब मैं किसी की बरात देखता हूं तो मुझे बैंड के गानों की धुन के साथ वही चिरपरिचित सीटी सुनाई देती है। जिसे सुनकर मैं अपनी शादी में मेरा ही बैंड बजने लगा था और ये सीटी की आवाज मेरा पीछा नहीं छोड़ती है।
भानु बंगवाल

Saturday, 4 May 2013

Telephone ...

टेलीफोन....
छुट्टी का दिन हो तो यही कामना रहती है कि टेलीफोन की घंटी न बजे। साथ ही मोबाइल भी शांत रहे। किसी बारे में सोचना और व्यवहारिकता में काफी फर्क है। कई बार तो छुट्टी के दिन सुबह-सुबह ही फोन व मोबाइल घनघनाने लगते हैं। ऐसे में कई बार पूरा दिन भागदौड़ में ही बीत जाता है। सुबह तड़के आने वाले फोन ज्यादातर अप्रिय समाचार वाले ही होते हैं। ऐसे में सुबह के समय फोन की घंटी न बजे। यही मैं अक्सर सोचता रहता हूं, लेकिन होनी पर किसका जोर है। जो होना हो तो होकर ही रहता है।
सच पूछो तो संचार के साधन जितने बढ़े उतना ज्यादा ही लोगों के पास वक्त कम हो गया। पहले न तो टेलीफोन थे, न ही टेलीविजन। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय समाचार रेडियो व समाचार पत्रों से ही मिल जाते थे। परिचितों व नातेदारों की सूचना टेलीफोन से मिलती थी। छोटे में मुझे टेलीफोन देखने का सौभाग्य पिताजी के आफिस में ही मिला। आफिस हमारे घर से करीब पांच सौ मीटर दूरी पर स्थित था। वहां कुछ अफसरों के कमरों में फोन थे। मैं बचपन से ही आफिस परिसर में घूमता रहता। अधिकतर अधिकारी व कर्मचारी मुझे पसंद करते थे। किसी को मैं अंकल कहता और किसी को भाई साहब। मेरी इच्छा होती कि टेलीफोन से किसी से बात करूं, लेकिन किससे करूं यह मैं नहीं जानता था। जब कोई फोन से बात करता तो मैं उसके बगल में खड़ा होकर यह जानने की कोशिश करता कि दूसरी तरफ से कैसी आवाज आ रही है। हां तब हम बच्चे टेलीफोन का खेल भी खेला करते थे। माचिस की डिब्बी से दो टेलीफोन बनाते। दोनों का संपर्क लंबे धागे से जोड़ते। फिर काफी दूरी पर एक बच्चा उसमें बोलता और दूसरा बच्चा कान पर लगाता। धागे से आवाज की तंरगे फोन रूपी एक डिब्बी से दूसरी डिब्बी तक पहुंचती। अस्पष्ट सा कुछ-कुछ सुनाई देता और हम खुश होते कि बच्चों के पास भी टेलीफोन है।
उन दिनों दुख की घटना का समाचार तार से भेजा जाता था। किसी के घर तार पहुंचा तो समझो उस परिवार पर कोई विपदा आ गई हो। वहीं, टेलीफोन से भी समाचार दिए जाते, लेकिन इसके लिए फोन करने वाले व सुनने वाले को भी उसकी कृपा दृष्टि चाहिए होती, जिसके पास फोन है। मसलन पिताजी के आफिस में कई बार दिल्ली से बहन व जीजा का फोन आता। रिसिव करने वाला वाबू उठाता और फिर बात होती कि उन्हें बुला रहे हैं, कुछ देर बाद फोन करना। पिताजी को फोन की सूचना  मिलती, तो उनके साथ मैं भी चला जाता। मेरी इच्छा होती कि मैं भी फोन से बात करूं। एकआध बार उन्होंने मुझे भी फोन थमाया, लेकिन क्या बोलूं, यह मुझे सूझता तक नहीं था।
नब्बे के दशक में संचार क्रांति ने तेजी से विकास किया। वर्ष 82 के दौरान रंगीन टेलीविजन घर-घर नजर आने लगे। 1990 के बाद से तो टेलीफोन भी घर-घर में दिखाई देने लगे। फिर भी टेलीफोन लगाना आसान नहीं था। इसके लिए बाकायदा बुकिंग होती थी। जब कागजी औपचारिकता पूरी हो जाती, तो दो से तीन साल फोन कनेक्शन जोड़ने में लगते थे। कुछ शहरों में तबादलों को झेलकर वर्ष 99 में मैं वापस देहरादून आया। मैने भी फोन के लिए अप्लाई किया। तब भी घर में फोन लगाने में दो से तीन माह लग रहे थे। मैने कागजी औपचारिकताएं एक दिन में ही पूरी कर ली। बुकिंग कराई और सिकियोरिटी की राशि भी जमा करा दी। फोन सिफारिशी व कोटे का था। ऐसे में तब सिर्फ एक्सचेंज से ही एक लाइनमैन ने घर आकर कनेक्शन जोड़ना था। एक दिन में सारा काम पूरा होने के बाद मामला जूनियर इंजीनियर स्तर पर पहुंचा। वह काफी घाघ था। इंजीनियर मुझसे पैसे चाह रहा था, लेकिन मैं रिश्वत से खिलाफ था। इंजीनियर ने जो काम एक दो दिन में करना था, उसे टालते हुए उसने तीन दिन लगा दिए। इस पर मैने उसे रिश्वत लेते गिरफ्तार करने की योजना बनाई। वह पांच सौ रुपये मांग रहा था। मैं उसे सीबीआई से पकड़वाना चाह रहा था। इसका जिक्र मैने अपने एक परिचित से भी कर दिया, जो टेलीफोन एक्सचेंज में ही कार्यरत था। एक रात मैं जब आफिस से घर पहुंचा दो देखा कि टेलीफोन लगा हुआ है। हालांकि उसमें करंट नहीं दौड़ रहा था। घर में मैने पूछा कि इंजीनियर ने पैसे तो नहीं मांगे। इस पर पिताजी ने ना मे जवाब दिया। शायद परिचित ने ही इंजीनियर को आगाह कर दिया था। खैर अगले दिन फोन में करंट भी दौड़ गया। हमारा ये फोन काफी साल तक आस-पड़ोस के लोगों के लिए भी संचार का सुविधाजनक सहारा बना रहा। पड़ोसियों ने मेरे नंबर इतने लोगों को बांटे थे, जितने शायद मैने भी नहीं बांटे। मेरे फोन कम और लोगों के ज्यादा ही आते थे। खैर रात के 12 बजे तक भी मैने लोगों की फोन में बात कराई। जब ज्यादा परेशान हो जाता तो मैं यही सोचता कि कब इन फोन से छुटकारा मिलेगा। फिर जब मोबाइल क्रांति का दौर शुरू हुआ तो धीरे-धीरे लैंड लाइन पर लोगों के फोन आने बंद हो गए। अब लैंडलाइन फोन कभी कभार ही बजता है, लेकिन मोबाइल का कोई समय नहीं है। कभी परिचित की काल, तो कभी मिस काल। जब ये भी न हो तो तब किसी कंपनी का मैसेज कि मैं एक करोड़ डालर जीत गया हूं। फोन की जो घंटी बचपन में मुझे अच्छी लगती थी, अब उसे सुनकर कई बार गुस्सा आता है, लेकिन फोन है तो बजेगा ही। अच्छी खबर भी आएगी और बुरी भी।
भानु बंगवाल