Friday, 18 October 2013

सपना न हो सका अपना...

मालिक देता, जब भी देता, देता छप्पर फाड़कर। यहां तो छप्पर है नहीं, फिर चलो धरती ही खोद ली जाए। खेत बंजर पड़े हैं, लेकिन उसे खोदने की फुर्सत किसी को नहीं। खेत को खोदते तो शायद ये धरती सोना उगलती, लेकिन यहां तो महज पांच वर्ग मीटर के हिस्से को खोद कर पूरे भारत की किस्मत बदलने की तैयारी चल रही है। वो भी एक साधु के कहने पर। सुना है कि साधु के कहने पर कई बार लोगों की किस्मत पलट गई। फिर सरकार भी क्यों पीछे रहे। सो शुरू करा दी उन्नाव के डांडिया खेड़ा स्थित राव राम बक्स सिंह किले के पास सोने की खोज में खुदाई। सपनों के खजाने की खोज जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है, तमाशबीनों के साथ ही पूरे देश के लोगों की जिज्ञासा भी बढ़ने लगी है। सच ही तो कहा संतश्री शोभन सरकार ने इस स्थान पर खजाना दबा है। खजाना मिले या ना मिले, लेकिन वहां पहुंच रही भीड़ के जरिये कई लोग चांदी काटने लगे हैं। तमाशबीनों के लिए चाय, नाश्ता, पकोड़ी आदि की दुकानें सजने लगी। चलो खजाना मिलने से पहले ही इस बहाने कई को रोजगार तो मिला। सोने की तलाश में जैसे-जैसे धरती का सीना चीर रहे हैं, वैसे-वैसे ही लोगों की उत्सुकता बढ़ रही है। स्थानीय युवाओं का रोजगार चल पड़ा।  सोना मिले या ना मिले, लेकिन वहां अस्थायी दुकान चलाने वाले तो यही सोच रहे होंगे कि ये खुदाई लंबी चले। लोगों की भीड़ वहां आए और वे इस बहाने सोना न सही, लेकिन चांदी जरूर काटते रहें।
इस खुदाई ने राजनीतिक लोगों को चर्चा करने का मुद्दा दे दिया। नरेंद्र मोदी जहां सरकार को खींच रहे हैं, वहीं साधु व संत समाज पक्ष व विपक्ष में खड़ा होने लगा है। वैसे सपनों में कौन यकीं करेगा। सपने तो देखने व भूलने के लिए होते हैं। हर रोज भारत की गरीब आबादी यही सपना देखती है कि वह भी महल में ठाठ-बाट से रह रही है। गरीब व्यक्ति दो जून की रोटी का सपना देखता है। वह सपना देखता है कि उसके बच्चे भी अच्छे स्कूल में पढ़ने जाएं, लेकिन उसके सपने की किस को चिंता है। क्योंकि उसके सपने में गड़ा धन नहीं है। व्यक्ति को जहां भी सोना (लालच) नजर आता है वही उसके पतन का कारण भी बनता है। सोना यानी लालच। सीता को भी हिरन सोने का नजर आया। तो उसे इसका भयंकर परीणाम सहना पड़ा। सोने (नींद) के दौरान सोने का सपना। वो भी एक संत को। संत ने तो ठीक कहा कि जमीन में सोना दबा पड़ा है। सोना तो जमीन के भीतर ही होगा, यदि नहीं मिला तो कहीं और खोद लो, वहां मिल जाएगा। ये धरती तो सभी धातु व गैस व अन्य खजाना अपने भीतर समाए हुए है। हो सकता है वहां सोने की बजाय तेल का भंडार ही मिल जाए। मनोज कुमार की फिल्म का गीत यूं ही नहीं बुना गया कि..मेरे देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे मोती। इस गीत के अब सार्थक होने का सभी इंतजार कर रहे हैं।
वैसे भारत देश को सोने की चीड़िया भी कहा जाता है। यानी यहां सोने की कोई कमी नहीं थी। आखिर वो सोना कहां दबा पड़ा है। चलो देर से आयद, दुरुस्त आयद, वाली कहावत को अब चरितार्थ करने में जुट गए। पर देखा जाए तो यह भी कहा गया कि राजा जनक ने हल चलाया, लेकिन धरती पर बीज नहीं बोए। यानी उन्होंने फल की इच्छा के बिना ही कर्म किया। जब उन्होंने निष्काम कर्म किया तो उन्हें भक्ति रूपी सीता मिली। जहां सीता हो तो वहां भगवान राम स्वयं चले आते हैं। यहां तो सोना खोजने के लिए फल की इच्छा से कर्म हो रहा है। सोना मिला नहीं, लेकिन बंटवारे को लेकर विवाद होने लगा। एक और महाभारत की तैयारी। काश संतश्री शोभन सरकार की बात सच निकले। धरती से दबा खजाना मिल जाता। फिर क्या था कोई भी काम करने की जरूरत नहीं। बस घर में चादर तान को सोते रहो। कब किस दिन एक सुनहरा सपना आ जाए और किस्मत पलट जाए। अंग्रेज तो चांद पर ठोकर मारकर आ गया, हम सपनों की दुनिंया में ही विचरण करते रहेंगे। खुराफाती रामदास जी भी चादर तान कर सो गए। फिर लगातार सात दिन तक वह घर से बाहर नहीं निकले। आस-पड़ोस के लोगों ने उनकी तलाश की तो भीतर से दरबाजा बंद मिला। दरबाजा तोड़कर खोला गया। देखा भीतर रामदास जी सोए पड़े हैं। उन्हें नींद से उठाया गया। पहले वे लोगों पर नाराज हुए। फिर उन्होंने कहा कि मोहल्ले के गरीब धर्मदास के मकान के नीचे खजाना दबा पड़ा है। भीड़ जुटने लगी धर्मदास के मकान के पास। खजाने की तलाश में धर्मदास की झोपड़ी तोड़ी जानी थी। वह गिड़गिड़ा रहा था कि उसने पूरे जीवन की कमाई से झोपड़ी बनाई है। वह कहां जाएगा। लोगों ने कहा कि खजाना मिलने पर उसे भी हिस्सा दिया जाएगा। रामदास का सपना सच हो सकता है। धर्मदास को भविश्य नहीं, अपने वर्तमान की चिंता थी। उसने कहा कि खुदाई के दौरान वह कहां रहेगा। वह अपना घर नहीं तुड़वा सकता। इस पर लोगों ने चंदा कर गांव में ही धर्मदास के लिए नया मकान बनवा दिया। तब शुरू हुई धर्मदास के पुराने घर में खजाने की तलाश में खुदाई। कई दिन व महीने के बाद भी कुछ नहीं निकला। इस बीच रामदास भी स्वर्ग सिधार गए, लेकिन उनके सपने ने धर्मदास को एक अच्छा आशियाना दिला दिया। काश शोभन सरकार को भी ऐसा ही सपना आता कि खजाना फलां के मकान के नीचे दबा होता। इससे कई धर्मदास का तो भला होता। फिर भी जहां खुदाई चल रही है, वहां कई धर्मदास अपनी दुकानें चलाकर अपनी पोटली का खजाना बढा़ने का प्रयास कर रहे हैं। चलो इस बहाने उनका भी कुछ भला हो जाएगा।
भानु बंगवाल

Tuesday, 15 October 2013

आज भी जिंदा हैं रावण व सूपनर्खा....

हर बार की तरह इस बार भी दशहरे का त्योहार मनाया गया। पंडालों में रामलीला का मंचन किया गया। सच्चाई के पाठ पढ़े गए। झूठ और बुराइयों से दूर रहने के संकल्प लिए गए। रामलीला के पात्रों के उदाहरण दिए गए। सूपनर्खा, रावण व अन्य राक्षसों की बुराइयों से सबक लेने को कहा गया। त्योहार निपटा और जीवन की गाड़ी फिर उसी पटरी पर दौड़ने लगी, जिसमें पहले से ही दौड़ रही थी। सारे संकल्प व्यवहारिक जिंदगी में हवा होने लगे। आए दिन किसी न किसी सूपनर्खा तो कहीं रावण जैसे कृत्य के बारे में समाचार भी छपते हैं। दशहरे के साथ न तो सूपनर्खा का ही अंत हुआ और न ही रावण का। हम पुतला दहन कर भले ही खुश होते रहें, लेकिन हकीकत में तो दोनों समाज में आज भी जिंदा हैं।
ये रावण व सूपनर्खा कौन थे। यह सवाल जब भी कोई करेगा तो सभी उसे मूर्ख समझेंगे। क्योंकि बचपन में एक कहावत सुनी थी कि.. सारी रामायण पढ़ी, फिर पूछने लगे कि सीता किसका बाप। रावण के बारे में तो मैं बस इतना जानता हूं कि वह भी एक मानव था। जिसके कर्मों ने उसे दानव बना दिया। वह लंका का राजा था। ब्राह्मण था यानी कि बुद्धिमान था। विज्ञान व तकनीकी में उसका कोई सानी नहीं था। उसके पास उस जमाने के अत्याधुनिक अस्त्र थे। समुंद्र लांघने के लिए नाव थी और पोत थे। रथ के घोड़े ऐसी नस्ल के थे कि जब वे दौड़ते तो कहा जाता कि वे दौड़ते नहीं, बल्कि उड़ रहे हैं। शायद उस समय रावण के पास वायुयान भी रहा हो। सुख साधन से संपन्न लंका को इसीलिए सोने की लंका कहा जाता था। इस सबके बावजूद रावण अपने ज्ञान व विज्ञान का प्रयोग दूसरों की भलाई में नहीं करता था। वह तो अपना साम्राज्य बढ़ा रहा था। राजाओं, ऋषियों व प्रजा को लूट रहा था। इसीलिए उसके अत्याचारों के कारण उसे राक्षस की संज्ञा दी गई। राक्षस का साथ देने वाला हर प्राणी भी राक्षस कहलाने लगा। तब मीडिया वाले नारद मुनि कहलाते थे। जो उच्च वर्गीय लोगों के समाचार ही नमक मिर्च लगाकर जनता तक पहुंचाते थे। आम  जनता से उनका कोई लेना देना नहीं था। या तो वे राक्षसों के समाचार ही लोगों तक पहुंचाते या फिर देवताओं के। देवता यानी दैवीय शक्ति। ये वे राजा व ऋषि थे, जिनका मससद समाज की खुशहाली था। वे भी विज्ञान के ज्ञाता थे। उनका विज्ञान राक्षसों से युद्ध करने में ही लगा हुआ था। राक्षस आते और आम जनता की कमाई को लूट ले जाते। उनसे जो राजा या ऋषि संगठित होकर मुकाबला करते, तो बेचारी भोली भाली जनता यही समझती कि मायावी शक्ति से देवीय शक्ति मुकाबला कर रही है।
राम भी ऐसे प्रतापी राजा दशरथ के पुत्र थे जो ऋषि मुनियों से शिक्षा लेकर अपने इस संकल्प को पूरा करने में लगे थे कि इस धरती को राक्षसों के अत्याचारों से मुक्त कराएंगे। बचपन में राक्षसी ताड़का व सुबाहू जैसे लूटेरों का वध किया। जब बड़े हुए तो वनवास मिला। वनवास भले ही भरत को राजगद्दी पर बैठाने के लिए दिया गया, लेकिन राम ने अपना संकल्प वनवास के दौरान भी नहीं त्यागा। वह लोगों को राक्षसों के अत्याचारों के खिलाफ संगठित करते हुए एक गांव से दूसरे गांव तक जाते। लोगों में भी साहस का संचार होने लगा और वे भी राक्षसों का मुकाबला करने को तैयार रहने लगे। तब बंदर उस जाति के लोगों को कहा जाता था, जो जंगलों में रहती थी और बेहद पिछड़ी हुई थी। ऐसे लोगों की मदद से ही गुरिल्ला वार लड़कर राम ने खर व दूषण को जमीन चटा दी। खर व दूषण से लड़ने वे उनके गढ़ में नहीं गए, बल्कि उनके हमले का इंतजार करते रहे। जब वे फौज लेकर आए तो चारों तरफ से राम के साथ ही ग्रामीणों ने घेरकर उन्हें मार डाला। यानी लोग संगठित हो रहे थे और राम का युद्ध में साथ दे रहे थे।
शक्तिशाली रावण की बहन सूपनर्खा जो गुणों से राक्षसी गुण वाली थी। शारीरिक बनानट व नैन नक्श से वह अत्यंत सुंदरी कहलाती थी। दुनियां के सबसे बड़े लूटेरे की बहन का कोई कहना टाल दे, यह मजाल तब शायद किसी की नहीं थी। जब वह राम व लक्षमण को देखती है और उनसे विवाह का प्रस्ताव रखती है। उसे यह नहीं पता था कि वे उसके प्रस्ताव को ठुकरा देंगे। पहले वह अनुनय विनय करती है। फिर उन्हें अपने भाई रावण की ताकत का भय दिखाती है। जब यहां से भी काम नहीं चलता तो वह सीता को मारने का प्रयास करती है। इसी छीना झपटी में लक्ष्मण उसे धक्के देकर अपनी कुटिया से दूर खदेड़ देता है। दुनियां के सबसे ताकतवर राजा रावण की बहन की कोई बात नहीं माने और उल्टे उसे बेईजत्त होकर लौटना पड़े। यही तो है सूपनर्खा की नाक कटना। इस बेईजत्ती का बदला रावण सीता का अपहरण करके लेता है। इसके लिए वह मारीच का सहारा लेता है। मारीच उस जमाने का ऐसा कलाकार था, जो हर किसी की आवाज निकालने में माहीर था।
राम की कुटिया में मारीज एक साधु के वेश में जाता है। जब सीता उसे भोजन पसोसती है और बैठने को कहती है को साधु वेशधारी मारीच उनके बिछाए गए आसन में बैठने से मना करता है। वह अपनी पोटली से हिरन की खाल निकालता है, जिसमें सोना जड़ा होता है। उसे जमीन पर बिछाकर मारीच बैठता है। साथ ही वह बताता है कि आगे जंगल में ऐसे हिरन हैं, जिनकी खाल में सोना जड़ा होता है। वह कहता है कि उसे मारने वाले को बेहतर धावक होना चाहिए, क्योंकि ऐसा हिरन बहुत तेज गति से दौड़ता है।
कहते हैं कि जिसकी आंखों में लालच आया, तो समझो वह विपत्ती में पड़ा। सीता को भी हिरन की खाल देखकर लालच आया। वह राम को हिरन लाने के लिए मारीच के साथ जाने को कहती है। मारीच बताता है कि उसने ऐसे हिरन रास्ते में कुछ ही समय पहले देखे थे। सीता के अनुरोध पर राम मारीच के साथ धनुष लेकर हिरन को लेने चल पड़ते हैं। जब मारीच को पता चलता है कि वे इतनी दूर पहुंच गए जहां से पूरी ताकत से चिल्लाने के बाद भी राम की कुटिया तक उनकी आवाज नहीं जाएगी। तब वह आश्वस्त होकर अपने थेले से लाउडस्पीकर की तरह का यंत्र निकालता है। साथ ही दौड़ लगा देता है। इस यंत्र से वह राम की आवाज में विलाप करने लगता है और चिल्लाता है, भैया लक्ष्मण मुझे बचाओ। राम भी चिल्ला रहे कि यह धोखा है धोखे में मत आना, लेकिन उनकी आवाज लक्ष्मण व सीता तक नहीं पहुंचती। वहीं मारीच लगातार यंत्र के सहारे अपनी आवाज पहुंचाता है। राम मारीच को पकड़ने के लिए पूरी ताकत से दौड़ते हैं। मारीच भी हिरन से तेज कुल्लाचे भरकर दौड़ने लगता है। यही तो है हिरन का रूप, जो मारीच ने धरा था।  मारीच रुपी हिरन को मारने में ही तब राम ने भलाई समझी। तब तक वह यंत्र को तोड़ चुका था और राम इतनी दूर पहुंच गए थे कि कुटिया तक जल्द वापस लौटना भी संभव नहीं था। फिर वही कहानी। सीता लक्ष्मण को मदद को भेजती है। अकेली सीता को रावण उठाकर ले जाता है।
ये तो थी त्रेता युग की कहानी। आज देखें तो समाज में सूपनर्खाओं की कमी नहीं है। कई किस्से तो ऐसे हैं कि सूपनर्खा की तरह महिलाएं यह जानती हैं कि इस पुरुष की शादी हो रखी है, फिर भी वे उसे ही अपना जीवन साथी बनाने में तुली रहती हैं। पत्नी से तलाक करवाती हैं। यदि कोई राम व लक्ष्मण की तरह मना कर दे, तो झट कोर्ट में मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। साल दो साल लिव इन रिलेशन में (या कुछ और कह लो) साथ बिताने के बाद जब मन की नहीं हुई तो लगा दिए आरोप। सब कुछ जानबूझकर हो रहे हैं ऐसे अपराध। वहीं रावण की भी कमी नहीं है। अबला व लाचार नारी के अपहरण की घटनाएं हर दिन अखबारों की सुर्खियां रहती हैं। कल्पना करो कि यदि तब आज की तरह न्यायालय होते तो शायद राम व लक्ष्मण भी सूपनर्खा की बेईजत्ती के मामले में जेल की सलाखों के पीछे रहते। रावण ने तो अपहरण के बाद भी सीता से कोई बदसलूकी नहीं की। उसके भी कुछ सिद्धांत थे। अब तो समाज में जो रावण व सूपनर्खा पनप रहे हैं, ये उस जमाने के रावण व सूपनर्खा से ज्यादा घातक हैं। उनसे बचने के लिए समाज में एक नई क्रांति की जरूरत है।
भानु बंगवाल  

Saturday, 12 October 2013

ये भूत तो नाच कर डराते हैं.....

आखिर ये भूत क्या है, जो बचपन से ही मानव को डराता है। इन दिनों रामलीला चल रही है, तो मुझे भूत की भी याद आ गई। क्योंकि मौका देखकर मैं बच्चों को भी रामलीला दिखा रहा हूं। रामलीला में भूत तो नहीं होते, लेकिन राक्षस जरूर होते हैं। राक्षसों में सूपनर्खा व ताड़का को तो इतना डरावना बनाते हैं, कि बच्चे डरने लगते हैं। अब तो शायद बच्चे ऐसे चरित्रों को देखने के अभ्यस्त हो गए। लेकिन, 80 के दशक  में सन 70 से 75 के बीच जब देहरादून में टेलीविजन नहीं थे, तब तो भूत के नाम से ही बच्चों के साथ ही बड़ों के शरीर में सिहरन दौड़ने लगती थी। आखिर क्या है ये भूत। ये तो सिर्फ इंसान की कल्पना है। बच्चे कहते थे कि उसका चेहरा डरावना होता है। पांव पीछे की तरफ होते हैं। काले कपड़े पहनता है। काला रंग यानी अंधेरे का प्रतीक। जब दिमाग में अंधेरा हो या फिर कोई रंग ही नहीं हो तो हर चीज काली ही नजर आती है। वैसे तो देवता व राक्षस प्रवृति व्यक्ति के भीतर ही होती है। जो व्यक्ति अच्चे कार्य करता है, दूसरों की भलाई करता है, उसके भीतर दैवीय गुण होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ही देवता कहा गया है। वहीं, जो लूटेरा होता है, दूसरों पर अत्याचार करता है, वही तो राक्षस हुआ। रामलीला मंचन के जरिये भी यही संदेश देने का प्रयास किया जाता है कि अपने भीतर के रावण को जला डालो। अपने भीतर के राक्षसी गुण को त्याग दो।
वैसे तो अब रामलीला के मंचन सिमटने लगे हैं। देर रात तक चलने वाली रामलीला को छोटा कर जल्द निपटाया जाने लगा। देहरादून के राजपुर में तो रामलीला 64 वें साल में प्रवेश कर गई। संचालक व समाजसेवी योगेश अग्रवाल बच्चों को रामलीला की तरफ आकर्षित करने के लिए नायब प्रयोग कर रहे हैं। पर्दा गिरते ही जब दूसरे दृश्य की तैयारी होती है, तो वह मंच से बच्चों से सवाल पूछते हैं। सही जवाब देने वाले बच्चों को टीवी सीरियल के कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर ईनाम दिया जाता है। यह ईनाम चाहे दस रुपये ही क्यों न हो, लेकिन प्रतियोगिता जीतना भी काफी सम्मानजनक है। सवाल ऐसे  होते हैं कि... राम के दादा का क्या नाम था। साथ ही दूसरा सवाल... आपके पिताजी के दादा का क्या नाम है। बच्चे शायद दूसरे सवाल का जवाब तक नहीं जानते। कितना भूल गए हम अपनी वंशावली को। राम के वंश को तो शायद याद रखते हैं, लेकिन टूट रहे परिवार के लोग अब अपने वंश के लोगों का नाम तक याद नहीं रख पा रहे हैं। दादा या दादी, नाना या नानी जिंदा हैं तो जबाव देना आसान। नहीं तो किसी को कुछ पता नहीं। यह प्रयोग कामयाब नजर आया। पूछे गए सवाल का जवाब दूसरे दिन देना पड़ता है। ऐसे में बच्चे सही जवाब देने के लिए रामलीला आ रहे हैं, जब बच्चे आएंगे तो अभिभावकों का साथ जाना भी मजबूरी हो गया।
चलिए में आपको टाइम मशीन में बैठाकर वर्ष 1974 में ले चलता हूं। नवरात्र के दौरान किशनपुर, चुक्खूवाला, राजपुर समेत देहरादून के विभिन्न स्थानों पर हर रात को रामलीला का मंच हो रहा है। राजपुर रोड के किनारे घंटाघर से लेकर दिलाराम बाजार तक कुछ एक दुकान व मकान तो हैं, लेकिन जैसे-जैसे आगे राजपुर या मसूरी की तरफ बढ़ेंगे तो सड़क सुनसान नजर आएगी। रात को इन सड़कों पर घनघोर अंधेरा। क्या पता कहां से भूत आ जाए, यही डर राहगीर को सताता रहता। वैसे तो रात को कोई सड़क पर निकलना नहीं चाहता था। मजबूरी में ही लोग कहीं आते जाते। साइकिल वाले भी काफी कम थे। स्कूटर वालों की हैसियत पैसेवालों में गिनी जाती है। किशनपुर की रामलीला देखने के लिए बारीघाट व राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान के लोग जत्था बनाकर जाते हैं। राष्ट्रपति आशिया के निकट सड़क से सटा हुआ एक विशाल बरगद का पेड़ है। कहते हैं कि वहां भूत देखा गया है। कोई कहता कि वह सफेद घोड़े में सफेद कपड़े पहनकर घुमता है। कोई कहता कि काली बनियान व काला कच्छा पहने व हाथ में तलवार लेकर भूत लोगों के पीछे दौड़ता है। इस दौर के लोगों को क्या पता कि 21वीं सदी में हर गली व मोहल्ले में सफेदपोश भूत ही भूत नजर आएंगे। जो खुद मस्त रहेंगे और जनता परेशान। वे जनता को लूटेंगे, लेकिन इसकी खबर किसी को नहीं होगी। इस दिन रात को रामलीला देर रात दो बजे खत्म हुई। भूत के डर से इन दो मोहल्लों के लोग छोटे-छोटे जत्थे में घर को लौट रहे। बच्चे ऊंघते हुए बड़ों का हाथ पकड़े चल रहे। घर लौट रहे सबसे आगे वाला जत्था ठिठक गया। उसे दूर बरगद के पेड के पास दो काली परछाई नजर आई। फिर लोगों ने समझा उनका भ्रम है। जैसे ही आगे बड़े परछाई दो आकृतियों में बदल गई। सिर से पांव तक काला लिबास। हाथ में लंबे डंडे। पैरों में घुंघरु की छम-छम। उन्हें देखते ही सभी जत्थों के पैर गए थम। दोनों आकृतियां नृत्य कर रही थी और लोगों में भगदड़ मचने लगी। भागो भूत आया कहकर जिसे जहां रास्ता मिला वहीं से भागने लगा। ये भूत भी बड़े शरीफ थे, जो किसी को कुछ नहीं कह रहे थे। वे तो मस्त होकर नाच रहे थे। फिर किसी को उनसे क्यों डर लग रहा था। तभी कुछ ज्यादा उत्साहित एक भूत का कंबल से बना लबादा सरक गया। नई चेकदार कमीज ने उसकी पोल खोल दी। एक लड़की चिलाई...अरे ये तो संडोगी (मोहल्ले में बच्चों द्वारा रखा नाम) है। जब संडोगी का पता चला तो यह भी पक्का था कि दूसरा युवक संडोगी का मित्र वीरु होगा। दोनों ही अक्सर साथ देखे जाते थे। फिर क्या था, पड़ने लगी दर्जनों लोगों के मुख से दोनों को गालियां। पीछे से संडोगी व वीरू की माताएं भी घर को आ रही थी। उनसे कई ने शिकायत की, तो बेचारी शर्म से लाल होने लगी। फिर क्या था, युवकों की माताएं उनसे पहले घर पहुंच चुकी थी। उन्होंने अपने-अपने तरीके से बेटों को सजा देने की तैयारी कर ली। वहीं भूत बने दोनों युवक अब घर जाते समय धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे थे। साथ ही वे भय से थर-थर कांप रहे थे कि घर की अदालत में क्या होगा।
भानु बंगवाल

Wednesday, 9 October 2013

मन का विश्वास कमजोर हो ना....

सुबह उठा तो पता चला कि कुछ ज्यादा ही सो गया। जल्दबाजी में आफिस के लिए तैयार होने लगा। मुझे आफिस में देरी से पहुंचना पसंद नहीं है और न ही मैं बच्चों का भी स्कूल में देरी से जाना पसंद करता हूं। सभी को यही सलाह देता हूं कि समय से पहले पहुंचो। सुबह दस बजे आफिस पहुंचना होता है, लेकिन कई बार मैं सुबह साढ़े नौ पर ही पहुंच जाता हूं। ये मेरी आदत में शुमार है। जब देरी हो ही गई, वह भी ज्यादा नहीं, तो मैने सोचा कि रास्ते में बैंक का काम भी करता चला जाऊं। क्योंकि बैंक के सामने जब मैं पहुंचा तो तब ठीक दस बज रहे थे। वहां मुझे एक मिनट का काम था। ऐसे में मैने राजपुर रोड स्थित बैंक आफ बड़ोदा की शाखा के सामने मोटर साइकिल खड़ी की और बैंक के प्रवेश द्वार को सरकाकर भीतर घुस गया। भीतर का नजारा कुछ अजीब लगा। बैंक के सभी कर्मी अपनी सीट पर बैठने की बजाय खड़े थे। जिनकी सीट दूर थी, वे गैलरी में ही खड़े थे। काउंटर तक जाने के रास्ते पर कर्मचारियों के खड़े होने के कारण मैं भी ठीक प्रवेश द्वार से कुछ कदम आगे बढ़कर अपने स्थान पर खड़ा हो गया। मैने सोचा कि शायद कोई दुखद समाचार मिला है और कर्मचारी शोक सभा कर रहे हैं। फिर मुझे एक धुन सुनाई दी, जो शायद कंप्यूटर के जरिये बजाई जा रही थी। धुन चिरपरिचित एक प्रार्थना की थी। धुन के साथ ही प्रार्थना भी सुनाई देने लगी...इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना। बैंक में प्रार्थना वो भी कामकाज की शुरूआत से पहले। मुझे अटपटा सा लगा। जिस प्रार्थना को मैं बचपन में स्कूल में बोलता था, गाता था, वही मुझे बैंक में भई सुनाई दी।
प्रार्थना, यानी की अच्छाई को जीवन में उतारने का संकल्प। बचपन में जब मैं यह प्रार्थना सुनता व बोलता था, तब मुझे इसका अर्थ तक समझ नहीं आता था। शायद आज भी ठीक से नहीं समझ पाया हूं। क्योंकि हम जो बोलते हैं, उसे शायद करते कम ही हैं। छठी जमात तक स्कूल में सुबह प्रार्थना की लाइन में मैं भी खड़ा होता रहा। तमन्ना यही रहती कि उन पांच बच्चों में शामिल रहूं, जो सबसे आगे खड़े  होकर प्रार्थना बोलते हैं। फिर उनके पीछे सब बच्चे प्रार्थना को दोहराते हैं। मेरी आवाज बेसुरी थी। फटे बांस जैसी, सो मेरी प्रार्थना को लीड करने की यह तमन्ना कभी पूरी नहीं हो सकी। सातवीं से ऐसे स्कूल में पढ़ा,  जिसका नाम दयानंद एंग्लोवैदिक (डीएवी) कालेज था। वहां न तो सुबह प्रार्थना होती थी और न ही इंटरवल। कालेज में पहले घंटे (पीरिएड) से लेकर 14 पीरिएड होते थे। शिफ्ट में कक्षाएं चलती थी। हमारी सातवीं की कक्षा आठवें घंटे से लेकर 14 वें घंटे तक चलती थी। नवीं से 12 वीं तक की कक्षाएं सुबह की शिफ्ट में होती थी। ऐसे में न कोई प्रार्थना न इंटरवल। बैंक में खड़े रहने के दौरान मैं भी आंखे बंद कर खड़ा रहा। मुझे लगा कि मैं तीसरी या चौथी कक्षा का छात्र  हूं, जो प्रार्थना सभा में खड़ा है। टीचर हाथ में बेंत लेकर यह मुआयना कर रहा है कि कौन सा बच्चा प्रार्थना सही नहीं बोल रहा है। वही चेहरे व अध्यापकगण मेरी आंखों के सामने नाच रहे थे, जिन्हें मैं लंबे अर्से के बाद भूल चुका था।
बैंक को प्रार्थना की जरूरत क्यों पड़ी। क्या कारण है कि जो नैतिक शिक्षा का पाठ हम बचपन में पढ़ते थे, उसे दोहराया जाने लगा। क्यों प्रार्थना के जरिये हमारी नाड़ियों में ऐसे रक्त संचार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि हमारा मन शुद्ध रहे। हम इस संकल्प के साथ काम की शुरूआत करें कि किसी दूसरे का बुरा न सोचें। वैसे तो प्रार्थना का कोई समय ही नहीं है। सुबह उठने से लेकर रात को सोते समय तक प्रार्थना दोहराई जा सकती है। पर मुझे नफरत है समाज सेवा का दंभ भरने वाली उस संस्थाओं के लोगों से जो रात को होटल में संस्था की बैठक में अपनी समाजसेवा की शेखी बघारते हैं। रात दस बजे से बैठक होती है और लगभग 12 बजे खत्म होती है। फिर शुरू होता है राष्ट्रीय गान...जन,गन,मन...। ऐसा लगता है जैसे बैठक में उपस्थित भद्रजनों को जबरन सजा दी जा रही है। क्योंकि एक तरफ राष्ट्रीय गान चल रहा होता है, वहीं दूसरी तरफ फैलोशिप व भोजन की तैयारी चल रही होती है। फैलोशिप यानी कि भाईचारा। जो दो पैग मारने के बाद ही भीतर से पनपता है। उधर, राष्ट्रीय गीत की धुन और दूसरी तरफ गिलास में तैयार होने पैग की खन-खन। इसके बगैर तो समाज सेवा की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
बैंक के कर्माचरियों से बातचीत करने के बाद यही निष्कर्ष निकला कि प्रार्थना के बहाने देरी से आने वाले कर्मचारी अपनी आदत में बदलाव तो करेंगे। साथ ही ग्राहकों से अच्छा व्यवहार करेंगे। प्रार्थना पौने दस बजे होनी थी,लेकिन देरी से आने वालों ने दस बजे से शुरू कराने की परंपरा डाल दी। प्रार्थना के दौरान सभी की आंखे मुंदी रहती हैं और देरी पर भी देरी से आने वाले चुपचाप से खड़े हो जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अक्सर देरी करने वाला व्यक्ति बॉस व अन्य साथियों से हाथ मिलाए बगैर ही चुपचाप सबसे पहले अपनी सीट पर बैठता है कि शायद किसी को यह पता न चले कि वह फिर देरी से पहुंचा। फिर भी एक विश्वास है कि शायद हर रोज यह प्रार्थना दोहराने वालों का विश्वास कमजोर नहीं पड़ेगा। शायद खुद के विश्वास को मजबूत करने के लिए उनकी धमिनयों में नई उमंग, नई तरंग, नए उत्साह वाले रक्त का संचार होगा। यही तो है प्रार्थना का उद्देश्य। मुझे खुद भी देरी हो चुकी थी, सो मैं प्रार्थना के बाद बैंक में काम कराए बगैर ही जल्द ही वहां से खिसक गया। क्योंकि तब तक काउंटर में भीड़ लग चुकी थी। कर्मचारी अपनी कुर्सी पर बैठने की तैयारी कर रहे थे। सिक्योरिटी गार्ड आलमारी से अपनी बंदूक निकाल रहा था। कर्मचारी अपने कंप्यूटर को आन करने के बटन दबा रहे थे, लेकिन समय तेजी से सरक रहा था.....
भानु बंगवाल 

Monday, 7 October 2013

इतिहास खुद को दोहराता रहेगा...

नवरात्र शुरू हो जाएं और रामलीला मंचन न हो, यह तो हो नहीं सकता। भले ही अब रामलीला के पंडाल सिमटने लगे हैं। फिर भी कुछ विरले लोग ही इस पुरानी परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। बचपन से ही मुझे रामलीला अच्छी लगती थी और आज भी लगती है। जब छह सात साल का था तो हमारे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर रामलीला का मंचन होता था। मोहल्ले के लोग टोलियां बनाकर पैदल ही रामलीला देखने जाते। मेरी बड़ी बहनों के साथ माताजी रामलीला के लिए रात को घर से निकलती, तो मैं भी साथ जाने की जिद करता। मुझे ले जाने में वे इसलिए कतराते थे कि रामलीला के समापन पर मैं नींद का बहाना करता। ऐसे में मुझे बारी-बारी से पीठ पर ढोकर घर लाया जाता। साथ ही मुझे ढोने वाली बहने पूरे रास्ते भर मुझे ताने देती। साथ ही यह कहती कि कल से साथ नहीं लाएंगे। मैं चुपचाप उनकी डांट सुनता। कभी पीठ पर लदे हुए ही सो जाता। अगली रात जैसे ही सब तैयार होते, तो मैं भी इस आश्वासन पर साथ चल देता कि आज खुद ही पैदल आऊंगा।
समय बदला। टेलीविजन का दौर आया। कई स्थानों से रामलीला के पंडाल लुप्त हो गए। नए मोहल्लों व स्थानों पर रामलीला शुरू कराने का साहस किसी को नहीं हुआ। कुछएक रामलीला समितियां ही ऐसी बची हैं, जो इस पुरानी परंपरा को निभा रही हैं। कई ने समय के साथ ही रामलीला मंचन का ट्रैंड बदला। टी-20 क्रिकेट मैच की तरह फटाफट रामलीला का मंचन किया जाने लगा। ऐसे में सीडी चला दी जाती है। मंच पर कलाकार सिर्फ मुंह चलाते हैं। चार-पांच मंच बने होते हैं और नानस्टाप चलने वाली रामलीला में एक दिन का मंचन दो घंटे में ही निपट जाता है। लोगों के पास अब समय ही कहां बचा है कि रात के नौ बजे से एक बजे तक रामलीला को देखें। बच्चों का स्कूल रहता है। पढ़ाई का बोझ इतना होता है कि वे भी रामलीला से वंचित हो रहे हैं। फटाफट वाली रामलाली मैं तो कुछएक दर्शक जुट रहे हैं। लेकिन, पुरानी शैली वाली रामलीला में जिसमें कलाकार ही सब कुछ करता है, दर्शकों का टोटा पड़ गया है। फिर भी मुझे पुरानी शैली की रामलीला ही पसंद है। इसका कारण यह है कि नए युवाओं को अभिनय के प्रति आगे बढ़ाने मे रामलीला भी सहायक होती हैं। कलाकार का गला भी साफ व सुरीला होना चाहिए। वैसे रामलीला के संदेश सत्य की असत्य पर जीत के होते हैं। सही का साथ दो, गलत को गलत समझो। किसी का बुरा न करो। यही तो रामलीला सिखाती है। इस देश का दुर्भाग्य यह है कि आसूमल नाम के फ्राड जब प्रवचन करते हैं तो पंडालों में भीड़ जुट जाती है, लेकिन जब लोगों के बीच के कलाकार अभिनय के जरिये वही बात कहते हैं, तो उन्हें सुनने की किसी को फुर्सत नहीं।
मेरी कोशिश यह रहती है कि हर साल बच्चों को रामलीला जरूर दिखाऊं। जैसे सर्कस में शेर देखने को आज की पीड़ी तरस गई, वैसे रामलीला से भी वंचित न रहे। मेरे घर से करीब सात किलोमीटर दूरी पर मसूरी की तलहटी में बसे राजपुर कस्बे में इस साल भी रामलीला का मंचन चल रहा है। वहां रामलीला 64वें साल में पहुंच गई। मैने इस बार बच्चों को वहीं रामलाली दिखाने की ठानी। बड़ा बेटा दसवीं की तैयारी कर रहा है। हर रोज स्कूल में उसे टैस्ट देने पड़ रहे हैं। ऐसे में चाहते हुए भी उसने रामलाली जाने से मना कर दिया। मैं छोटे बेटे को लेकर राजपुर पहुंच गया। हालांकि अभी स्वैटर शुरू नहीं हुई, फिर भी राजपुर इतनी ऊंचाई में है कि मैने दस साल के बेटे को जैकेट साथ रखने को कहा। रामलीला शुरू हुई कुछ वही पुराने चेहरे नजर आए, जिन्हें मैं बचपन से देखता आ रहा था। हांलाकि उनके चरित्र बदल गए। जो पहले राम बनता था, उसे ज्यादा उम्र होने के कारण विश्वमित्र की भूमिका निभानी पड़ रही है। वाकई रामलीला के जरिये दूसरों की भलाई का संदेश देने वालों में यदि एक भी ऐसा काम करे तो रामलीला का औचित्य को सफल माना जा सकता है। हर साल की तरह इस बार भी संचालन कर रहे योगेश अग्रवाल से जब मैं मिला तो पता चला कि वह रक्तदान करते हैं। उनका रक्तदान का आंकड़ा 102 पर पहुंच गया। इसी तरह शिवदत्त नाम का एक कलाकार सामाजिक सेवा में भी अग्रणीय है। एक पत्रकार जो कलाकार भी है, वह भी अपने आसपास के लोगों की समस्याओं के निराकरण में हमेशा तत्पर रहता है। मैं पंडाल में पर्दे के पीछे पुराने कलाकारों से मिलने पहुंचा। एक ने मुझे टोका कि किससे मिलना है। मैने कहा पुराने चेहरों से। मैकअप से पुते हुए उस व्यक्ति ने कहा नाम बताओ। मेरे मुंह से छुटा प्रवीण। वह बोला मैं ही हूं। पहचाना नहीं क्या। प्रवाण नाम का यह व्यक्ति एक साप्ताहिक पत्र निकालता है। रामलीला में वह ब्रह्मा, विश्वमित्र व अन्य कई भूमिका निभा रहा था। उससे मिलकर मुझे काफी सुखद अनुभव हुआ।
रामलीला शुरू हो गई। दुख यह रहा कि दर्शक के नाम पर पूरा पंडाल खाली था। तीस के करीब बच्चे व इनके ही महिला व पुरुष रामलीला देखने पहुंचे। वहीं, कई साल पहले पंडाल में सबसे आगे जगह पाने के लिए लोग जल्दी घर से निकल जाते थे। पंडाल दर्शकों से खचाखच भरा रहता था। इसी तरह कलाकार भी कम ही नजर आए। एक कलाकार दो से तीन भूमिका निभा रहा था। ऐसे में बार-बार उसे ड्रैस बदलनी पड़ती। फिर भी एक उम्मीद नजर आती है कि जैसे भी हो, रामलीला जारी रहेगी। भले ही आज बुरा दौर चल रहा है, लेकिन पंडाल में भीड़ जरूर लौटेगी। रामलीला के संदेश हमेशा अमर रहेंगे। क्योंकि इतिहास खुद को बार-बार दोहराता है।
भानु बंगवाल

Sunday, 6 October 2013

इक मुट्ठी भर जौ को मिट्टी...

नवरात्र शुरू हुए और पत्नी की सुबह पूजा पाठ से हुई। वैसे तो मेरी पत्नी हर रोज ही पूजा करती थी, लेकिन किसी विशेष दिनों में उसकी पूजा कुछ लंबी ही रहती है। नवरात्र में ही ऐसा ही होता है। मैं सोया हुआ था और घंटी की आवाज से नींद खुली। जब तक मैं जागा देखा कि वह पूजा-अर्चना कर घर से उस स्कूल के लिए निकल गई, जहां वह पढ़ाती है। यह सच है कि यदि दोनों काम न करें तो घर का खर्च नहीं चल सकता। मैं उठा तो देखा कि घर में बनाए गए पूजास्थल में दीप जल रहा है। धूपबत्ती भी बुझी नहीं, उसकी सुगंध से पूरा घर महक रहा है। वहीं मुझे ख्याल आया कि पहले नवरात्र में पत्नी ने जौ नहीं बोई। बोती भी कहां से। पहले तो माताजी ही इस काम का मोर्चा संभाले रहती थी। अब माताजी की इतनी उम्र हो गई कि वह बार-बार हर बात को भूलने लगती है। कभी-कभी किसी बात को दोहराने लगती है। वह तो भोजन करना भी भूल जाती है। बस उसे याद रहता है तो शायद सुबह को समय से नहाना व धूप जलाना। हाथ में इतनी ताकत नहीं रही कि किसी बर्तन में या फिर पत्तों का बड़ा सा दोना बनाकर उसमें मिट्टी भर ले और उसमें जौ बोई जाए। वैसे मैं पूजा पाठ नहीं करता, लेकिन यदि कोई घर में करता है तो उसे मना भी नहीं करता। मुझे नवरात्र  में जौ बोना इसलिए अच्छा लगता है कि उसमें जल्द ही अंकुर फूट जाते हैं। नौ दिन के भीतर छह ईंच से लेकर आठ दस ईंच तक हरियाली उग जाती है। घर के भीतर हरियाली देखना मुझे सुखद लगता है। ऐसे में मैने ही पत्नी की पूजा और विधि विधान से कराने की ठानी और जौ बोने की तैयारी में जुट गया।
सबसे पहले मैं इस उधेड़बुन में ही लगा रहा कि किस बर्तन में जौ बोई जाए। स्टील के डोंगे में बोता था, लेकिन पानी कि निकासी न होने से जौ गलने लगती थी। माताजी की तरह पत्तों का दोना बनाना मुझे आता नहीं। आफिस भी समय से पहुंचना था। इतना समय नहीं था कि किसी दुकान में जाकर जौ बोने के लिए मिट्टी का चौड़ा बर्तन खरीद कर ले आऊं। कुम्हार की चाक भी मेरे घर से करीब पांच किलोमीटर दूर थी। कुम्हार मंडी में भी दीपावली के दौरान ही रौनक रहती है। साल भर बेचारे कुम्हार अपनी किस्मत को कोसते रहते हैं। घर-घर में फ्रिज होने के कारण उन्होंने सुराई व घड़े बनाना भी बंद कर दिया। गमले बनाते हैं, लेकिन अब लोग प्लास्टिक व सीमेंट के गमले इस्तेमाल करने लगे।
प्लास्टिक का जमाना है। ऐसे में मुझे माइक्रोवेव में इस्तेमाल होने वाला एक डोंगेनुमा बर्तन ही उपयुक्त लगा, जिसकी तली में कई छेद थे। प्लास्टिक के इस बर्तन का इस्तेमाल शायद कभी घर में हुआ ही नहीं। इसलिए नया नजर आ रहा था। अब मुझे मिट्टी की आवश्यकता थी, जिसमें एक मुट्ठी जौ बोई जा सके। घर के बाहर निकला। पूरे आंगन में टाइल बिछी थी। घर में हमने कहीं कच्ची जगह ही नहीं छोड़ी। फिर मिट्टी कहां से मिलती। मेरे घर के आसपास की जमीन रेतीली या बजरी वाली है। आसपास सभी के घर की यही स्थिति थी। कंक्रीट का ढांचा खड़ा करते-करते किसी ने घर व आसपास इतनी जगह तक नहीं छोड़ी कि कहीं कच्ची जमीन हो। गली व मोहल्ले की सड़कें भी पूरी पक्की, किनारा भी कच्चा नहीं। किनारे में सीमेंट से बनी पक्की नालियां। नाली से सटी लोगों के घर की दीवार। दीवार के उस पार पक्का फर्श और फिर मकान। बारिश हो तो सारा पानी बहता हुआ देहरादून से सीधे निकलकर नालियों व बरसाती नदियों में बहता हुआ दूर सीधे हरिद्वार निकल जाए। या फिर बारिश का पानी लोगों के घरों में घुसने लगता है। धरती में समाने की जगह नहीं होती, नतीजन हर तरफ जलभराव। पानी को धरती में समाने की हमने कोई जगह नहीं छोड़ी। ऐसे में भूमिगत पानी रिचार्ज कैसे होगा। इसीलिए तो गर्मियों में हैंडपंप सूख जाते हैं और नलकूप भी हांफते हुए पानी देते हैं।
मुझे याद आया कि बचपन में मिट्टी से मेरा कितना करीब का नाता था। घर के आसपास मिट्टी ही तो नजर आती थी। आंगन में लिपाई भी मिट्टी से होती थी। जहां हम रहते थे, वहां पीली मिट्टी की एक ढांग थी। जहां से लोग खुदाई कर जरूरत के लिए मिट्टी ले लेते थे। स्कूल गया तो सरकारी स्कूल में कला के नाम पर मिट्टी के खिलौने बनाने पड़ते थे। मैं सेब, केला, मिट्टी की गोलियों से बनी माला या फिर कुछ न कुछ आटयम बनाता। उसमें सलीके से रंग भरता। मास्टरजी देखते और उसे देखकर खुश होने की बजाय कहते कि और बेहतर बनाते। यहां रंग गलत भरा। फिर बच्चों के बनाए खिलौने पटक-पटक कर तोड़ दिए जाते कि कहीं दूसरी बार स्कूल से ही लेजाकर रंग चढ़ाकर मास्टरजी को दिखाने न ले आए। न तो मेरा वो पुराना मोहल्ला मेरा रहा। क्योंकि उसे हम करीब बीस साल पहले छोड़ चुके। वहीं उस मोहल्ले में भी अब मिट्टी खोदने वाले भी नहीं रहे। सभी के घर पक्के हो गए। मिट्टी की जरूरत तो शायद अब किसी को पड़ती ही नहीं। जिसने बचपन में मिट्टी खोदी, अब वही अपने बच्चों को मिट्टी से दूर रखने का प्रयास करते हैं।
जौ बोनी थी क्योंकि बर्तन की खोज मैं कर चुका था। ऐसे में हिम्मत हारनी तो बेकार थी। मैने घर में गमलों पर नजर डाली, जिनकी मिट्टी भी खाद न पड़ने के कारण सख्त हो गई थी। इनमें से एक गमले की मुझे बलि देनी थी। एक गमला मुझे कुछ टूटा नजर आया। बस मेरा काम बन गया। मैं खुरपी लेकर एक मुट्ठी जौ बोने के लिए मिट्टी निकालकर प्लास्टिक के बर्तन में डालने में जुट गया। साथ ही यह सोचने लगा कि हम लोग जाने-अनजाने में इस मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं। भले ही हम अपनी मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं, लेकिन ये मिट्टी हमारा साथ नहीं छोड़ती। यदि ये मिट्टी न हो तो इंसान का क्या होगा। वह इस मिट्टी में भी कैसे मिलेगा।
भानु बंगवाल