Thursday, 28 November 2013

घर जवांई...

राजपुर रोड स्थित एक होटल के लॉन में लगे पंडाल में डीजे बज रहा था। भीतर वैडिंग चेयर में बैठे दुल्हा व दुल्हन को लोग आशीर्वाद दे रहे थे। दूल्हे के रूप में विवेक ने शानदार सफेद सूट पहना हुआ था, वहीं दुल्हन मोनू पिंक लहंगे में किसी स्वर्ग की अप्सरा जैसी नजर र्आ रही थी। जो भी मेहमान आते वे इस जोड़े को देखकर सुमंतो मुखर्जी को बधाई देते और कहते कि- वाह भाई आपने लड़की के अनुरूप ही सुंदर लड़का तलाशा है। सुमंतो व उनकी पत्नी सोनम मेहमानों से खाना खाने को जरूर पूछते। कहते कि बगैर खाए मत जाना। डीजे के संगीत में कुछ बच्चे व युवा डांस भी कर रहे थे। सुमंतो मुखर्जी की यह तीसरी बेटी की शादी थी। दो बेटी पहली पत्नी से थी। पत्नी चल बसी तो उन्होंने दूसरी शादी की। दूसरी पत्नी सोनम सरकारी नौकरी में थी।जब दूसरी शादी कि तो एक बेटी दस साल की थी और दूसरी आठ की। सुमंतो खुद बिजनेस करते थे। मजे में कट रही थी। पैसों की कमी नहीं थी। सोनम ने सोतेली बेटियों को भी सगी मां की तरह प्यार दिया। दोनों बेटियों की शादी समय से कर दी गई। सोनम ने भी बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम मोनू रखा गया। मोनू की शादी भी धूमधाम से होटल में की जा रही थी। मोनू ने अपने लिए खुद ही लड़का तलाशा था। वह उसके बचपन का साथी विवेक था। दोनों की दोस्ती इतनी बड़ी कि दोनों ने साथ साथ जीने की कसमें खाई। सुमंतो मुखर्जी व उनकी पत्नी ने भी विवेक को दामाद के रूप में स्वीकार कर लिया। क्योंकि वह मर्चेंट नेवी में अच्छी जोब में था।
विवाह सामारोह में मेहमान बढ़ते जा रहे थे। चारों तरफ चहल-पहल थी। इसी बीच करीब छह सात महिलाओं का एक जत्था विवाह स्थल पर पहुंच गया। उसे देखते ही सुमंतो मुखर्जी व उनकी पत्नी को मानो सांप सूंघ गया। दोनों एक कोने में खड़े हो गए। महिलाएं मंच के पास दुल्हा व दुल्हन के पास पहुंची। उनमें से एक पतली-दुबली व लंबी कद काठी की महिला विवेक के सामने खड़ी हो गई। शादी में पहुंची यह महिला घर के साधारण कपड़ों में ही थी। पूरे पंडाल में लोगों में सन्नाटा सा छा गया। हालांकि तब भी डीजे बज रहा था। महिला ने विवेक को कंधे से पकड़कर झंझोड़ा। उसके चेहरे पर थप्पड़ों की बरसात सी कर दी। सिर के बाल पकड़कर उसे मंच से नीचे घसीटा। जो लोग महिला को जानते नहीं थे, वे बीच-बचाव को आगे आने को हुए, लेकिन उन्हें दूसरे लोगों ने इशारा कर रोक दिया। विवेक चुपचाप किसी अपराधी की तरह मार खाता चला गया। जब महिला थक गई तो उसने जमीन से एक चुटकी मिट्टी उठाई और विवेक के ऊपर फेंकते हुए बोली-मेरे लिए आज से तू मर गया। यह कहते हुए वह अन्य महिलाओं के साथ रोती हुई वापस चली गई। विवाह समारोह में उत्पात मचाने वाली महिला को जो लोग नहीं जानते थे  , ऐसे एक व्यक्ति ने दूसरे से पूछा
-यह औरत कौन है और क्या माजरा है।
-यह दूल्हे की मां है, जो इस विवाह से खुश नहीं थी। उसकी मर्जी के खिलाफ ही चुपचाप से यह शादी हो रही थी। दूसरे ने जवाब दिया।
कमला का मन न तो खाने का कर रहा था और न ही उसे नींद ही आ रही थी। रात के नौ बज चुके थे और उसने चूल्हा तक नहीं जलाया। फिर उसे याद आया कि वह पति को क्यों सजा दे रही है। उसे तो खाना बना देना चाहिए। वह उठी और रसोई में चली गई। तभी पति गोविंद ने कमला से कहा- मुझे भूख नहीं है, मेरा खाना मत बनाना।
-क्यों आपकी भूख कहां उड़ गई, बेटा भी तो आपकी तरह ही अपनी मनमर्जी का है। पहले आपने मुझे कष्ट दिया अब बेटा दे रहा है।
-क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ती हो। पुरानी बातों को भूल जाओ-गोविंद बोला
-कैसे भूल सकती हूं, खैर हम क्यों भूखे रहें, बेटे ने तो दावत उड़ाई तो हम क्यों खाली पेट रहें। कब तक भूखे रहेंगे। मैं मेगी बनाती हूं। उसी से गुजारा कर लेंगे।
कमला ने मेगी बनाई, पति और अपने लिए भी कटोरी में डाली। पति ने तो खा ली, लेकिन वह दो चम्मच भी हलक से नीचे नहीं उतार सकी। फिर कुछ देर बाद बर्तन धोकर बिस्तर में लेट गई।
बिस्तर में लेटने के बाद नींद किसे थी। उसकी आंखों में पुरानी यादें ताजा हो रही थी। पुराने घाव दिल में हरे होने लगे। विवाह के बाद सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। पति गोविंद की प्राइवेट फर्म में नौकरी थी और वह सरकारी संस्थान के हॉस्टल में आया थी। बड़ी बेटी हुई, जिसका नाम बीना रखा। फिर बेटे ने जन्म लिया जिसका नाम विवेक रखा गया। जब बच्चों को मां-बाप के दुलार की जरूरत थी, तब कमला की किस्मत फूट गई। पति छोटे बच्चों को छोड़कर घर से भाग गया। वह किसी दूसरी महिला के मोहपाश में बंध गया। कमला ही दोनों बच्चों की परवरिश कर रही थी। अच्छे स्कूल में पढ़ाया। मुसीबत के वक्त कमला के देवर ने हर सुख-दुख में उसका साथ दिया। विवेक को लेकर कमला ने कई सपने बुने हुए थे। वह उसके बुढ़ापे का सहारा जो बनता। विवेक भी मां का लाडला था। मां को भी अपने बेटे पर गर्व था।
बच्चे युवा हुए फिर जवान। बीना की शादी एक बिल्डर से करा दी गई। वह ससुराल में खुश थी। विवेक की नौकरी एक शिप कंपनी में लग गई। वह छह माह या एक साल में घर आता। ढेरों गिफ्ट मां व बहन के लिए भी लाता। कमला ने देखा कि विवेक का झुकाव मोहल्ले में ही रहने वाले बंगाली परिवार की मोनू से हो रहा है। वह उसे सचेत करती और कहती कि उसके लिए नेपाली लड़की तलाश रही है। पर विवेक ने कुछ और ही ठान रखा था।
विवेक को यह पता था कि उसकी मां कभी भी उसे मर्जी से शादी करने नहीं देगी। वहीं मोनू के माता-पिता यही चाहते थे कि बुढापे में उनका सहारा मोनू व विवेक बनें। ऐसे में विवेक दो घरों की एकसाथ जिम्मेदारी कैसे उठा सकता है, यही बात उसे उलझाए रखती। वह ऐसी पक्की व्यवस्था करना चाहता था, जिससे उसकी मां अकेली न पड़े। जिस विवेक ने अपने पिता को अपनी याददाश्त में कभी नहीं देखा। जो पिता बेटे, बेटी व पत्नी की सुध लेने कभी नहीं आया। उसे एक दिन विवेक ने तलाश ही लिया। इस काम में विवेक की मदद उसके चाचा मेत्रू ने की। गोविंद जिस महिला के साथ रहता था, वह भी मर चुकी थी। ऐसे में घर वापसी में उसे कोई दिक्कत नहीं आई। फिर से कमला का परिवार भरा-पूरा हो गया।
कमला को अब यह रहस्य भी साफ-साफ समझ आ गया कि आखिरकार विवेक को 24 साल की उम्र में पिता प्रेम क्यों जागा। शायद इसलिए ही वह अपने पिता को तलाश कर घर वापस लाया कि वह खुद घर छोड़ना चाह रहा था। बेचारी कमला अभागी ही रही। पहले पति के व्योग में दिन काटे अब उसे बेटे के व्योग में दिन काटने की आदत डालनी थी। क्योंकि बेटा तो दूसरे घर में जाकर घर जवांई हो गया था।
भानु बंगवाल       

Saturday, 16 November 2013

वनवास या बदला....(कहानी)

त्रेता युग में राम को पिता ने 14 साल का वनवास दिया। जिसका उद्देश्य मानव जाति को राक्षसों के आतंक से मुक्त कराना था। राम ने पिता की आज्ञा को स्वीकार भी किया और धरती को राक्षसों से मुक्त भी कराया। वहीं कलयुग के इस पति ने अपनी पत्नी सावित्री को वनवास दे दिया। सावित्री को यह वनवास हर वक्त कचोटता रहा। सावित्री यही सोचती कि आखिर उसकी गलती क्या है। वह न तो कुलटा थी। पति का पूरा सम्मान करती थी। पति की हर आज्ञा का पालन करना उसका धर्म था। पर ऐसी आज्ञा भी क्या कि पति ही उसे मायके छोड़ दे और उसकी सुध तक न ले। फिर भी वह पति की आज्ञा का पालन करने को विवश थी और अपने भाग्य को निरंतर कोसती ऱहती।
रुद्रप्रयाग जनपद के एक गांव में सावित्री पैदा हुई थी और वहीं उसकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। गरीब परिवार से होने के कारण उसकी शिक्षा दीक्षा ज्यादा नहीं चल सकी। पांचवी पास हुई तो उसे घर व खेत के काम में जुटा दिया। उसका भविष्य यही बताया गया कि उसे दूसरे के घर जाना है और वहीं रहकर पति की सेवा करनी है। लड़की को ज्यादा पढ़ना लिखना नहीं चाहिए। पढ़ेगी भी कैसे, गांव में स्कूल हैं नहीं। अकेली लड़की को दूर शहर कैसे भेज सकते हैं। सावित्री जवान हुई तो उसका रिश्ता हरेंद्र से कर दिया गया। हरेंद्र देहरादून में अपने बड़े भाई जितेंद्र के साथ रहता था। जितेंद्र एक जाना माना मोटर साइकिल मैकेनिक था। उसका धंधा भी खूब चल पड़ा था। उसके पास हरेंद्र  के साथ ही करीब पांच-छह सहयोगी भी थे। जो हर वक्त मोटर साइकिल रिपेयरिंग के काम में व्यस्त रहते। विवाह के कुछ माह बाद हरेंद्र भी सावित्री को देहरादून अपने साथ ले आया। जितेंद्र का दो कमरों का छोटा का मकान था। उसमें दोनों भाइयों के परिवार रह रहे थे। आमदानी इतनी थी कि दोनों भाई आराम से गुजर-बसर कर रहे थे। सावित्री ही दोनों परिवार के सदस्यों का खाना तैयार करती। परिवार के कपड़े धोती व घर के वर्तन मांजती व सारा काम करती। वहीं, जितेंद्र की पत्नी रेनू घर में मालकिन की तरह रहती। रेनू ने एक कन्या को जन्म दिया। इसका नाम पूजा रखा गया।
कभी भी कोई परिवार एक जैसा नहीं रहता। उसमें सुख-दुख समय-समय पर आते रहते हैं। बार-बार समय का चक्र बदलता रहता है। बुरे वक्त में संघर्ष करना परिवार के सदस्यों की नियती बन जाती है। जितेंद्र के परिवार में भी जो आगे होना था, शायद उसका आभास किसी को भी नहीं था। एक रात जितेंद्र की तबीयत बिगड़ने लगी। तब पूजा करीब छह माह की थी। रेनू  व हरेंद्र ने उसे डॉक्टर के पास ले जाने को कहा, तो जितेंद्र ने यही कहा कि हल्का बुखार है, ठीक हो जाएगा। अगले दिन ही डॉक्टर के पास जाऊंगा। बुखार की दवा खाई और बिस्तर पर लेट गया। फिर पेट दर्द उठा और एक दो उल्टियां भी हुई। अब तो डॉक्टर के पास जितेंद्र को ले जाने की तैयारी हो रही थी, लेकिन तब तक इसको प्राण-पखेरू उड़ गए।
जितेंद्र की मौत के बाद हरेंद्र के स्वभाव में बदलाव आने लगा। उसका झुकाव अपनी भाभी की तरफ होने लगा। पत्नी सावित्री उसे डायन सी नजर आने लगी। बात-बात पर वह पत्नी की कमियां निकालता और उसे पीटता रहता। सावित्री एक भारतीय नारी होने के कारण पिटाई को पति से मिलने वाला प्रसाद ग्रहण कर चुपचाप सब कुछ सहन करती रहती। अत्याचार बढ़े और सावित्री का पति संग रहना भी मुश्किल होने लगा। एक दिन हरेंद्र उसे रुद्रप्रयाग उसके मायके छोड़ गया। यही तर्क दिया गया कि आर्थिक स्थिति अभी ऐसी नहीं है कि सावित्री को वह साथ रखेगा। तब जितेंद्र की मौत के छह माह हो गए और बेटी पूजा एक साल की हो गई थी। सावित्री मायके में रहकर पति के अत्याचारों से मुक्त तो हो गई, लेकिन पति के बगैर उसे  जिंदगी अधूरी लग रही थी। वह तो मायके मे रहकर वनवास काट रही थी। यह वनवास कितने साल का होगा, यह भी उसे पता नहीं था।
भाई का सारा काम संभावने के बाद हरेंद्र का कारोबार और तेजी से बढ़ने लगा। घर में पैसों की मानो बरसात हो रही थी। एक दिन वह अपनी भाभी रेनू के साथ उसके मायके सहारनपुर गया। एक सप्ताह बाद जब दोनों वापस लौटे तो रेनू की मांग पर सिंदूर चमक रहा था। दोनों ने सहारनपुर में एक मंदिर में शादी कर ली थी। विधवा विवाह कोई बुरी बात नहीं, लेकिन एक पत्नी के होते दूसरी रखना शायद समाज में किसी को भी सही नहीं लगा। फिर भी किसी के परिवार में क्या चल रहा है, इस पर सभी मौन थे। वहीं, पति के पास वापस लौटने की सावित्री की उम्मीद भी धूमिल पड़ गई। रेनू व पूजा के साथ हरेंद्र का परिवार खुश था, वहीं सावित्री अपनी किस्मत को कोस रही थी। हरेंद्र तरक्की कर रहा था। धंधा चला तो उसने ब्याज पर पैसे देने शुरू कर दिए। यह धंधा भी खूब फलने लगा। दो कमरों का मकान चार कमरों में बदल गया। पूजा जब सात साल की हुई तो रेनू ने एक और कन्या को जन्म दिया। इसका नाम अनुराधा रखा गया। इन सात सालों में हरेंद्र ने एक बार भी अपनी उस पत्नी सावित्री की एक बार भी सुध नहीं ली, जिसके साथ सात फेरे लेते समय उसने जन्म-जन्मांतर के साथ की कसम खाई थी।
रेनू ने दोनों बेटियों को अच्छे स्कूल में डाला हुआ था। हरेंद्र व रेनू के बीच शायद ही कभी कोई झगड़ा हुआ हो। वे सभी खुश थे। तभी रेनू के गले में दर्द की शिकायत होने लगी। कभी एलर्जी तो कभी छाती में जलन। हर डॉक्टर परीक्षण करता और दवा देता, लेकिन फर्क कुछ नहीं हो रहा था। बीमारी की तलाश में पैसा पानी की तरह बह रहा था। बीमारी जब पकड़ में आई तो समय काफी आगे निकल चुका था। रेनू के गले की नली काफी सड़ चुकी थी। चीरफाड़कर डॉक्टरों ने खराब नली निकालकर कृत्रिम नली डाल दी। बीमारी की वजह से रेनू कमजोर पड़ने लगी। पेट में भी पानी भरने लगा। हरेंद्र ही हर तीसरे दिन मोटी सीरिंज से ही इस पानी को निकालता था। जैसा कि उसे डॉक्टर ने बताया था। इस बीच इलाज के लिए जब पैसों की कमी हुई तो हरेंद्र को मकान तक बेचना पड़ा। उसने एक छोटा दो कमरे का मकान लिया और बाकी पैसों को रेनू के इलाज में लगया। जब पूजा 14 साल और अनुराधा छह साल की हुई तो रेनू भी चल बसी। तब तक हरेंद्र का धंधा पूरी तरह से बिखर चुका था। उसके पास काम करने वाले मैकेनिकों ने दूसरी दुकानें पकड़ ली। कई ने अपनी ही दुकानें खोल ली। हरेंद्र को अब खुद नौकरी तलाशने की जरूरत पड़ने लगी। वह सहारनपुर में एक दुकान में काम करने लगा। बेटियों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। पड़ोस के लोगों की मदद से बेटियों को देखभाल हो रही थी। किसी ने उसे सलाह दी कि अपनी पहली पत्नी सावित्री को मनाकर वापस ले आए। वही अब उसका बिखरा घर संभाल सकती है।
सावित्री मानो हरेंद्र का ही इंतजार कर रही थी। उसे मायके रूपी वनवास में 14 साल पूरे हो गए थे। उसने दूसरा विवाह भी नहीं किया था। वह खुशी-खुशी हरेंद्र के साथ देहरादून आ गई। सावित्री के दो जुड़वां बच्चे हुए। इनमें एक लड़का व एक लड़की थे। फिर उसने एक और बेटी को जन्म दिया। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होने लगे सौत के बच्चों से उसका प्यार कम होने लगा। वह बात-बात पर पूजा को ताने देने लगी। पूजा शांत स्वभाव की थी। जैसा नाम, वैसा स्वभाव। वह नियमित रूप से मंदिर जाती। हर त्योहार में व्रत रखती। जैसे-तैसे उसने पढ़ाई पूरी की। बहन अनुराधा का भी उसने पूरा ख्याल रखा। फिर जब सौतेली मां का अत्याचार लगातार बढ़ता चला गया तो उसने एक युवक से विवाह कर लिया। वह अपनी बहन अनुराधा को भी साथ ले गई। अब हरेंद्र के घर में सावित्री और उसके तीन बच्चे रह गए हैं। पहले सावित्री ने वनवास सहा और अब हरेंद्र की बेटी अनुराधा वनवास पर है। फिर भी वह वनवास पर अपनी बड़ी बहन के साथ है और इससे वह खुश है। साथ ही हरेंद्र के परिवार के लिए भी रोज-रोज की कलह से यह अच्छा है। सावित्री ने जहां 14 साल का वनवास रेनू के कारण झेला, वहीं उसने भी रेनू की छोटी बेटी को पिता से अलग कर उसे वनवास में भेजकर अपना बदला चुका लिया।
भानु बंगवाल      

Saturday, 9 November 2013

भगोड़ा....(कहानी)

प्रकाश तो बचपन से ही सुनहरे भविष्य के सपने देखता था, लेकिन सपने कब पूरे होंगे यह उसे पता नहीं था। वह तो बस भाग रहा था। कभी जमाने में कुछ पाने के लिए तो कभी अपना अस्तित्व बचाने के लिए। क्या था उसका अस्तित्व यह भी उसे नहीं पता था। हां इतना जरूर था कि वह दूसरे लड़कों से कुछ अलग था। संगी साथी जब स्कूल से घर आकर मैदान में खेलने जाते, तो वह घर के काम में अपनी माता का हाथ बंटाता था। मैदान में कभी कभार ही जाता। घर के काम के साथ ही वह पढ़ाई के लिए समय निकालता। पढ़ाई में वह सामान्य था और उसे यह भी नहीं पता था कि पढ़ाई के बाद वह क्या करेगा। क्योंकि उसे किसी से कोई दिशा निर्देशन तक नही मिला था। वह तो बस भाग रहा था। इसी आपाधापी में वह पढ़ाई के दौरान ही कभी छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर तो कभी केन की कुर्सी बनकर अपनी जेब खर्च लायक पैसा भी कमा लेता।
पढ़ाई पूरी करने के बाद भी प्रकाश को सरकारी नौकरी नहीं मिली। मिलती भी कैसे, नौकरी के लिए या तो तगड़ी सिफारिश चाहिए थी, या फिर उसे इतनी कुशाग्र बुद्धि का होना चाहिए था कि वह इंटरव्यू में सब को पछाड़कर नौकरी पा ले। यह दोनों ही खूबियां उसमें नहीं थी। वह तो बस सामान्य था। सामान्य के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। फिर भी प्रकाश खाली नहीं था। वह अपने व परिवार की मदद के लायक कोई न कोई रोजगार तलाश ही लेता था। जब उसके साथ के युवा मस्ती करते तो वह काम में खटता रहता। उसकी भी इच्छा होती कि वह अपने दोस्तों की तरह मस्ती करे। खूब पैसा कमाए। एक प्रेमिका हो, जिसके साथ कुछ साल तक प्रेम की पींगे बढ़ाए, फिर बाद में उसके साथ घर बसा ले। कभी वह सपना देखता कि एक राजकुमारी भीड़ में उसकी तरफ आकर्षित होती है, फिर उससे शादी का प्रस्ताव रखती है। सपना तो सपना है। फिर भी वह खूब पैसे कमाने का सपना देखता। इसे पूरा करने के लिए एक ठेकेदार के पास काम करने लगा। वह सपना देखता कि ठेकेदारी का काम सीखकर वह अपना काम शुरू करेगा, लेकिन इसके लिए पैसा कहां से आएगा, यह उसे पता नहीं था। ठेकेदार भी प्रकाश की मेहनत का कायल था। वह प्रकाश को यह जताता कि जैसे प्रकाश अपना ही काम कर रहा है। वह भी मालिक है, लेकिन जब वेतन देने का समय आता तो प्रकाश मात्र नौकर होता। वही घिसा पिटा डायलाग ठेकेदार मारता कि जब तेजी से काम बढ़ेगा, तब प्रकाश के ऊपर नोटों की बारिश होगी। यह बारिश कब होगी इसका उसे पता नहीं था, फिर भी वह दौड़ रहा था और सबसे तेज दौड़ना चाहता था।
प्रकाश के घर से सामने जो परिवार रहता था, वहां कुछ दिनों से खूब चहल-पहल हो रखी थी। कारण था कि पड़ोसी गजेंद्र की ससुराल से उसकी सास व साली आदि आए हुए थे। गजेंद्र की पत्नी व एक बेटी थी। सहारनपुर से ससुराल के लोगों के आने पर उनके घर से सुबह से ही हंसी के फव्वारे सुनाई देते थे। प्रकाश को इतनी भी फुर्सत नहीं थी कि उनके घर की तरफ झांक कर देखे कि कौन आए हैं। वह तो बस आवाज सुनकर ही अंदाजा लगाता। सुबह सात बजे काम को घर से निकल जाता और रात को जब घर पहुंचता तो आधा शहर सो रहा होता। फिर भी सुबह तड़के व देर रात तक पड़ोस से आवाजें आती, जो उसे उत्सुकता में डालती कि वहां जो आए हैं वे कैसे हैं।
सर्दी का मौसम था। मौसम बदलते ही प्रकाश भी वायरल की चपेट में आ गया। काम से छुट्टी ली। डॉक्टर से दवा ली और घर बैठ आराम करने लगा। कमरे में ठंड ज्यादा थी, तो वह छत पर धूप सेंकने चला गया। तभी उसे सामने वाली छत पर एक युवती नजर आई। युवती नहा कर छत में बाल सुखाने आई थी। उसकी उम्र करीब 18 या 19 रही होगी। रंग गोरा, कद-काठी सामान्य, यानी सुंदरता के लगभग सभी गुण उसमें प्रकाश को नजर आए। वह उसे देखता ही चला गया। युवती भी शायद ताड़ गई कि पड़ोस का युवक उसमें दिलचस्पी ले रहा है। यह युवती प्रकाश के पड़ोसी की साली थी। पड़ोसी की तीन सालियां था। बड़ी की शादी हो रखी थी। दो कुंवारी थी, उनमें यह युवती बीच की थी, जिसका घर का नाम गुल्लो था। कुछ देर इठलाकर, प्रकाश पर नजरें मारकर युवती छत से नीचे उतरकर कमरे में चली गई और प्रकाश छत से उतरना ही भूल गया। पूरी दोपहर से शाम तक छत पर ही रहा। कभी समय काटने को कहानी की किताब पड़ता और कनखियों से पड़ोसी की छत पर देखता कि शायद युवती दोबारा आए। वह युवती के साथ जीते-जागते ख्वाब देखने लगा। उसे लग रहा था कि शायद वही उसका प्यार है, जिसके लिए वह पैदा हुआ। युवती के दोबारा छत में न आने पर प्रकाश निराश हो गया था।
पड़ोसी की बेटी का जन्मदिन था। प्रकाश के घर भी भोजन का न्योता मिला। प्रकाश काफी खुश था कि जन्मदिन के बहाने युवती को दोबारा देखने का मौका मिलेगा। प्रकाश की मोहल्ले में छवि अच्छी थी। सभी उसे नेक व चरित्रवान मानते थे। वह जब बातें करता तो सभी से घुलमिल जाता था। जन्मदिन पार्टी में भी वह पड़ोसी के घर ऐसे काम करने लगा कि जैसे उसी घर का सदस्य हो। कभी वह चाय परोसता तो कभी मेहमानों तक प्लेट में पकोड़े व अन्य खानपान की वस्तुएं पहुंचाता। इसी दौरान एक बार कीचन में एक ऐसा मौका आया कि प्रकाश व युवती दोनों ही अकेले थे। तब प्रकाश युवती के पास धीरे से फुसफुसाया...आप बहुत सुंदर हो, मुझे आपसे प्यार होने लगा है। यह कहने भर के लिए वह थर-थर कांप रहा था। उसमें युवती की प्रतिक्रिया तक जानने का साहस नहीं हुआ। वह चाय की ट्रे लेकर बाहर निकल गया।
जन्मदिन मनाने के बाद पड़ोसी के ससुराल वाले भी अपने घर लौट गए और प्रकाश भी अन्य दिनों की तरह ड्यूटी को जाने लगा। उसका मन न तो काम में लगता और न ही उसे भूख लगती। रह-रहकर गुल्लो की सूरत ही उसे नजर आती। नींद में भी और जागते हुए भी। वह गुल्लो से बात करना चाहता था। मीठी-मीठी बातें कर उसे समझना चाहता था, लेकिन उस तक पहुंचने का उसे रास्ता नहीं सूझ रहा था। किस्मत ने पलटी मारी और ठेकेदार ने प्रकाश को सनमाइका के कुछ टुकड़े सौंपे और कहा कि इन सेंपलों के लेकर सहारनपुर जाओ। वहां जिस दुकान में ऐसी डिजाइन की सनमाइका मिले, वहां कुछ एडवांस देकर आर्डर बुक करा देना। सहारनपुर का नाम सुनते ही प्रकाश का दिल सीने से उछलकर हलक में आ गया। वह बिजनेस की बातें समझकर ठेकेदार से सहारनपुर जाने को विदा हुआ, लेकिन सीधे अपने पड़ोसी के घर पहुंचा। वहां जाकर उसने पड़ोसी से कहा कि मुझे सहारनपुर जाना है। वहां के बाजार का मुझे ज्ञान नहीं है। तु्म्हारा ससुराल सहारनपुर है। तुम्हारे दो साले हैं। वहां का पता दे दो, मैं तुम्हारे एक साले को साथ लेकर बाजार जाउंगा तो परेशानी कम होगी।
सज्जन पडो़सी ने एक कागज में पता लिखा। साथ ही एक मैप भी बना दिया कि बस अड्डे से वह कैसे उसकी ससुराल तक पहुंचेगा। पता जेब में डालकर प्रकाश सहारनपुर को रवाना हो गया। सहारनपुर पहुंचने के बाद प्रकाश को पड़ोसी के ससुराल को तलाशने में परेशानी नहीं हुई। वह उस घेर (आहता) तक पहुंच गया, जहां गुल्लो उससे मिलने वाली थी। पुरानी हवेलीनुमा मकान की उधड़ती सीढ़ियां चढ़कर प्रकाश एक दरवाजे के सामने पहुंचा। वहां गुल्लो को झा़ड़ू मारते देखा, प्रकाश उसके सामने खड़ा हो गया। अचानक प्रकाश को सामने देख गुल्लो आश्चर्यचकित हो गई। उसने पूछा कैसे आए। प्रकाश से जवाब मिला आपसे मिलने। घर में कोई नजर नहीं आ रहा था। गुल्लो उसे कमरे में ले गई। वह सोफे में बैठ गया। प्रकाश ने पूछा कि बाकी सब कहां हैं। गुल्लो इठलाती हुई बोली कि आप आ रहे थे, मैने सभी को भगा दिया। शाम तक कोई नहीं आएगा। वह रसोई में जाकर प्रकाश के लिए चाय बनाने लगी। प्रकाश भी पीछे-पीछे रसोई में चला गया। उसने गुल्लो का हाथ पकड़ा। फिर माथा चूम लिया। गुल्लो ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। न वह हंसी और न ही चिढ़ी। प्रकाश डर गया वह वापस सौफे में बैठ गया। अब प्रकाश  सोचने लगा कि वह वहां क्यों आया। क्या उसकी मंजिल गुल्लो है। या फिर उसे अभी जीवन में बहुत कुछ करना है। अभी उसकी उम्र 21 साल ही तो है। अभी वह ठीक से कामाता तक नहीं। यदि प्रेम के जाल में फंस गया तो शायद वह बर्बाद हो जाएगा। मेरी मंजिल तो यहां नहीं है। मुझे तो सहारनपुर के बाजार में सनमाइका का सेंपल लेकर घूमना है। जहां सेंपल से मिलतीजुलती सनमाइका मिलेगी, वहीं मेरा काम खत्म। मैं क्यों इस माया के जाल में फंस रहा हूं। भाग निकल प्रकाश, वर्ना बाद में पछताना पड़ेगा।
इसी बीच गुल्लो चाय लेकर पहुंच गई। तभी उनके घर एक व्यक्ति ने प्रवेश किया। वह उनका परिचित था,  जो शायद गांव से गुल्लो के पिता के पैसे देने आया था। गुल्लो ने उसे टरकाने के उद्देश्य से यह कहा कि मेरे पिताजी चार घंटे बाद आएंगे, लेकिन वह वापस जाने को टस से मस नहीं हुआ और घर पर ही बैठकर इंतजार करने की बात कहने लगा। तभी गुल्लो ने घर से दूर एक फेमस दुकान का नाम बताया और वहां से गाजर का हलवा लाने को भेज दिया। वह चला गया। प्रकाश ने चाय पी और गुल्लो से विदा लेने को उठने लगा। पर गुल्लो तो कुछ और चाह रही थी। उसने मुख्य द्वार बंद कर चटकनी लगा दी। वह प्रकाश को पकड़कर बिस्तर की तरफ खींचने लगी। जिस गुल्लो को लेकर प्रकाश कई दिनों से सपने देखता आ रहा था, वह चकनाचूर हो गए। वही गुल्लो उसे भयानक  सूपर्नखा नजर आने लगी। वह उससे पीछा छुड़ाना चाह रहा था। उसे गुल्लो से घीन आने लगी। उसका पूरा शरीर डर से कांप रहा था, वहीं गुल्लो वासना से कांप रही थी। उसने गुल्लो से कहा कि वह एक घंटे बाद दोबारा आएगा। तब तक वह इंतजार करे। वह प्रकाश का रास्ता रोक खड़ी हो गई। इस पर प्रकाश ने उसे थप्पड़ रसीद कर दिया। फिर चटकनी खोली तो देखा कि सामने की छत से कुछ महिलाएं उसी घर की तरफ टकटकी लगाए देख रही। जो शायद किसी तमाशे के इंतजार में थीं। प्रकाश तेजी से साथ दरवाजे की दहलीज लांघ कर निकल गया। उसने पीछे मुड़कर देखने का साहस तक नहीं किया। वहीं गुल्लो खिड़की से उसे जाता हुआ देख रही थी। उसे आश्चर्य हुआ कि जो उसे देखकर लट्टू होता था, वह तो भगोड़ा निकला। वहीं प्रकाश ने हमेशा से लिए दिल से गुल्लो को निकाल दिया और फिर कुछ बनने के लिए जारी दौड़ में शामिल हो गया।
भानु बंगवाल