दिन था रविवार। सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं और स्कूल व कॉलेज में भी छुट्टी रहती है। प्राइवेट संस्थानों में जहां रविवार को भी काम चलता है, वहां ऊंचे पदों पर बैठे लोगों की भी इस दिन ज्यादातर छुट्टी रहती है। छुट्टी के दिन ही विश्वविद्यालय ने छात्रों को वाइवा (साक्षात्कार) के लिए बुलाया। समय सुबह के दस बजे से था। पत्रकारिता से एमए कर रहे छात्र वाइवा के लिए देहरादून स्थित विश्वविद्यालय के कैंप कार्यालय पहुंच गए। वहां करीब सौ से ज्यादा छात्र थे। ओपन विश्वविद्यालय के इन छात्रों में ऐसे भी लोग ज्यादा थे, जो कहीं न कहीं नौकरी कर रहे थे। उनकी उम्र चालीस से ज्यादा थी। इनमें कई पत्रकार भी थे, जो लंबे समय से पत्रकारिता मे हाथ मांज रहे हैं। शौकिया कहो या फिर कोई और प्रायोजन, वे भी एमए के स्टूडेंट थे।
ये वाइवा भी वाकई कमाल का होता है। पता नहीं पूछने वाला क्या पूछे बैठे। परीक्षक के कक्ष में सबसे पहले जाने का कोई साहस नहीं करता। जब एकआध लोग वाइवा देकर बाहर निकलते हैं, तो उनसे अन्य लोग पूछने लगते हैं कि भीतर क्या सवाल किए गए। फिर वही सवालों के जवाब रटने लगते हैं। वाइवा के लिए एक सम्मानित पत्र के संपादक महोदय को बुलाया गया था। पत्रकार मित्र आपस में बात कर रहे थे कि क्या पूछा जाएगा। वैसे अमूमन सवाल यही पूछा जाता है कि आप पत्रकारिता से क्यों एमए कर रहे हो। एक ने कहा कि यदि मेरे से पूछा कि तो मैं जवाब दूंगा कि महोदय आपसे दो बार नौकरी मांगने गया था। आपने मुझे सलेक्ट नहीं किया। मैने सोचा कि शायद आगे पढ़ लूं तो आप मुझे अपने सम्मानित पत्र में नौकरी का आमंत्रण दोगे। आपसी ठिठोली भले ही सभी कर रहे थे, लेकिन भीतर से वाइवा का डर हरएक के चेहरे पर भी झलक रहा था। पहले दूर-दराज से पहुंचे लोगों का नंबर आया। कारण था कि उनका वाइवा पहले निपटा लिया जाए, क्योंकि उन्हें वापस भी जाना होगा। ऐसे में चमोली, टिहरी, उत्तरकाशी व पौड़ी जनपद के लोगों को पहले बुलाया गया। तभी वेटिंग रूम में जहां सभी छात्र बैठे हुए थे, वहां एक महिला काफी परेशान दिखी। उसका कहना था कि वह छत्तीसगढ़ से आई है। सभी ने उसे अन्य से पहले परीक्षक के कक्ष में जाने को कहा। इस पर उस युवती ने अपने कंधे पर बैग लटकाया। बैग देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बैग में दो टेग लगे थे, जैसे नई चीज को खरीदते वक्त लगे होते हैं। इन टेग को हटाया नहीं गया था। उसे देख मुझे अमिताभ बच्चन की एक फिल्म का गाना याद आ गया, जिसमें अमिताभ के चश्में पर रेट का टेग लगा होता है। खैर पास से देखने पर पता चला कि टेग पर एयर इंडिया लिखा है। इस पर मुझे और आश्चर्य हुआ कि यह महिला हवाई जहाज से वाइवा देने आई। मन में तरह-तरह के विचार थे। उससे ही पूछने की इच्छा हुई, लेकिन तब तक वह परीक्षक के कक्ष में जा चुकी थी। जब वह बाहर आई और जाने लगी, तब मैने उससे सवाल किया कि भीतर क्या पूछा गया। इस पर उसने बताया कि व्यवहारिक सवाल ही पूछे गए। मैने पूछा कि उसकी ट्रेन छत्तीसगढ़ से सीधे उत्तराखंड के देहरादून में ही क्यों रुकी। क्या बीच में कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं था जहां से वह पढ़ाई कर सकती थी। उसने बताया कि उसने हरिद्वार में पत्रकारिता से बीए किया। छत्तीसगढ़ में सरकारी नौकरी लग गई। वहां एक साल में एमए की सुविधा नहीं थी। पढ़ाई के लिए उसे यही विश्वविद्यालय सुविधाजनक लगा। वाइवा की जानकारी अचानक लगी तो वह हवाई जहाज से यहां आई। कितना डर था उसे कि कहीं वाइवा न छूट जाए। इसी जल्दबाजी में वह बैग से एयर इंडिया का टेग भी नहीं हटा सकी। या हो सकता है कि उसने जानबूझकर न हटाया हो। एक पत्रकार इसलिए डरे हुए थे कि उन्होंने पहले इसी परीक्षक के अधीन काम किया था। उनसे बनती नहीं थी, तो नौकरी बदल दी थी। जब वह वाइवा निपटाकर वापस आए तो खुश दिखे।वहीं हर व्यक्ति को यह डर कि परीक्षक क्या पूछे बैठे। जिनका वाइवा निपट जाता, उनसे पूछे गए सवाल पर सभी तोते की तरह रट लगा रहे थे।
नौकरी से साथ पढ़ाई वाले काफी थे। एक वरिष्ठ पत्रकार सेवानिवृत्त होने के बावजूद भी एमए कर रहे थे। वहीं जिस समाचार पत्र के एक संपादक परक्षक थे, तो उसी पत्र के दूसरी यूनिट के संपादक भी वाइवा देने पहुंचे हुए थे। एक महाशय तो हरिद्वार में एक विभाग में उच्च पद पर तैनात हैं। उन्होंने करीब सात विषयों पर एमए किया। कई किताबें लिखी। पीएचडी भी की। अब पत्रकारिता पढ़ रहे हैं। प्रमाण के तौर पर वह एयरबैग में भरकर अपनी पुस्तकें लेकर वाइवा देने पहुंचे। यहां मुझे समझ आया कि पढ़ाई की वाकई में कोई उम्र नहीं होती। वाइवा में पांच मिनट लगने थे, लेकिन अपना नंबर आने में सभी को देरी लग रही थी। कई सुबह दस बजे से पहुंचे और नंबर दोपहर ढाई बजे भी नहीं आया। छुटी के दिन मेरे भी पांच घंटे इस वाइवा के चक्कर में बीत गए। जब नंबर आया तो मुझसे भी यही सवाल पूछा गया कि आप पत्रकारिता से एमए क्यों कर रहे हो। मैने जवाब दिया कि बीस साल से ज्यादा समय पत्रकारिता में हो गया। अब अपने ज्ञान को कागजों में लाना चाहता हूं।
भानु बंगवाल
ये वाइवा भी वाकई कमाल का होता है। पता नहीं पूछने वाला क्या पूछे बैठे। परीक्षक के कक्ष में सबसे पहले जाने का कोई साहस नहीं करता। जब एकआध लोग वाइवा देकर बाहर निकलते हैं, तो उनसे अन्य लोग पूछने लगते हैं कि भीतर क्या सवाल किए गए। फिर वही सवालों के जवाब रटने लगते हैं। वाइवा के लिए एक सम्मानित पत्र के संपादक महोदय को बुलाया गया था। पत्रकार मित्र आपस में बात कर रहे थे कि क्या पूछा जाएगा। वैसे अमूमन सवाल यही पूछा जाता है कि आप पत्रकारिता से क्यों एमए कर रहे हो। एक ने कहा कि यदि मेरे से पूछा कि तो मैं जवाब दूंगा कि महोदय आपसे दो बार नौकरी मांगने गया था। आपने मुझे सलेक्ट नहीं किया। मैने सोचा कि शायद आगे पढ़ लूं तो आप मुझे अपने सम्मानित पत्र में नौकरी का आमंत्रण दोगे। आपसी ठिठोली भले ही सभी कर रहे थे, लेकिन भीतर से वाइवा का डर हरएक के चेहरे पर भी झलक रहा था। पहले दूर-दराज से पहुंचे लोगों का नंबर आया। कारण था कि उनका वाइवा पहले निपटा लिया जाए, क्योंकि उन्हें वापस भी जाना होगा। ऐसे में चमोली, टिहरी, उत्तरकाशी व पौड़ी जनपद के लोगों को पहले बुलाया गया। तभी वेटिंग रूम में जहां सभी छात्र बैठे हुए थे, वहां एक महिला काफी परेशान दिखी। उसका कहना था कि वह छत्तीसगढ़ से आई है। सभी ने उसे अन्य से पहले परीक्षक के कक्ष में जाने को कहा। इस पर उस युवती ने अपने कंधे पर बैग लटकाया। बैग देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बैग में दो टेग लगे थे, जैसे नई चीज को खरीदते वक्त लगे होते हैं। इन टेग को हटाया नहीं गया था। उसे देख मुझे अमिताभ बच्चन की एक फिल्म का गाना याद आ गया, जिसमें अमिताभ के चश्में पर रेट का टेग लगा होता है। खैर पास से देखने पर पता चला कि टेग पर एयर इंडिया लिखा है। इस पर मुझे और आश्चर्य हुआ कि यह महिला हवाई जहाज से वाइवा देने आई। मन में तरह-तरह के विचार थे। उससे ही पूछने की इच्छा हुई, लेकिन तब तक वह परीक्षक के कक्ष में जा चुकी थी। जब वह बाहर आई और जाने लगी, तब मैने उससे सवाल किया कि भीतर क्या पूछा गया। इस पर उसने बताया कि व्यवहारिक सवाल ही पूछे गए। मैने पूछा कि उसकी ट्रेन छत्तीसगढ़ से सीधे उत्तराखंड के देहरादून में ही क्यों रुकी। क्या बीच में कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं था जहां से वह पढ़ाई कर सकती थी। उसने बताया कि उसने हरिद्वार में पत्रकारिता से बीए किया। छत्तीसगढ़ में सरकारी नौकरी लग गई। वहां एक साल में एमए की सुविधा नहीं थी। पढ़ाई के लिए उसे यही विश्वविद्यालय सुविधाजनक लगा। वाइवा की जानकारी अचानक लगी तो वह हवाई जहाज से यहां आई। कितना डर था उसे कि कहीं वाइवा न छूट जाए। इसी जल्दबाजी में वह बैग से एयर इंडिया का टेग भी नहीं हटा सकी। या हो सकता है कि उसने जानबूझकर न हटाया हो। एक पत्रकार इसलिए डरे हुए थे कि उन्होंने पहले इसी परीक्षक के अधीन काम किया था। उनसे बनती नहीं थी, तो नौकरी बदल दी थी। जब वह वाइवा निपटाकर वापस आए तो खुश दिखे।वहीं हर व्यक्ति को यह डर कि परीक्षक क्या पूछे बैठे। जिनका वाइवा निपट जाता, उनसे पूछे गए सवाल पर सभी तोते की तरह रट लगा रहे थे।
नौकरी से साथ पढ़ाई वाले काफी थे। एक वरिष्ठ पत्रकार सेवानिवृत्त होने के बावजूद भी एमए कर रहे थे। वहीं जिस समाचार पत्र के एक संपादक परक्षक थे, तो उसी पत्र के दूसरी यूनिट के संपादक भी वाइवा देने पहुंचे हुए थे। एक महाशय तो हरिद्वार में एक विभाग में उच्च पद पर तैनात हैं। उन्होंने करीब सात विषयों पर एमए किया। कई किताबें लिखी। पीएचडी भी की। अब पत्रकारिता पढ़ रहे हैं। प्रमाण के तौर पर वह एयरबैग में भरकर अपनी पुस्तकें लेकर वाइवा देने पहुंचे। यहां मुझे समझ आया कि पढ़ाई की वाकई में कोई उम्र नहीं होती। वाइवा में पांच मिनट लगने थे, लेकिन अपना नंबर आने में सभी को देरी लग रही थी। कई सुबह दस बजे से पहुंचे और नंबर दोपहर ढाई बजे भी नहीं आया। छुटी के दिन मेरे भी पांच घंटे इस वाइवा के चक्कर में बीत गए। जब नंबर आया तो मुझसे भी यही सवाल पूछा गया कि आप पत्रकारिता से एमए क्यों कर रहे हो। मैने जवाब दिया कि बीस साल से ज्यादा समय पत्रकारिता में हो गया। अब अपने ज्ञान को कागजों में लाना चाहता हूं।
भानु बंगवाल