Monday, 30 July 2012

कसक आम की, क्यों बनाया खास....

मैं एक आम आदमी हूं। नहीं-नहीं गलत कह गया। आम आदमी से भी ज्यादा बदतर। क्योंकि आम आदमी तो शायद सभ्य होता है। सभ्य इसलिए कि वह पढ़ा लिखा होता है, लेकिन मैं तो कभी स्कूल तक नहीं गया। इसलिए आम की श्रेणी में भी नही आता। माता-पिता मजदूरी करते थे। हम सभी छह भाई बहनों को स्कूल भेजने की बजाय घर पर ही रखा गया। जब बड़े होने लगे तो बहनों ने घर का काम संभाला और मेरे साथ तीन भाई मजदूरी करने लगे। कितना प्यार था उस समय में। किसी मुसीबत में सभी रिश्ते व नाते के लोग मदद को खड़े हो जाते थे। जब बड़ा हुआ तो यही महसूस किया कि यदि मुझे स्कूल भेजा जाता तो शायद मैं भी आम आदमी से ऊपर की श्रेणी तक तो पहुंच सकता था। जहां ठाटबाट की जिंदगी लोग गुजर बसर करते हैं। कुछ साल तक किताब को पढ़ने में वाकई जादू है। जो जितनी पढ़ता है, उतना ही बड़ा हो जाता है। मेरी शादी हुई और बच्चे। नहीं-नहीं, बच्चे नहीं, एक बेटा। दूसरी औलाद इसलिए नहीं चाही कि फिर मेरी तरह बच्चे भी आम आदमी से बदतर हो जाएंगे। एक बेटे को अच्छे स्कूल में डालकर उसे सभ्य व्यक्ति बनाना मेरा लक्ष्य बन गया। मैने बेटे को अच्छे स्कूल में डाला। मजदूरी करके किसी तरह फीस का जुगाड़ करता रहा। तब मुझे पता चला कि स्कूल भी दिखावे के होते हैं। सारी पढ़ाई तो बच्चों को घर में ही करनी पड़ती है। मैडम तो कापी चेक करती है या फिर टैस्ट लेती है। पढ़ना, लिखना व नए पाठ को समझाने वाला घर में कोई नहीं था। मैं अनपढ़, जाहिल, गंवार बेटे को घर में कैसे पढ़ाऊं। फिर बेटे को ट्यूशन लगाई गई। खुद की जरूरत की चीजों में कटौती कर बच्चे की शिक्षा पर खर्च करता रहा। कड़ी मेहनत व मजदूरी करने व भरपेट खाना न खाने से मैं जल्द ही बूढ़ा दिखने लगा।
बेटे ने पढ़ाई पूरी की और शहर के बाहर निजी कंपनी में नौकरी करने लगा। पहले हर सप्ताह मिलने को घर आता, फिर एक माह के अंतराल में आने लगा। एक बार तो छह माह के अंतराल में आया। मुझे लगा कि वह तो आम आदमी की श्रेणी से ऊपर उठ चुका है। अब उसके पास समय नहीं बचा। गाड़ी, बंगला सभी कुछ है उसके पास। मेरी तरह गांव में कच्चे मकान में नहीं रहता। काफी ज्ञानी है। भला-बुरा समझता है। वह तो मुझे और पत्नी को अपने साथ ही ले जाना चाहता है। क्योंकि वह हर बार घर पहुंचने पर साथ चलने को कहता था, लेकिन जब भी वापस जाता तो तब साथ चलने की जिद नहीं करता और... चलता हूं कहकर चुपचाप चला जाता। हम ही इसलिए नहीं जाते कि सारी जिंदगी गांव में बिताई। बुढ़ापे में शहर में जाकर क्या करेंगे। हां एक बार जरूर दुख हुआ जब उसने शादी की और बताया तक नहीं। शादी के बाद जब उसके बच्चे हो गए, तभी वह एक दिन कुछ घंटों के लिए घर आया। घर में बिजली, पंखा नहीं था। ऐसे में वह होटल में रहा और फिर चला गया। हां बेटा हर बार यह जरूर पूछता रहा कि कोई जरूरत तो नहीं है, लेकिन कभी उसने कोई मदद नहीं की। मकान की दीवारें जर्जर हो चुकी हैं। मरम्मत के लिए कभी उसने पैसा तक नहीं दिया और न ही मैने मांगा। जब तक शरीर में ताकत थी कि तब तक घर की गाड़ी खींच रही थी। अब तो मैं और पत्नी दोनों में कोई न कोई बीमार भी रहने लगा है। कई बार तो घर में चूल्हा तक नहीं जलता। कई बार आस-पडो़स के लोग ही मदद करते हैं। अब बेटे की जरूरत महसूस होने लगी है, लेकिन वह तो पिछले सात साल से बच्चों संग अमेरिका में रह रहा है। न कोई चिट्ठी पत्री और न ही कोई फोन तक आता है। अब मन में यही कसक उठती है कि मैने बेटे को आम आदमी से हटकर अलग क्यों बनाया।....
भानु बंगवाल
 

Saturday, 28 July 2012

जब चली कलम तो भागा भूत.....

भूत, प्रेत, जादू, टोना, गंडे आदि के बारे में मैने बचपन से ही सुना था, लेकिन कभी भूत नहीं देखा। हां मेले में जादू अक्सर देखता था, लेकिन जल्द ही जादू मेरी पकड़ में आने लगा। सो मेरी दृष्टि में यह सिर्फ हाथ की ही सफाई थी। भूत के बारे में कई बार लोग किस्से सुनाते थे, लेकिन मैं उस पर यकीन नहीं करता था और आज भी नहीं करता हूं। वैसे भूत-प्रेत का जिक्र ऐसे स्थानों पर ही ज्यादा होता है, जहां जंगल हो, सुनसान हो, वीरान हो। पहाड़ों में तो व्यक्ति दो ही वस्तु से डरता है। उनमें एक बाघ है और दूसरा भूत। पहाड़ों में रात को सन्नाटे में जब हवा चलती है तो पेड़ की पत्तियों से भी आवाज आती है। यही नहीं रात को शिकार की तलाश में बाघ भी आबादी वाले इलाकों में विचरण करते हैं। ऐसे में कई बार तो लोग बाघ के चलने की सरसराहट को ही भूत समझ लेते हैं। खैर मेरे घर का माहौल ऐसा रहा कि किसी भी बात को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते रहे। ऐसे में मेरे से बड़े भाई व बहन कोई भी भूत की बातों का विश्वास नहीं करता।
अब रही भूत की बात। कई बार तो हमारे मीडिया से जुड़े लोग भी अंधविश्वास के किस्सों को बड़े चटपटे अंदाज से प्रस्तुत करते हैं। घटना की तह तक जाने का कोई प्रयास नहीं करता। इसी का परिणाम है कि वर्ष 94 में पूरे हिंदुस्तान में अचानक गणेश जी दूध पीने लगे। कई बार साईं बाबा की फोटो से दूध टपकने लगता है। साथ ही कई बार स्वाभाविक घटनाओं को चमत्कार के नजरिये से देखा जाता है।
ऐसी ही एक घटना मुझे याद है। करीब तीस साल पहले की बात है। देहरादून के गढ़ी कैंट क्षेत्र के अंतर्गत अनारवाला गांव में एक व्यक्ति के घर में भूत का वास होने की चर्चा पूरे शहर में आग की तरह फैलने लगी। एक पुराने मकान में रिटायर्ड फौजी रहता था। उसके मकान में रखा सामान अचानक धूं-धूं करके जलने लगता। ऐसे में फौजी ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ घर से दूर एक पेड के नीचे शरण ले ली। घर का कीमती सामान पेड़ के नीचे रख दिया गया। बचे सामान में कभी किसी पर और कभी किसी पर आग लगती। यहां तक कहा जाने लगा कि मकान में रात को पत्थरों की बरसात भी होती है। अनारवाला गांव में भूत वाले मकान को देखने के लिए दिन में लोगों का तांता लगने लगा था।
उस समय अमूमन सभी समाचार पत्रों ने मकान में भूत होने की घटना को बढ़ाचढ़ा कर प्रकाशित किया। तब मेरा बड़ा भाई एक स्थानीय समाचार पत्र में क्राइम रिपोर्टर था। वह भी घटना की तहकीकात करने गांव गया। कुछ दिन लगातार वह भूत वाले घर में गया। वहां उसने देखा कि मौके पर कोई भी मौजूद नहीं रहता और आग लग जाती है। इस आग लगने का कारण जानने के लिए मेरे भाई ने मेरी ग्याहरवीं की रसायन शास्त्र की किताब तक पढ़ डाली। फिर एक दिन आग के रहस्यों पर सवाल उठाते हुए समाचार पत्र में लेख प्रकाशित कर दिया। उस लेख में भवन स्वामी पर ही अंगुली उठाई गई। साथ ही यह भी बताया गया कि फौज में रहने के कारण भवन स्वामी को रसायनो के बारे में भी जानकारी है। लेख में स्पष्ट किया गया कि सफेद फास्फोरस आदि के घोल में भीगी वस्तु जब हवा के संपर्क में आती है तो उसमें अपने आप ही आग लग जाती है। पूर्व फौजी के मकान में आग लगने के कारणो में यह समझाया गया कि मकान पुराना हो चुका है। ऐसे मे नया मकान बनाने के लिए कहीं वह ग्रामीणो की सहानुभूति तो चाहता। क्योंकि उस समय गांव के लोग चंदा एकत्र कर जरूरतमंद की मदद भी करते थे। समाचार पत्र में लेख छपने के बाद मकान में आग लगनी भी बंद हो गई। भवन स्वामी अपने  परिवार के साथ उसी मकान में शिफ्ट कर गया, जहां भूत रहता था।  
भानु बंगवाल

Thursday, 26 July 2012

सस्ता लालच, बड़ा नुकसान..

जब मैं छोटा था तब देखता था कि देहरादून के तिब्बती मार्केट (वर्तमान में इंदिरा मार्केट) में कपड़े की ठेली पर अक्सर लोगों की भीड़ रहती थी। ठेली पर पेंट, शर्ट के पीस होते थे। कपड़े बेचने वाला भी भीड़ जुटाने के लिए अलग तरीके का फंडा अपनाता था। वह चिल्लाता कोट, पैंट, सूट का कपड़ा दो-दो रुपये में। करीब तीस-पैंतीस साल पहले तक सस्ता जमाना तो था, लेकिन इतना भी नहीं कि दो रुपये में कपड़े मिल जाएं। हां दस या बारह रुपये में बच्चे की नेकर जरूर मिल जाती थी। दो रुपये में पेंट व शर्ट के कपड़े की लालच में ठेली पर जमकर भीड़ हो जाती। लोग कपड़ों को उलट-पलट कर देखने लगते। तभी कपड़े बेचने वाला किसी नाटक के सूत्रधार की तरह भूमिका बांधनी शुरू करता। वह कहता कि भाइयों व बहनों दो रुपये में कहीं भी कपड़ा नहीं मिल सकता। कंपनी की स्कीम के तहत वह कपड़ा बेच रहा है। वह एक पीस दिखाएगा। ग्राहकों को दो रुपये से बोली लगानी होगी। सबसे अधिक बोली लगाने वाले को कपड़ा बेचा जाएगा। यदि कपड़े की आखरी बोली इतनी कम लगी कि उससे कपड़े की कीमत वसूल नहीं हो रही है, ऐसे ग्राहक को कपड़ा बेचने की बजाय, दो रुपये ईनाम में दिया जाएगा।
बस क्या था कपड़े की बोली लगनी शुरू हो जाती। भीड़ लालच में कपड़े को जांचे परखे ही अपने-अपने हिसाब से बोली लगाती। आखरी बोली वाले को कभी कपड़ा बेचा जाता और कभी इतनी राशि में कपड़ा देने पर नुकसान बताकर दो रुपये दे दिए जाते। हर दिन जब मैं यह तमाशा देखने लगा तो मुझे इसके पीछे का खेल भी समझ आने लगा। भीड़ में शामिल कई लोग कपड़ा बेचने वाले के साथी होते थे। वे भीड़ में शामिल होकर बोली लगाते थे। इस बीच यदि कोई आम ग्राहक बोली लगाता तो उसके साथी आगे की बोली लगाते। ग्राहक की बोली में यदि कपड़े की लागत निकलती, तो उसे कपड़ा बेच दिया जाता। अन्यथा विक्रेता के साथी ही आगे बोली बढ़ाकर ईनाम की राशि लेते। इस खेल में सस्ते कपड़े को महंगी कीमत में खरीदकर हर दिन काफी संख्या में लोग ठगे जाते।
आज देखता हूं कि तब की तरह आज भी सस्ते लालच के फेर में पड़कर लोग अक्सर ठगी का शिकार हो जाते हैं। बाजार का सीधा फंडा यह है कि एक के साथ एक मुफ्त, गिफ्ट आयटम की आफर दी जाए तो कबाड़ के भी जल्दी खरीददार मिल जाते हैं। अक्सर मैं इसी तरह की ठगी के किस्से पत्नी व अपने साथियों को सुनाता रहता हूं। इसके पीछे मेरा मकसद यही होता है कि लालच के फेर में पड़कर वे भी ऐसी गलती न कर बैठें। खुद को मुसीबत में बताकर सस्ते में सोना बेचने वाले ठग अक्सर सड़कों पर लोगों को मिल जाते हैं। यदि कोई लालच में फंसा तो वह सोने के बदले अपनी अंगूठी व चेन तक ऐसे ठगों को सौंप देता है और बदले में उससे नकली सोना ले बैठता है। वह यह भी नहीं समझ पाता है कि सोने के बदले वह सोना क्यों दे रहा है। फिर भी लालच ऐसी बला है कि इसके आंखों में समाते ही व्यक्ति को सही व गलत की सूझ भी नहीं रहती।
बात करीब छह साल पहले ही है। एक दिन दोपहर के समय मेरी पत्नी का फोन आया कि सीधे घर चले आओ। अचानक ऐसे फोन से किसी अनहोनी की आशंका से मैं डर गया। मैने पछा कि पहले बता माजरा क्या है। उसने बताया कि एक व्यक्ति ने सोना चमकाने के नाम पर उसकी चेन टुकड़ों में बदल दी। उसे पड़ोसियों की मदद से घर में बैठाया हुआ है। मैं समझ गया कि लालच में पड़कर मेरी पत्नी भी चेन गंवा बैठी। घर पहुंचा तो करीब 19 वर्षीय युवक को आंगन में बैठा देखा। पत्नी ने बताया कि वह युवक अपने एक साथी के साथ आया था। उसने कहा कि सोना चमकाने का पाउडर बेच रहा है। सेंपल के तौर पर उसने एक पुड़िया पत्नी को दी। कहा कि इसकी परख खुद ही कर सकते हो। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदंन वाली कहावत का परिणाम कितना नुकसानदायक होगा, यह शायद पत्नी को भी नहं पता था। उसने पाउडर लिया और चेन में लगाया। इस पर युवक ने कहा कि आपने चेन पर गलत तरीके से पाउडर लगा दिया। अब चेन काली पड़ जाएगी। इस पर पत्नी ने उसे चेन को ठीक करने को कहा। बस यही वह चाहता था। उसने एक कैमिकल के घोल में चेन डुबाई। यहां युवक भी चूक कर गया, या फिर वह ठगी की इस लाइन का नया खिलाड़ी था। ज्यादा लालच के फेर में उसने चेन को कुछ ज्यादा ही देर केमिकल में डूबा दिया। चेन का सोना गलकर केमिकल में घुलता चला गया। सोना कुछ ज्यादा ही कम हो गया और चेन कमजोर पड़कर कई हिस्सों में टूट गई। यदि चेन नहीं टूटती तो मेरी पत्नी को इस ठगी का पता भी नहीं चलता। अब झगड़ा चेन ठीक करने को लेकर हो रहा था। तब तक युवक का साथी मौका पाकर भाग चुका था। वह उस रसायन को भी साथ ले गया, जिसमें चेन का सोना घुला हुआ था। इस युवक को पुलिस के हवाले कर दिया गया। पुलिस भी उससे उसके साथी का नाम व पता, गिरोह के संचालक का नाम आदि नहीं उगलवा सकी। करीब डेढ़ तोले की चेन में मुश्किल से आधा तोला ही सोना बचा था, जो हमें कभी वापस नहीं मिला। घटना के दो साल बाद न्यायालय का सम्मन घर आया, उसमें पत्नी को बयान के लिए उपस्थित होने को कहा गया। तब तक वह घटना की तारिख व वार तक भी भूल गई थी। खैर कोर्ट में पहुंचकर हमें ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे हम भी अपराधी हों। दूसरे तो हमें भी अपराधी की ही नजर से देख रहे थे।  करीब चार घंटे में तीन घंटे अपनी बारी के इंतजार में व एक घंटा बयान में बीता। तब जाकर छुटकारा मिला। युवक को सजा हुई या नहीं हुई, इसका मुझे पता नहीं है। हां एक दिन उस युवक को मैने देहरादून के एक मोहल्ले की गली में जरूर देखा। उसकी पीठ वही झोला लटका हुआ था, जो हमारे घर आने के दौरान उसके पास था। शायद उसके झोले में सोना घोलने वाले वही केमिकल थे, जिससे वह सोना चमकाने के नाम पर सोना गायब कर देता है। .............   
भानु बंगवाल

Monday, 23 July 2012

गलती न दोहराने का पाठ पढ़ा गया चूहा....

कुछ दिन से घर में चूहों ने उछलकूद मचा रखी थी। इनसे छुटकारा पाने से लिए मैं हर बार नया टोटका इस्तेमाल करता हूं। चूहे ही क्यों, कॉकरोच के लिए भी एक फार्मूला कामयाब नहीं होता। यदि पहली बार हिट से भागते हैं, तो अगली बार कॉकरोच में उसे सहने की शक्ति आ जाती है। ऐसे में हर बार मुझे उनसे छुटकारा पाने के नए तरीके तलाशने पड़ते। इसके लिए कीटनाशक बदलता, लेकिन एक दिन ऐसा आया उन पर कोई भी कीटनाशक कारगार साबित नहीं हुआ। वो तो भला हो मेरी बहन का। उसने बताया कि बोरिक पाउडर में उसके बराबर आटा मिला लो। साथ ही उसमें एक चम्मच हल्दी व एक चम्मच चीनी मिलाकर सब को गूंद लो। इस पेस्ट को कीचन में दीवारों के सभी छिद्रों में भर दो। साथ ही इससे स्लैब व दीवार से सटाकर एक लाइन खींच दो। कम से कम छह माह तक कॉकरोच नजर नहीं आएंगे। यह फार्मूला फिलहाल कारगार साबित हुआ और घर में कॉकरोच से फिलहाल निजात मिली हुई है। पर चूहे इनका क्या किया जाए।
पड़ोसी की एक बिल्ली है। वह कभी-कभी हमारे घर भी आ जाती है, लेकिन मजाल है कि चूहे मारे। पडो़सी उसे पेट भरकर दूध पिलाता है और बिल्ली का पेट भरा रहता है। ऐसे में वह क्यों चूहे मारेगी। घर में चहलकदमी करने के बाद वह म्याऊं -म्याऊं करती वापस चली जाती है। जब कभी मौका मिलता है तो दूध इतनी सफाई से चुरा कर पीती है कि बर्तन में मलाई की परत तक नहीं टूटती। नीचे से दूध कम हो जाता है। चूहों को मारने का जहर भी मैं इस्तेमाल कर चुका हूं और अब चूहे उसे खाते भी नहीं। यदि खाते हैं, तो भी जहर का उन्हें असर नहीं होता। ऐसे में एकमात्र उपाय चूहेदानी ही सही नजर आया। पत्नी ने आटे में असली घी के साथ कुछ चीनी भी मिलाई। फिर एक सख्त रोटी बनाकर चूहेदानी में फिट कर दी गई। बच्चों वाले घर में खाने-पीने की काफी चीजें डस्टबीन में फेंकी जाती हैं। ऐसे में चूहे क्यों रूखी रोटी खाने चूहेदानी तक जाएंगे। इसी के मद्देनजर घी व चीनी मिलाकर रोटी चूहेदानी में लगाई गई। एक रात रोटी लगाई और कुछ ही देर बाद चूहेदानी में चूहा फंस गया। वह चूहा काफी बड़ा था, जिसे छुछुदंर भी कहा जाता है। मैने बेटे को घर से दूर चूहेदानी को खोलकर छुछुंदर को छोड़ने को कहा। इस पर मेरा बेटा चूहेदानी लेकर घर से बाहर निकला। गेट से काफी आगे एक नाली के पास उसने चूहेदानी खोल दी और वापस आ गया। उसके पीछे-पीछे छुछुंदर भी आने लगा। उसे देख बेटे ने भगाने का प्रयास किया तो वह किसी दूसरे के गेट के भीतर घुस गया। खैर हमने राहत की सांस ली कि अब चूहे से छुटकारा मिल गया। चूहा पड़ोस के जिस घर में घुसा वहां बच्चे नहीं रहते। खाना खाने के दौरान उस घर में कोई न तो बच्चो की तरह नखरे ही करता है और न ही थाली में खाना छोड़ता है। ऐसे में जितना पकाया उतना ही खाते हैं। चूहे को वहां शायद वेस्ट भोजन नहीं मिला और तीन दिन बाद वह हमारे घर पहुंच गया। अब यह चूहा और शातिर हो गया। वह चूहेदानी में लटकी रोटी की तरफ देखता तक नहीं। जब रात को बत्ती बंद की जाती है, तो उसकी आवाज भी बच्चों को डराती है। 
इस चूहे को देखकर मुझे यह आश्चर्य भी हुआ कि वह चूहेदानी में दोबारा फंसने की गलती नहीं कर रहा है। पहली गलती से ही उसने सबक ले लिया था। फिर उसने कभी चूहेदानी की तरफ रुख नहीं किया। चूहेदानी में रोटी का टुकड़ा उसके इंतजार में सूख कर कड़ा हो गया। काश इस चूहे से इंसान भी सीख लेता। इंसान तो गलती दर गलती करता जा रहा है। साथ ही वह गलती को मानने को भी तैयार नहीं होता। बार-बार लालच में पड़कर वह अपना नुकसान कर बैठता है। जानबूझकर वह काम, क्रोध, लोभ, द्वेष आदि के जाल में अक्सर फंसता चला जाता है। 
भानु बंगवाल

Saturday, 21 July 2012

बहाना बनाना, पर फंस न जाना (रविवार विशेष)

बात-बात पर बहाना बनाने वाले भी कमाल के होते हैं। उनके पास बहानों की लंबी सूची होती है। वे हर बार नया प्रयोग करते हैं और बहाना बनाने में कामयाब हो जाते हैं। वैसे तो बहाने बनाने के लिए कोई विषय निर्धारित नहीं होता। कई बार तो व्यक्ति जरूरत पड़ने पर मजबूरन बहाना बनाता है और कई की बहाना बनाने की आदत ही बन जाती है। सरकारी दफ्तर हों या निजी संस्थान। कहने को सभी में कर्मचारियों की छुट्टी व साप्ताहिक अवकाश की सुविधाएं होती हैं, लेकिन कई बार कर्मचारियों को साप्ताहिक अवकाश से लाले तक पड़ जाते हैं। एक साथ कई कर्मचारियों के छुट्टी पर जाने से अन्य की छुट्टी निरस्त कर दी जाती है। ऐसे में बहाना बनाने वाले ही अपनी चालों से विपरीत परिस्थितियों में छुट्टी लेने में कामयाब हो जाते हैं।
बहाने भी कई तरह के हैं। यदि एक या दो दिन की छुट्टी चाहिए तो बुखार या लूज मोशन का बहाना चल जाता है। लंबी छुट्टी के लिए गांव में पूजा, पीलिया की बीमारी आदि का बहाना। ऑफिस पहुंचने से पहले ऐन वक्त पर छुट्टी मारने वाले किसी को भी लुढ़का देते है। ऐसे लोगों को यह भी याद रखना पड़ता है कि पहले वे किसे लुढ़का चुके हैं। दोबारा दूसरे व्यक्ति की मौत का बहाना करते हैं। कई बार तो ऐसे बहानेबाज अपने मोहल्ले के किसी व्यक्ति व दूर के रिश्तेदार की मौत पर छुट्टी मार देते हैं। भले ही वे मरने वाले के घर तक नहीं जाते।
छुट्टी पाना भी व्यक्ति का अधिकार है। क्योंकि जब बात-बात पर छुट्टी पर रोक लगती है, तभी बहानेबाज भी सक्रिय हो जाते हैं। बहाना मारने वाले तो बहाना मारते हैं, लेकिन उनके ही कई सहयोगी काट को तैयार रहते हैं। ऐसे में बहानेबाजों को परफेक्ट बहाने की तलाश रहती है। क्योंकि ऐसे मौकों पर शादी का बहाना नहीं, चलता जब शुभ मुहूर्त नहीं होते।
एक दफ्तर में बहानेबाज महाशय ने फोन किया कि वह बीमार है। पेट दर्द हो रहा है। लूज मोशन भी है। छुट्टी तो मिल ही गई। इस पर महाशय शाम के समय यह सोचकर बाजार निकले कि यदि कोई देखेगा तो सफाई दे देंगे कि डॉक्टर के पास गए थे। घर जाते समय महाशय की जीभ लपलपाने लगी और चाऊमिन की ठेली पर खड़े होकर ठाठ से चाऊमिन खाने लगे। ऑफिस का कोई देख न ले इस भय से उन्होंने हेलमेट तक नहीं उतारा। फिर भी एक सज्जन ने उन्हें देख ही लिया। उसे देखने वाले ने ऑफिस पहुंचते ही सबसे पहले सभी को इसकी सूचना दी।
अक्सर पत्रकारों को देर रात दफ्तर से निकलने के बाद भी यह निश्चिंतता नहीं रहती कि वे समय से घर पहुंचेंगे। कई बार उन्हें दोबारा ऑफिस जाकर समाचार तैयार करने पढ़ते हैं। कई संस्थानों में तो यह व्यवस्था रहती है कि देर रात को रिपोर्टर डेस्क से सहयोगियों को समाचार फोन से लिखा देता है। एक संस्थान के संपादक को रात को अक्सर रिपोर्टर को वापस बुलाने की आदत थी। ऐसे में सभी रिपोर्टर दफ्तर से निकलने के बाद दोबारा न आने का बहाना तलाशते रहते। एक दिन एक रिपोर्टर ऑफिस से निकलने के बाद घर के रास्ते पर था। तभी मोबाइल की घंटी बजी। रिपोर्टर को तभी दूर एक बारात जाती दिखाई दी। पहले वह बारात के पास मोटरसाइकिल ले गया और फिर फोन रिसीव किया। संपादक का सवाल था कहां हो। इस पर जबाव मिला शादी में। शायद बैंड की आवाज सुनकर संपादक महोदय ने इस बहाने पर यकीन कर लिया। उसे दोबारा ऑफिस बुलाने की बजाय किसी समाचार के संबंध में जानकारी जुटाकर डेस्क को नोट कराने के निर्देश दिए।
बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी मारना जितना आसान लगता है, उतना है नहीं। ऐसे बहाना बनाने वालों को काफी सतर्कतता बरतनी पड़ती है। कब जाने कौन बीमारी का हाल पूछने के बहाने घर पर टपक जाए। ऐसा ही एक किस्सा मुझे याद है। एक मित्र ने बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी ले ली। दफ्तार में दो मित्रों में इस बात पर ही शर्त लग गई कि वाकई मित्र बीमार है या नहीं। शर्त का परिणाम जानने के लिए दोनों बीमार मित्र के घर देर रात को पहुंच गए। घर में अंधेरा पसरा हुआ था। बीमार मित्र का स्कूटर भी घर पर ही था। बीमार घर पर ही है, यह सोचकर वे वापिस जाने लगे। इस पर शर्त हारने वाला पूरी तहकीकात के पक्ष में उतर गया। उसने गेट खटखटाया। भीतर से जवाब न मिलने पर दरवाजा पीटा गया। काफी देर बाद एक युवा भीतर से निकला। उसे परिस्थितियों का पता नहीं था। ऐसे में उसने सच बता दिया कि महाशय पत्नी व बच्चों के साथ किसी के घर पार्टी में गए हैं।
अब मेरे मन में यह सवाल उठता है कि क्या छुट्टी के लिए बहाना बनाने वाले सही हैं। या फिर उन्हें सबकुछ सच बताकर छुट्टी का आनंद उठाना चाहिए।
भानु बंगवाल 

Friday, 20 July 2012

खिचड़ी तैयार, हंडिया फूटने को बेकरार...

यहां तो अजीबोगरीब खिचड़ी पक रही है। जिस हंडिया में खिचड़ी पक रही, वह भी अब फूटने को बेकरार है। एक तरफ बाबा रामदेव का नौ अगस्त से भ्रष्टाचारियों भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान, तो दूसरी तरफ फर्जी दस्तावेज के माध्यम से पास्पोर्ट हासिल करने के मामले में बाबा के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण की गिरफ्तारी। उस आचार्य बाल कृष्ण की गिरफ्तारी, जिनके सहयोगी बाबा रामदेव सदैव भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहे। समय-समय पर धरने, भूख हड़ताल आदि भी करते रहे। यानी दूसरों को नसीहत व खुद ही फजीहत, वाली कहावत यहां चरितार्थ होती नजर आ रही है। जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर बाबा आवाज उठा रहे हैं, वही मुद्दा उनके सहयोगी के माध्यम से उनके गले की भी फांस बन रहा है।
कहते हैं कि यदि किसी को सांप काटे तो शायद वह बच जाएगा, लेकिन यदि नेता काटे तो व्यक्ति पानी तक नहीं मांगता। ऐसे में बाबाओं को किसने सलाह दी कि अपनी बाबागिरी छोड़कर सरकार से दो-दो हाथ करो। यदि चुपचाप लोगों को कपालभाती व योग की अन्य कलाएं सिखाने के अलावा दाएं व बाएं नहीं देखते, तो शायद यह नौबत नहीं आती। अब बाबा ने तो भ्रष्चाचार को जड़ से उखाड़ने की कसम खा रखी है। सभी जानते हैं कि इसकी असली जड़ जहां है, वहां तक जाने में कई चक्रव्यूह हैं। यह जड़ दिल्ली से लेकर पूरे भारत में फैल रही है। इसके लपेटे में बाबा का आश्रम भी नहीं बचा और उनके सहयोगी भी इसमें फंस रहे हैं।
 जब मै छोटा था, तब मैं गली-गली, मोहल्लों में घूमकर भिक्षा मांगने वाले भगवाधारियों को ही बाबा समझता था। वे घर-घर जाकर लोगों की सुख शांति की कामना करते और भिक्षा मांगते। समय बीतने के साथ हाइटेक बाबाओं की बाढ़ सी आ गई। गली व मोहल्ले में घूमने वाले बाबा भिखारी कहलाने लगे और एयर कंडीश्नर कार में घूमने, आश्रम के नाम पर आलीशान बंगलों में रहने वाले ही असली बाबा कहलाने लगे। ऐसे बाबाओं के नाम की लिस्ट काफी लंबी है, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे लोगो में बाबा रामदेव ने अन्य बाबाओं से अलग हटकर सीधे केंद्र सरकार से पंगा ले रखा है। नतीजा आचार्य बालकृष्ण की गिरफ्तारी के रूप में सामने है। अब इस पर भी गौर कीजिए कि सरकार व बाबा में कौन गलत व कौन सही है। भ्रष्टाचार समाप्त होना चाहिए, यह हर नागरिक चाहता है। वहीं, पासपोर्ट हासिल करने के लिए फर्जी दस्तावेज का सहारा लेने के आरोप यदि सही पाए जाते हैं तो क्या यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आता। वहीं, आचार्य बालकृष्ण की गिरफ्तारी को लेकर सीबीआइ की तत्परता सरकार की बदले की भावना पर सवाल खड़े नहीं करती। सीबीआइ कोर्ट से आचार्य की गिरफ्तारी के वारंट जारी होने से पहले ही सीबीआइ उनकी गिरफ्तारी के लिए हरिद्वार में डेरा डाल चुकी थी। ऐसी तत्परता हर मामलों में क्यों नहीं दिखाई जाती। वहीं बाबा समर्थकों का रवैया भी समझ से परे है। जब यह मामला न्यायालय में चला गया तो यह लड़ाई न्यायालय में लड़नी चाहिए, लेकिन इसके विरुद्ध यहां तो बाबा के अनुयायी सड़कों पर उतरकर शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं। न्यायालय में ही दूध-का दूध व पानी का पानी हो सकता है। इसके विपरीत एक तरफ सरकार खिचड़ी पका रही है, वहीं दूसरी तरफ बाबाओं की खिचड़ी पक रही है। हंडिया तप रही है, जो कभी भी बीच चौराहे में फूटने वाली है। नतीजा क्या निकलता है, यह आने वाला वक्त बताएगा। 
भानु बंगवाल

Wednesday, 18 July 2012

ये भी सच है..

हाल ही में उत्तराखंड में सितारगंज विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए। जैसा कि सभी को पहले से अंदाजा था, उसके अनुरूप ही परिणाम निकला और मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा चुनाव जीत गए। मुझे चुनाव परिणाम जानकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ, लेकिन ताजुब्ब बधाई देने वालों की तत्परता पर जरूर हुआ। उधर, चुनाव परिणाम घोषित हुए और इधर राजधानी देहरादून की सड़कों पर बधाई संदेश के होर्डिंग लग गए। बधाई संदेश देने वालों में होड़ सी  मच गई। एक ही दिन में राजधानी की सड़कों के किनारे लगे सारे होर्डिंग बधाई संदेश से अट गए। नगर निगम पार्षद, विधायक, गली-मोहल्ले के कांग्रेसी नेता आदि ने बधाई संदेश में मुख्यमंत्री की फोटो के साथ ही अपनी फोटो भी छपवा रखी थी। इस काम में राजधानी में ही करोड़ों रुपये फूंक दिए होंगे। उत्तराखंड के अन्य शहरों का भी यही हाल रहा।  
वाह रे बधाई संदेश देने वालों। मैं तो आपकी बधाई देने की स्पीड का कायल हो गया। आपने कितना बड़ा रिस्क लिया। चुनाव परिणाम आने से पहले ही पोस्टर, बैनर, होर्डिंग तैयार करवा लिए। यदि परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं आता तो आपने जो खर्च किया, वह पानी में बह जाता। 
अब यही सोचता हूं कि ऐसी तत्परता आप जनसमस्याओं के निस्तारण में क्यों नहीं दिखाते। यदि दिखाते होते तो जनता भी आपकी कायल हो जाती। बरसात में पहाड़ों की सड़कें दरक रही हैं। गांवों के रास्ते बंद हो रहे हैं। रास्ते कब खुलेंगे यह भी प्रभावितों को पता नहीं है। दरकती पहाड़ियों के मलबे के बीच जान जोखिम में डालकर लोगों को कई बार गनतव्य तक पहुंचने के लिए चार से पांच किलोमीटर का सफर पैदल ही तय करना पड़ रहा है। ऐसा ही हाल राजधानी का भी है। बरसात के पानी की निकासी का समुचित प्रबंध नहीं है। ऐसे में हल्की बारिश से ही सड़कें जलमग्न हो रही हैं। कई मोहल्लों में लोगों के घरो के भीतर पानी घुस रहा है। इस तरफ आपने आंखे बंद कर रखी हैं और बधाई देने के लिए करोड़ों फूंक दिए। आपने ऐसी समस्या के समाधान में बधाई देने की तरह बरसात से पहले ही तैयारी क्यो नहीं की। हर साल की इस समस्या का समाधान आप क्यों नहीं अपनी जेब से कुछ खर्च कर करने का प्रयास करते। यदि बधाई में खर्च की गई राशि से एक सड़क के  चार या पांच गड्ढे भी भरवा देते तो शायद आपके मित्र, भाई, बहन या फिर आप को ऐसी सड़कों से गुजरते समय किसी दुर्घटना का अंदेशा नहीं रहता। पोस्टर तो कुछ दिन बाद उतर जाएंगे। इसके विपरीत लेकिन आप यदि पोस्टर की बजाय किसी सामाजिक कार्य में राशि खर्च करते तो यह कार्य जनता के दिल में हमेशा के लिए एक छाप छोड़ देता।
भानु बंगवाल
 

Monday, 16 July 2012

चेहरे पे चेहरा.....

देहरादून के छात्रों ने शहर भर में संचालित हुक्का बार के खिलाफ अभियान चलाया। इस अभियान के तहत तोड़फोड़ भी की और हुक्का बार बंद कर दिए गए। ये हुक्का बार भले ही कुछ समय के लिए बंद हुए हों, लेकिन छात्रो की इस कार्रवाई के बारे में जिसने भी सुना, उनमें से अधिकांश ने तारीफ ही की। लोगों का कहना था कि नशे के खिलाफ छात्रों का अभियान तारीफे काबिल है।
अब बात है नशे की। वर्तमान में युवा पीड़ी नशे की गिरफ्त में फंसती जा रही है। जो युवा घर परिवार के हाथ से निकल गया, वह तो शराब का नशा भी खुलेआम कर रहा है। जो छिपाकर नशा कर रहे हैं, वे या तो हुक्का बार में जा रहे हैं, या फिर नशीली दवा का सेवन कर रहे हैं। ऐसे नशेड़ी में छात्र व छात्राओं की संख्या भी  दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। अब रही नशा कराने वालों को रोकने की बात, तो अकेले हुक्का बार के खिलाफ छात्रों की कार्रवाई उनके दूसरे चेहरे को उजागर करती है।
वैसे तो हर नशा बुरा है, लेकिन व्यक्ति शराब का नशा करता है तो उसे ज्यादा बुरा माना जाता है। बीड़ी, तंबाकू भी गंभीर बीमारी को दावत देते हैं, लेकिन नशे के लिए पैन कीलर दवा व इंजेक्शन लगाना तो और भी खतरनाक है। क्योंकि ऐसा नशा करने वालों का जल्द किसी को पता नहीं चल पाता है। माता-पिता को जब इसका पता चलता है, तो तब तक उनके बच्चे हाथ से काफी दूर निकल चुके होते हैं। ऐसे में उन्हें सुधारना भी काफी मुश्किल हो जाता है। इन सबके बावजूद हुक्का बार पर ही छात्रों ने कार्रवाई क्यों की यह सवाल मुझे उस समय से ही कौंध रहा था, जब छात्रों का समूह हुक्का बारों में जाकर उन्हें बद करा रहा था। क्योंकि शराब के नशे की हालत में किसी की बेटी, बहन को छेड़ना, हत्या व अन्य जघन्य अपराध करने की घटनाएं तो अक्सर सुनाई देती हैं, लेकिन बीड़ी, हुक्का के माध्यम से नशा कर किसी को छेड़ने की घटना शायद ही किसी ने सुनी हो।
शहर में पहले तो शराब की दुकानें व कुछ बार ही थे, लेकिन अब शराब के बार व पब की  संख्या भी दिनोदिन बढ़ती जा रही है। पब में तो शराब के नशे में मारपीट की घटनाएं भी आम हो गई हैं। सवाल उठता है कि ऐसे स्थानों पर छात्रों की नजर क्यों नहीं पड़ती। क्या छात्र भी शराब के बार संचालित करने वालों के हाथों खेल रहे हैं। क्योंकि हुक्का बार से जब पब व अन्य बड़े बार संचालित करने वालों का धंधा प्रभावित होने लगा तो अचानक छात्रों ने हुक्का बार के संचालन पर हमला बोल दिया। छात्रों का शराब के बार के खिलाफ सॉफ्ट कार्नर व हुक्का बार के खिलाफ आक्रोश क्या स्वभाविक था। या फिर सोची समझी रणनीति। क्योंकि कॉलेज में फीस ढांचे, समय से परीक्षा, लाइब्रेरी में पर्याप्त किताबें आदि मुद्दों को छोड़ छात्रों का आंदोलन कॉलेज परिसर की चारदीवारी से बाहर क्यों निकल रहा है।
इन्ही सभी सवालों की उधेड़बुन मेरे मस्तिष्क में चल रही थी। इसका सिंपल सा जवाब नहीं मिल रहा था। दोपहर को मैं घर की तरफ खाना खाने को जा रहा  था। घर के निकट राजपुर रोड पर आर्यनगर को जाने वाली ढलान की तरफ जब मैने रुख किया तो मुझे मन में उठने वाले सवालों का जवाब मिल गया। ढलान पर स्थित एक पब के बाहर छात्रों जमावड़ा लगा था। उनमें से अधिकांश के हाथ में कोल्ड ड्रिंक की बोतलें थी। शायद कोल्ड ड्रिंक में शराब मिलाई हुई थी। तभी तो एक दो सिप मारने के बाद छात्र अपने साथी को बोतल सरका रहे थे। ऐसी कोल्ड ड्रिंक  पब संचालन करने वालों की तरफ से छात्रों को मुफ्त परोसी जा रही थी।
भानु बंगवाल            

Saturday, 14 July 2012

आप और हम से शुरू और तू-तू मैं-मैं पर खत्म

पहले आप और हम। फिर हम और तुम। इसके बाद मैं और तू। फिर अंत में तू-तू-मैं-मैं। जी हां आजकल तो प्यार का यही हश्र होता नजर आ रहा है। जो पहले एक-दूसरे के लिए मर मिटने की कसम खाते फिरते हैं, वही बाद में एक दूसरे के जानी दुश्मन बनने लगते हैं। क्या प्यार इसी को कहते हैं कि पहले जो सबसे अच्छा लगता है, बाद में वही बेवफा, फरेबी, धोखेबाज, स्वार्थी हो जाता है। व्यक्ति भी वही है, उसकी आदत भी वही है, शक्ल व सूरत भी वही है, फिर अचानक क्यों एक-दूसरे के प्रति सोच में बदलाव आ जाता है।
प्यार शब्द ऐसा है कि इसमें लिखने का साहस मझमें भी नहीं हो रहा है, फिर भी लिखने की कोशिश कर रहा हूं। बचपन में जब बच्चों से पूछो कि वह किससे ज्यादा प्यार करता है, तो वह आस-पडो़स के बच्चों की बजाय अपनी मां या पिता को ही सर्वोपरी रखता है। फिर उसके मन में भेदभाव की दीवार खींचने का भी हम ही प्रयास करते हैं। इस पर भी उसे कुरेदते हैं कि मम्मी और डैडी में कौन ज्यादा अच्छे लगते हैं। कभी बच्चा पापा से नाराज होता है तो मम्मी को अच्छा बताता है और जब मां से नाराज होता है तो पिता को। ऐसे में कभी मां खुश होती है और कभी पिता। यही नहीं दादा-दादी, नाना-नानी के आगे भी ऐसा ही सवाल पूछा जाता है। धीरे-धीरे बच्चा भी  समझने लगता है कि जिसे अच्छा बताओ वही खुश हो जाता है। कई बार तो उसे खुश होने वाला ईनाम के रूप में टॉफी या चाकलेट भी देता है। यहीं से बच्चे के मन में स्वार्थ की बुनियाद भी जन्म लेने लगती है।
बच्चा बड़ा होने लगता है। माता-पिता उसे बच्चा ही समझते हैं और उसकी माता-पिता से दूरियां बढ़ने लगती है। वह अपने दोस्तों व मित्रों को जो बात बताता है, वही अपने माता-पिता से छिपाने लगता है। तब वह अपनी उम्र के बच्चों के साथ रहना ही ज्यादा पसंद करता है। यह स्वभाविक भी है, लेकिन माता-पिता को भी बड़ती उम्र के साथ ही बच्चों से दोस्ताना व्यवहार करना चाहिए। युवावस्था में आते-आते सोच बदलने लगती है और प्यार की परिभाषा भी उनके लिए बदल जाती है। जब युवक किसी युवती और युवती किसी युवक की तरफ आकर्षित होते हैं तो पहला आकर्षण रूप, रंग को देखकर ही होता है। पहली नजर का यह आकर्षण प्यार नहीं, बल्कि महज आकर्षण होता है। इसी को युवा प्यार कहते हैं और जब यह प्यार परवान चढ़ने लगता है तो वे क्या गलत, क्या सही आदि का निर्णय भी नहीं कर पाते। फिर वही कहानी। यदि शादी कर ली तो प्यार सफल और यदि नहीं हुई तो असफल। इसी तरह माता-पिता की मर्जी से चलने वाले भी शादी के बाद एक-दूसरे के प्यार की कसमें खाते हैं। कई बार तो अपनी मर्जी के खिलाफ और माता-पिता की मर्जी से शादी करने वाले ज्यादा सुखी रहते हैं और कई बार अपनी मर्जी से शादी करने वाले ही दुखी रहते हैं। कई बार नौबत आत्महत्या या तलाक तक पहुंच जाती है, जो कि समस्या का समाधान नहीं है। 
वैसे मेरी नजर में प्यार की न तो कोई उम्र की सीमा है और न ही कोई बंधन। लेकिन, इस प्यार का अर्थ यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि जिससे प्यार करते हो उससे शादी भी करो। जिसे आप अपनी हर सुख-दुख की बातें बताते हैं, जो आपके सुख-दुख में साथ दे, आपकी भावनाओं को समझे, जिस पर आपको विश्वास हो, वही आपको प्यारा होता है। वही आपका प्यार है। यह प्यार भाई, बहन, पिता, माता, पुत्र, बेटी हर किसी से हो सकता है। प्यार करके शादी करना ही एकमात्र प्यार नहीं है। प्यार में शादी करने वालों के लिए तो सही मायने में प्यार की परीक्षा भी शादी के बाद होती है। साथ-साथ रहने पर छोटी-छोटी बातों का यदि पति व पत्नी ने ख्याल नहीं रखा। एक दूसरे की भावनाओं को नहीं समझा, तेरी मां व मेरी मां, तेरा भाई व मेरा भाई, तेरा व मेरा का भाव मन में रखा तो जल्द ही दोनो के बीच टकराव की स्थिति पैदा होने लगती है। यदि- तेरा नहीं, मेरा नहीं, सब कुछ हमारा है, की भावना मन में रहेगी तो शायद टकराव न हो। पत्नी का काम क्या है और पति का क्या। क्या खाना बनाना पत्नी का काम है और पति का काम नौकरी करना या पैसा कमाना है। पति क्यों नहीं घर के काम में हाथ बंटाता। क्यों नहीं दोनों मिलजुलकर काम करते। क्यों घूमने के लिए पति दोस्तों के साथ अकेला जाता है। क्यों नहीं वह पत्नी और बच्चों के साथ ही मौजमस्ती के लिए समय निकालता। यदि वह परिवार के लिए समय निकाले तो पत्नी व बच्चे भी दोस्त की तरह व्यवहार करेंगे। ऐसे में परिवार में हमेशा मिठास रहेगी।  क्योंकि एक सच यह है कि यदि किसी भी महिला या पुरुष को दफ्तर में चाहे कितना भी खराब माहौल मिले, लेकिन घर का माहौल अच्छा हो तो पूरा परिवार सदैव खुश रहेगा। यह बात मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हूं। क्योंकि शादी के पंद्रह साल बीतने के बाद भी मेरा कभी पत्नी से झगड़ा हुआ है, यह मुझे आज तक याद नहीं।
भानु बंगवाल

Thursday, 12 July 2012

जब डॉक्टर व नर्स को सताया शमशान का खटका..

बचपन में मैने सिटी बस में किताबें बेचने वाले से मात्र दस पैसे में कविता फोल्डर खरीदा। तब मैं महज छठी जमात में पढ़ता था। इसमें अलग-अलग विषय पर किसी स्थानीय लेखक की तुकबंदी थी। इसमें खटका शीर्षक की तुकबंदी मुझे आज भी याद है। पंक्ति कुछ ऐसी थी-सर्दी में रहता जुकाम का खटका, मल्लाह को रहता तूफान का खटका, रोगी को रहता शमशान का खटका। खटका, यानी की संदेह, आशंका या डर। आज महसूस करता हूं कि हर व्यक्ति को कहीं न कहीं खटका जरूर रहता है। इस तुकबंदी की एक लाइन- (रोगी को रहता शमशान का खटका) को मैने व्यावहारिकता में एक बार उलटे ही पाया। जहां रोगी की तो मौत हो गई, लेकिन डॉक्टर और नर्स दोनों को ही शमशान का खटका सताने लगा।
बात करीब वर्ष 93 की है। मैं कुछएक स्थानीय समाचार पत्रों में काम करने के बाद एक बड़े समाचार पत्र में नियुक्त हो गया था। तब कुछ नया करने के लिए मुझमें काफी लगन थी। ऐसे में मैं अपनी पहचान बनाने के लिए कुछ अलग हटकर समाचार तलाशने में जुटा रहता। एक दिन मुझे एक मित्र ने बताया कि एक सरकारी संस्थान के अस्पताल में युवक की मौत हो गई। युवक एड्स से पीड़ित था। उसका इलाज करने वाले डॉक्टर व नर्स को यह पता तक नहीं था कि युवक को एड्स है। ऐसे में अब डॉक्टर व नर्स दोनों ही घबराए हुए हैं। दोनों को शमशान का खटका सता रहा है। मैने इस मामले में अस्पताल के सीएमएस, संबंधित नर्स के साथ ही मृतक युवक के पिता से बातचीत की। तब जो कहानी सामने आई, वह यह है।
एक व्यक्ति का 19 वर्षीय बेटा काफी समय से किसी बीमारी से ग्रसित था। कुछ-कुछ दिनों के अंतराल में उसे देहरादून से दिल्ली ले जाकर खून आदि भी चढ़ाया जाता था। तब रक्त जांच भी ज्यादा बारीकी से नहीं होती थी। ऐसे में शायद  युवक को एचआइवी पॉजीटिव वायरस का खून चढ़ गया और वह एड्स से ग्रसित हो गया। तब एड्स के मरीज को छूने में भी डॉक्टर परहेज करते थे। युवक के उपचार के लिए उसके परिजनों ने दिनरात एक कर दिया। घर की सारी जमा पूंजी इलाज में खर्च होने लगी। इलाज के लिए परिजन दिल्ली, चंडीगढ़ के चक्कर लगाते रहते। जिस संस्थान में युवक के पिता कार्यरत थे, वहां के अस्पताल के सीएमएस को युवक की बीमारी का पता था। अन्य स्टॉफ को बीमारी के बारे में नहीं बताया गया था।
एक रात युवक को तेज बुखार चढ़ा। उसके पिता संस्थान के अस्पताल में लेकर युवक को पहुंचे। मौके पर मौजूद डॉक्टर को युवक की बीमारी का पता नहीं था। ऐसे में बुखार समझकर उसने उपचार शुरू किया। युवक की हालत बिगड़ती चली गई। उसे इंजेक्शन भी दिए गए। यहं तक जब उसकी सांस रुकने लगी तो डॉक्टर व नर्स दोनों ने ही उसे बारी-बारी से माऊथ-टू- माऊथ रेस्पीरेशन भी दिया। काफी प्रयास के बाद भी वे युवक को बचा नहीं सके और सुबह होते-होते युवक की मौत हो गई।
सुबह जब अस्पताल में सीएमएस पहुंचे, तो इलाज करने वाले डॉक्टर व नर्स ने इसकी रिपोर्ट उन्हें दी। सीएमएस ने उन्हें बताया कि युवक तो एचआइबी पॉजिटिव से ग्रसित था। इस पर डॉक्टर व नर्स दोनों की हालत बिगड़ने लगी। डिटॉल की शीशी लेकर दोनों बाथरूम में नहाने चले गए। शरीर की हर खरोंच को डीटॉल से धोया गया। डॉक्टर तो इतना डर गया कि उसे शमशान का खटका सताने लगा और छुट्टियां लेकर चार-धाम यात्रा को निकल पड़ा। नर्स भी छुट्टी लेकर घर बैठ गई। हालांकि युवक के पिता ने डॉक्टरों के आरोप को बेबुनियाद बताया। उनका कहना था कि युवक के खून में कुछ खराबी था, लेकिन बार-बार नया खून चढ़ने पर एचआइवी पॉजीटिव वाश हो चुका था।
सच पूछो तो युवक का इलाज डॉक्टर व नर्स ने अनजाने में ही किया। यदि उन्हें पता होता तो वे शायद उसे हाथ भी न लगाते। अब रही बीमारी की बात, तो पहले तपेदिक (टीबी) के रोगी को भी घर से अलग कर देते थे। उसे अलग बर्तन में खाना दिया जाता था। आज यह बीमारी आम हो गई और इलाज भी आसान। इसके विपरीत यदि मौत आनी हो तो सामान्य बीमारी से भी व्यक्ति यह दुनियां छोड़ देता है। ऐसे में डॉक्टर ही मरीज का भगवान होता है। उसे तो बगैर किसी खटके के मरीज को बचाने के हर संभव प्रयास करने चाहिए।
भानु बंगवाल      

Wednesday, 11 July 2012

आखिर लग ही गया शतक….

SocialTwist Tell-a-Friend
कब समय बीता इसका पता ही नहीं चला। मेरा 100 वां ब्लॉग आपके सामने है। इन सौ ब्लॉग तक का सफर पूरा करने में मेरे हर ब्लॉग का योगदान है। एक-एक कर लिखता रहा और संख्या सौ तक पहुंच गई। आज से पांच माह पहले तक मुझे यह तो पता था कि ब्लॉग क्या होता है, लेकिन मैने न तो कभी किसी का ब्लॉग पढ़ा था और न ही कभी लिखा। हालांकि इससे पहले मेरे आफिस के साथियों ने जागरण जनशन में मेरा एकाउंट बना दिया था, लेकिन तब उस पर मैने एक शब्द तक नहीं लिखा। मैं यही कहता कि समय ही नहीं मिलता। यहां तो नौकरी से फुर्सत नहीं। कंप्यूटर के आगे सुबह दस बजे से देर रात तक बैठना पड़ता है। फिर ब्लॉग कब लिखा जाए। हालांकि मेरी आदत छोटी-छोटी घटनाओं को किस्से के रूप में सुनाने की रही और मैं हमेशा से यही सोचता रहता कि इन किस्सों को शब्दों में उतारुंगा, पर उतार नहीं सका।
एक दिन ओपन यूनिवर्सिटी हल्द्वानी की ओर से पत्रकारिता के छात्रों की कार्यशाला में भाग लेने मैं गया हुआ था। देहरादून में आयोजित इस कार्यशाला में पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष गोविंद सिंह ब्लॉग पर चर्चा कर रहे थे। उन्होंने कहा कि समाचार पत्रों में डेस्क पर बैठा व्यक्ति लिखना भूल जाता है। उसे लखने की आदत हमेशा रखनी चाहिए। चाहे ब्लॉग के रूप में क्यों न हो। वहीं से मेरी इच्छा ब्लॉग लिखने की हुई। सच कहो तो मैं गोविंद सिंह से ब्लॉग लिखने को प्रेरित हुआ। वही मेरे प्रेरक बने। फिर आफिस के सहयोगी गोविंद पोखरिया से मैने पूछा कि ब्लॉग के लिए अकाउंट कैसे बनाया जाता है। पोखरिया ने बताया कि उसने भी ब्लॉग स्पॉट में एकाउंट बनाया हुआ है। घर में छुट्टी के दिन मैने अपने 14 वर्षीय बेटे को अकाउंट बनाने को कहा और उसने बना भी दिया। अकाउंट तो मेरा पहले से भी था, लेकिन जागरण जनशन में वह खुल नहीं रहा। ऐसे में मैं ब्लॉग स्पॉट में ही ब्लॉग लिखने लगा। मेरे एक अन्य मित्र हरीश भट्ट ने मुझे जंनशन में ब्लॉग लिखने को प्रेरित किया। पहला ब्लॉग खुल ही नहीं रहा था, इस पर मुझे नया एकाउंट बनाना पड़ा।
मैं नियमित रूप से हर दिन एक ब्लॉग लिखने लगा। सुबह बिस्तर से उठते सबसे पहला मेरा काम यही होता। फिर नहाना धोना, चाय नाश्ता आदि करता। जब सुबह ऑफिस को देरी होती, तो देर रात को समय निकालता। मुझे ब्लॉग लिखने का नशा बढ़ता जा रहा था और मुझे इसके लिए समय की समस्या आड़े नहीं आई। सच कहो कि मानव प्रवृत्ति ऐसी है कि किसी काम को करने से पहले हम उसमें लेकिन, अगर, मगर, किंतु व परंतु के कई पेंच लगा देते हैं। कई शंकाएं हमारे मन में जन्म लेती हैं, लेकिन जब काम शुरू करो तो वह काफी आसान सा लगने लगता है। लगातार मैं ब्लॉग लिख रहा था। कई बार ऐसा भी हुआ कि जिस ब्लॉग को मैं दिल से लिख रहा हूं, वह कम ही खुला। ऐसे ब्लॉग में मेरा लीला की चिट्ठी शीर्षक का ब्लॉग था। जिसे मैने मन लगाकार लिखा, लेकिन वही कम खोला गया। इसके विपरीत अन्य ब्लॉग को मैं मात्र बीस मिनट में ही लिख मारता रहा और वे काफी खुले भी। ब्लॉग पढ़ने वाले सभी मित्रों का दिल से शुक्रिया और जो अभी तक नहीं पढ़ पाए उनसे पढ़ने की उम्मीद करता हूं।
लगातार ब्लॉग लिखना मेरी आदत में शुमार हो गया। फिर एक दिन मेरा घर का कंप्यूटर खराब हो गया। ठीक करने के लिए कंप्यूटर के मैकेनिक को फोन किया और वह कंप्यूटर उठाकर अपने साथ ले गया। एक दिन बीता, दो दिन। मुझे लगने लगा कि मैं बीमार हो गया हूं। एक मित्र डॉक्टर के पास गया। मैने कहा कि बुखार है। वीपी भी शायद नार्मल नहीं है। इस पर डॉक्टर ने चेकअप किया, तो सभी कुछ नार्मल पाया। तब मुझे अहसास हुआ कि जैसे नशेड़ी को शराब या नशा न मिलने से छटपटाहट होती है, ठीक उसी तरह मेरी स्थिति भी ब्लॉग न लिखने से हो रही है। ये इंटरनेट की दुनियां का नशा ही ऐसा है। मेरे एक मित्र तो टॉयलेट में मोबाइल लेकर बैठते हैं। उन्हें सुबह चेट का वक्त मिलता है। खैर मैने खुद पर नियंत्रण किया और फिर लगातार लिखने की बजाय दो दिन में एक ब्लॉग लिखने की आदत डाली।
फेसबुक में शुरूआती दौर से ही मैं अपने ब्लॉग शेयर कर रहा था। इसमें भी कई तरह के मित्र मिले। कई तो ब्लॉग को पढ़ते हैं, लेकिन कई मित्र तो ऐसे हैं कि इधर ब्लॉग शेयर किया और एक सेकेंड के भीतर ही ब्लॉग लाइक हो गया। कमाल की पढ़ने की स्पीड है मेरे ऐसे मित्रों की। खैर किसी को न तो जबरन पढ़ाया जाता है और न ही किसी को पढ़ने से मना किया जा सकता। व्यक्ति की अपनी-अपनी च्वाइस होती है। फिर भी मुझे वे लोग ही पसंद हैं जो लाइक पर क्लिक करने की बजाय ब्लॉग को पढ़ते होंगे। मेरा काम तो बस लिखना है। चाहे वह किसी को पसंद आए या नहीं। अब रिजल्ट की परवाह भी मैने छोड़ दी है। जब मेने अपने कई मित्रों को ब्लॉग लिखने को प्रेरित करने का प्रयास किया तो उनका कहना था कि इससे क्या फायदा होगा। कुछ मिलेगा भी। क्यों फिजूल में समय बर्बाद कर रहा है। उन मित्रों को मैं कैसे समझाऊं कि निरंतर लिखने से मुझे वह दौलत मिलती है, जो मैं कोई भी बड़ी कमीत अदा करके भी नहीं खरीद सकता। वह दौलत है आत्मशांति।
भानु बंगवाल

Tuesday, 10 July 2012

रोता छोड़ गया रुस्तमे हिंद...

दारा सिंह, मैं आ रहा हूं, तेरे हाथ-पांव तोड़ दूंगा। अस्सी के दशक में देहरादून की हर सड़क, गली व मोहल्ले में कुछ इस तरह की चर्चा थी कि अब दारा सिंह का क्या होगा। यह बात करीब सन 75 की है। वास्तविक साल मुझे याद नहीं आ रहा है।
जब मैं छोटा था, तब के बच्चों ने भले ही दारा सिंह को फोटो या फिल्म में नहीं देखा हो, लेकिन नाम जरूर सुना था। तब टेलीविजन थे नहीं। ऐसे मुझे भी यह पता नहीं था कि जिस पहलवान की तरह सभी बच्चे बनना चाहते हैं, दिखने में वह कैसा होगा। शाम को मोहल्ले में खेल के दौरान बड़ी उम्र के लोग बच्चों की कुश्ती भी कराते थे। जो जीत गया उसे कहा जाता कि तू दारा सिंह बनेगा। मैं भी अपनी उम्र के बच्चों से कुश्ती लड़ता, लेकिन शरीर से कमजोर होने के कारण अक्सर हार जाया करता था। फिर भी मेरे मन में दारा सिंह की तरह फौलादी बनने की इच्छा जरूर थी। बड़े बुजुर्ग दारा सिंह की कुश्ती के किस्से सुनाते और बच्चे बड़ी दिलचस्पी से सुनते थे। कोई कहता कि दारा सिंह नाश्ते में तीन-चार सौ से अधिक अंडे खाता है, तो कोई कहता कि दोपहर के खाने वह पूरा बकरा चट कर जाता है। मैं और मेरी तरह अन्य बच्चे आंखे फाड़-फाड़कर ऐसे किस्से सुनते।
तब हांगकांग के पहलवान माइटी मंगोल ने दारा सिंह को चैलेंज किया। दून की सड़कों पर जितने भी तांगे दौड़ते, उनमें अधिकांश को कुश्ती के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया। तांगों के तीन तरफ बड़े-बड़े पोस्टर सजाए गए थे। पोस्टर में एक तरफ माइटी मंगोल की फोटो लगाई गई। उसके नीचे लिखा गया कि अब हांगकांग से चल पड़ा माइटी मंगोल। दारा सिंह मैं आ रहा हूं, तेरे हाथ-पांव तोड़ दूंगा। माइटी मंगोल की तस्वीर भी ऐसे एक्शन में लगी थी, जैसे वह अपने पंजों से दारा सिंह को नौंचने जा रहा हो। पोस्टर में दूसरी तरफ दारा सिंह की फोटो के साथ लिखा गया कि- माइटी मैं तेरे चैलेंज को स्वीकार करता हूं। कौन किसे हराएगा, इसका फैसला देहरादून के पवेलियन मैदान में होगा। जब तांगा सड़क पर दौड़ता, तो उसमें ढोल भी बजता था। जहां भीड़ होती, तो लाउडस्पीकर से एक व्यक्ति माइटी व दारा सिंह के डायलॉग सुनाता और कुश्ती की नियत तिथि व समय की जानकारी देता।
मेरी माताजी भी मुझे दारा सिंह की कुश्ती के बारे में बताती थी। पिताजी ने माताजी को भी कुश्तियां दिखाई थी और उसे दारा सिंह की कुश्ती देखने का सौभाग्य मिल चुका था। वह बताती कि दारा सिंह कैसे कुश्ती लड़ा था। मेरी इच्छा दारा सिंह की माइटी से मुकाबले को देखने की हुई, लेकिन टिकट तब के हिसाब से काफी महंगा दस रुपये का था। इस राशि में पूरा परिवार सिनेमा देख सकता था। ऐसे में मुझे  कौन कुश्ती देखने को दस रुपये देता।   
आखिर कुश्ती का दिन आ ही गया। मैं दोपहर तीन बजे से ही पिताजी के ऑफिस पहुंच गया और उनसे कुश्ती दिखाने का अनुरोध करता रहा। शायद पिताजी की इच्छा भी कुश्ती देखने की थी, लेकिन दस रुपये खर्च करने का साहस उन्हें भी नहीं हो रहा था। शाम साढ़े चार बजे पिताजी की छुट्टी हुई और सिटी बस पकड़कर दोनों पवेलियन मैदान पहुंच गए। आखिरकार पिताजी ने टिकट लिया और हम मैदान में पहुंच गए। पवेलियन मैदान खचाखच भरा था। इससे पहले इतनी भीड़ मैने फुटबाल मैच में देखी थी। पहले कई स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर के पहवानों की कुश्ती कराई गई। फिर अंधेरा छा गया और जमीन से करीब पांच फुट ऊंचाई पर बने कुश्ती का रिंग तेज प्रकाश से नहाने लगा। फिर नाम पुकारा गया और माइटी मंगोल हाथ लहराता हुआ रिंग तक पहुंचा। फिर पीले वस्त्रों में दारा सिंह। दारा सिंह ने अपनी चैंपियन बेल्ट खोली और अपनी ड्रेस उतारनी शुरू की। तभी माइटी ने आव देखा न ताव और दारा सिंह से भिड़ गया। तब दारा सिंह कुश्ती की तैयारी ही कर रहा था। इस अप्रत्याशित हमले की उन्हें भी कोई उम्मीद नहीं रही होगी। रैफरी ने माइटी से दारा को छुड़ाया। फिर कुश्ती शुरू हुई तो दारा सिंह ने माइटी के थप्पड़ जड़ दिया। तब मुझे पता चला कि फ्री स्टाइल कुश्ती में लात-घूंसे, थप्पड़ आदि सब चलते हैं। माइटी ने थप्पड़ मारने पर एतराज जताया। फिर उसे कुश्ती के नियम समझाए गए। इस पर उसने एक हाथ से दारा सिंह के बाल पकड़ लिए। दूसरे हाथ की दो अंगुली दारा सिंह के नथुनो में घुसा दी और हथेली से मुंह दबा दिया। फिर रैफरी ने माइटी को दुलत्ती मारकर कब्जे से दारा सिंह को छुड़ाया। कुश्ती का रोमांच बढ़ रहा था। शोर भी चारों ओर गूंज रहा था। सिटी बस अड्डे की दुकानों की छत, गांधी पार्क के ऊंचे पेड़ पर चढ़कर फ्री में कुश्ती देखने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। दारा सिंह ने अचानक माइटी को पटखनी दी और उसकी ऐड़ी पर उछलकर कूद गया। बस यही कुश्ती का टर्निंग प्वाइंट था। शायद माइटी की टांग टूट गई। वह खड़ा होता और दारा सिंह उसकी पिटाई कर गिरा देता। आखिरकार वही हुआ, जो होना था। दारा सिंह विजयी घोषित हुए। वह हाथ लहराकर रिंग से ड्रैसिंग रूम की तरफ चले गए। माइटी का वजन काफी था। वह उठ नहीं सका और रिंग पर ही लेटा रहा। उसे उठाने का दो पहवानों ने प्रयास किया, लेकिन उठा नहीं सके। इस पर दारा सिंह स्वयं आए और उसे कंधे पर उठाकर ड्रैसिंग रूम की तरफ ले गए। दुनियां भर के पहलवानो को धूल चटाने वाला यह फौलाद कई दिनों तक मौत से पंजा लड़ाते-लड़ाते आज दुनियां को अलविदा कर गया।यह रुस्तमें हिंद की आत्मा की शांति के लिए मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा हूं।साथ ही आपसे भी यही कामना करता हूं।आज भले ही दारा सिंह इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन इस फौलाद की यादें मेरे जेहन में हमेशा ताजा रहेंगी।
भानु बंगवाल

Saturday, 7 July 2012

बारिश का वो दिन, भरोसा......

एक कहावत है कि देहरादून की बरसात का कोई भरोसा नहीं है। देहरादून में कब बारिश हो जाए, यह कहा नहीं जा सकता। आसमान में धूप होगी और लगेगा कि अभी गर्मी और सताएगी। फिर अचानक हवा चलने लगेगी। मौसम करवट बदलेगा और बारिश होने लगेगी। बारिश भी ऐसी नहीं होती कि पूरा दून ही भीग रहा हो। कई बार तो शहर के एक हिस्से में बारिश होती है, तो दूसरे  कोने में धूप चमक रही होती है।
बारिश यदि न हो तो इंसान परेशान और यदि ज्यादा हो तो तब भी व्यक्ति परेशान हो जाता है। ज्यादा बारिश अपने साथ आफत लेकर आती है। फिर भी बारिश इंसान के लिए जरूरी है। तभी तो बारिश को लेकर कई रचनाकारों में काफी कुछ लिखा है और प्रसिद्ध हो गए। बरसात में सूखी धरती हरी भरी हो जाती है। किसानों के चेहरे खिल उठते हैं। प्रकृति भी मनोरम छटा बिखेरने लगती है।  
बचपन में देखता था कि बरसात शुरू होते ही जगह-जगह पेड़ की डाल पर लोग बड़े-बड़े झूले डालते थे। मोहल्ले के बच्चे व युवा इन झूलों पर खूब मौज-मस्ती किया करते थे। यही नहीं घर की देहरी में भी छत की बल्लियों में रस्सी डालकर छोटे बच्चों के लिए झूला टांगा जाता था। अब मेरे पुराने मोहल्ले से लगभग सारे पेड़ गायब हो चुके हैं। उन पर आरी चलाकर भवनों का निर्माण हो गया। पुराने कड़ियों व टिन की छत के मकान की जगह पक्के निर्माण हो गए। ना ही लोगों में आपसी भाईचारा रहा और ना ही नजर आते हैं सावन के झूले। हां इतना जरूर है कि डाल पर झूले की बजाय लोगों के बरामदे में अब परमानेंट झूले लटके होते हैं। बेंत की कुर्सी पर रस्सी डालकर लटकाए गए ये झूले पेड़ की डाल में लटके झूले की तरह मदहोश करने वाले नहीं होते।
दून में बारिश कब हो जाए। इसका पहले से अंदाजा नहीं रहता। इसलिए मैं हमेशा अपनी मोटर साइकिल की डिक्की में बरसाती रखता हूं। देहरादून में इतनी बारिश होती है कि आज तक कोई बरसाती ऐसी नहीं बनी कि इस बारिश से बचा सके। हां हल्की बारिश में बरसाती भीगने से बचा लेती है और ज्यादा में इज्जत से भीगाती है।
बात करीब पच्सीस साल पहले की है। तब छोटी-छोटी आवश्यकता के सामान के लिए मुझे घर से करीब पांच किलोमीटर दूर देहरादून के पल्टन बाजार की तरफ का रुख करना पड़ता था। मोहल्ले में एक दो छोटी-छोटी दुकानें होती थी। वहां भी सारा सामान नहीं मिलता था। कई बार एक दिन में मेरे दो से तीन चक्कर तक बाजार के लग जाते थे। तब हमारे घर में पोर्टेबल टेलीविजन था। जो हम बारह वोल्ट की बैटरी से चलाते थे। हर पंद्रह से बीस दिन में बैटरी चार्ज कराने के लिए घर से करीब छह किलोमीटर दूर प्रिंस चौक के पास ले जाना पड़ता था। एक दिन सुबह बैटरी को चार्ज कराने मैं दुकान पर देकर घर लौट आया। तब बैटरी चार्ज करने के मात्र पांच रुपये लिए जाते थे। दुकानदार ने दोपहर को बैटरी ले जाने को कहा। दोपहर को जब बैटरी लेने को घर से बाजार जाने की मैं तैयारी करने लगा, तो एकाएक तेज बारिश होने लगी। घर में मैने गंदा सा पायजामा व बनियान पहनी थी। कपड़े बदलने लगा ही था कि फिर मैने सोचा कि बारिश में भीगकर कपड़े खराब हो जाएंगे। ऐसे में मैने घर के ही कपड़ों पायजामा व बनियान के ऊपर बरसाती ओढ़ ली। कौन देखेगा कि भीतर क्या पहना है। बारिश हो रही है। जब तक वापस आऊंगा तब तक तो बारिश रहेगी ही। यही सोचकर मैं साइकिल उठाकर बजार की तरफ रवाना हुआ। करीब डेढ़ किलोमीटर आगे चलने पर आरटीओ के निकट बारिश और तेज हो गई। रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में चार पहिया वाहन भी लोगों ने सड़क किनारे रोक दिए। खैर मैं गाना गुनगुनाते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा। बाजार पहुंचने पर बैटरी उठाई और साइकिल के कैरियर पर रखी। फिर घर की तरफ चलने लगा। तभी बारिश एकाएक कम हुई और फिर थम गई। इसके बाद चमकदार धूप निकल गई। अब मैं मुसीबत में फंस गया। मुझे सुझ नही  रहा था कि क्या करूं। बरसाती उतारूं तो बनियान व गंदा पायजामा पहना हुआ था। ऐसे में मैं बरसाती को उतार नहीं सका और घर की तरफ साइकिल चलाता रहा। अब सड़क में मेरी स्थिति विचित्र प्राणी की तरह थी। जो खिलखिलाती धूप में बरसाती पहनकर राजपुर रोड की चढ़ाई में साइकिल चला रहा था। सभी राहगीर मेरी तरफ देखते। कईएक टोक भी चुके थे कि बारिश नहीं है, बरसाती तो उतार लो। घर पहुंचा तो पहले बाहर से जितनी बरसाती बारिश से भीगी थी, उससे कहीं ज्यादा भीतर से पसीने से भीग चुकी थी। गरमी से पूरे बदन में दाने उभर आए, जो कई दिन के बाद ही दबे। इस दिन से मैने यही तय किया कि दून की बारिश का कभी भरोसा मत करो।
भानु बंगवाल              

Thursday, 5 July 2012

डॉक्टर-डॉक्टर, द्वारे-द्वारे....

जब मैं छोटो था, तब मेरे मोहल्ले में एक लोक कलाकार रहता था। रामप्रकाश बगछट नाम का यह कलाकार अपनी नौकरी की तलाश में बेले गए पापड़ को एक गीत के रूप में सुनाता था। मदर इंडिया के गीत- नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे, ढूंढू मैं सांवरिया, की तर्ज पर  वह डॉक्टर-डॉक्टर द्वारे-द्वारे, ढूंढू मैं नौकरिया, गाया करता था। जब नजीबाबाद में आकाशवाणी केंद्र खुला तो इस कलाकार के गढ़वाली गीत रेडियो में सुनाई देने लगे, तब जाकर मोहल्ले के लोगों को उसकी अहमियत पता चली। खैर रामप्रकाश ने नौकरी की तलाश में कुछएक डॉक्टर व दृष्टिहीन व्यक्तियों के द्वार खटखटाए, लेकिन आज तो व्यक्ति कमाने के लिए नहीं, बल्कि जेब ढीली करने के लिए ही डॉक्टर के द्वारे जाता है।
हल्की बीमारी में मेरा सीधा फंडा है कि पहले खुद ही दवा खाओ, जब रोग दो तीन दिन तक ठीक नहीं होता, तो डॉक्टर की शरण चले जाओ। वैसे मुझे पता है कि जिस तरह मोटर मैकेनिक स्कूटर खराब होने पर पहले प्लग देखता है। फिर पेट्रोल देखता है कि आगे जा रहा है या नहीं। यदि दोनो ही ठीक हों तो फिर इंजन खोलने की नौबत आती है। हम लोग भी कई बार प्लग साफ करने व बदलने का काम खुद ही कर लेते हैं। इसके बाद जब बड़ी खराबी हो तो मैकेनिक के पास ही जाते हैं। इसी प्रकार हम बीमारी ठीक न होने पर इंसान के मिस्त्री डॉक्टर के पास जाते हैं। डॉक्टर भी पहले दो-तीन दिन की सिंपल दवा देता है। इसके बाद भी जब रोग नहीं कटता, तो एंटीबायोटिक्स देता है। यदि पांच दिन के भीतर इस दवा का असर नहीं होता, तो खून टैस्ट व अन्य परीक्षण शुरू हो जाते हैं।
पिछले दिनों मेरे दस वर्षीय छोटे बेटे आर्यन को खांसी हो रही थी। दो-तीन दिन कफ सीरप देने के बाद भी जब खांसी कंट्रोल नही हुई तो मैने डॉक्टर को दिखाना ही उचित समझा। मेरे मोहल्ले में एक निजी चिकिस्क का क्लीनिक है। इस चिकित्सक के पास मैं अनमने मन से बच्चे को दिखाता हूं। कारण वह पर्चे में दवा कोड में लिखता है। साथ ही दवा भी रेपर फाड़कर लिफाफे में देता है। हालांकि डॉक्टर की फीस मामूली है। इसके बाद दूसरा चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉक्टर घर से करीब चार किलोमीटर दूर देहरादून के रायपुर क्षेत्र में है। वह मुझे कुछ  ठीक लगता है। मैं उसके क्लीनिक मैं ही बेटे को ले गया। इन दिनों पूरी रायपुर रोड़ उधड़ी हुई है। बारिश से उसमें कीचड़ भी जगह-जगह भरा है। फिर भी किसी तरह साहस कर मैं क्लीनिक पहुंचा, तो वहां ताला लगा मिला। क्लीनिक के शटर में नोटिस चस्पा था कि चार दिन तक क्लीनिक बंद रहेगा। ऐसे में परेशान होकर मैने डालनवाला क्षेत्र में सरकारी अस्पताल (कोरोनेशन) जाने की सोची। कोरोनेशन अस्पताल में पहुंचकर सरकारी व्यवस्थाओं का सच उजागर हो गया। मरीजों की भीड़ लगी थी और चाइल्ड स्पेशलिस्ट के कमरे में ताला। पूछने पर पता चला कि डॉक्टर साहब वीआइपी ड्यूटी पर हैं। उन्हे आने में दो घंटे भी लग सकते हैं और चार घंटे भी।
खांसी बढ़ती जा रही थी और मेरी परेशानी भी। लौटकर बुद्धू घर को आए वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए मैं मोहल्ले के डॉक्टर के पास ही बेटे को ले गया। डॉक्टरों के चक्कर लगाते मेरा तीन घंटे से अधिक का समय बर्बाद हो चुका था।
मोहल्ले का डॉक्टर सिख है। उम्र बढ़ने के साथ ही उसके बाल भी सफेद हो चुके हैं। उसे मैने कभी हंसते हुए नहीं देखा। जब मैं पहुंचा तो वह फुर्सत में था और उस दिन मैने उसे पहली बार हंसते हुए भी देखा। हमसे पहले जब एक महिला मरीज उससे दवा लेकर चली गई, तो अपने तीन कर्मचारियों (एक कंपाउंडर व दो नर्स) को पहले आई मरीज के घर परिवार के बारे में बताने लगा। फिर उसे चूहा घूमता नजर आया। इस पर उसने अपने कर्मचारियों को चूहेदानी तलाशने को कहा। एक नर्स व कंपाउंडर ने चूहेदानी तलाशने में काफी देर लगने की बात कही, लेकिन हाल ही में रखी गई नई नर्स ने कहा कि उसने देखी है। वह चूहे दानी लेने दवाखाने की तरफ चली गई। इस बीच दोनों कर्मचारियों ने डॉक्टर के कान भरने शुरू कर दिए कि अभी इसे आए तीन दिन भी नहीं हुए और इसने क्लीनिक का चप्पा-चप्पा छान मारा। तभी चूहेदानी लेकर नर्स आ गई। उसे सभी संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। आखिरकार डॉक्टर ने उससे पूछ लिया कि चूहेदानी कैसे मिली। उसने सीधा सा जवाब दिया कि कल उसके पैर में कहीं से गिरी थी, उसने उठाकर दूसरे स्थान पर रख दी थी।
बच्चा खांस रहा था, लेकिन इसकी चिंता न करते हुए डॉक्टर अब एक बंदर की कहानी सुनाने लगा। वह बता रहा था कि टेलीविजन में उसने एक बंदर को मोटरसाइकिल से पेट्रोल निकालकर पीते हुए देखा। मुझे देर होती जा रही थी और मन ही मन गुस्सा भी आ रहा था। मैने सोचा कि यह एक दिन की दवा देता है, कल फिर थकाएगा, ऐसे में मैने उसे तीन दिन की दवा देने को कहा। डॉक्टर ने दवा दी और फीस भी तीन गुनी ली। जो डॉक्टर मामूली फीस लेता है, उसकी फीस देखकर मैं भी चौंक गया। फिर यही ख्याल आया कि जब पेट्रोल, सब्जी, राशन-पानी आदि सभी की कीमत बढ़ गई है तो डॉक्टर भी फीस क्यों नहीं बढ़ाएगा।
भानु बंगवाल            

Tuesday, 3 July 2012

चौकीदार पर पहरेदारी.......(बचपन के दिन..अंतिम)

बचपन में एक पिक्चर देखी थी चौकीदार। पिक्चर की कहानी तो याद नहीं रही, लेकिन एक गाना जरूर याद है कि- राजा हो या रंक, यहां तो सब हैं चौकीदार। तब मुझे पिक्चर समझ नहीं आती थी और न ही पिक्चर के गाने। अब यही सोचता हूं कि पहले गानों में कितनी सार्थकता होती थी। वाकई में हर व्यक्ति को कहीं न कहीं चौकीदारी जरूर करनी पड़ती है। घर की चौकीदारी, छोटे बच्चों की चौकीदारी, जब बच्चे जवान हुए तो उन पर नजर रखने के रूप में चौकीदारी। यही नहीं घर में यदि चौकीदार रखा हो तो उसकी भी कई बार चौकीदारी करनी पड़ती है। मेरे मोहल्ले में तालाबंद मकानों में होने वाली चोरियों का एक बार पुलिस ने खुलासा किया तो पता चला कि मोहल्ले के चौकीदार का ही चोरियों में हाथ था।
घर की चौकीदारी के लिए अक्सर लोग कुत्ता पालते हैं। मेरे पास डोबरमैन प्रजाति का कुत्ता बुल्ली की उम्र जब दस साल से अधिक हो गई तो वह बूढ़ा होने लगा। किसी के पीछे-पीछे सीढ़ियों से वह घर की छत तक पहुंच जाता, लेकिन उतरते हुए उसकी हिम्मत जवाब दे जाती। पहले जिस कुत्ते को देखकर गली के आवारा कुत्ते रास्ता छोड़ देते थे, बाद में उस बुल्ली को देखकर गुर्राने लगे। जब बुल्ली बूढ़ा हो गया तो कई बार उस पर कुत्तों ने हमले भी किए। अक्सर उसे चोट लगती और वह लहूलुहान होकर घर आता। इस पर मैं उसके घाव पर दवाई लगाता। मैं दवाई लेकर घर के आंगन में बैठता और बुल्ली को पुकारता, तो वह मेरे बगल में लेट जाता। यदि पैर में चोट हो तो उसे मेरी तरफ बढ़ा देता। दर्द होता, लेकिन वह चूं तक नहीं करता। हां इतना जरूर है कि दवा लगाने व पट्टी बांधने के बाद जैसे ही मैं कहीं चला जाता, तो वह मुंह से पट्टी उतारने की कोशिश करता। ऐसे में पट्टी के ऊपर मैं बैंडेड चिपकाता, जिसे वह आसानी से उखाड़ नहीं पाता। पहले शरीर कमजोर हुआ, फिर नजर। फिर बुल्ली की भूख कम हुई और फिर एक दिन बीमार होने पर वह बाथरूम में सोने को लेट गया, फिर दोबारा वह उठ न सका। इस कुत्ते का जीवन करीब साढ़े बारह साल का रहा।
बु्ल्ली की मौत के बाद मैने जर्मन शेफर्ड प्रजाति का कुत्ता पालने की ठानी। मसूरी से कुत्ता मंगवाया गया। तब करीब सात हजार रुपये में कुत्ते का बीस दिन का बच्चा मिला। साथ ही उसकी जन्म तिथि का विवरण व डाइट चार्ट भी थमाया गया। काले रंग का कुत्ते का बच्चा एक जूते के डिब्बे में रखकर एक व्यक्ति घर लाया। उसे देखकर यह भी पता नहीं चल रहा था कि वह वाकई में जर्मन शेफर्ड है या कुछ और। अक्सर सभी कुत्तों के बच्चे एक समान ही दिखते हैं। इस कुत्ते का नाम मेरे बच्चों ने स्कूबी रखा। तुलनात्मक स्कूबी का व्यवहार बुल्ली की तरह नहीं था। उसे जल्द कोई बात समझ नहीं आती थी। जर्मन शेफर्ड की सुंदरता उसके खड़े कानों से मानी जाती है और चार माह के बाद भी उसके कान लटके हुए थे। ऐसे में उसे हर दिन कैल्शियम खिलाया जाता। करीब पंद्रह लीटर लिक्विड कैल्शियम उसे पिलाने के साथ ही हर दिन एक गोली खिलाई गई। तब जाकर उसके कान खड़े हुए। सच पूछो तो जितना खर्च मैने स्कूबी पर किया, उतना पहले किसी कुत्ते पर नहीं किया गया। घुमाने ले जाने पर स्कूबी को संभालना भी काफी कठिन था। अचानक वह चेन पर झटका मारता, ऐसे में खुद के गिरने का खतरा भी रहता था। कहना ना मानना, बुलाने पर पास न आना उसकी आदत बनती जा रही थी। साथ ही वह कई बार बच्चों पर भी दांत आजमा चुका था। ऐसे में इस कुत्ते से मुझे नफरत सी होने लगी। फिर भी मैं उसके खाने का पूरा ख्याल रखता। अक्सर कुत्ते बचपन में जूते, चप्पल कुतरते हैं, लेकिन स्कूबी की यह आदत बचपन बीतने के बाद भी नहीं गई। घर के सारे अंडर वियर व बनियान इस चौकीदार की नजर से बचाकर रखने पड़ते। उसका ऐसा  कोई भी काम नहीं याद आ रहा है कि जिसे उसकी महानता में शामिल कर सकूं।
घर का यह चौकीदार गेट खुलने पर मौका मिलते ही भाग जाता और उसे बुलाने के लिए बच्चे भी उसके पीछे दौड़ लगाते। बरसात के दिन थे। तब स्कूबी की उम्र करीब 14 महीने की थी। एक रात जब मैं आफिस से घर आया, तो पता चला कि स्कूबी गायब है। उसे काफी तलाश किया, लेकिन पता नहीं चला। कई ने कहा कि अच्छी प्रजाति के कुत्ते चोरी हो जाते हैं। स्कूबी को भी कोई चुरा ले गया होगा। कुछएक दिन मैं स्कूबी को घर के आसपास ही तलाशता रहा। बाद में उसकी तलाश बंद कर दी गई। मेरे एक मित्र गौरव ने बताया कि उसकी जर्मन शैफर्ड प्रजाति की कुतिया चोरी हो गई थी। जो करीब ढाई साल बाद अपने आप ही घर आ गई। उसके बाद से मैने कोई दूसरा कुत्ता नही पाला और इसी इंतजार में रहा कि कभी वह घर वापस जरूर आएगा। स्कूबी के गायब होने के पूरे पांच साल हो गए हैं। आज भी उसका इंतजार जारी है। (समाप्त)
भानु बंगवाल         

भटकों को बेजुवान ने दिखाई राह..(बचपन के दिन-5)

हर व्यक्ति की पहचान अलग-अलग तरीके से होती है। किसी की पहचान में व्यक्ति की खुद की आदत, स्वभाव या उसका काम शामिल होता है, तो किसी की पहचान उसके बच्चों से होती है। पहचान के तरीके भी अलग-अलग होते हैं। किसी को फलां का पिता या पति के नाम से जाना जाता है, तो किसी को उसके काम से जाना जाता है। मोहल्ले मैं एक महिला ज्यादा लंबी थी, तो उसके पति को लंबी महिला के पति के नाम से जाना जाता था। ज्यादातर महिलाओं के मामले में तो उनकी पहचान खुद की नहीं रहती। पहले फलां की बेटी, शादी के बाद फलां की पत्नी, बच्चे होने पर फलां की मां के नाम से ही जाना जाता है। मेरी पहचान शायद मोहल्ले में एक पत्रकार के रूप में हो, लेकिन पहले कुत्ते से ज्यादा थी। जब हमने कुत्ते पाले तो हो सकता है सामने लोग हमें नाम से पुकारते हों, लेकिन पीठ पीछे कुत्ते वाले के नाम से मुझे व भाई को जाना जाता था।
मेरे पास डोबरमैन प्रजाति का कुत्ता बुल्ली ही रह गया था। अपरिजित पर वह भौंकता तो जरूर था, लेकिन उसने अपने जीवनकाल में किसी को काटा नहीं था। बुल्ली काफी नटखट था। हर दिन शरारत उसका काम था। साथ ही वह बच्चों को काफी प्यार करता था। जब वह छोटा था और उसके साथ अन्य तीन कुतिया भी थी। खाना परोसने पर वह खाने के बर्तन ही लेकर दूर भाग जाता। पहले खुद खाता, तब जाकर अन्य का नंबर आता। जब हम खाना थाते तो हमने उसे उस दौरान खाना देने की आदत नहीं डाली। ऐसे में वह हमें खाना खाते देख चिल्लाता नहीं था। शांति से बैठकर अपने लिए खाने का इंतजार करता। बुल्ली को मैने गेट से समाचार पत्र कमरे तक लाना भी सिखाया। जब हॉकर समाचार पत्र डालता, तो मैं पेपर चिल्लाता। इसे सुनकर बुल्ली गेट तक जाता और समाचार पत्रों का बंडल उठाकर भीतर तक लाता। कई मर्तबा वह मुझे देने की बजाय बंडल को जमीन पर गिराकर उसे आगे के पैर से दबाकर बैठ जाता। काफी पुचकारने के बाद ही वह पेपर को छोड़ता। जबरदस्ती उससे कोई चीज छीनना आसान नहीं था। एक बार भाई की डे़ढ़ साल की बिटिया गुनगुन गेट से निकलकर घर से करीब सौ मीटर दूर तक सड़क में निकल गई। किसी की निगाह उस पर नहीं पड़ी। ऐसे में बुल्ली उससे आगे खड़ा हो गया और भौंककर उसे डराने लगा। डरकर वह वापस घर की तरफ भागी। यदि वह किसी दूसरे रास्ते पर जाती, तो उसके आगे बुल्ली खड़ा हो जाता। इस तरह उसे डराता हुआ वह वापस घर ले आया।
बुल्ली की एक आदत और थी कि वह हमें गमलों में पौध लगाते देखता और तब चुप रहता। जब हम पौध लगा देते तो बाद में उसे उखाड़कर दूर छिपा देता। ऐसा वह ज्यादातर कैक्टस को लगाते हुए ही ज्यादा करता। उसे शायद कैक्टस से नफरत थी। हो सकता है उसे उसके कांटे चुभे हों, ऐसे में वह कैक्टस पर भौंककर अपना विरोध भी जाहीर करता। कंटीले कैक्टस तो उसे फूटी आंख नहीं सुहाते थे। ऐसे में उसने घर में एक भी कैक्टस का पौधा रहने नहीं दिया। घर में यदि बुल्ली के रास्ते में कोई आ जाए तो एक बार वह वापस लौट जाता। फिर कुछ देर बाद दोबारा राउंड के दौरान भी उसका रास्ता क्लियर न हो और फर्श पर कोई बच्चा बैठा हो तो बुल्ली उनके ऊपर से छलांग लगाकर आगे बढ़ जाता। बुल्ली के जन्म के बाद मेरे भाई की शादी हुई, फिर बहन की और उसके बाद मेरी। जब मेरा बड़ा बेटा करीब सवा साल का था, तब जनवरी 2000 में मेरे पिताजी का निधन हो गया। छोटा बेटा तब तक हुआ नहीं था। भाई का परिवार शिमला रहता था। सुख और दुख के मौके पर घर में भीड़ जमा हो जाती है, तब भी ऐसा ही हुआ। मेरे चाचाजी के बेटे भी दिल्ली से परिवार के साथ दुख की उस घड़ी में शामिल होने देहरादून पहुंचे। अंतिम संस्कार के बाद तेहरवीं पर आएंगे कहकर वे वापस दिल्ली चले गए। एक सप्ताह बाद चाचा के बड़े बेटे का परिवार दिल्ली से हमारे घर आ रहा था। देहरादून पहुंचने पर उन्हें रात हो गई। उस रात काफी तेज बारिश हो रही थी। ऑटो से वे घर के करीब पहुंच गए, लेकिन उन्हें अंधेरे में यह अंदाजा नहीं हो रहा था कि किस गली में जाएं। कड़ाके की सर्दी वाली रात को सड़क पर कोई था नहीं, जिससे घर पूछते। ऐसे में तभी हमारी भाभी की निगाह बुल्ली पर पड़ी, तो ऑटो रुकवाया। बुल्ली अक्सर घर से निकलकर मोहल्ले का एक राउंड लेकर वापस आ जाता था। भाभी ने उसे पुकारा तो वह उनसे लिपट गया। भाभी ने ऑटो वाले से कहा कि अब इस कुत्ते के पीछे चलना, यही रास्ता बताएगा। ऑटो के स्टार्ट होते ही बुल्ली ने हमारी गली की ओर दौड़ लगा दी। कुछ आगे जाकर वह रुक गया और पलटकर देखते हुए उनके आने का इंतजार करने लगा। इसी तरह वह दौड़ता, रुकता, ऑटो के आने का इंतजार करता और फिर आगे बढ़ जाता। ऐसा वह तब तक करता रहा, जब तक वे घर तक नहीं पहुंच गए। (जारी)
भानु बंगवाल