Sunday, 29 April 2012

मातृ शक्तिः तेरे जज्बे को सलाम

मातृ शक्तिः तेरे जज्बे को सलाम
कहते हैं कि जब किसी मोहल्ले में एक समान विचारधारा वाले ज्यादा लोग रहते हैं, तो वहां बसने वाले अन्य लोग भी ऐसे लोगों से प्रभावित होकर उनकी ही तरह बन जाते हैं।ऐसे ही एक मोहल्ले की महिलाएं मुझे सादगी, संयम, ममता व दयालु की प्रतीक नजर आई।एक-दूसरे के दुख-सुख में शामिल होना। आपसी मदद के लिए हमेशा तैयार रहना।कभी आपस में न झगड़ना आदि सभी गुण इस मोहल्ले की महिलाओं में थे।
करीब पच्चीस साल पहले देहरादून में राजपुर रोड स्थित सेंट्रल ब्रेल प्रेस से सटकर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान की कालोनी विकसित हो रही थी।शुरूआत में वहां आठ मकान बने और कर्मचारियों को आवंटित कर दिए गए।उस समय राजपुर रोड पर ट्रैफिक काफी कम रहता था।जहां कर्मचारियों के मकान थे, वहां से आबादी करीब पौन किलोमीटर दूर थी।मुख्य मार्ग से सटी इस छोटी की कालोनी में पांच परिवार दृष्टिहीन कर्मचारियों के और तीन परिवार सामान्य कर्मचारियों के थे।सभी कर्मचारियों में आपसी मेलमिलाप था।दृष्टिहीन कर्मचािरयों में सभी की पत्नी व बच्चे भी थे, जो सामान्य थे।इन परिवारों में आपसी मेलमिलाप भी काफी अधिक था।
तब राजपुर रोड शाम सात बजे के बाद से सुनसान हो जाती थी।आवागमन के लिए लोगों को काफी परेशानी उठानी पड़ती थी।मसूरी के पहाड़ों व बरसाती नदियों में खनन का व्यापार तब जोरों पर था।ऐसे में सड़क पर ट्रक ज्यादा चलते थे। बरसात के दिन थे।रात करीब साढ़े आठ बजे कालोनी के सामने सड़क पर एक तारकोल के ड्रमों से भरा ट्रक पलट गया।इस दुर्घटना के होते ही कालोनी के लोगों में हड़कंप मच गया।रात को गहरा अंधेरा था और बारिश भी थी।साथ ही कालोनी में रहने वाले आठ परिवारों में सामान्य पुरुषों की संख्या भी तीन थी।बाकी दृष्टिहीन थे।ऐसे में महिलाओं ने ही मोर्चा संभाला टॉर्च व लालटेन लेकर वह वहां पहुंच गई, जहां ट्रक पलटा हुआ था।तभी मैं और मेरा एक मित्र भी वहां पहुंच गए।सड़क किनारे गहरा खाला था।वहां तारकोल से भरे भारी ड्रम चारों तरफ बिखरे पड़े थे।इन ड्रमों की चपेट में आकर कई मजदूर घायल होकर लहूलुहान हो रखे थे।इधर-उधर करीब आठ मजदूरोंे को अंधेरे में तलाश किया गया।इनमें से अधिकांश बेहोश थे, तब यह जानना भी मुश्किल था कि कौन जिंदा है या मुर्दा।कई तमाशबीन भी मौके पर आ गए, लेकिन उन्होंने तमाशा ही देखा।किसी घायल को उठाकर सड़क किनारे लाने की जहमत तक नहीं उठाई।
तब गजब की शक्ति नजर आई उन महिलाओ में। साक्षात दुर्गा का रूप लेकर महिलाओं ने मुझ जैसे दो-तीन युवाओं की मदद से घायलों को उठाकर सड़क तक पहुंचाया।तभी एक खाली  विक्रम (टैंपो) सड़क पर नजर आया।महिलाओं ने उसे रुकवाया और घायलों को अस्पताल तक ले जाने में मदद मांगी।महिलाओं के हौंसले को देख चालक भी मदद को तैयार हो गया।बेहोश मजदूरों को बिक्रम में डाला गया।महिलाओं ने चालक को पैसे देने का प्रयास किया, लेकिन चालक ने पैसे लेन से इंकार कर दिया।वह मजदूरों को टैंपो में लादकर अस्पताल की तरफ रवाना हो गया। अगले दिन पता लगा कि समय से उपचार मिलने पर सभी मजदूरों की जान बच गई।
इसके बाद भी महिलाओं ने झािड़यों में तलाश किया कि कहीं अन्य घायल मजदूर तो नहीं पड़ा है।पूरी तसल्ली के बाद ही सभी अपने घर को रवाना हुए।मैं जब घर पहुंचा तो मेरे कपड़े पहनने लायक नहीं बचे थे।मेरी तरह मजदूरों के अन्य मददगारों का भी यही हाल रहा होगा। कपड़े खून से रंग गए थे।अब राजपुर रोड पर जब भी मैं ब्रेल प्रेस की तरफ से गुजरता हूं, तो वहां मुझे  काफी कुछ  बदला हुआ नजर आता है।जिस कालोनी में सिर्फ आठ मकान थे, वहां अब मकानों की कतार बनी हुई थी।उनमें रहने वाले अधिकांश चेहरे भी बदल गए हैं।फिर भी मैं दुर्घटना की बात याद करके कालोनी की मातृ शक्ति को मन ही मन प्रणाम करना नहीं भूलता।
                                                                         भानु बंगवाल

Thursday, 26 April 2012

ये कैसा प्यार, लुटा दिया घर

सिक्के के की तरह व्यक्ति के व्यक्तित्व के भी दो पहलू होते हैं। व्यक्ति के भीतर दो तरह की प्रवृति होती है।एक दैवीय प्रवृति और दूसरी शैतानी प्रवृति।इनमें से जब एक प्रवृति हावी रहती है, तो दूसरी सुप्त अवस्था में चली जाती है।जब व्यक्ति सदकर्म करता है तो उसके भीतर दैवीय प्रवृति हावी रहती है। जब व्यक्ति के मन में बुरे विचार आते हैं और उसके अनुरूप वह कार्य करता है, तो शैतानी प्रवृति जागरूक हो जाती है। आय दिन व्यक्ति के स्वभाव में दोनों ही प्रवृति देखने को मिलती है।कभी किसी बात पर खुशी का इजहार, दूसरों की मदद तो कभी किसी बात पर क्रोध आना, दूसरों को परेशान करना आदि इन प्रवृतियों के गुण व अवगुण हैं।
व्यक्ति को चाहिए कि दैवीय प्रवृति ही भीतर से जागरूक करता रहे।कहते हैं तभी तो सुबह की शुरुआत अच्छे कामों से ही की जानी चाहिए।साथ ही सोते समय व्यक्ति को यह स्मरण करना चाहिए कि पूरे दिन भर उसने क्या अच्छा और क्या बुरा किया।अपनी बुराई को पहचानकर अगले दिन उससे दूर रहने का संकल्प करें तो शायद शैतानी प्रवृति व्यक्ति से हमेशा दूर ही रहेगी।शैतानी प्रवृति जब व्यक्ति पर हावी होती है, तो उसे सही-गलत का ज्ञान ही नहीं रहता। यानी उसकी बुद्धि काम करना बंद कर देती है।कई बार तो अच्छा भला परिवार भी बिखर जाता है।
बात करीब दस साल पुरानी है। मैं क्राइम रिपोर्टिंग करता था।देहरादून में एक सहकारी बैंक के एक अधिकारी के घर डकैती पड़ी।पाश कालोनी स्थित अधिकारी के घर में दिन दिन दहाड़े बदमाश घुसे और उसकी पत्नी के हाथ-पैर रस्सी से बांध दिए।मुंह में कपड़ा बांध दिया, ताकि शोर न मचा सके।करीब दो घंटे तक बदमाश घर का सारा सामान खंगालते रहे।नकदी, जेवर आदि सभी कीमती सामान घर से ले गए।अधिकारी ने साम, दाम, दंड, भेद आदि सभी तिगड़म से काफी कमाया हुआ था।ऐसे में डकैतों को काफी कुछ इस घर से मिल गया।
रिपोर्ट हुई, पुलिस ने छानबीन की।बदमाशों के बारे में अधिकारी की पत्नी से ज्यादा से ज्यादा  जानकारी जुटाने का पुलिस प्रयास कर रही थी, लेकिन पुलिस को यह हैरानी हो रही थी कि महिला डरी हुई नहीं थी।ऐसे में पुलिस का शक अधिकारी की पत्नी पर ही गया।कुछ ही दिनों में  खुलासा हुआ कि वह तो किसी युवक के प्रेम जाल में बंधी हुई है।युवक समीप के मकान में पुताई कर रहा था।एक दिन पानी मांगने के बहाने महिला के घर आया और उसकी तारीफ कर गया।फिर दोनों में जानपहचान बढ़ने लगी। यह पहचान कब मोहब्बत में बदल गई, इसका अभागी महिला को पता तक नहीं चला। वह तो शैतानी प्रवृति के वश में हो गई।युवक शातिर था। उसे पैसों की जरूरत थी।उसने अपनी मजबूरियां गिनाकर महिला से पैसे मांगे तो उसने उसके ही घर में डकैती डालने की सलाह दे डाली।
डकैती का खुलासा हुआ, तो बैंक अधिकारी के पांव तले जमीन खिसक गई।पहले तो वह मानने को तैयार नहीं था कि उसकी पत्नी ऐसा अपराध भी कर सकती है।वह तो अपनी पत्नी पर सबसे ज्यादा विश्वास करता था। वह विश्वासघात करेगी, ऐसा उसने शायद कभी सोचा तक नहीं था। फिर छोटे-छोटे दो बच्चे। एक चार साल व दूसरा दो साल का। गलती करते हुए महिला को बच्चों का भी अहसास नहीं हुआ कि यदि पकड़ी गई तो उसके बाद बच्चों का क्या होगा।पुलिस ने डकैती के मामले में युवक व उसके कुछ सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया।साथ ही महिला को भी।महिला का पति इतना सब कुछ होते हुए भी अपनी पत्नी को माफ करने के पक्ष में था। उसमें तो दैवीय प्रवृति हावी थी।उसका कहना था कि पत्नी थाने में सुबह से है। बच्चों को वह पड़ोसियों के हवाले करके आया है। वह जेल जाएगी तो बच्चों का क्या होगा।पुलिस भी ईमानदारी पर उतरी थी। वह महिला को छोड़ने पर राजी नहीं थी। ऐसे में बदमाशों के साथ उसे भी जेल की हवा खानी पड़ी।इस घटना के बाद मैने यह महसूस किया महिला का पति तो भगवान राम से भी ज्यादा महान नजर आ रहा था। राम ने रावण के घर से सीता को लाने के बाद उसकी अग्नि परीक्षा ली थी, लेकिन दैवीय प्रवृति के वशीभूत यह अिधकारी सब कुछ माफ कर नए सिरे से जिंदगी बिताना चाह रहा था।मेरे मन में अब यह सवाल उठता है कि क्या महिला वाकई उसे दिल से माफ कर रहा था। या फिर बच्चों के लालन-पालन के लिए स्वार्थवश।
                                                                      भानु बंगवाल

Tuesday, 24 April 2012

खूबसूरती के सही मायने...

ऐसा कहा गया है कि किसी व्यक्ति के बाहरी आकर्षण से ज्यादा खूबसूरत है उसके भीतर की सुंदरता। यदि किसी के मन, आचार, विचार शुद्ध होंगे तो वह व्यक्ति भी निश्चित तौर पर दूसरों को ज्यादा पसंद आएगा। इसके विपरीत सच्चाई यह भी है कि पहली बार व्यक्ति किसी से आकर्षित होता है, तो उसकी बाहरी सुंदरता को देखकर। सूरत, पहनावा, चाल ढाल आदि को देखकर ही व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के सुंदर होने का अंदाजा लगा लेता है। बाद में जब दूसरे के व्यवहार को जानने का मौका मिलता है तो उसके बाद ही सही राय निकल पाती है कि उक्त व्यक्ति कैसा है। यानी पहली नजर में किसी को देखकर धोखा भी हो सकता है।
हमेशा से ही व्यक्ति खूबसूरती की तरफ दौड़ता रहा है। यदि कोई घर में कुत्ता भी पाले तो सबसे पहले उसका प्रयास रहता है कि कुत्ते की प्रजाति अच्छी हो। दिखने में सुंदर हो। तभी वह उसे पालता है। कई बार लोग सड़क से आवारा कुत्ते को घर ले आते हैं। बाद में कुत्ते का व्यवहार उन्हें इतना आकर्षित करता है कि उन्हें वही अन्य प्रजाति के महंगे बिकने वाले कुत्ते से ज्यादा अच्छा लगने लगता है। यदि बाहर से दिखने में कोई सुंदर हो और भीतर से उसमें गुण नहीं तो ऐसा व्यक्ति हो या जानवर, उसे कोई भी पसंद नहीं करता है।
बात करीब तीस साल पहले की है। मुझे सड़क पर एक कुत्ता काफी दूर से अपनी तरफ आता दिखाई दिया। जब वह पास आया तो मैने उसे पुचकारा, तो वह दुम हिलाने लगा।  यह कुत्ता पॉमेरियन प्रजाति के कुत्ते के समान था। बाल भी पामेरियन से काफी लंबे थे। रंग सफेद व काला मिक्स था। मैं जब घर की तरफ चला तो वह भी पीछे-पीछे चला आया। रास्ता भटक चुके इस कुत्ते को मैने घर पहुंचकर दूध और रोटी दी। वह काफी भूखा था। एक ही सांस में काफी खा गया। सर्दी के दिन थे। रात को घर के बाहर मैने उसे खुला ही छोड़ रखा था। ठंड लगने पर कुत्ते के रोने की आवाज सुनाई दी। मेरी माताजी ने कहा कि कुत्ता सर्दी से बीमार हो जाएगा, उसे भीतर ले आ। इस पर मैं उसे कमरे में ले आया और कुत्ता निश्चिंत होकर सो गया।
एक-एक कर कई दिन बीत गए। कुत्ता सुंदर था। घर आने वाले सभी लोग उसे प्यार करते। वह भी उछल-कूद मचाता। साथ ही मुझे यह बात आश्चर्यचकित कर रही थी कि इस कुत्ते को मैंने भौंकते हुए नहीं सुना। कोई अपरिचित व्यक्ति भी आता तो कुत्ता उस पर भौंकता ही नहीं था। उसकी आवाज भी मैने नहीं सुनी। एक दिन उसे कुछ कुत्तों ने काट खाया। मैं जब दवाई लगाने लगा तो वह कूं-कूं कर चिल्लाने लगा। मुझे काटने का भी उसने प्रयास किया, लेकिन तभी भी भौंका नहीं। बिन भौंकने वाले कुत्ते से मुझे नफरत सी होने लगी। उसकी बाहरी सुंदरता मुझे फूटी आंख भी नहीं सुहाती थी। मेरे मोहल्ले के डाकघर के पोस्टमास्टर ने एक दिन मेरा कुत्ता देखा। वह मेरे पीछे पड़ गया कि इसे बेच दे। मैने कहा कि मैं कुत्ते को नहीं बेच सकता। यदि ले जाना है तो फ्री ही ले जाओ।  उसे आशंका थी कि कहीं मैं अपनी जुबां से पलट न जाऊं और बाद में कुत्ता वापस मांग लूं। ऐसे में वह बेचने पर ही जोर दे रहा था। पोस्टमास्टर क्रिकेट भी खेलता था। उसके पास क्रिकेट के बेट व बॉल आदि का काफी कलेक्शन था। मैने कुत्ते के बादले उससे क्रिकेट की एक बॉल ले ली। कुत्ता लेकर वह जितना खुश था, उससे ज्यादा मैं इसलिए खुश था कि चलो बगैर भौंकने वाले कुत्ते से छुटकारा मिल गया।
इस घटना के करीब एक साल गुजर गया। मैं छुट्टी होने पर स्कूल से घर को जा रहा था। रास्ते में मेरी क्लास के एक बच्चे का घर था। उसके घर के आंगन में मैने वही कुत्ता देखा, जिसे मैं पोस्टमास्टर को एक गेंद की एवज में बेच चुका था। मैने दोस्त से पूछा कि कुत्ता कहां से लाए। उसने कुत्ते की बढ़-चढ़ कर तारीफ की। उसने बताया कि टिहरी गढ़वाल से लाया गया है। मैने पूछा कि यह मुझे देखकर भौंका क्यों नहीं। इस पर दोस्त का कहना था कि नए घर में आया है, ऐसे में डरा हुआ है। इसके कुछ माह बाद मैने अपने सहपाठी से पूछा कि कुत्ता ठीक है। इस पर उसने बताया कि वह भौंकता नहीं था। उसे किसी दूसरे को दे दिया। यानि बाहर से खूबसूरत लगने वाले इस जानवर को भी कोई अपने घर में रखने को इसलिए तैयार नहीं हो रहा था कि वह अपनी प्रवृति के अनुरूप काम करने लायक नहीं था। 
                                                                                    भानु बंगवाल

Sunday, 22 April 2012

पिंजरे में सुरक्षा का अहसास

पिंजरे में कैद होकर शायद ही कोई रहना चाहता है। किसी तोते को पिंजरे में बंद कर दिया जाए तो वह पिंजरे का दरवाजा खुलते ही फुर्र होने में देरी नहीं लगाता। वह जब तक पिंजरे में रहता है, तब तक अपनी नटखट बोली से सबको आकर्षित करता रहता है। ऐसा लगता है कि मानो वह पिंजरे को छोड़कर कहीं नहीं भागेगा, लेकिन मौका मिलते ही वह अपनी अलग दुनियां में, खुली हवा में भाग खड़ा हो जाता है। फिर पेट की आग बुझाने के लिए उसे संघर्ष करना पड़ता है।
मैने सुना है कि पिंजरे से आजाद होने के बाद तोता ज्यादा दिन नहीं जी पाता। इसका कारण यह है कि उसे पिंजरे में ही दाना-पानी मिल जाता है। यानी वह दाना- पानी के लिए व्यक्ति पर निर्भर हो जाता है। पिंजरे से बाहरी दुनियां में निकलकर उसे भोजन तलाशना नहीं आता है। कई बार उसे अन्य पक्षी भी हमला कर मार डालते हैं। क्योंकि उसे इसका ज्ञान ही नहीं रह पाता है कि कौन उसका दुश्मन है और कौन दोस्त।
मैं यह बात सुनी सुनाई बातों पर नहीं कह रहा हूं। मैंने इसे तब अनुभव किया जब मैने एक तोता पाला। एक बार मैं देहरादून में राजपुर रोड पर सेंट्रल ब्रेल प्रेस के निकट खड़ा सिटी बस का इंतजार कर रहा था। तभी सपीप ही लैंटाना की झाड़ियों से मुझे तोते की आवाज सुनाई दी। मैने उस ओर देखा तो एक टहनी पर तोता बैठा हुआ था। वह कुछ घायल भी था और उसकी टांग व अन्य स्थानों पर खून के धब्बे भी थे। मैने तोते को पकड़ने का प्रयास किया। बगैर किसी परेशानी के वह मेरी पकड़ में आ गया। उसने मुझे काटने का प्रयास भी नहीं किया। इससे मुझे अंदाजा हुआ कि उक्त तोता शायद किसी का पाला हुआ था, जो पिंजरा खुलते ही उड़ गया होगा और अन्य पक्षियों के हमले में वह घायल हो गया।
मैं तोते को लेकर घर पहुंच गया। मैने उसके घाव पर कुछ दिन दवा लगाई तो वह ठीक हो गया। तोते को एक पिंजरे में रख दिया गया। तोता भी काफी चंचल था। धीरे-धीरे वह मिट्ठू, रोटी आदि कुछ शब्द बोलना भी सीख गया। एक दिन मैने देखा कि पिंजरे का दरवाजा खुला है और तोता चोंच से उसे बंद करने का प्रयास कर रहा है। वह काफी डरा हुआ भी लग रहा था। वह चोंच से टिन के दरवाजे का पल्ला खींचता, लेकिन बंद होने से पहले वह उसकी चोंच से छूटकर फिर खुल जाता। मैने दरवाजा बंद कर दिया, तो तोते ने राहत महसूस की और चुपचाप बैठ गया। उस दिन के बाद से मेरा यह खेल बन गया। मैं पिंजरे का दरवाजा खोलता और तोता उसे बंद करने की कोशिश करता। साथ ही डर के मारे चिल्लाता भी, जैसे कोई उस पर झपट्टा न मार ले। यह तोता मेरे पास कई साल तक रहा। बाद में मेरा भांजा उसे अपने घर ले गया। एक दिन वह भी पिंजरा खोलने का खेल किसी को दिखा रहा था। तोता पहले दरवाजा बंद करता रहा, फिर बाहर आया और उड़ गया।
अब महसूस करता हूं कि तोते ने बाहर की जो दुनियां देखी, वह उसे पिंजरे से भयानक  लगी। पिंजरे से बाहर तो उस पर हर किसी ने हमला किया। उसे दोस्त व दुश्मन की पहचान तक नहीं थी। वह बाहरी दुनियां में खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा। ऐसे में उसने तो पिंजरे में ही अपनी सुरक्षा समझी। तभी वह उसका दरवाजा बंद करने का प्रयास करता रहता। धीरे-धीरे वह पहले वाली बात को भूल गया और उसने फिर पिंजरे से बाहर जाने का साहस दिखाया। उस तोते और इंसान में भी मुझे ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। कई बार एक जगह रहकर, एक जैसा  काम करते-करते इंसान भी पिंजरे वाले तोते की तरह बन जाते हैं। उनमें पिंजरे वाले तोते के समान छटपटाहट तो होती है, लेकिन वे चाहकर भी दूसरे स्थान पर जाने, कुछ नया करने का रिस्क नहीं उठा पाते हैं। जो इस पिंजरे से बाहर निकलता है,  उसे नए सिरे से संघर्ष करना पड़ता है। इसमें कई सफल हो जाते हैं और कई वापस अपने पिंजरे में लौट जाते हैं।
                                                                                              भानु बंगवाल

Saturday, 21 April 2012

एक मोहल्ला कंवारों का

देहरादून में एक मोहल्ला ऐसा भी है, जहां अपने फील्ड के माहिर लोगों की कमी नहीं है। हरएक ने समाज में अपनी एक अलग पहचान बना रखी है। सभी अपने फील्ड में इतने रमे कि कब शादी की उम्र आई और गई,  इसका उन्हें पता ही नहीं चला। नतीजन, इस मोहल्ले में ऐसे कंवारों की संख्या बढ़ती चली गई, जो अपने फील्ड में माहिर हैं।
वैसे तो जिस दृष्टि से किसी वस्तु को देखो वह वैसी ही दिखाई देने लगती है। जब कभी हम समुद्र के किनारे खड़े होते हैं तो लगता है कि सारी दुनियां में पानी ही पानी है। पहाड़ों में पहुंचते ही दुनियां भर में पहाड़ ही नजर आते हैं। दूर-दूर तक लहलहाते खेत देखने के दौरान सारी धरती खेतों से ही भरी नजर आती है। दुनियां में हर तरह की विविधता होती है, लेकिन फर्क सिर्फ हमारे देखने के नजरिये में होता है। ऐसे में मुझे पहली बार इस मोहल्ले के संबंध में नजर आया। वह यह बात नजर आई कि अपने फील्ड के माहिर लोगों से भरा यह मोहल्ला कंवारों का मोहल्ला बनता जा रहा है। 
देहरादून के दर्शनलाल चौक के समीप है यह मोहल्ला। इसके नाम का मैं यहां जिक्र नहीं कर रहा हूं, लेकिन नाम भी अजीब है। अंग्रेजों के जमाने से बसे इस मोहल्ले में ऐसे हीरों की कमी नहीं है, जो किसी न किसी रूप में समाज को अपना योगदान देकर चमक रहे हैं। इस मोहल्ले के बारे में लिखकर मेरी मंशा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की नहीं है, लेकिन यहां से जुड़ी जो सच्चाई है मैं वही  बयां कर रहा हूं। चाहे इसे इत्तेफाक कहां या फिर संयोग। चाहे पारिवारिक मजबूरी रही हो या फिर काम का जूनून। यहां रहने वाले फनकार, पत्रकार, साहित्यकार, खिलाड़ी, मूर्तिकार, छायाकार आदि सभी ने ख्याती तो अर्जित की, लेकिन वे अपने फील्ड के रमता जोगी बन गए। किसी को शादी की फुर्सत तक नहीं रही या फिर उन्होंने शादी को ज्यादा महत्व नहीं दिया। इनमें एक मूर्तिकार जो जीवन भर अविवाहित रहे और अब वह इस दुनियां से भी विदा भी हो चुके हैं।
करीब एक किलोमीटर की परिधी के इस मोहल्ले में एक मूर्तिकार ने मूर्ति बनाने में अपना जीवन ही समर्पित कर दिया। वहीं, एक छायाकार ऐसे हैं जिन्होंने करीब बीस साल पहले हर समाचार पत्र, मैग्जिन आदि के लिए काम किया। उनकी शरण में जो भी आया, वही फोटोग्राफी में माहिर हो गया। खिलाड़ी में एक क्रिकेटर, फनकार में ढोलक वादक दोनों भाई हैं। दोनों की अपने-अपने फील्ड में एक अलग पहचान है। दोनों ही जब अपने क्षेत्र में स्ट्रगल कर रहे थे, तब शायद शादी की उम्र निकल गई। पारिवारिक मजबूरी या फिर परिवार चलाने के लिए कड़ा संघर्ष। एक पत्रकार के साथ ही एक साहित्यकार की भी यही कहानी है। इस अनुभवी पत्रकार ने भी अक्सर हर नया पत्र को जमाने में अपना योगदान दिया। वहीं इस मोहल्ले के एक साहित्यकार के उपन्यासों की अपनी अलग पहचान है। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनके लिखे गीत हर आंदोलनकारी की जुंबा पर होते थे। आज भी उनकी नई रचना का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता है।
इस मोहल्ले में अपनी फील्ड में महिर लोगों में ज्यादातर के कंधों पर छोटी उम्र में ही परिवार की जिम्मेदारी आ गई। जब खेलने-कूदने की उम्र थी तो उस उम्र में उन्होंने परिवार चलाने के साथ ही खुद को स्थापित करने के लिए कड़ा संघर्ष किया। आपसी सहयोग से वे छोटी उम्र में परिवार चलाना तो सीख गए। साथ ही अपने को स्थापित करने के लिए उन्होंने कड़ी साधना की। इस साधना में वे इतने लीन हुए कि ऐसे लोगों को अपने बारे में सोचने का समय तक ही नहीं लगा और उन्होंने अपनी उम्र अविवाहित होकर गुजार दी। 
                                                                                        भानु बंगवाल

काम कम और दिखावा ज्यादा

कम काम करने और दिखावा ज्यादा की आदत अक्सर नेताओं में तो देखी जाती रही है, लेकिन अब तो ऐसी आदत हर क्षेत्र में घर कर रही है। सरकारी दफ्तर हो या निजी संस्थान। सभी जगह ऐसे लोगों की जमात मिल जाएगी, जो काम कम करते हैं और दिखावा ज्यादा करते हैं। ऐसे लोगों की एक खासियत यह भी रहती है कि वे अपने दिखावे से बॉस को भी प्रभावित कर लेते हैं। मसलन कोई काम करेंगे तो आसपास बैठे लोगों को सुना-सुना कर करेंगे। दूसरों की गलती निकालेंगे और उसे ठीक करने के बजाय गलती का प्रचार ज्यादा करेंगे। ऐसे लोग ऐसा माहौल बनाने में कामयाब रहते हैं कि मानों दफ्तर उनके ही कारण चल रहे हैं। इसके उलट यदि कोई गलती हो जाए तो वह दूसरे के सिर डालने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। ऐसे लोगों का यह तिलिस्म कब तक चलता है, यह कहा नहीं जा सकता। पर यह भी सच है कि ऐसे लोगों ने तो तरक्की का सबसे सरल उपाय इस परिपाटी को बना दिया है।
 मैं तो सोचता था कि दिखावे की आदत सिर्फ मनुष्य में ही होती है, लेकिन जब इस संबंध में विचार किया तो अनुभव हुआ कि यह परिपाटी जानवरों में भी काफी ज्यादा है। हमारे पास करीब आठ साल पहले एक कुत्ता था। डोबरमैन प्रजाति का यह कुत्ता करीब 12 साल तक जिंदा रहा। काफी चुलबुले इस कुत्ते का नाम हमने बुल्ली रखा हुआ था। बुल्ली को मैने सुबह गेट के पास पड़े समाचार पत्र उठाकर कमरे तक लाना आदि भी सीखाया हुआ था। साथ ही इस कुत्ते को बिस्तर, कुर्सी व सोफे में चढ़ने  डांट पड़ती थी। ऐसे में वह जल्द ही समझ गया था कि उसकी सीमा कहां तक है। उसे कहां बैठना है, कहां नहीं। जब कुत्ते को पुचकारो तो वह उछल-कूद मचाने लगता था। इसी आपाधापी में कई बार वह बिस्तर पर कूद लगा बैठता। फिर अचानक हुई गलती का अहसास होने पर वह भाग कर दूर छिपने की कोशिश करता। उसे डर रहता कि कहीं मार न पड़ जाए।
कुत्तों की ड्यूटी भौंकने की है। शायद इसीलिए इस जानवर को लोग पालते हैं। घर की सुरक्षा उसके भौंकने से ही होती है। जब घर में कोई न  रहे तो उसका कर्तव्य और बढ़ जाता है कि वह चौकस रहे। जब भी हमारा पूरा परिवार घर से बाहर जाता तो बुल्ली को भीतर कमरे में बंद कर दिया जाता। जमीन पर उसके बैठने के लिए बिछौना रख दिया जाता। खिड़की के पर्दे खोल दिए जाते। रात के समय भीतर की लाइट भी जला दी जाती। हम जब भी वापस लौटते, तो हमारे आने का दूर से पता चलते ही बुल्ली भौंकने लगता।  मानो वह अपने चौकस होने का अहसास करा रहा है। एक शाम हम किसी विवाह में गए। घर से कुछ दूर मैने मोटरसाइकिल बंद कर दी। पत्नी व बच्चों को आवाज न करने को कहा। मैने कहा कि बुल्ली को अभी पता नहीं है कि हम आ गए। सभी चुप रहना। घर जाकर देखूंगा कि वह क्या कर रहा है।
कुछ दूर ही मोटरसाइकिल खड़ी करके मैंने गेट भी नहीं खोला। खोलने पर आवाज होती, इसलिए मैं दीवार चढ़कर घर अहाते में घुसा। जिस कमरे में बुल्ली था, वहां की खिड़की से भीतर झांका तो नजारा देख कर मुझे हैरानी हुई। बुल्ली तो बिस्तर में लेटा तकिए पर सिर रखकर सो रहा था। अचानक उसे मेरे आने का अहसास हुआ तो छलांग लगाकर वह जमीन पर आ गया और जोर-जोर से भौंकने लगा। यानी उसकी भी वही आदत थी, जो आज चतुर मनुष्य में भी कई बार दिखाई देती है। वह आदत है काम कम और दिखावा ज्यादा करो। 
                                                                                          भानु बंगवाल

Thursday, 19 April 2012

बातूनी दादी

उम्र 80 साल। पतली आबाज, पर काफी तेज। अब पांव से चलने फिरने में भी लाचार। घर के गेट से बाहर अब उसने जाना छोड़ दिया। बस एक आदत नहीं छूटी, वो है किसी की विषय पर लंबी बात करना। एक बार छेड़ दो तो बात पर बात निकलती चली जाती है और इस बातूनी दादी की बात कभी समाप्त नहीं होती है।
मेरे पिताजी के एक चाचा उनकी हम उम्र ही थे। उन्हें हम दादाजी कहते थे। दादाजी जितने शांत स्वभाव के थे, उसके ठीक उलट उनकी पत्नी यानी मेरी दादी है। बातें करने में पूरे गांव में उनका कोई जवाब नहीं। ऐसे में दादी का नाम बातूनी दादी पड़ गया। पिताजी देहरादून में नौकरी करते थे ऐसे में उन्होंने दादाजी का भी देहरादून में अपने साथ सरकारी नौकरी में जुगाड़ करा दिया। सच पूछो तो उस जमाने में सरकारी नौकरी के लिए ज्यादा मारामारी नहीं होती थी। लोग एक दूसरे को सरकारी नौकरी के लिए गांव से बुलाते थे। हमारा परिवार पहले से ही देहरादून रहता था। दादाजी भी अपना परिवार देहरादून ले आए। मुझे अपनी दादी की याद नहीं है। इसलिए पिताजी की चाची को ही मैं दादी  समझता था। करीब तीस साल पहले जब देहरादून में टेलीविजन नहीं थे, तब लोग काफी मिलनसार प्रवृत्ति के थे। अस्कर एक दूसरे के घर कई-कई किलोमीटर का सफर तय करके लोग मिलने जुलने जाया करते थे। हमारा घर सरकारी कालोनी में था। वहीं सरकारी दवाखाना भी था और दादी को दवाई खाने का कुछ ज्यादा ही शोक था। वह डिस्पेंसरी जाती तो हमारे घर भी जरूर आती थी। दादी के पास किस्सों का पिटारा रहता था। साथ ही वह ताजा समाचारों की भी जानकारी रखती थी। मुझे याद है पाकिस्तान प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली  भुट्टो की फांसी की खबर भी दादी ही हमारे यहां सबसे पहले लेकर आई थी।
भले ही बातूनी दादी ने किसी स्कूल में शिक्षा नहीं ली, लेकिन उसकी खासियत यह थी कि वह गणित में माहिर थी और याददाश्त काफी अच्छी थी। हमारे पूरे गांव के हर उम्र के बच्चों से लेकर युवाओं की जन्म तिथि उसे याद थी। किसी के जन्म, विवाह आदि का दिन, तारीख व वर्ष उसे टिप्स में याद रहता था। हंसी, मजाक बच्चों से लाड, प्यार आदि सभी उसके गुण थे। यदि उसे आभास हो जाए कि सामने वाला उसकी खिल्ली उड़ा रहा तो वह उसे श्राप देने में भी नहीं चूकती थी।
अब दादी अपने सबसे छोटे बेटे के पास देहरादून के रायपुर क्षेत्र में रहती है। वह ज्यादा चल फिर नहीं सकती, लेकिन आज भी उसे देश, दुनियां की खबर रहती है। 80 की उम्र में भी बातें अब भी वह पहले जैसी ही करती है। एक दिन वह घर के बाहर चारपाई में बैठकर धूप सेक रही थी। तभी एक युवक उसके पास आया और बातों में लगा दिया। बेटा व बहू घर पर नहीं थे। अनजान व्यक्ति से बातें करते हुए दादी को यह अहसास तक नहीं हुआ कि उसके अन्य साथी घर में घुसकर सामान खंगाल रहे हैं। जब युवक चला गया तो इसके काफी देर बाद दादी को चोरी का पता चला। आज दादी उस घटना की तारीख, समय को याद कर किसी अनजान से बात करने की आदत पर अपने को कोसती रहती है।  
                                                                                  भानु बंगवाल

Wednesday, 18 April 2012

इस सोच का बड़ा जादू

कहावत है कि बगैर सोचे समझे कोई काम नहीं करना चाहिए। जल्दबाजी में किया गया काम हमेशा गलत हो जाता है। इसके उलट भी कई बार जल्दबाजी में ही निर्णय लेने पड़ते हैं। यदि निर्णय का परिणाम अच्छा आया तो काम बन गया और यदि गलत हुआ तो सोचने के लिए काफी कुछ बचा रहता है। यानी व्यक्ति को सुबह उठने से लेकर रात सोने से पहले हर बात पर सोचने और उसे अमल में लाने की आदत सी होती है। सोचने में बच्चों की कल्पना शक्ति का कोई जवाब नहीं होता। कई बार बच्चों के सवालों का त्वरित जवाब देना भी मुश्किल हो जाता है। मेरा छोटा बेटा जब दूसरी कक्षा में पढ़ता था तो उसने सवाल किया कि मौर के पंख  मौरनी से ज्यादा बड़े होते हैं। वह भारी भी होता है, फिर ऐसे में वह उड़ता कैसे है। सवाल सही था और उस समय मेरे पास इसका जवाब नहीं था। उसने मुझे सोचने का समय दे दिया। जवाब तलाशने के लिए मैने कोटद्वार में पत्रकार साथी अजय खंतवाल को फोन मिलाया। अजय वन्य जीवों पर लेख लिखता रहता था। उसे मैने जवाब तलाशने और लेख लिखने को कहा। जवाब आया और अच्छी रोचक स्टोरी बनी। पता चला कि नर मौर को उड़ने में खासी परेशानी होती है। पहले वह जहाज की तरह जमीन में दौड़ लगाता है, फिर छोटी उड़ान भरता है। सचमुच छोटे बच्चे की सोच से बड़ा जादू निकलकर सामने आया।
लड़कपन में मुझे फौज में भर्ती होने की तमन्ना थी। दिल्ली में सीआरपीएफ में की भर्ती का फीजिकल टैस्ट देने गया। खेलकूद में रहने व एनसीसी के कारण इसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं आई। कई ऐसे थे जो हर टैस्ट में फैल होते गए। ऐसे ही एक से मैने पूछ लिया कि बगैर तैयारी के वह क्यों आया। उसने मजाक में कहा कि वह तो यह बताने आया कि उसके भरोसे मत रहना। फीजिकल के बाद लिखित परीक्षा में मैं भी फेल हो गया। तब मैं सोचता था कि कुछ और तैयारी करता तो पास हो जाता। अब सोचता हूं कि शायद तब अच्छा ही हुआ। भर्ती होता होता तो पंद्रह या सत्रह साल की नौकरी के बाद अब रिटायर्ड भी हो चुका होता। तब मेरे हाथ में बंदूक होती और अब अपनी सोच को शब्दों में ढालने के लिए हर रोज प्लास्टिक पीटता हूं। कंप्यूटर का की बोर्ड प्लास्टिक ही तो है । इसकी जितनी पिटाई होती है उतने ही शब्द स्क्रीन पर उभरते हैं।
बैसे ज्यादा सोचने वाले की फौज में जरूरत भी नहीं है। इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने आइटीबीपी की भर्ती के लिए देहरादून में फीजिकल टैस्ट दिया। पहले दिन लंबाई, दौड़, हाईजंप. लंबीकूद आदि में मैं पास हो गया। हजारों लड़के बाहर हो गए। छांटे गए युवकों को आगे के टैस्ट के लिए दूसरे दिन भी बुलाया गया। शाम को घर पहुंचा तो पूरे मोहल्ले के लोग घर में बधाई देने पहुंच गए। मोहल्ले वालों ने तब यही सोचा कि अब तो मैं भर्ती हो ही जाउंगा। दूसरे दिन गोला फेंक प्रतियोगिता थी। इससे पहले हर इवेंट में दो चांस मिल रहे थे। गोला फेंक में पहली बार में ही मैं बाहर हो गया और दूसरा चांस दिया ही नहीं गया। इस पर मैं और मेरी तरह अन्य युवक कमांडेंट के पास गए। उनसे एक और चांस देने का आग्रह किया। इस पर कमांडेंट ने सवाल दागा कि वह तुम्हें क्यों दूसरा चांस दे। इस पर एक युवक ने कहा कि मैने सोचा कि हर बार की तरह दोबारा चांस मिलेगा। तब कमांडेंट का कहना था आप सोचते बहुत हो। समाने दुश्मन होगा तो आप सोचते रह जाओगे और दुश्मन तब तक ढेर कर देगा।
कई बार व्यक्ति नया काम करने से पहले उसके साकारात्मक परिणाम की बजाय उसके नाकारात्मक पहलू पर ज्यादा सोचने लगते हैं। ऐसे में उनके काम का बेहतर परिणाम नहीं आता। इसीलिए कहा गया है कि साकारात्मक सोचो तो परिणाम भी अच्छा होगा।
                                                                                भानु बंगवाल

Tuesday, 17 April 2012

दीवाना गुरु

कहते हैं कि किसी काम को करो, तो दीवानगी की हद तक। तभी वह काम पूरा होता है और परिणाम भी अच्छा निकलता है। साथ ही यह शर्त भी है कि आपका काम ऐसा होना चाहिए, जिससे किसी को नुकसान न पहुंचे। या फिर किसी की आत्मा को ठेस न लगे। चाहे यह काम साहित्य सर्जन का हो। या फिर कोई खेल या मनोरंजन का हो। या आफिस का काम हो। या फिर समाज सेवा का क्षेत्र। इसे पूरा करने के लिए दीवाना गुरु की तरह दीवानगी तो हो, लेकिन काम दीवाना गुरु की तरह का न हो। उसे देखकर तो सभी नफरत करने लगे थे।
दीवाना गुरु। यानी इंटरमीडिएट कॉलेज में शिक्षक। करीब तीस साल पहले इस इस शिक्षक के पास बच्चों की ट्यूशन के लिए मारामारी होती थी। गुरु पढ़ाते थे तो  दीवानगी ही हद तक। यहां तक तो गुरु का काम ठीक था, लेकिन एक शिष्य छात्रा को दिल दे बैठे। प्यार एकतरफा था। गुरु के प्रस्ताव को छात्रा ने इंकार कर दिया। ट्यूशन छोड़ दी, लेकिन गुरु तो उसकी दीवाना हो गया। बच्चों को पढ़ाने में गुरु का मन नहीं लगता। उनका समय छात्रा का पीछा करने में ही बीतने लगा। एक झलक छात्रा की देखने के लिए वह छात्रा के घर के आसपास हर सुबह, दोपहर व शाम को चक्कर लगाते। समय बीता छात्रा जवान हुई और गुरुजी अधेड़। पीछा छुड़ाने के लिए कई मर्तबा मोहल्ले के लोगों ने गुरु की पिटाई भी की, लेकिन हरकत नहीं सुधरी। कितना पतन हुआ इस समाज का, जिस गुरु को दूसरों को ज्ञान देना था, वही ज्ञान के लिए मोहताज था। छात्रा के मोहल्ले के लोगों ने गुरु का नाम दीवाना गुरुजी रख दिया। इस नाम से उसे बच्चा -बच्चा पहचानने लगा।
मां-बाप ने गुरु से प्रताड़ित बेटी का विवाह कर दिया। इसके बाद भी गुरु ने सुबह शाम इस महिला के ससुराल के चक्कर लगाने जारी रखे। घर से कुछ दूर दीवाना गुरु खड़े होकर अपनी पूर्व शिष्या की एक झलक देने को आतुर रहता। समय ने फिर करवट बदली। महिला के पति की मौत हो गई। दीवाना गुरु ने उससे फिर विवाह का प्रस्ताव रखा। महिला ने फिर इंकार किया। वह तो दीवाना गुरु की दीवानगी के तरीके से ही नफरत करती थी।
पति की मौत के बाद इस महिला की पति की जगह सरकारी नौकरी लग गई। उसने किसी दूसरे से विवाह भी कर लिया। बच्चों की मां भी बनी। उधर, दीवाना गुरु विक्षिप्त सा रहने लगा। नौकरी चली गई। चेहरे पर दाढ़ी बड़ी रहती। सुबह महिला के घर से दफ्तर तक उसकी मोपेड के पीछे दौड़ लगाना। शाम को छुट्टी के समय महिला के दफ्तर के आगे खड़ा हो जाना। जब तक महिला नहीं दिखाई देती तो दीवाना गुरु की चहलकदमी बड़ जाती। तेजी से सिगरेट के कश लगाता। जैसे ही महिला की मोपेड नजर आती तो उछलकर उस दिशा की तरफ जाती किसी साइकिल या स्कूटर के पीछे बैठना, जिस दिशा में महिला को जाना होता था। इसी पीछा करने के फेर में एक दिन दीवाना गुरु दुर्घटना का शिकार हुए और अपनी टांग तुड़वा बैठे। दीवाना गुरु बिस्तर पर और एक पूरे पांव में प्लास्टर। शायद महिला खुश थी कि चलो कुछ राहत मिली। पर दीवाना गुरु भी पक्के ढीट। कुछ दिन बिस्तर पर रहने के बाद लंबें बांस के डंडे का सहारा लेकर फिर से पांव में पलस्टर समेत ही महिला के घर के चक्कर लगाने लगे। यह क्रम तब तक जारी रहा, जब तक दीवाना गुरु की मौत नहीं हो गई। इस मौत के बाद महिला ने युवावस्था से झेल रही त्रास्दी से छुटकारा पाया। वहीं दीवाना गुरु की दीवानगी की कहानी का भी अंत हो गया। हर एक की नजर में दीवाना गुरु गलत था। प्रेम के इजहार का उसका तरीका भी गलत था, लेकिन क्या महिला अपनी जगह सही थी। जो इस दीवाने की भावनाओं को नहीं समझ पाई। या फिर वह अपनी भावनाओं से समझाकर दीवाने की गलतफहमी को दूर नहीं कर सकी।
                                                                          भानु बंगवाल           

Monday, 16 April 2012

खामोश हो गया एक अभिनेता

जब छोटा था तो वर्ष 79 में एक हिंदी पिक्चर रिलीज हुई। पिक्चर का नाम था शादी से पहले। यह पिक्चर मैने इसलिए देखी कि इसके निर्माता निर्देशक देहरादून के करुणेश ठाकुर थे और अभिनेता भी देहरादून का युवा प्रवीन सूद था। यह पिक्चर देहरादून के अलावा शायद कहीं और नहीं चली, लेकिन मुझे इसलिए अच्छी लगी कि पहली बार देहरादून के किसी युवक ने बतौर अभिनेता बॉलीबुड में दस्तक दी। इससे पहले देहरादून के केएन सिंह निर्देशन व विलेन के रूप में करुणेश ठाकुर निर्देशक के रूप में बॉलीबुड में पांव जमा चुके थे। गढ़वाली गायक जीत सिंह नेगी भी आरके स्टूडियो समेत कई अन्य स्थानों पर अपनी प्रतिभा का लोहा मना रहे थे।
प्रवीन सूद का फिल्मों का सफर शादी से पहले से शुरू हुआ और इसके बाद उन्होंने महेश भट्ट की फिल्म नाम, भारत रंगाचार्य की फिल्म जमीन आसमान, रघुनाथ की फिल्म बिस्तर के साथ ही फर्ज की जंग, अनुभव, कर्मयुद्ध, सवेरे वाली गाड़ी में छोटी-बड़ी भूमिका निभाई। पंजाबी, भौजपुरी फिल्मों में अभिनय के अलावा उन्होंने गढ़वाली फिल्मों में भी बतौर निर्देशक काम किया। करीब बीस साल पहले दूरदर्शन के धारावाहिक सुबह में उन्होंने डॉक्टर का अभिनय कर फिर टीवी सीरियलों में भी अपनी पहचान बनाई।
जब टीवी चैनल बढ़ने वले और सीरियल का दौर तेज होने लगा, तब वह मुंबई से सामान समेट कर देहरादून वापस आ गए। परिवार देहरादून रहता था ऐसे में उन्होंने देहरादून वापस आने में ही परिवार की भलाई समझी। बचपन से ही मैं प्रवीन सूद को देखता था। किसी विवाह में आमंत्रण पर जब वह पहुंचते तो लोग उनसे किसी गीत पर डांस करने के लिए कहते। तब अक्सर वह-डम डम डिगा-डिगा, पर नृत्य करते। बाद में प्रवीन सूद देहरादून में घंटाघर के पास कैलाश इलेक्ट्रीकल नाम से दुकान चलाने लगे। श्रमजीवी पत्रकार संघ हर साल होली में अजूबा नाम से सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करता था। तब अक्सर मंच संचालन के लिए प्रवीन सूद को ही आमंत्रित किया जाता था। किसी राशि की डिमांड किए बगैर ही अक्सर हरएक के कार्यक्रम में पहुंचना उनकी आदत में शुमार था।
सप्ताह में एक बार मेरा प्रवीन की दुकान का चक्कर अक्सर लग जाया करता था। इसका कारण यह था कि मैं अपने एक मित्र की दुकान में अक्सर जरूर जाता हूं। समीप ही प्रवीन की दुकान थी। मैं पांच सौ व हजार के नोट के छुट्टे कराने प्रवीन के पास ही जाता था। चाहे दुकान से सामान न खरीदूं, लेकिन वह छुट्टे देने में कभी मना नहीं करते थे। दुकान में आने वाले ग्राहकों को भी शायद यह पता नहीं रहता कि गल्ले पर बैठा यह वो व्यक्ति है, जिसके ऑटोग्राफ लेने के लिए करीब तीस साल पहले दून के युवाओं में होड़ रहती थी। सहृदय, शालीनता से बात करना, दूसरों के सुख-दुख का ख्याल रखना उनका व्यक्तित्व था। मुझसे वह अक्सर बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है, यही सवाल पूछते।  कभी-कभार में उनकी दुकान से जरूरत का सामान भी खरीद लेता था। बीस दिन पहले मैं उनकी दुकान पर गया, लेकिन वहां प्रवीन के बेटे से मुलाकात हुई। तब उसने बताया कि पापा की तबीयत खराब है, लुधियाना में बड़े भाई के पास हैं और वहीं इलाज भी करा रहे हैं।
आज दोपहर के समय मैं दुकान में गया तो वहां प्रवीन सूद की फोटो लगी हुई थी। उसमें माला टंगी थी। अचानक फोटो देख मैं माजरा तो समझ गया, लेकिन फिर भी उनके बेटे से यही पूछा कि क्या हुआ। उसने बताया कि पिताजी के गुजरे तीन दिन बीत चुके हैं। कई साल से गुमनामी के अंधेरे में जी रहे इस अभिनेता ने जब इस दुनियां को अलविदा कहा तो इसका भी समय पर लोगों को पता नहीं चला। इसके बावजूद प्रवीन की यादें आज भी मेरे जेहन में जिंदा हैं। साथ ही दून के लोगों को वह हमेशा याद आते रहेंगे। 
                                                                                                 भानु बंगवाल

Sunday, 15 April 2012

45 चाय और लंबी बहस

पांच व्यक्ति और 45 चाय का आर्डर। इसके बाद पांच प्यालों में चाय आती है। हर प्याले पौन ही भरे हुए। चाय की चुस्कियों के साथ शुरू होती है लंबी बहस। बहस के मुद्दे राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या फिर किसी की नई रचना आदि कुछ भी होते हैं। कई बार बहस एक घंटे से दो घंटे तक भी खींच जाती है। कभी माहौल गरम हो जाता है, लगता है कि आपस में झगड़ा हो रहा है। बहस करने वाले व्यक्ति आते -जाते रहते हैं व नए-नए मुद्दों पर बहस जारी रहती है। साथ ही चाय के दौर भी चलते रहते हैं। कुछ ऐसा ही नजारा रहता था टिपटॉप रेस्टोरेंट में।
देहरादून के चकराता रोड पर वर्ष 1955 में इस रेस्टोरेंट की स्थापना हुई थी। नंदकिशोर गुप्ता व उनके भाई इस रेस्टोरेंट को चला रहे थे। नंदकिशोर के बाद उनके बेटे प्रदीप गुप्ता ने रेस्टोरेंट की कमान संभाली। प्रदीप गुप्ता का रुझान साहित्य की तरफ था। वर्ष 1975 से इस कॉफी हाउस में  रंगकर्मी, साहित्यकार और पत्रकार सभी बैठने लगे। वर्ष 85 के दौरान मैं भी दृष्टि संस्था से जुड़ा, जो नुक्कड़ नाटक करती थी। इसके संस्थापक अशोक चक्रवर्ती, अरुण विक्रम राणा, कुलदीप मधवाल, विजय शर्मा आदि हर दिन नियमित रूप से टिपटॉप पर बैठते। साथियों के इंतजार में बहस का दौर चलता। फिर समीप ही स्कूल में जाकर नाटक की रिर्हलसल करते। टिपटॉप में चाय का आर्डर देना भी कोड में चलता था। तीन चाय चार कप में लाने के लिए कहा जाता कि चौंतीस चाय बना दो।
रंगकर्मियों के अलावा इस रेस्टोरेंट में कवि अरविंद शर्मा, गजल लेखक सरदार हरजीत, साहित्याकार नवेंदु, डॉ. अतुल शर्मा, चित्रकार अवधेष, कर्मचारी नेता जगजीत कुकरेती, राजनीतिक दल से जुड़े सुरेंद्र आर्य व कृष्ण गोपाल शर्मा आदि सभी को बैठते मैं वहां देखता था। तब टिपटॉप में बैठने के लिए करीब 50 व्यक्तियों की जगह होती थी। किसी मुद्दे पर बहस के दौरान ही यहां नए शब्दों का इजाद होता था। मंडल का कमंडल, बौद्धिक आतंकवादी, टंटा समिति आदि शब्द टिपटॉप की बहस के दौरान ही इजाद हुए और इनका प्रयोग कई ने अपनी लेखनी में भी किया। दून में ऐसे ही करीब तीन काफी हाउस थे, लेकिन इनमें डिलाइट में सिर्फ राजनीतिक लोग व अन्य में संस्कृति कर्मी बैठते थे। टिपटॉप में तो असल समाजवाद था। यहां हर क्षेत्र के व्यक्ति की दाल गल ही जाया करती थी।
समय बदला। परिवार में बंटवारा हुआ और वर्ष 88 के दौरान टिपटॉप दो हिस्सों में बंट गया। इसके बाद भी प्रदीप की अगुवाई वाले टिपटॉप में ही संस्कृतिकर्मियों का जमावड़ा रहता था। हां बैठने की जगह कम हो गई। वहां पच्सीस लोग ही एकसाथ बैठक पाते थे। संस्कृतिकर्मियों के बीच बैठकर रेस्टोरेंट मालिक प्रदीप भी अच्छी कविताएं गढ़ने लगा। एक जनवरी 1989 को साहिबाबाद में रंगकर्मी सफ्दर हाश्मी की हत्या की सूचना पर प्रदीप ने कविता गढ़ी कि-मत कहो किसी को रंगकर्मी, साहित्यकार या पत्रकार। वर्ना मारा जाएगा, बेचारा नुक्कड़ पर।
वर्ष 93 के बाद ज्यादा व्यस्त रहने के कारण मेरा टिपटॉप में जाना काफी कम हो गया। साथ ही कई पुराने चेहेरे इस दुनियां से चल बसे। तो कई शाम को दूसरे काम में व्यस्त होने के कारण वहां कम जाने लगे। फिर भी बहस जारी रही और बहस करने वाले चेहरे बदलते रहे। वक्त ने फिर करवट बदली और रेस्टोरेंट स्वामी प्रदीप बीमार पड़ गया। भले ही नाम रेस्टोरेंट था, लेकिन प्रदीप के बेटे ने 2008 से चाय का धंधा बंद कर दिया और दुकान में अन्य काम शुरू कर दिया। फिर भी दुकान में संस्कृतिकर्मी पहुंचते और सोफे पर बैठकर बहस का हिस्सा बनते। हाल ही में सड़क चौड़ीकरण का काम चला। इसकी जद में टिपटॉप भी आ गया। सारी दुकान हथौड़ों की भेंट चढ़ गई। अब वहां मात्र तीन कुर्सी की जगह बच गई। इसमें प्रदीप का बेटा बैठकर मोबाइल की दुकान चला रहा है। टिपटॉप में नियमित आने वाले संस्कृतिकर्मी अब कभी-कभार दुकान तक पहुंचते हैं और कुछ देर बाहर खड़े होकर वापस चले जाते हैं। सब कुछ बदल गया। दुकान लगभग खत्म होकर एक दड़बा रह गई। उसमें बैठने की जगह भी नहीं बची। चाय की प्याली गायब होने के साथ ही गरमागरम बहस भी अतीत का हिस्सा बन चुकी है। नहीं बदला तो सिर्फ दुकान का नाम-टिपटॉप।
                                                                              भानु बंगवाल      

Saturday, 14 April 2012

प्रधान जी को मेरा सलाम....

पहनावे में अधिकतर कुर्ता पायजमा। चेहरे पर सफेद व काली मिक्स दाड़ी। चौड़े माथे पर लकीरें। साथ ही पतला लंबा टीका। रौबदार आवाज। सोचने की मुद्रा में भृकुटी का धनुष की भांति तन जाना।स्पष्टवादिता। दूसरों के सुख-दुख में हमेशा खड़े रहना। यही तो था प्रधान जी का व्यक्तित्व। पत्रकारों के प्रधान जी यानि राकेश चंदोला। आज 14 अप्रैल की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी मौत पर की सूचना पर कई पत्रकार चौंके तो कई को उनकी तबीयत देख कर शायद मौत का अंदाजा पहले से था।
करीब बीस साल पहले जब मैं पत्रकारिता में नया-नया आया। तब से ही प्रधान जी को जानता हूं। सभी पत्रकारों को उन्होंने संगठित करने का प्रयास किया। श्रमजीवी पत्रकार संगठन से सभी को जोड़ा और सभी को दुखसुख में साथ खड़े रहने का पाठ पढ़ाया। उस समय की बात मुझे याद है कि बरेली से एक पत्रकार देहरादून आए हुए थे। वह प्रधान जी के परिचित थे। रात के 12 बजे मुझे प्रधानजी (राकेश चंदाला) घंटाघर के पास मिले। उन्होंने मुझे हुकुम दिया कि मैं उसे घर छोड़ूंगा। मजाल है कि मैं मना करता या फिर कोई बहाना बनाता। प्रधानजी की बात तब कोई नहीं टालता था।
देहरादून में प्रैस क्लब का गठन होने पर वह पहले महामंत्री निर्वाचित हुए। फिर कई बार अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज हुए। साप्ताहिक समाचार पत्र निकालते थे। पत्नी स्कूल में टीचर थी। एक बेटी व बेटा दो बच्चों से भरापूरा परिवार। प्रधानजी ने दूसरों को लिए भले ही कुछ  न कुछ किया हो, लेकिन अपने परिवार के किसी सदस्य को अपनी पहुंच का फायदा उठाकर लाभ नहीं दिला पाए। पत्नी नौकरी से रिटायर्ड हो गई। बेटी का विवाह कर दिया। पर इस कर्मयोगी पत्रकार को बेटे की वजह से ज्यादा परेशानी रहने लगी थी। करीब तीन साल पहले दीपावली के दिन उनका बेटा पटाखे छुड़ा रहा था। बम की आवाज को तेज करने के फेर में उसने पटाखे को एक टीन के डिब्बे से ढक दिया। जब धमाका हुआ तो डब्बा परखच्चे में बदला और उसका एक टुकड़ा प्रधान जी के बेटे के गाल में जा घुसा। बेटे को अस्पताल ले गए। इलाज कराया, लेकिन इस घटना के कुछ दिन बाद बेटे को लकवा मार गया। एक हाथ व एक पैर ने काम करना बंद कर दिया।
अमूमन हर पत्रकार के साथ यही होता है कि वह समाज के लिए तो लड़ता रहता है, लेकिन अपने परिवार के भविष्य का जुगाड़ नहीं कर पाता। प्रधानजी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। दूसरों के लिए वह कभी भी खड़े हो जाते थे, लेकिन उनकी मौत  का समाचार सुनकर कई के पास तो उनके अंतिम दर्शन के लिए भी वक्त नहीं था। खैर जो होना है, उसे कोई टाल नहीं सकता। फिर भी मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि दुखः की इस घड़ी में उनके परिवार को इसे सहने की शक्ति दे।
                                                                                     भानु बंगवाल
      

Friday, 13 April 2012

यादें ताजा कर गया ये मौसम

पुरानी यादों को हम अक्सर याद करते हैं।साथ ही वर्तमान की घटनाओं की तुलना भी पुरानी घटनाओं से करते हैं।फिर यह आंकलन करते हैं कि कौन सी घटना बड़ी थी।अक्सर फिर हम पुरानी घटना को ही बड़ा करार देते हैं। व्यक्ति के जीवन में हर दिन बदलाव आता है, कई बार  बदलाव इतना मामूली होता है कि इसका हमें अंदाज तक नहीं रहता।इसी तरह प्रकृति में भी निरंतर बदलाव आता है। बदलाव प्रकृति का नियम है। इसके साथ ही प्रकृति भी कई बार व्यक्ति की ही भांति पुरानी बातों को दोहराती है।यानि पुरानी बातों को फिर से याद करने का समय आ जाता है।
अप्रैल का महीना।उल्लास व उत्साह के दिन।खेतों में फसल लहलहाती है।बाग-बगीचों में फूल खिले होते हैं। प्रकृति भी मानों पूरे श्रृंगार से सजी रहती है।स्कूली बच्चों में इसलिए नया उत्साह होता है कि शिक्षा का नया सत्र शुरू हो जाता है।नई क्लास व नई टीचर, नए दोस्त, सभी कुछ उत्साह लाने वाला होता है। वहीं चित्रकार के लिए पूरी प्रकृति सजी रहती है।प्रकृति प्रेमी कवि के लिए तो इस समय लिखने के लिए काफी कुछ खजाना मिल जाता है।फिर भी यह महीना सनकी मिजाज का भी होता है। यह मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि एक अंग्रेज साहित्यकार ने इस महीने को श्रृंगार से लदी सुंदर व सनकी महिला की संज्ञा दी है। ऐसा मैने ग्यारहवीं में अंग्रेजी की एक कविता में पढ़ा था।
बैशाखी के दिन सुबह से ही देहरादून में बारिश होने लगी।सुबह से ही इतनी ठंड हुई कि हाथ-पांव तक सुन्न होने लगे। लोगों ने आलमारी व संदूक से गर्म कपड़े निकाल लिए।फिर मुझे करीब 29 साल पहले की याद ताजा हो गई। 14 अप्रैल 1983 को मेरी बड़ी बहिन की शादी थी। उस दिन पूर्वाहन 11 बजे से ही बारिश शुरू हो गई। मिजाज के अनुरूप मौसम ने अंगड़ाई ली और तेज हवा भी चलने लगी।ओले भी  गिरे। शामियाना हवा से गिर गया।तब वैडिंग प्वाइंट होते नहीं थे। मैदान में ही शादी के टैंट लगाए जाते थे।सभी को चिंता होने लगी कि क्या होगा। उस समय हम राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर में रहते थे। मेरे पिताजी वहीं नौकरी पर थे। जब मौसम ने रंग नहीं बदला तो संस्थान के एक हॉल में शादी के लिए व्यवस्थाएं की गई।कनात व कुर्सियां  हॉल में लगा दी गई।भोजन की व्यवस्था भी वहीं हुई।शाम को बारात आई वो भी भीगती हुई। बाहर से आए मेहमान भी सर्दी से कांप रहे थे।उन्हें अपने घर व आसपड़ोस से लोगों के घर से स्वैटर की व्यवस्था की गई।इससे सहज ही यह अंदाज लगाया कि जा सकता है कि कितनी सामुदायिक भावना थी उन दिनों के लोगोंे में। शादी के बाद कई लोग स्वैटर भी पहनकर साथ ले गए।कुछ ने बाद में वापस लौटा दी और कई का लौटाने के लिए देहरादून फिर से वापस आना नहीं हुआ।
आज भी मौसम यही मिजाज दोहरा रहा है।देहरादून समेत पूरे गढ़वाल में सुबह से ही बारिश हो रही है। आज बैशाखी के दिन शादियों की भी भरमार है।जहां शादी है वहां लोगों की चिंता भी स्वाभाविक है। सभी इंद्रदेव की प्रार्थना कर रहे हैं। वहीं शादियों में आमंत्रित होने वाले लोग भी बारिश में शादी में कैसे शामिल हों, इसकी प्लानिंग कर रहे हैं। खैर जो होना है वो होकर रहेगा।फिर भी अप्रैल के महीने का यह सनकी मिजाज मुझे हमेशा भाता है।
                                                                             भानु बंगवाल     

Thursday, 12 April 2012

महंगाईः कम करो आवश्यकताएं

दो दिन से मौसम ने अचानक करवट बदली। पिछली रात तो बूंदाबांदी के साथ ओले भी गिरे। रात को तेज हवा भी चली और ठंडक फिर से लौट आई। हवा के साथ ही रात करीब 11 बजे घर की बिजली भी चली गई। कुछ परेशानी जरूर हुई, लेकिन गर्मी न होने से बिजली जाने का मलाल नहीं हुआ। देहरादून में बगैर पंखा चलाए पूरी रात बीत गई। सुबह बिजली आई। साथ ही जब सभी समाचार पत्रों पर नजर दौड़ाई, तो सोचने लगा कि मुझ जैसे आम आदमी के घर से अब तो हर रात बिजली गायब रहनी चाहिए। सभी समाचार पत्रों में बिजली की कीमत में इजाफे का समाचार छपा था। यानि सुबह उठते ही बिजली जोर का झटका दे गई।
पेट्रोल की कीमतों का बार-बार बढ़ना अब आम हो गया। रसोई गैस भी बीच-बीच में चूल्हे की आंच को महंगाई की हवा देती है। सब्जियों की कीमत में आग लग चुकी है। 15 से 20 रुपये पाव से कम सब्जी आती नहीं है। नए सत्र में बच्चों के स्कूल की फीस भी बढ़ गई। बगैर ट्यूशन के बच्चों की पढ़ाई मुश्किल है। आय कम और खर्च ज्यादा। यही हकीकत है आम आदमी की। अब बिजली तो झटका दे चुकी है, उस पर पानी भी त्योरियां चढ़ा रहा है। कहा जाता है कि कभी भारत में दूध व घी की नदिया बहती थी। अब तो पानी की कीमत दूध की कीमत का पीछा करती नजर आ रही है। पंद्रह से बीस रुपये में आधा लीटर दूध का पैकेट मिलता है, वहीं एक लीटर मिनरल वाटर भी पंद्रह  रुपये में मिलता है।
कहा गया है कि- आय से अधिक खर्च करने वाले तिस्कार सहते हैं और कष्ट भोगते हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि -प्रसन्न रहने के दो ही उपाय हैं, आवश्यकता कम करें और परिस्थितियों से तालमेल बैठाएं। बिजली के झटके को कम करने के लिए अब मैं गीजर के बजाय ठंडे पानी से नहा रहा हूं। बच्चों को सख्त हिदायत है कि बहुत जरूरी हो तभी लाइट जलाएं। पढ़ाई भी दिन के उजाले में ही करें। तभी आम आदमी की आवश्यकता कम होगी।  ट्रैफिक के नियमों का इसलिए पालन करता हूं कि कहीं चालान हुआ तो कहां की आवश्यकता कम करके इसे भुगतुंगा। दो किलो की बजाय अब डेढ़ किलो दूध से काम चला रहा हूं। साथ ही भगवान से प्रार्थना करता हूं कि यहां रोज बारिश हो, जिससे गर्मियों में पंखा चलाने की नौबत न आए।
                                                                                                      भानु बंगवाल     

Tuesday, 10 April 2012

अनजान शहर में पहला मित्र

मित्र बनाना और मित्रता निभाना दोनों में काफी फर्क है। क्योंकि मित्रों की संख्या तो काफी हो सकती है, लेकिन मित्रता उनमें से सभी नहीं निभा पाते हैं। सच तो यह है कि इस व्यावसायिक दौर में दोस्त को भी लोग लाभ-हानि के तराजू में तौलते हैं। लोग मित्र बनाने से पहले यह आंकलन लगाते हैं कि इससे दोस्ती करके उसे क्या लाभ होने वाला है। ऐसे लोगों के साथ दोस्ती ज्यादा दिन नहीं निभ पाती। इसके बावजूद समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो सच्ची मित्रता निभाते हैं। ऐसे लोगों के मन में कहीं स्वार्थ नहीं होता। मेरी नजर में सच्चा मित्र वही है, जो हमें हमारी कमजोरी बताए। सामने चापलूसी करने वाले तो कई मिल जाएंगे, लेकिन हमें सही व गलत का एहसास कराने वाला ही अच्छे मित्र साबित होते हैं।
किस व्यक्ति को कब किस मोड़ पर कोई मिल जाए और मित्र बन जाए, यह कहा नहीं जा सकता। वर्ष 1994 में मेरा तबादला देहरादून से ऋषिकेश कर दिया गया था। ऋषिकेश मेरे लिए नया शहर था। मेरे पत्रकार मित्र हर्षबर्धन बहुगुणा ने ऋषिकेश में अपने ताऊजी के घर का पता मुझे दिया। कहा कि मकान आदि की समस्या होगी तो उनके पास चले जाना। मित्र के ताऊजी का सबसे छोटा बेटा मुझे पहले से पहचानता था। वह अक्सर देहरादून में बहुगुणा के घर आता जाता था। ऋषिकेश में जाकर मैं मित्र के ताऊजी के घर जाने की बजाय होटल में रहने लगा। साथ ही अपने कार्यालय के आसपास कमरे की तलाश शुरू कर दी। इस तरह करीब एक सप्ताह बीत गया।
एक दोपहर को मैं मित्र के ताऊजी के घर गया। वहां उसके छोटे बेटे अनिल से मेरी मुलाकात हुई। मैने अनिल से किराये का कमरा तलाशने को कहा। इस पर अनिल ने कहा कि किराये में क्यों रहोगे, उसके घर में काफी जगह है। जब तक ठीक लगे यहीं रह लो। मैने मना कर दिया, लेकिन अगले ही दिन अनिल होटल से जबरदस्ती मेरा सामान अपने घर ले आया और मैं उनके घर ही रहने लगा। अनजान शहर में वह मेरा पहला मित्र था।
अनिल से बड़े दो भाई और हैं। सबसे बड़ा निजी चिकित्सक है और क्षेत्र में उसकी काफी अच्छी प्रैक्टिस चलती है। उसके बाद दूसरे नंबर के भाई ने कुछ दुकानें खोली हुई थी। वहीं कंप्यूटर व टाइपिंग इंस्टीट्यूट, फोटो स्टेट आदि का काम किया था। अनिल ने जूनियर हाई स्कूल चला रखा था। धीरे-धीरे मैं उनके बीच ऐसा घुलमिल गया कि लगने लगा कि अपने ही घर रह रहा हूं। तीनों भाई छोटे-बड़े निर्णय लेने के बाद अपने पिताजी की सलाह जरूर लेते थे। साथ ही उनका आदर भी करते थे और उनसे डरते भी थे। कई बार तो वे अपने पिताजी से कोई बात मनवाने के लिए मुझे ही आगे कर देते थे। उनके पिताजी मेरी सलाह को मान भी लेते थे। ऐसे में मुझे खुद पर गर्व भी होता था।
सामूहिक परिवार में आपसी कामकाज का बंटवारा। आपसी प्रेम, कड़ी मेहनत और कठिन दिनचर्या सभी कुछ तो था उनके घर में। सुबह डॉक्टर की पत्नी और मां दोनों ही उठ जाती और घर के कामकाज में जुट जाती। पैसा होने के बावजूद नौकर चाकर रखने की बजाय महिलाएं खुद ही गाय व भैंस की सेवा करती। बड़ा भाई देर रात तक मरीजों की सेवा करता। चाहे रात के 12 बज रहे हों या फिर तीन बजे का समय हो। गेट खड़खड़ाने की आबाज होते ही पता लग जाता कि कोई मरीज आ गया है। रात को ही उसका परीक्षण कर दवा दे दी जाती। इस घर से मरीजों को यह नहीं कहा जाता कि ये कोई वक्त है, कल आना। अनिल सुबह-सुबह उठकर खेतों में खड़ी फसल को पानी देने पहुंच जाता। तड़के उठना और देर रात को सोना इस घर के हर सदस्यों की आदत थी। इस घर में कब मुझे रहते छह माह बीते पता ही नहीं चला। खैर इस दौरान मैने कार्यालय के पास कमरा तलाश कर लिया था। वहां रहने लगा साथ ही कई बार मित्र के घर भी रहने चला जाता। कई साल से मैं ऋषिकेश नहीं गया। न ही फोन से मित्र से कोई बात होती, लेकिन जीवन में कड़ी मेहनत करने का फलसफा मैने उनसे ही सीखा। हर कोई नया काम करने से पहले मैं उन्हें जरूर याद करता हूं और मुझे हमेशा वे याद रहेंगे।
                                                                                                             भानु बंगवाल

Monday, 9 April 2012

जिसका काम उसी को....

हथियार रखना और उसका इस्तेमाल करना दोनों अलग-अलग बात है। ठीक उसी तरह जैसे घर की आलमारी में किताबें सजाना, लेकिन उसे कभी न पढ़ना। हथियार रखने का शौक तो कई को हो सकता है, लेकिन सही समय पर उसका प्रयोग करना हरएक के बूते की बात नहीं है। इसके लिए हिम्मत की जरूरत होती है और हिम्मत एक दिन में नहीं आती है। जिसका काम जो होता है, वही उसमें माहिर होता है। यहां बात सिर्फ समाज हित में हथियार उठाने की हो रही है। इस हथियार को भी आदमखोर के खिलाफ उठाना है। आदमखोर के खिलाफ हथियार उठाने की बात करने वाले भी कई हैं, लेकिन समय आने पर निशाना लगाने वाले काफी कम रह जाते हैं।
अब तो समाज में भेड़िये ही आदमी की खाल पहनकर घुमते हैं। ऐसे भेड़िये हर कहीं मिल जाते हैं। इन भेडि़यों की पहचान करना भी हरएक के बस की बात नहीं है। उसका शिकार बनने के बाद ही पीड़ित को शिकार होने का पता चलता है। पहाड़ के लोगों की पीड़ा भी पहाड़ जैसी होती है। यहां तो लोगों को समाज में फैले भेड़ियों के साथ ही आदमखोर से भी जूझना पड़ता है।
आदमखोर यानि की गुलदार। वर्ष 2002 में देहरादून के केसरवाला व मालदेवता क्षेत्र  में आदमखोर गुलदार ने ग्रामीणों का सुख- चैन छीन लिया। रायपुर में पहाड़ी से सटे इस क्षेत्र में गुलदार तीन बालिकाओं को अपना निवाला बना चुका था। कई बार शिकारी दल आया, लेकिन शिकारी के जाल से ज्यादा शातिर गुलदार की चाल थी। वह एक स्थान रुकता नहीं था। अलग-अलग जगह कभी मवेशी तो कभी किसी घर में व्यक्ति पर हमला कर रहा था। तीन बेटियों को निवाला बनाने पर वन विभाग ने गुलदार को आदमखोर घोषित कर दिया। साथ ही यह घोषणा भी कर दी कि लाइसेंसी बंदूकधारी उसे अपना निशाना बना सकते हैं।
क्षेत्र में बंदूकधारियों की संख्या काफी है। सभी अपने हथियार निकालकर उसकी साफ सफाई में जुट गए। मेरे एक मित्र का नाम तोपवाल है। बंदूक का उन्हें काफी शोक है। जब बंदूक का लाइसेंस लेने गए तो डीएम ने यही पूछा था कि तोपवाल होकर बंदूक क्यों ले रहे हो। उन्होंने कहा कि तोप मांगो तो बंदूक ही मिलती है। स्पष्टवादिता तोपवाल की खासियत है। कई बार उनके मुख से निकली बात सच में ही तोप के गोले के समान होती है। वह यह नहीं सोचते कि यह बात आगे जाकर कितना वार करेगी, लेकिन मन में छलकपट न होने के कारण उनके मुख से निकली बात का किसी को बुरा नहीं लगता।
आदमखोर को निशाना बनाने की तोपवाल ने भी तैयारी कर ली। अपने कुछ बंदूकधारी साथियों को लेकर वह भी रात को गुलदार की खोज में निकल पड़ते। एक ग्रामीण की बकरियों पर गुलदार ने हमला किया। शोर मचने पर वह भाग गया। तोपवाल ने योजना बनाई कि गुलदार दोबारा बकरियां मारने आ सकता है। ऐसे में वह बंदूक लेकर अपने साथियों के साथ ग्रामीण के घर से कुछ आगे रास्ते पर मोर्चा संभालकर बैठ गए। गुलदार अधिकतर आदमी के चलते वाले पैदल रास्तों का ही इस्तेमाल करता है। साथ ही झाड़यों की ओट का भी सहारा लेता है। उसके चलने के दौरान एक सरसराहट सुनाई देने लगती है। रात को बंदूकधारी दल गुलदार के इंतजार में बैठा था। तभी दल को अपने बगल से सरसराट सुनाई दी। सुर्र-सुर्र की आबाज निरंतर बढ़ती जा रही थी, पर दिखाई कुछ नहीं दे रहा था। इस पर दल के सदस्यों का हौंसला जवाब दे गया और सभी ने जान बचाने के लिए दौड़ लगा दी। इस आपाधापी में वे बंदूक तक मौके पर छोड़ कर भाग निकले। आगे एक मकान के समीप पहुंचे और खुद के जिंदा होने का एहसास करते हुए सुस्ताने लगे। तभी उन्हें वहां भी वही आवाज सुनाई दी। अब एक ने आवाज के कारण को तलाशा तो देखा कि पेयजल की पाइप लाइन से यह आवाज हो रही थी। इस पर सभी को अपनी गलती का पता चला और बंदूक लेने के लिए वापस लौटे। सही कहा गया कि जिसका काम उसी को साजे। यहां भी यही बात सामने आई। खैर बाद में एक ग्रामीण ने गुलदार को ढेर किया। उसे प्रशासन की तरफ से सम्मानित भी किया गया।
                                                                                 भानु बंगवाल

Sunday, 8 April 2012

डकैत आए, तो मारी मौत की छलांग

बचपन में देखता था कि अक्सर गर्मियों में देहरादून के परेड मैदान में नुमाइश लगती थी। आजकल नुमाइश का रूप ट्रेड फेयर ने ले लिया। कुछ ज्यादा झूले व दुकानें अब लगती हैं, लेकिन मौत की छलांग का खेल अब यहां नहीं दिखाई देता। नुमाइश में हर रात मेला समापन के समय मौत की छलांग का खेल होता था। बांस की सीड़ियों से करीब साठ  फुट से अधिक की ऊंचाई पर युवक चढ़ता और उसके चेहरे को कपड़े से ढक दिया जाता। युवक मोटे कपड़े पहने होता। जमीन पर पानी से भरा गड्ढा होता। फिर युवक के शरीर पर आग लगाई जाती। साथ ही पानी से भरे गड्ढे पर भी आग लगाई जाती। जब लपटें बढ़ जाती तो युवक छलांग लगाता और कुछ देर बाद पानी से सही सलामत बाहर निकलता। तब बताते थे कि ऐसा करतब दिखाने वाले को एक हजार रुपये मिलते हैं। तब मै सोचा करता कि मैं भी ऐसी ही मौत की छलांग लगाकार काफी पैसे वाला व्यक्ति बनूं।
आज देखता हूं कि व्यक्ति कुछ बनने के लिए कभी न कभी मौत की छलांग लगाता रहता है। उसका रूप भले ही बदल गया। अब आगे बढ़ने के लिए व्यक्ति रिस्क लेता है। यही रिस्क उसे कई बार सफल बना देता है और कई बार तो वह चूक जाता है। भले ही ऐसे रिस्क में उसकी मौत नहीं होती, लेकिन कई बार कैरियर ही खत्म हो जाता है। मौत की छलांग कई बार व्यक्ति परिस्थितिजन्य भी लगाता है। ऐसी छलांग खुद की जान बचाने को भी हो सकती है। इस छलांग से वह पैसे तो नहीं कमाता, लेकिन अपनी जान बचाने के लिए ही जान का जोखिम जरूर उठाता है।
करीब बारह साल पहले की बात है। देहरादून के सुनसान इलाके में स्थित एक स्कूल में रात को डकैती पड़ी। स्कूल परिसर में एक खेल प्रशिक्षक का घर था। टीचर रिटायर्ड फौजी था। रात को डकैतों ने सबसे पहले स्कूल के गार्ड को गोली मार दी। उसके बात टीचर के घर जाकर लूटपाट की। टीचर की पत्नी को मारपीट का घायल भी कर दिया।
कुछ दिन बाद पुलिस ने इस मामले का खुलासा किया। करीब पांच युवकों को पकड़कर प्रेस कांफ्रेंस बुलाई। साथ ही लूटा गया सामान सोने की चेन आदि की भी बरामदगी दिखाई। जब पत्रकारों के सामने पुलिस टीचर से पूछ रही थी कि चेन पहचानों तो उसका कहना था कि मेरी पत्नी ही पहचान सकती है। फिर उससे पूछा कि बदमाशों को पहचान सकता है। इस पर फिर उसने कहा कि मेरी पत्नी ही पहचान सकती है।
हर बात पर पत्नी को आगे करने पर मेरे मन में सवाल उठा कि आखिर डकैती के समय टीचर कहां था। उससे मैने यह सवाल भी किया। तब उसने बताया कि सच बात यह है कि मैं उस समय पलंग के नीचे था। उसने बताया कि जैसे ही बदमाश दरवाजा तोड़कर भीतर घुसे। वे पलंग के पास पहुंचे और रजाई खींच कर नीचे फेंकी। साथ ही डंडों से प्रहार किया। रजाई के साथ वह भी उछलकर बिस्तर से नीचे गिरा और फुर्ती से पलंग के नीचे जा सरका। पलंग पर उसकी पत्नी पर बच्चों को देख बदमाशों ने पहले पत्नी को डंडों से मारा। फिर उससे आलमारी व बक्सों की चाबी लेकर तलाशी शुरू कर दी। उसका कहना था कि यदि बदमाश उसे देखते तो निश्चित रूप से मार डालते। फौजी पहले दुश्मन की नजर से खुद को बचाता है, उसके बाद हमला करता है। यह कहकर वह रुक गया।
मैने उससे पूछा कि आपने हमला कब किया। उसने बताया कि वह हमले की स्थिति में नहीं था। बदमाशों के पास बंदूक व डंडे थे। उनकी संख्या भी काफी थी। वह उनकी नजरों से बचकर क्रोलिंग (कोहनी  के बल पर जमीन पर रेंगकर चलना) करता बाहर आया। घर से काफी दूर निकलकर उसने दौड़ लगाई और बगल के गांव के आबादी वाले इलाके में गया। वहां शोर मचाकर लोगों को एकत्र किया। तब घर पहुंचा। तब तक सभी बदमाश भाग चुके थे।
इस पूर्व फौजी ने बदमाशों की नजर से खुद को बचाने को मौत की छलांग लगाई। अपनी पत्नी और बच्चों को बदमाशों के हवाले कर दिया और खुद लोगों को एकत्र करने चला गया। इस घटना से मेरे मन में कई सवाल उठते हैं कि क्या फौजी ने सही कदम उठाया। या फिर उसे बदमाशों से भिड़ जाना था। भिड़ने पर यह रिस्क था कि उसकी जान जा सकती थी। या फिर उसे कोई दूसरा कदम उठाना था, जो न तो मुझे आज तक सूझ रहा है और न ही फौजी को भी तब सूझा होगा। 

                                                                                                       भानु बंगवाल

Saturday, 7 April 2012

भ्रष्ट्राचार विरोधी मुहीम, पहले खुद को बदल......

अन्ना हजारे व बाबा रामदेव की भ्रष्टाचार को  लेकर छेड़ी गई मुहीम कितना रंग दिखाएगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। इसके बावजूद एक कड़ुवा सच यह है कि भ्रष्टाचार को डंडे के बल पर नहीं मिटाया जा सकता है। इसके लिए तो हर व्यक्ति को जागरूक होना पड़ेगा। हरएक को पता है कि दहेज लेना गलत है, इसके बावजूद लाखों व करोड़ों में दुल्हे की बोली लगाई जाती है। हत्या व चोरी का अपराध साबित होने पर दोषी को सजा मिलती है। इसके बावजूद भी हत्या व चोरी की घटनाएं बढ़ ही रही हैं।
किसी बुराई को समाप्त करने के लिए उसकी वजह की जड़ तक जाने की जरूरत है।
भ्रष्टाचार कहां ज्यादा है और कहां कम है, यह बताना काफी मुश्किल है। शार्टकट से कराया गया अपना काम यदि बन गया तो सही है और यदि कोई दूसरा पकड़ा गया तो भ्रष्टाचार है। आज शायद भ्रष्टाचार की परिभाषा यही बन गई है।
आपको घर बनाना हो तो पहले जमीन खरीदोगे। उसकी रजिस्ट्री कराने में जल्दी है तो सुविधा शुल्क देना ही पड़ेगा। नहीं दोगे तो विभाग के चक्कर काटते रहोगे और मकान बनाने की कीमत बढ़ती जाएगी। फिर उसका नक्शा पास कराने के लिए सुविधा शुल्क देना पड़ेगा। भले ही आपके पास सारी पत्रावलियां पूर्ण हों। मकान बन गया तो नगर पालिका या नगर निगम में हाउस टैक्स कम कराने के लिए भी सुविधा शुल्क। यदि नहीं दिया तो आपके मकान में इतना गृह कर लगेगा कि पड़ोसी के मकान से ज्यादा होगा। भले ही पड़ोसी का मकान आपसे कई गुना बड़ा क्यों न हो। मकान बनाने के बाद बिजली व पानी का समय से कनेक्शन लेने के लिए भी सुविधा शुल्क।
सुविधा शुल्क से मुझे याद आया। करीब दस साल पहले की बात है। देहरादून में मेरी बहन का मकान बन रहा था। मकान जैसे ही बना, उनके घर नगर निगम का एक निरीक्षक पहुंचा और वह हाउस टैक्स को कम करने के नाम पर उनसे छह सौ रुपये मांगने लगा। इसी तरह पानी के व्यावसायिक कनेक्शन को घरेलू में बदलने के लिए आठ सौ रुपये की मांग की गई। मेरे कहने के मुताबिक उन्होंने किसी भी मामले में रिश्वत नहीं दी, लेकिन बाद में बहिन व जीजा मुझे कोसते रहे। कई साल तक उनका पानी का गलत बिल आता रहा। मैं हर बार ठीक कराता, लेकिन अगली बार फिर ज्यादा राशि जोड़कर हजारों का बिल भेज दिया जाता।
उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए। कई ठेकेदारों ने इंजीनियरों को रिश्वत लेते रंगे हाथों बिजलेंस के छापों में पकड़वाया। काफी वाहावाही हुई। बाद में ठेकेदार खुद को कोस रहे हैं। क्योंकि बाद में उनके काम पर नुक्स निकालकर उन्हें ब्लैकलिस्ट कर दिया गया। ऐसे कामों में नेताजी का भी समर्थन रहता है। आखिर ठेकेदार भी परेशान कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कहां-कहां लड़ाई लड़ें। रग-रग में फैल चुके भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए व्यक्ति को पहले अपने से ही शुरूआत करनी होगी। खुद अपना आंकलन करना होगा कि हमने लाइन में खड़े होने की बजाय कितनी बार शार्टकट अपनाया। साथ ही संकल्प लेना होगा कि भविष्य में ऐसा शार्टकट नहीं अपनाएंगे। यदि हमने खुद को नहीं बदला तो कितने भी सख्त कानून बना लो, भ्रष्टाचार समाप्त होने वाला नहीं। भले ही हर सड़क व गली में अन्ना व बाबा रामदेव जैसे लोग आंदोलन करते रहें। क्योंकि आंदोलन में शामिल कई व्यक्ति भी कहीं न कहीं शार्टकट अपना चुके होते है। सच ही कहा गया कि- इस धरती की कसम, ये तानाबाना बदलेगा, पहले खुद को बदल फिर ये जमाना बदलेगा।
                                                                                                  भानु बंगवाल

Friday, 6 April 2012

अज्ञानी बनकर सीखोगे तो बढ़ेगा ज्ञान

सीखने की कोई उम्र नहीं होती। व्यक्ति हर समय किसी से किसी न किसी रूप में सीख सकता है। सीखने के मौके अपनेआप आते हैं, सिर्फ ऐसे मौकों को भुनाने की आवश्यकता होती है। सीखाने वाला कोई भी हो सकता है। आपसे छोटा या बड़ा। कई बार तो गुरु ही शिष्य से सीख ले सकते हैं। शिष्य का ज्ञान अलग है और गुरु का ज्ञान अलग। एक दूसरे से सीखना ही समझदारी है। साथ ही गलतियों से सबक लेना भी आवश्यक है। कई व्यक्तियों को यह भ्रम हो जाता है कि उन्हें सबकुछ आता है। अब उनकी सीखने की उम्र नहीं है। ऐसा सोचकर वे अपने को ही धोखा देते हैं। सच ही कहा गया है कि अनजान होना उतनी लज्जा की बात नहीं जितनी सीखने को तैयार न होना। अज्ञानी बनकर सीखने की प्रवृति ही व्यक्ति को महान बनाती है।
गलती तो जीवन में हर व्यक्ति से होती है। इंसान गलती तो करेगा ही, लेकिन सही वही व्यक्ति है, जो गलती से सबक ले। आगे से गलती को न दोहराने का प्रयास करे। कई बार व्यक्ति यह जानते हुए भी कि वह गलत है, फिर भी अपनी बात पर अड़ा रहता है। उसका प्रयास रहता है कि वह अपनी बात को सही साबित करे। यही नहीं ऐसे व्यक्ति अपनी गलती को छिपाते हैं और दूसरों का प्रचार करते हैं। दूसरों की गलती को ठीक करने की बजाय वे तो इस तलाश में रहते हैं कि कब दूसरा गलती करे और उन्हें उसके प्रचार करें। दफ्तरों में ऐसी प्रवृति सहयोगियों में परस्पर देखी जाती है। दूसरों को गलत करते वे देखते हैं, लेकिन बताते नहीं  हैं। बाद में तब बताते हैं, जब ठीक करने का समय निकल जाता है। ऐसे लोग चाटुकार प्रवृति के होते हैं, जो खुद के काम का बखान करते फिरते हैं और दूसरों को मूर्ख समझते हैं। अपने काम को महिमामंडित करके प्रस्तुत करना उनकी आदत होती है। मानों वही, सिर्फ वही, काम कर रहे हैं। दूसरे तो बेकार और निठल्ले हैं। मेरी अक्सर आदत है कि गलती पर दूसरे को टोक दिया करता हूं। इस पर मैं कई बार उस व्यक्ति के लिए बुरा बन जाता हूं, जिसे टोका गया है। क्योंकि सुनने व सीखने की तो शायद हर व्यक्ति की आदत खत्म हो रही है।
एक कहानी है कि एक चित्रकार ने अपनी जीवन की सबसे बेहतर पेंटिंग बनाई और उसे सार्वजनिक स्थल पर लगा दिया। साथ ही उस पर लिख दिया कि इसमें जहां भी कोई गलती नजर आए, वहां निशान लगा दें। अगले दिन चित्रकार को यह देखकर काफी दुखः हुआ कि पूरी पेंटिंग पर निशान ही निशान लगे थे। फिर उसने दोबारा से वैसी ही  पेंटिंग बनाई। उस पर लिख दिया कि जहां किसी को कोई गलती दिखे उसे ठीक कर सकता है। एक दिन बाद जब वह प्रतिक्रिया देखने पहुंचा तो देखा कि किसी ने पेंटिंग में कहीं भी संशोधन नहीं किया।
कई बार व्यक्ति को सच बोलने के बाद लगता है कि उसने गलती की है। एक महिला किसी संस्थान में नौकरी को गई। उससे पूछा कि पिछली जगह उसे कितना वेतन मिलता है। इस पर महिला ने सच बता दिया। उसे नौकरी मिली और एक हजार रुपये बढ़कर मिले। उसी महिला की दूसरी साथी ने भी वहीं नौकरी के लिए अर्जी दी। उसे भी इंटरव्यू में बुलाया गया। उसने पिछला वेतन करीब चार हजार रुपये बढ़ाकर बताया। इस पर उसे भी एक हजार रुपये बढ़ाकर वेतन दिया गया। अब पहली महिला परेशान थी कि उसने सही वेतन बताकर गलती की। पर ऐसी गलती से पछतावा नहीं चाहिए। जिस महिला ने सच कहा उसे झूठ बोलने का जिंदगी भर मलाल नहीं रहेगा। फरेब से आगे बढ़ना आसान है, लेकिन हमेशा अपने को स्थापित बनाए रखना मुश्किल है। सच ही है कि आजकल काम की परख कम और झूठों को तव्वजो ज्यादा मिलती है, लेकिन यह ज्यादा दिन नहीं चलता। एक  न एक दिन नया सवेरा नई रोशनी लेकर जरूर आता है।
                                                                                                 भानु बंगवाल

Thursday, 5 April 2012

जैसा सोचो, करो वैसा ही......

सच ही कहा गया कि व्यक्ति जैसा कहता है, सोचता है और करता है, वैसा ही बन जाता है। अच्छा सोचो, कहो और करोगे तो भीतर से अच्छाई ही निकलेगी। इस दौड़धूप भरी जिंदगी में अब तो व्यक्ति दूसरे की मदद करने में भी कई बार सोचता है। मेरे जीवन का अनुभव यही रहा कि कई बार लोग किसी की सहायता करने से पहले उसे तोलते हैं। यह देखते हैं कि उसकी सहायता करने के बाद उन्हें क्या लाभ मिलेगा। तभी व्यक्ति मदद को तैयार होता है। इसके विपरीत कई लोग ऐसे होते हैं जो अनजान की भी बगैर किसी लालच में मदद करते हैं। अनजान की मदद करना आसान काम नहीं है। कई बार आप किसी की मदद करना भी चाहें तो दूसरा लेने से मना कर देता है। स्वाभिमान के चलते या फिर ऐसा डर के कारण भी होता है। एक बार मैं रात के समय आफिस से घर आ रहा था। करीब 12 बजे का समय था। सड़क पर करीब 21 साल का युवा मुझे नजर आया। उसके कंधे में बड़ा सा बैग था। सुनसान सड़क पर वह पैदल ही चल रहा था। गरमी के दिन थे। पसीने से तरबतर युवक को देखकर मुझे उस पर तरस आया। मैने मोटर साइकिल रोकी और उससे पूछा वह कहां जाएगा। इस पर उसने बताया तो मैने उसे मोटर साइकिल पर बैठने को कहा। मैने कहा कि मैं उसी दिशा की तरफ जा रहा हूं। रास्ते में उसे छोड़ दूंगा। उसे कुछ ही दूर पैदल चलना पड़ेगा। युवक नहीं माना। कहने लगा कि वह स्वयं चला जाएगा। काफी जिद करने पर वह मुझ पर ही गुस्सा होने लगा। उसे पैदल चलना ही मंजूर था, पर अनजान का साथ मंजूर नहीं था। यह सच ही है कि अनजान पर आजकल किसी को विश्वासन ही नहीं रहा। उसे डर था कि कहीं रास्ते में मैं उसे लूट न लूं।
कितना बदल गया यह समाज। आज किसी पर विश्वास ही नहीं रहा। लोग एक-दूसरे के विश्वास का गला काट रहे हैं। अपने ही धोखा देते हैं, तो ऐसे में उक्त युवक का मेरे साथ न चलने का निर्णय उसके हिसाब से सही ही था। उसे करीब पांच किलोमीटर दूर पैदल चलना मंजूर था, लेकिन दूसरे के साथ बैठकर रिस्क लेना मंजूर नहीं था। रिस्क तो मैं भी ले रहा था। कई बार तो लिफ्ट लेने के बाद मदद करने वाले को ही लूट लिया जाता है। ऐसे में तो मुझे और उस युवक को ही एक-दूसरे को अविश्वास की भावना से देखना चाहिए था। इस दिन मुझे उस युवक पर कुछ खीज जरूर हुई। मैने सोचा कि आगे से किसी परेशान व्यक्ति की मदद नहीं करूंगा। क्यों करूं। क्या मैने मदद करने का ठेका लिया है। फिर मैं यही सोचने लगा कि अच्छा सोचो, अच्छा करो तो अंजाम भी अच्छा ही होता है।
                                                                                                          भानु बंगवाल

Tuesday, 3 April 2012

शहद का बंटवारा

छोटी उम्र की शैतानियां हमेशा याद रहती हैं। कई बार तो बच्चे ऐसी शैतानी करते हैं, जिसमें जान तक का जोखिम रहता है, लेकिन तब शैतानी पर मजा आता है। अक्सर गरमियों में छुट्टी पड़ने पर मैं बच्चों के साथ बगीचे में आम व लीची तोड़ने पहुंच जाता था। तब बगीचे का रखवाला हमारे पीछे पड़ता और हम फुर्ती से भागकर खुद को उसकी पकड़ से दूर करते। कई बार तो हम रखवाले को देखकर पेड़ से ही छलांग लगा देते थे। न चोट लगने का डर और न ही किसी अनहोनी का ही डर रहता था। ऐसी शैतानियों में ही हमें मोजमस्ती नजर आती थी।
शैतानी में मेरा बड़ा भाई मुझसे कुछ ज्यादा ही था। ऐसे में कई बार उसकी शिकायत भी घर तक पहुंच जाया करती थी। एक बार वह अपने दोस्तों के साथ जंगल में शहद निकालने गया। जंगल में छत्ता छेड़ते ही मक्खियां पीछे पड़ गई। उसके साथी तो भाग गए, लेकिन वह मक्खियों के हमले की चपेट में आ गया। उसे ढेर सारी मक्खियों ने काटा और वह जंगल में ही बेहोश हो गया। जंगल में दो पुलिस कर्मी डंडे के लिए बांस की तलाश में गए थे। वहां करीब 15 साल के युवक को देखकर उन्होंने सोचा कि किसी ने मार के फेंका हुआ है। इसी दौरान एक व्यक्ति जंगल में लकड़ी काट रहा था। उसने पुलिस कर्मियों को बताया कि यह तो पंडितजी का बेटा है। उसे कुछ लोगों की मदद से घर पहुंचाया गया। दो तीन दिन बि्स्तर में पड़े रहने के बाद वह फिर घर से गायब हो गया। माताजी को उसकी चिंता हुई। वह उसे तलाशने के लिए उसके दोस्तों के घर गई। अपने एक सिख मित्र के घर वह मिल गया। उसके घर जाकर मेरी माताजी ने जो नजारा देखा, तो वह भी घबरा गई। मित्र के घर उसकी उम्र के कुछ बच्चे आपस में शहद का बंटवारा कर रहे थे। यानि कुछ ही दिन पहले उसे शहद की मक्खियों ने काट खाया था। इसके बावजूद ठीक होने पर उसने छत्ते से दोबारा शहद निकालने की ठानी और निकाल भी लाया।
                                                                                                     भानु बंगवाल

Sunday, 1 April 2012

सेवा का अंदाज निराला....

मोहल्ले के नुक्कड़ में परचून की दुकान। इस दुकान के आगे आबारा कुत्तों की भीड़।  हर सुबह करीब साढ़े नौ बजे दूर से दिनकर जी के दिखाई देते ही कुत्तों की बेचैनी बढ़ जाती है। वे जोर-जोर से भौंकने के साथ उछलकूद करके खुशी का इंजहार करते हैं। कंधे पर बैग लटकाए दिनकर जी दुकान पर पहुंचते हैं और कुत्तों के लिए बंद या डबलरोटी के पैकेट खरीदते हैं। फिर एक-एक कर कुत्तों को खिलाना शुरू कर देते हैं। कुत्ते भोजन में मशगूल और दिनकर जी आफिस जाने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। यही कुत्ते रात के समय दिनकरजी के मकान के आगे सड़क पर ही डेरा जमाते। वहीं सोते और हुड़दंग भी मचाते। मजाल है कि कोई रात के समय दिनकरजी के घर की तरफ झांकने का प्रयास करे। उनके घर की रखवाली के लिए कुत्तों का पूरा झुंड ही रहता।
पिछले कई सालों से यह सीन हर सुबह मुझे अक्सर अपने मोहल्ले में दिख जाता था। कुछ माह से दिनकर जी मुझे दिखाई नहीं दे रहे थे और न ही कुत्ते। ऐसे में मेरी जिज्ञासा बढ़ी कि आखिर दिनकर जी कहां चले गए।
मोहल्ले में किसी व्यक्ति की जन्मपत्री बांचनी हो, तो वहां के दुकानदार, धोबी या कामवाली ही काम आते हैं। हर व्यक्ति के  बारे में उन्हें इतना पता होता है, कि शायद उस व्यक्ति को भी इतना पता न हो, जिसके बारे में बताया जा रहा है। खैर मैं यही सोच रहा था कि कुत्तों को एक समय का भोजन अब कहां से मिलेगा। दिनकर जी दिखाई नहीं देते। मेरी जेब इतनी भारी नहीं है कि मैं करीब पंद्रह कुत्तों को हर  सुबह नाश्ता करा सकूं।
मोहल्ले का दुकानदार लाला ही मेरे काम आया। मैं उसके पास गया और पूछा कि दिनकरजी कहां चले गए। सुबह दिखाई नहीं देते। ऐसे में कुत्ते भी सुबह आपकी दुकान के आगे उनके इंतजार में खड़े नहीं रहते हैं। लालाजी ने बताया कि दिनकर जी सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हो गए हैं। अब वह घर से कम ही बाहर निकलते हैं। कुत्तों को चिंता नहीं है। अब उन्होंने दिनकरजी के घर के बाहर ही डेरा जमा लिया है। वहीं उन्हें खाने को मिलता है। सचमुच सेवा का मजा ही कुछ और है। सेवा का कोई क्षेत्र भी नहीं होता। किसी भी रूप में प्राणी की सेवा की जा सकती है। सेवा करने वाला दूसरों के साथ उपकार तो करता है। साथ ही उसे भी सच्चे आनंद की अनुभूति होती है। यही आनंद शायद दिनकरजी को होता है। पशु प्रेम ही नहीं, वह तो वात्सल्य से भी ओतप्रोत हैं। करीब बीस साल पहले उनके घर के पास झाड़ियों में एक नजजात बच्ची को कोई फेंक गया। मौके पर भीड़ जमा हो गई। सलाह देने वालों की भी कमी नहीं थी। कोई कहता पुलिस को बुलाओ, तो कोई कुछ और सलाह देता। बच्ची को बचाने का कोई प्रयास नहीं कर रहा था। ऐसे में दिनकर जी ने बच्ची को उठाकर सीधे नर्सिंग होम पहुंचाया। वहां अपने खर्चे से उसका उपचार कराया। इसके बाद ही पुलिस को भी सूचना दी। फिर कानूनी कार्रवाई चली और एक दंपती को बच्ची गोद दे दी गई।
दिनकरजी अब नौकरी से रिटायर्ड हो गए। आफिस में उनकी सीट पर शायद सन्नाटा पसरा हो। गली में गट्टू लाला की दुकान के आगे सुबह कुत्तों के चिल्लाने की आवाज नहीं सुनाई देती हो, लेकिन दिनकरजी ने तो सेवा का कर्म नहीं छोड़ा। इसके गवाह हैं उनके घर के आगे सड़क पर आराम फरमाने वाले मोहल्ले के कुत्ते।

                                                                                                           भानु बंगवाल