Saturday, 16 November 2013

वनवास या बदला....(कहानी)

त्रेता युग में राम को पिता ने 14 साल का वनवास दिया। जिसका उद्देश्य मानव जाति को राक्षसों के आतंक से मुक्त कराना था। राम ने पिता की आज्ञा को स्वीकार भी किया और धरती को राक्षसों से मुक्त भी कराया। वहीं कलयुग के इस पति ने अपनी पत्नी सावित्री को वनवास दे दिया। सावित्री को यह वनवास हर वक्त कचोटता रहा। सावित्री यही सोचती कि आखिर उसकी गलती क्या है। वह न तो कुलटा थी। पति का पूरा सम्मान करती थी। पति की हर आज्ञा का पालन करना उसका धर्म था। पर ऐसी आज्ञा भी क्या कि पति ही उसे मायके छोड़ दे और उसकी सुध तक न ले। फिर भी वह पति की आज्ञा का पालन करने को विवश थी और अपने भाग्य को निरंतर कोसती ऱहती।
रुद्रप्रयाग जनपद के एक गांव में सावित्री पैदा हुई थी और वहीं उसकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। गरीब परिवार से होने के कारण उसकी शिक्षा दीक्षा ज्यादा नहीं चल सकी। पांचवी पास हुई तो उसे घर व खेत के काम में जुटा दिया। उसका भविष्य यही बताया गया कि उसे दूसरे के घर जाना है और वहीं रहकर पति की सेवा करनी है। लड़की को ज्यादा पढ़ना लिखना नहीं चाहिए। पढ़ेगी भी कैसे, गांव में स्कूल हैं नहीं। अकेली लड़की को दूर शहर कैसे भेज सकते हैं। सावित्री जवान हुई तो उसका रिश्ता हरेंद्र से कर दिया गया। हरेंद्र देहरादून में अपने बड़े भाई जितेंद्र के साथ रहता था। जितेंद्र एक जाना माना मोटर साइकिल मैकेनिक था। उसका धंधा भी खूब चल पड़ा था। उसके पास हरेंद्र  के साथ ही करीब पांच-छह सहयोगी भी थे। जो हर वक्त मोटर साइकिल रिपेयरिंग के काम में व्यस्त रहते। विवाह के कुछ माह बाद हरेंद्र भी सावित्री को देहरादून अपने साथ ले आया। जितेंद्र का दो कमरों का छोटा का मकान था। उसमें दोनों भाइयों के परिवार रह रहे थे। आमदानी इतनी थी कि दोनों भाई आराम से गुजर-बसर कर रहे थे। सावित्री ही दोनों परिवार के सदस्यों का खाना तैयार करती। परिवार के कपड़े धोती व घर के वर्तन मांजती व सारा काम करती। वहीं, जितेंद्र की पत्नी रेनू घर में मालकिन की तरह रहती। रेनू ने एक कन्या को जन्म दिया। इसका नाम पूजा रखा गया।
कभी भी कोई परिवार एक जैसा नहीं रहता। उसमें सुख-दुख समय-समय पर आते रहते हैं। बार-बार समय का चक्र बदलता रहता है। बुरे वक्त में संघर्ष करना परिवार के सदस्यों की नियती बन जाती है। जितेंद्र के परिवार में भी जो आगे होना था, शायद उसका आभास किसी को भी नहीं था। एक रात जितेंद्र की तबीयत बिगड़ने लगी। तब पूजा करीब छह माह की थी। रेनू  व हरेंद्र ने उसे डॉक्टर के पास ले जाने को कहा, तो जितेंद्र ने यही कहा कि हल्का बुखार है, ठीक हो जाएगा। अगले दिन ही डॉक्टर के पास जाऊंगा। बुखार की दवा खाई और बिस्तर पर लेट गया। फिर पेट दर्द उठा और एक दो उल्टियां भी हुई। अब तो डॉक्टर के पास जितेंद्र को ले जाने की तैयारी हो रही थी, लेकिन तब तक इसको प्राण-पखेरू उड़ गए।
जितेंद्र की मौत के बाद हरेंद्र के स्वभाव में बदलाव आने लगा। उसका झुकाव अपनी भाभी की तरफ होने लगा। पत्नी सावित्री उसे डायन सी नजर आने लगी। बात-बात पर वह पत्नी की कमियां निकालता और उसे पीटता रहता। सावित्री एक भारतीय नारी होने के कारण पिटाई को पति से मिलने वाला प्रसाद ग्रहण कर चुपचाप सब कुछ सहन करती रहती। अत्याचार बढ़े और सावित्री का पति संग रहना भी मुश्किल होने लगा। एक दिन हरेंद्र उसे रुद्रप्रयाग उसके मायके छोड़ गया। यही तर्क दिया गया कि आर्थिक स्थिति अभी ऐसी नहीं है कि सावित्री को वह साथ रखेगा। तब जितेंद्र की मौत के छह माह हो गए और बेटी पूजा एक साल की हो गई थी। सावित्री मायके में रहकर पति के अत्याचारों से मुक्त तो हो गई, लेकिन पति के बगैर उसे  जिंदगी अधूरी लग रही थी। वह तो मायके मे रहकर वनवास काट रही थी। यह वनवास कितने साल का होगा, यह भी उसे पता नहीं था।
भाई का सारा काम संभावने के बाद हरेंद्र का कारोबार और तेजी से बढ़ने लगा। घर में पैसों की मानो बरसात हो रही थी। एक दिन वह अपनी भाभी रेनू के साथ उसके मायके सहारनपुर गया। एक सप्ताह बाद जब दोनों वापस लौटे तो रेनू की मांग पर सिंदूर चमक रहा था। दोनों ने सहारनपुर में एक मंदिर में शादी कर ली थी। विधवा विवाह कोई बुरी बात नहीं, लेकिन एक पत्नी के होते दूसरी रखना शायद समाज में किसी को भी सही नहीं लगा। फिर भी किसी के परिवार में क्या चल रहा है, इस पर सभी मौन थे। वहीं, पति के पास वापस लौटने की सावित्री की उम्मीद भी धूमिल पड़ गई। रेनू व पूजा के साथ हरेंद्र का परिवार खुश था, वहीं सावित्री अपनी किस्मत को कोस रही थी। हरेंद्र तरक्की कर रहा था। धंधा चला तो उसने ब्याज पर पैसे देने शुरू कर दिए। यह धंधा भी खूब फलने लगा। दो कमरों का मकान चार कमरों में बदल गया। पूजा जब सात साल की हुई तो रेनू ने एक और कन्या को जन्म दिया। इसका नाम अनुराधा रखा गया। इन सात सालों में हरेंद्र ने एक बार भी अपनी उस पत्नी सावित्री की एक बार भी सुध नहीं ली, जिसके साथ सात फेरे लेते समय उसने जन्म-जन्मांतर के साथ की कसम खाई थी।
रेनू ने दोनों बेटियों को अच्छे स्कूल में डाला हुआ था। हरेंद्र व रेनू के बीच शायद ही कभी कोई झगड़ा हुआ हो। वे सभी खुश थे। तभी रेनू के गले में दर्द की शिकायत होने लगी। कभी एलर्जी तो कभी छाती में जलन। हर डॉक्टर परीक्षण करता और दवा देता, लेकिन फर्क कुछ नहीं हो रहा था। बीमारी की तलाश में पैसा पानी की तरह बह रहा था। बीमारी जब पकड़ में आई तो समय काफी आगे निकल चुका था। रेनू के गले की नली काफी सड़ चुकी थी। चीरफाड़कर डॉक्टरों ने खराब नली निकालकर कृत्रिम नली डाल दी। बीमारी की वजह से रेनू कमजोर पड़ने लगी। पेट में भी पानी भरने लगा। हरेंद्र ही हर तीसरे दिन मोटी सीरिंज से ही इस पानी को निकालता था। जैसा कि उसे डॉक्टर ने बताया था। इस बीच इलाज के लिए जब पैसों की कमी हुई तो हरेंद्र को मकान तक बेचना पड़ा। उसने एक छोटा दो कमरे का मकान लिया और बाकी पैसों को रेनू के इलाज में लगया। जब पूजा 14 साल और अनुराधा छह साल की हुई तो रेनू भी चल बसी। तब तक हरेंद्र का धंधा पूरी तरह से बिखर चुका था। उसके पास काम करने वाले मैकेनिकों ने दूसरी दुकानें पकड़ ली। कई ने अपनी ही दुकानें खोल ली। हरेंद्र को अब खुद नौकरी तलाशने की जरूरत पड़ने लगी। वह सहारनपुर में एक दुकान में काम करने लगा। बेटियों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। पड़ोस के लोगों की मदद से बेटियों को देखभाल हो रही थी। किसी ने उसे सलाह दी कि अपनी पहली पत्नी सावित्री को मनाकर वापस ले आए। वही अब उसका बिखरा घर संभाल सकती है।
सावित्री मानो हरेंद्र का ही इंतजार कर रही थी। उसे मायके रूपी वनवास में 14 साल पूरे हो गए थे। उसने दूसरा विवाह भी नहीं किया था। वह खुशी-खुशी हरेंद्र के साथ देहरादून आ गई। सावित्री के दो जुड़वां बच्चे हुए। इनमें एक लड़का व एक लड़की थे। फिर उसने एक और बेटी को जन्म दिया। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होने लगे सौत के बच्चों से उसका प्यार कम होने लगा। वह बात-बात पर पूजा को ताने देने लगी। पूजा शांत स्वभाव की थी। जैसा नाम, वैसा स्वभाव। वह नियमित रूप से मंदिर जाती। हर त्योहार में व्रत रखती। जैसे-तैसे उसने पढ़ाई पूरी की। बहन अनुराधा का भी उसने पूरा ख्याल रखा। फिर जब सौतेली मां का अत्याचार लगातार बढ़ता चला गया तो उसने एक युवक से विवाह कर लिया। वह अपनी बहन अनुराधा को भी साथ ले गई। अब हरेंद्र के घर में सावित्री और उसके तीन बच्चे रह गए हैं। पहले सावित्री ने वनवास सहा और अब हरेंद्र की बेटी अनुराधा वनवास पर है। फिर भी वह वनवास पर अपनी बड़ी बहन के साथ है और इससे वह खुश है। साथ ही हरेंद्र के परिवार के लिए भी रोज-रोज की कलह से यह अच्छा है। सावित्री ने जहां 14 साल का वनवास रेनू के कारण झेला, वहीं उसने भी रेनू की छोटी बेटी को पिता से अलग कर उसे वनवास में भेजकर अपना बदला चुका लिया।
भानु बंगवाल      

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